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राजस्थान : माहवारी के लिए सुविधा की सरकारी योजनाओं से वंचित हैं लड़कियां

माहवारी से जुड़ी चुनौतियाँ केवल व्यक्तिगत समस्या नहीं हैं बल्कि यह सीधे शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक समानता से जुड़ा मुद्दा है। जब लड़कियाँ पैड की कमी के कारण पढ़ाई छोड़ने पर मजबूर होती हैं, तो यह केवल उनका नुकसान नहीं बल्कि पूरे समाज का नुकसान है। सरकार और समाज यदि मिलकर सुनिश्चित करें कि हर गाँव में पैड और स्वच्छता सुविधाएँ समय पर उपलब्ध हों, तो लाखों लड़कियों का जीवन आसान हो सकता है

गाँव की गलियों में खेलती हुईं किशोरियाँ जब किशोरावस्था की ओर कदम रखती हैं, तो उनके जीवन में कई नई चुनौतियाँ आती हैं। इनमें सबसे बड़ी चुनौती है माहवारी। हालांकि यह एक प्राकृतिक प्रक्रिया है, मगर ग्रामीण इलाकों में रहने वाली कई लड़कियों के लिए यह दर्द और परेशानी से भरा अनुभव बन जाता है। इसका कारण है स्वच्छता की अभाव, सेनेटरी पैड्स की अनुपलब्धता, उसका महंगा होना, और इस विषय पर खुले संवाद का कमी। अक्सर जब कोई लड़की माहवारी से गुजर रही होती है और उसके पास पैड उपलब्ध नहीं होते, तो उसे स्कूल छोड़ना पड़ता है, घर में छिपकर रहना पड़ता है और कई बार तकलीफें सहते हुए खेतों या घरेलू कामों में हाथ बंटाना पड़ता है।

राष्ट्रीय स्तर पर आँकड़े बताते हैं कि ग्रामीण भारत में अब भी बड़ी संख्या में महिलाएँ और किशोरियाँ माहवारी के दौरान कपड़े या अस्वच्छ विकल्पों का प्रयोग करती हैं। हालांकि पिछले कुछ वर्षों में महिलाओं और किशोरियों द्वारा पैड्स उपयोग करने का आंकड़ा लगभग 11 से 12 प्रतिशत से बढ़कर 45 प्रतिशत तक पहुँचा है। इसका मतलब है कि अब भी आधी से ज्यादा ग्रामीण महिलाएँ और किशोरियों तक पैड की पहुंच नहीं है और वह अब भी संक्रमण, दर्द तथा सामाजिक पाबंदियों से जूझ रही हैं।

राजस्थान में भी यही स्थिति है। राज्य सरकार ने भले ही 200 करोड़ रुपये के बजट से ‘उड़ान योजना’ और अन्य कार्यक्रमों के तहत आंगनवाड़ी केंद्रों और सरकारी स्कूलों के माध्यम से 1.15 करोड़ महिलाओं और किशोरियों को मुफ्त सेनेटरी पैड उपलब्ध कराने का लक्ष्य रखा है और इस लक्ष्य को पूरा करने का प्रयास भी कर रही है, मगर जमीनी हकीकत अलग है। कई गाँवों में पैड्स की सप्लाई रुक-रुक कर होती है और कई बार परिवारों को यह जानकारी ही नहीं होती कि उन्हें कहाँ से और कैसे पैड मिल सकते हैं।

आज भी यहां के कई गांवों की लड़कियाँ माहवारी के दौरान अक्सर पुराने और गंदे कपड़ों का सहारा लेती हैं। गीला कपड़ा, साफ करने और सुखाने की जगह न होना और कपड़े को छिपाकर रखने की मजबूरी उन्हें और भी असुरक्षित तथा संक्रमित बना देती है। बरसात के दिनों में यह कपड़ा अक्सर पूरी तरह सूख नहीं पाता और बदबू तथा संक्रमण की समस्या पैदा करता है। नतीजा यह होता है कि माहवारी लड़कियों के लिए केवल शारीरिक कष्ट ही नहीं बल्कि मानसिक तनाव भी बन जाती है। वे शर्म और डर की वजह से इस विषय पर बात करने से कतराती हैं। कई लड़कियाँ स्कूल जाना छोड़ देती हैं क्योंकि वहाँ शौचालय की व्यवस्था नहीं होती या उन्हें डर रहता है कि कहीं दाग दिख न जाए।

