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नामदेव ढसाल टैगोर से ज्यादा प्रासंगिक और बड़े कवि हैं!

विश्व कवि नामदेव ढसाल के जन्मदिन पर विशेष लेख गत वर्ष 15 जनवरी को दिवंगत होने वाले विश्वकवि नामदेव ढसाल का जन्म 15 फरवरी, 1949 को महाराष्ट्र के पुणे के निकट हुआ था। दलित आन्दोलनों के इतिहास में डॉ.आंबेडकर और कांशीराम के बीच की कड़ी ढसाल की पहचान वैसे तो मुख्य रूप से कवि के […]

विश्व कवि नामदेव ढसाल के जन्मदिन पर विशेष लेख

गत वर्ष 15 जनवरी को दिवंगत होने वाले विश्वकवि नामदेव ढसाल का जन्म 15 फरवरी, 1949 को महाराष्ट्र के पुणे के निकट हुआ था। दलित आन्दोलनों के इतिहास में डॉ.आंबेडकर और कांशीराम के बीच की कड़ी ढसाल की पहचान वैसे तो मुख्य रूप से कवि के रूप में रही है पर, वह एक बड़े चिन्तक, पेंटर, असाधारण संगठनकर्ता और दूरदर्शी राजनेता सहित अन्य कई गुणों के स्वामी थे। अब जहां तक कविता का सवाल है वे नोबेल विजेता कवि टैगोर से भी बड़े कवि थे। इस मामले में मुझे 2012 में दिल्ली के 20 वें अंतर्राष्ट्रीय पुस्तक मेले में चर्चित कवि विष्णु खरे की उस टिप्पणी की बार-बार याद आती है जो उन्होंने उनकी हिंदी में पहली अनूदित पुस्तक आक्रोश का कोरस का विमोचन करते हुए कही थी। संयोग से उस विमोचन समारोह में मैं भी उपस्थित था। वैसे तो मैंने एक बड़े कवि के रूप में  उनके विषय बहुत कुछ सुन रखा था, किन्तु खरे साहब ने जो सत्योद्घाटन किया, वह चौकाने वाला था।

उन्होंने कहा कहा था, पिछले दिनों कोलकाता पुस्तक मेले में आयोजित लेखकों की एक संगोष्ठी में तमाम लोगों ने ही एक स्वर में नोबेल पुरस्कार विजेता रवीन्द्रनाथ ठाकुर को भारत के सर्वश्रेष्ठ कवि के रूप में स्वीकृति प्रदान की, किन्तु मेरा मानना है कि ऐसी मान्यताएं ध्वस्त होनी चाहिए। आज की तारीख में रवीन्द्रनाथ ठाकुर पूरी तरह से अप्रासंगिक हो चुके हैं। आज भारत जिन समस्यायों से जूझ रहा है, उसका कोई भी समाधान उनकी कविताओं में नहीं है। अगर कविता का लक्ष्य मानव-जाति की समस्यायों का समाधान ढूँढना है तो मेरा दावा है कि ढसाल, टैगोर से ज्यादा प्रासंगिक और बड़े कवि हैं।  उन्होंने आगे कहा था रवीन्द्रनाथ  ठाकुर जैसे लोग हमारे लिए बोझ हैं जिसे उतारने का काम ढसाल ने किया है। अंतर्राष्ट्रीय कविता जगत में भारतीय कविता के विजिटिंग कार्ड का नाम नामदेव ढसाल है। उन्होंने कविता की संस्कृति को बदला है; कविता को परंपरा से मुक्त किया एवं उसके आभिजात्यपन को तोड़ा है। संभ्रांत कविता मर चुकी है और इसे मारने का काम ढसाल ने किया है। आज हिंदी के अधिकांश सवर्ण कवि दलित कविता कर रहे हैं तो इसका श्रेय नामदेव ढसाल को जाता है। ढसाल ने महाराष्ट्र के साथ देश की राजनीति को बदल कर रख दिया है, ऐसा काम करनेवाला भारत में दूसरा कोई कवि पैदा नहीं हुआ। नामदेव ढसाल किसी व्यक्ति नहीं, आंदोलन का नाम है। अगर देश में पाँच-छः ढसाल पैदा हो जाएँ तो इसका चेहरा ही बदल जाय।

