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पंचौ! अगर आप सभे हमका विजयी घोषित कर देब्या तो बिरहा हार जाई

माटी की सोंधी महक में ही समाहित होती है लोक की आत्मा, जिसकी अनुभूति के लिए न किसी विद्वता की आवश्यकता होती है, न ही किसी ढोंग, पाखंड अथवा दिखावे की। लोकसंस्कृति ही किसी देश की पहचान और उसकी विरासत होती है, जिसका सृजन वहाँ की श्रमजीवी जनता करती है। जहां श्रम है वहीं लोक […]

माटी की सोंधी महक में ही समाहित होती है लोक की आत्मा, जिसकी अनुभूति के लिए न किसी विद्वता की आवश्यकता होती है, न ही किसी ढोंग, पाखंड अथवा दिखावे की। लोकसंस्कृति ही किसी देश की पहचान और उसकी विरासत होती है, जिसका सृजन वहाँ की श्रमजीवी जनता करती है। जहां श्रम है वहीं लोक साधना, वहीं लोकगीत, वहीं लोक नृत्य और उसी माटी में जन्मते हैं लोकसाधक। आज बिरहा की लोकविधा अपनी जन्मस्थली पूर्वी उत्तर प्रदेश की सीमा को पार करके देश ही नहीं अपितु विदेश में भी अपनी पहचान स्थापित कर चुकी है। आज से डेढ़ सौ वर्ष पहले बिरहा के आदि गुरु बिहारी ने इस लोकप्रिय विधा की बुनियाद रखी। उन्होंने एक दिन एक टेक दो कड़ी की रचना करते हुए लिखा- हम पर रहम करो हरदम, महेश मस्तक गन्ध धरणं। इस कविता की यही दो कड़ी संभवतः बिरहा की प्रथम पंक्ति थी जो समय के साथ-साथ बुलंद होती गयी। आज बिरहा पंजाबी, भांगड़ा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश की रागिनी रसिया, बुन्देलखण्ड के आधार चैतन्य, बिरहा सहरसा, काशी अंचल के अहीरों में गाये जाने वाले भगैत गीत जैसे लोकछन्दों वाली गायकी की तरह अहीरों, जाटों, गुजरों, खेतिहर मजदूरों, शहर में दूध बेचने वाले दुधियों, लकड़हारों, चरवाहों, इक्का, ठेलावालों का लोकप्रिय हृदय गीत बन चुकी है। पूर्वांचल की यह लोकगायकी मनोरंजन के अलावा थकावट मिटाने के साथ ही एकरसता की ऊब मिटाने का उत्तम साधन है। उत्तरोत्तर विकास की ओर अग्रसर बिरहा दिनों-दिन सुसंस्कृत होकर शास्त्रीय रूप पाता जा रहा है। बिरहा गाने वालों में पुरुषों के साथ ही महिलाओं की दिनों-दिन बढ़ती संख्या इसकी लोकप्रियता और प्रसार का स्पष्ट प्रमाण है।

[bs-quote quote=”लोक गायकी की फसल जिन गायकों के श्रम और समर्पण से आज लहलहा रही है उनमें राम कैलाश जी का महत्वपूर्ण योगदान है। इनका जन्म इलाहाबाद जिले के हडिया तहसील में लमाही गांव में एक किसान परिवार में हुआ था। उनके पिताजी का नाम रघुवीर था। राम कैलाश अपने तीन भाइयों में सबसे छोटे थे। अल्पायु में ही पिताजी गुजर गए। काका महावीर ने इनकी परवरिश की और गायकी के गुण भी उन्होंने ही सिखलाया।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

लोक गायकी की फसल जिन गायकों के श्रम और समर्पण से आज लहलहा रही है उनमें राम कैलाश जी का महत्वपूर्ण योगदान है। इनका जन्म इलाहाबाद जिले के हडिया तहसील में लमाही गांव में एक किसान परिवार में हुआ था। उनके पिताजी का नाम रघुवीर था। राम कैलाश अपने तीन भाइयों में सबसे छोटे थे। अल्पायु में ही पिताजी गुजर गए। काका महावीर ने इनकी परवरिश की और गायकी के गुण भी उन्होंने ही सिखलाया। जब रात में वह अपने काका के पास सोते थे तो काका उनको  दुइकड़िया बिरहा और लोकगीत सिखाते थे। राम कैलाश जी अपने चाचा के सिखाए गए गीत को सुर के साथ गाते थे। जैसा कि  राम कैलाश जी खुद ही अपने गीत में इसका वर्णन करते हैं– अहिरउआ बिरहा सिखाए हो, गावा गावा मोर ललनवा… लोकपारखी काका महावीर को इनके अंदर छिपे एक महान गायक की पहचान हो गई। वह बालक राम कैलाश को गायकी के लिए प्रोत्साहित करने लगे और प्रारंभ हो गई एक महान लोकगायक की निर्माण प्रक्रिया।