बीकानेर के लूनकरणसर तहसील के कई गाँवों में स्कूल दूर होने के कारण वहां तक पहुँचने के लिए लड़कियों को पैदल चलना पड़ता है। जब माहवारी के दौरान उनके पास पैड नहीं होते, तो यह यात्रा और भी कठिन हो जाती है। दर्द और असुविधा से गुजरते हुए स्कूल पहुँचना आसान नहीं होता। कई बार यही मुश्किलें उन्हें शिक्षा से दूर कर देती हैं। अक्सर रिपोर्टों में भी सामने आया है कि राजस्थान और झारखंड जैसे राज्यों के ग्रामीण इलाकों में किशोरियों को पर्याप्त पैड और सुविधाएँ नहीं मिलने के कारण उनकी पढ़ाई और स्वास्थ्य दोनों प्रभावित होते हैं।

इस समस्या का आर्थिक पहलू भी गंभीर है। पैड महँगे हैं और ग्रामीण परिवारों की आय इतनी नहीं होती कि वे हर महीने घर की महिलाओं और किशोरियों के लिए पैड खरीद सकें। जहाँ योजनाओं के तहत मुफ्त या सस्ते पैड उपलब्ध कराए जाने का प्रावधान है, वहाँ भी वितरण की अनियमितता और गुणवत्ता की कमी लड़कियों की परेशानियाँ बढ़ा देती हैं। परिणामस्वरूप वे पुराने कपड़े और अन्य अस्वच्छ साधनों पर निर्भर हो जाती हैं। इससे संक्रमण और बीमारियों का खतरा और बढ़ जाता है। माहवारी को लेकर समाज में मौजूद चुप्पी और शर्मिंदगी लड़कियों को और अकेला कर देती है। वे इस विषय पर माँ से या सहेलियों से भी बात करने में संकोच करती हैं। आज भी हमारे ग्रामीण क्षेत्रों में माहवारी को छिपाने की चीज माना जाता है, जिससे लड़कियों के भीतर अपराधबोध और डर बैठ जाता है। यही कारण है कि वे न केवल शारीरिक बल्कि मानसिक स्तर पर भी दबाव महसूस करती हैं।

समस्या का समाधान केवल पैड उपलब्ध कराने तक सीमित नहीं है। जरूरी है कि गाँवों में महिलाओं और किशोरियों के बीच जागरूकता अभियान चलाए जाएँ, ताकि किशोरियाँ और उनके परिवार समझ सकें कि माहवारी स्वाभाविक है और इसकी स्वच्छता पर ध्यान देना स्वास्थ्य के लिए प्राथमिकता है। स्कूलों में माहवारी शिक्षा का हिस्सा बने और शौचालय व पानी की सुविधाएँ बढ़ाई जाएँ। आंगनवाड़ी केंद्रों पर नियमित पैड उपलब्ध हों और उनकी गुणवत्ता की निगरानी की जाए। इसके लिए स्थानीय महिलाओं और स्वयं सहायता समूहों को इस काम में शामिल किया जा सकता है ताकि समुदाय स्तर पर बदलाव आ सके।

माहवारी से जुड़ी चुनौतियाँ केवल व्यक्तिगत समस्या नहीं हैं बल्कि यह सीधे शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक समानता से जुड़ा मुद्दा है। जब लड़कियाँ पैड की कमी के कारण पढ़ाई छोड़ने पर मजबूर होती हैं, तो यह केवल उनका नुकसान नहीं बल्कि पूरे समाज का नुकसान है। सरकार और समाज यदि मिलकर सुनिश्चित करें कि हर गाँव में पैड और स्वच्छता सुविधाएँ समय पर उपलब्ध हों, तो लाखों लड़कियों का जीवन आसान हो सकता है। यह केवल माहवारी के दौरान उनका साथ देने की बात नहीं है बल्कि उन्हें शिक्षा और आत्मसम्मान के साथ आगे बढ़ने का अवसर देने की बात भी है। अब समय आ गया है कि इस सुविधा (पैड्स) को हर किशोरी और महिला तक पहुंचाया जाए।

सरिता
सरिता
लेखिका लूणकरणसर, राजस्थान में रहती हैं।

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