[bs-quote quote=”अब से चार दशक 9 जुलाई 1972 को नामदेव  ढसाल ने अपने साथी लेखकों के साथ मिलकर दलित पैंथर जैसे विप्लवी संगठन की स्थापना की। इस संगठन ने डॉ.आंबेडकर के बाद मान-अपमान के बोध से शून्य दलित समुदाय को नए सिरे से जगाया था। इससे जुड़े प्रगतिशील विचारधारा के दलित युवकों ने तथाकथित आंबेडकरवादी नेताओं की स्वार्थपरक नीतियों तथा दोहरे चरित्र से निराश हो चुके दलितों में नया जोश भर दिया जिसके फलस्वरूप उनको अपनी ताकत का अहसास हुआ तथा उनमें  ईंट का जवाब पत्थर से देने की मानसिकता पैदा हुई।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

क्या कोई दलित कवि नोबेल विजेता टैगोर से बड़ा और ज्यादा प्रासंगिक हो सकता है?

बहरहाल नोबेल विजेता की खूबियों से लैस ढसाल एक विशेष नजरिये से अपने किस्म के इकलौते कवि रहे। दुनिया में एक से एक बड़े लेखक, समाज सुधारक, राजा-महाराजा, कलाकार पैदा हुए किन्तु जिन प्रतिकूल परिस्थितियों को जय कर ढसाल साहब ने खुद को एक विश्व स्तरीय कवि,एक्टिविस्ट के रूप में स्थापित किया, वह बेनजीर है। मानव जाति के समग्र इतिहास में किसी भी विश्वस्तरीय कवि ने दलित पैंथर जैसा मिलिटेंट आर्गनाइजेशन नहीं बनाया। दुनिया के दूसरे बड़े लेखक-कवियों ने सामान्यतया सामाजिक परिवर्तन के लिए पहले से स्थापित राजनीतिक/सामाजिक संगठनों से जुड़कर बौद्धिक अवदान दिया। किन्तु किसी ने भी उनकी तरह उग्र संगठन बनाने की जोखिम नहीं लिया। दलित पैंथर के पीछे कवि ढसाल की भूमिका का दूसरे विश्व-कवियों से तुलना करने पर मेरी बात से किसी का असहमत होना कठिन है। इसके लिए आपका ध्यान दलित पैंथर की खूबियों की ओर आकर्षित करना चाहूँगा।

अब से चार दशक 9 जुलाई 1972 को नामदेव  ढसाल ने अपने साथी लेखकों के साथ मिलकर दलित पैंथर जैसे विप्लवी संगठन की स्थापना की। इस संगठन ने डॉ.आंबेडकर के बाद मान-अपमान के बोध से शून्य दलित समुदाय को नए सिरे से जगाया था। इससे जुड़े प्रगतिशील विचारधारा के दलित युवकों ने तथाकथित आंबेडकरवादी नेताओं की स्वार्थपरक नीतियों तथा दोहरे चरित्र से निराश हो चुके दलितों में नया जोश भर दिया जिसके फलस्वरूप उनको अपनी ताकत का अहसास हुआ तथा उनमें  ईंट का जवाब पत्थर से देने की मानसिकता पैदा हुई। इसकी स्थापना के एक महीने बाद ही ढसाल ने यह घोषणा कर कि यदि विधान परिषद् या संसद सामान्य लोगों की समस्यायों को हल नहीं करेगी तो पैंथर उन्हें जलाकर राख कर देंगे, शासक दलों में हडकंप मचा दिया।

दलित पैंथर के निर्माण के पृष्ठ में अमेरिका के उस ब्लैक पैंथर आन्दोलन से मिली प्रेरणा थी जो अश्वेतों को उनके मानवीय, सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक अधिकार दिलाने के लिए 1966 से ही संघर्षरत था। उस आन्दोलन का नामदेव ढसाल और उनके क्रन्तिकारी युवकों पर इतना असर पड़ा कि उन्होंने ब्लैक पैंथर की तर्ज़ पर दलित मुक्ति के प्रति संकल्पित अपने संगठन का नाम ‘दलित पैंथर’ रख दिया। जहाँ तक विचारधारा का सवाल है पैन्थरों ने डॉ.आंबेडकर की विचारधारा को न सिर्फ अपनाया बल्कि उसे विकसित किया तथा उसी को अपने घोषणापत्र में प्रकाशित भी किया जिसके अनुसार संगठन का निर्माण हुआ। यद्यपि यह संगठन अपने उत्कर्ष पर नहीं पहुच पाया तथापि इसकी उपलब्धियां गर्व करने लायक रहीं। बकौल चर्चित मराठी दलित चिन्तक आनंद तेलतुम्बडे ,’इसने देश में स्थापित व्यवस्था को हिलाकर रख दिया और संक्षेप में बताया कि सताए हुए आदमी का आक्रोश क्या हो सकता है। इसने दलित राजनीति को एक मूल्यवान अंतर्दृष्टि प्रदान की जोकि पहले बुरी तरह छूटी थी। अपने घोषणापत्र अमल करते हुए पैन्थरों ने दलित राजनैतिक मुकाम की खातिर परिवर्तनकामी अर्थो में नई जमीन तोड़ी.उन्होंने दलितों को सर्वहारा परिवर्तनकामी वेग की पहचान प्रदान की तथा उनके संघर्ष को दुनिया के अन्य दमित लोगों के संघर्ष से जोड़ दिया.’बहरहाल कोई चाहे तो दलित पैंथर की इन उपलब्धियों को ख़ारिज कर सकता है किन्तु दलित साहित्य के विस्तार में इसकी उपलब्धियों को नज़रंदाज़ करना किसी के लिए भी संभव नहीं है।

[bs-quote quote=”रविन्द्रनाथ जहाँ प्रकृति की गोंद  में बैठकर निश्चिन्त भाव से कविता सृजन का माहौल पाए, वहीँ बूचडखाने के एक सामान्य कर्मचारी की संतान व स्लम-एरिया में पले-बढ़े ढसाल को छोटी-मोटी नौकरियां करते हुए कविता कर्म जारी रखना पड़ा। विपरीत परिवेश ने दोनों को विपरीत धारा का कवि बना दिया। अनुकूल परिवेश में पले-बढे  रबींद्रनाथ जहाँ प्रकृति के सच्चे प्रेमी के रूप में अवतरित  साहित्य के कलापक्ष को सर्वोच्च उच्चता प्रदान कर भावी पीढ़ी के हिन्दू साहित्यकारों के आदर्श बने, वहीँ  दलित अपसंस्कृति तथा महानगरीय अधोलोक ने ढसाल को एक ऐसे विद्रोही कवि के कवि के रूप जन्म दिया जिसने बेख़ौफ़ होकर अभिजनों की भाषा और व्यवस्था पर शक्तिशाली प्रहार किया।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

दलित पैंथर और दलित साहित्य एक ही सिक्के के दो पहलूँ हैं.इसकी स्थापना करनेवाले नेता पहले से ही साहित्य  से जुड़े हुए थे। दलित पैंथर की स्थापना के बाद उनका साहित्य शिखर पर पहुँच गया और देखते ही देखते मराठी साहित्य के बराबर स्तर प्राप्त कर लिया। परवर्तीकाल में डॉ.आंबेडकर की विचारधारा पर आधारित पैन्थरों का मराठी दलित साहित्य हिंदी पट्टी सहित अन्य इलाकों को भी अपने आगोश में ले लिया.दलित साहित्य को इस बुलंदी पर पहुचाने का सर्वाधिक श्रेय ढसाल साहब को जाता है। गोल पीठा पी बी रोड’ और ‘कमाठीपुरा’ के नरक में रहकर ढसाल साहब ने जीवन के जिस श्याम पक्ष को लावा की तरह तपती कविता में उकेरा है उसकी विशेषताओं का वर्णन करने की कूवत मुझमें तो नहीं है।

 रवींद्रनाथ टैगोर और ढसाल में सम्यतायें और विपरीतताएँ

जहाँ तक साम्यताओं का सवाल है, इनमें कुछ साम्यताएं रहीं। जिस तरह साहित्य की विविध विधाओं पर मास्टरी हासिल करने के बावजूद रवीन्द्रनाथ टैगोरे की पहचान मुख्यतः कवि के रूप में रही, वैसे ही बड़ी मात्रा में वैचारिक लेखन और उपन्यास रचना करने के बावजूद ढसाल की पहचान भी एक कवि के रूप में रही। एक साम्यता इनमें यह भी रही कि बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय के साहित्य सम्राट के रूप में स्थापित होने के बावजूद रबीन्द्रनाथ ऐसे कवि रहे, जिन्होंने नोबेल पुरस्कार जीत कर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ‘हिन्दू साहित्य‘ का मान  बढ़ाया। ठीक उन्हीं की तरह ढसाल ऐसे पहले शीर्षस्थ दलित साहित्यकार हुए जिन्होंने विश्वस्तरीयख्याति अर्जित की, जिनकी चर्चा नेबल विजेता वी एस. नायपाल से लेकर कई विदेशी लेखकों तक ने की है। इन साम्यताओं को छोड़ दिया जाय तो शेष मामलों में स्थिति उलट ही रही। रविन्द्रनाथ जहाँ प्रकृति की गोंद  में बैठकर निश्चिन्त भाव से कविता सृजन का माहौल पाए, वहीँ बूचडखाने के एक सामान्य कर्मचारी की संतान व स्लम-एरिया में पले-बढ़े ढसाल को छोटी-मोटी नौकरियां करते हुए कविता कर्म जारी रखना पड़ा। विपरीत परिवेश ने दोनों को विपरीत धारा का कवि बना दिया। अनुकूल परिवेश में पले-बढे  रबींद्रनाथ जहाँ प्रकृति के सच्चे प्रेमी के रूप में अवतरित  साहित्य के कलापक्ष को सर्वोच्च उच्चता प्रदान कर भावी पीढ़ी के हिन्दू साहित्यकारों के आदर्श बने, वहीँ  दलित अपसंस्कृति तथा महानगरीय अधोलोक ने ढसाल को एक ऐसे विद्रोही कवि के कवि के रूप जन्म दिया जिसने बेख़ौफ़ होकर अभिजनों की भाषा और व्यवस्था पर शक्तिशाली प्रहार किया।

उनकी काव्यात्मक उग्रता ने परवर्ती वर्षों में विस्तार पाने वाले दलित साहित्य पर ऐसा प्रभाव डाला, जिसकी चपेट में आने से कोई भी दलित साहित्यकार खुद को रोक नहीं पाया। विपरीत धारा के इन दोनों श्रेष्ठतम कवियों में एक खास पार्थक्य यह भी रहा कि टैगोर की कविताये जहाँ वेद-उपनिषदों से प्रभावित रह कर मोक्षकामियों के लिए अत्यंत ग्राह्य बनीं, वहीँ दलित कवि पर मानव जाति की समस्यायों का सर्वाधिक प्रभावी समाधान देने वाले मार्क्स और आंबेडकर प्रभाव रहा, जिनका इहलौकिक समस्यायों से जूझते लोगों ने सोत्साह वरण किया। यही कारण है ढसाल की कवितायें किसी भी दलित कवि से ज्यादा प्रासंगिक नज़र आती हैं। एक बड़ा अंतर दोनों में यह भी रहा कि कवि सम्राट ने नैसर्गिक वातावरण में ‘शान्ति निकेतन’ की स्थापना कर जहाँ प्रकृति और नयी शिक्षा प्रणाली के प्रति अपने लगाव को मूर्त रूप दिया, वहीँ  ढसाल ने अपनी कविता संसार को जमीन पर उतारने के लिए अपने लेखक मित्रों के साथ मिलकर दलित पैंथर जैसे मिलिटेंट संगठन की स्थापना किया, जिसने महाराष्ट्र ही नहीं, सम्पूर्ण भारत की राजनीति को प्रभावित किया।

दुसाध बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं और कैसे हो संविधान के उद्देश्यों की पूर्ति जैसी चर्चित पुस्तक के लेखक हैं।

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