राम कैलाश जी के नाती दिनेश यादव, जो कि खुद भी बहुत अच्छे बिरहा गायक हैं, एक दिन उनसे मेरी फोन पर बातचीत हुई। मैंने राम कैलाश जी के कृतित्व और व्यक्तित्व पर कुछ जानकारी चाही। उन्होंने मुझे कुछ बातें बतायीं, जिन्हें मैं यहाँ साझा करना जरूरी समझता हूँ। राम कैलाश जी के काका महावीर इलाहाबाद विश्वविद्यालय में नौकरी करते थे। उन्होंने सोचा कि भतीजा थोड़ा पढ़-लिख लेगा तो कोई छोटी-मोटी नौकरी पा जाएगा और गायकी भी अच्छे ढंग से सीख लेगा। यही सोच कर उन्होंने गाँव के प्राइमरी स्कूल में बालक कैलाश का नाम लिखवा दिया। वह साल भर स्कूल गए। वह पढ़ने में थोड़ा कमजोर थे। एक दिन मास्टर साहब ने उनसे एक सवाल पूछा। राम कैलाश जी बता ना सके।

मास्टर साहब ने उनको खूब मारा और उनका झोला भी फेंक दिया। राम कैलाश घर आए और अपने काका से रो-रो कर कहने लगे, काका, हम अब स्कूल ना जाबै। ताल में भैंस चरउबै। बिरहा गउबै। तभी से उन्होंने स्कूल छोड़ दिया और आगे नहीं पढ़ पाए। वह भैंस चराते, खड़ा बिरहा, निर्गुण, कजरी आदि गाया करते थे। एक दैनिक समाचार पत्र में मुझे उनका इंटरव्यू पढ़ने को मिला। अपने बचपन के संस्मरण को याद करते हुए राम कैलाश जी ने बताया था, बचपन में मैं आस-पास के गांवों में बिरहा सुनने चला जाता था। सुबह माई पूछती कि बचवा कौन बिरहा सुन्यौ?  मैं गाकर सुना देता था। माई मुझे एक आना देती थी। मेरे काका महावीर यादव ने भी मेरी गायकी को आगे बढ़ाने में बहुत महत्वपूर्ण योगदान दिया। वक्त के साथ-साथ उनकी गायकी में निखार आता गया और धीरे-धीरे, छोटे-मोटे कार्यक्रमों में अपनी प्रस्तुति भी देने लगे।

राम कैलाश जी बिरहा गाते हुए

एक दिन आकाशवाणी की टीम जसवां गांव में एक कार्यक्रम की रिकॉर्डिंग करने आई थी। कार्यक्रम अधिकारी को जानकारी हुई कि राम कैलाश जी भी बिरहा गाते हैं।  आकाशवाणी के पारखी अधिकारी ने वहीं पर उनकी स्वर परीक्षा ले ली , जिसमें राम कैलाश जी सफल रहे। उन्हें बतौर गायक कलाकार चुन लिया गया। कार्यक्रम अधिकारी ने उनको एक फॉर्म भरने के लिए कहा। उस फार्म में गायक कलाकार को अपने गुरु घराने का नाम देना होता था।  मगर वह तो अभी तक किसी को अपना गुरु बनाया ही नहीं था। इस समस्या के हल के लिए वह जौनपुर के सवैया गांव गए, जहां उस समय के प्रसिद्ध गायक रामहित जी का निवास था। मगर वहाँ पहुंचने पर मालूम हुआ कि 5-6 दिन पहले ही गुरुजी की मृत्यु हो चुकी थी। उनके परिवार वालों ने उनको 10-15 पन्ने ढूढ़ कर दिए, जिसमें गुरु रामहित द्वारा कुछ गाने लिखे गए थे। उन्हीं पन्नों को गुरु दीक्षा समझ कर उन्होंने अपने सिर माथे लगाया। उसी दिन से रामहित जी को अपना गुरु मान लिया और आकाशवाणी के आवेदन फार्म में गुरु के कॉलम में राम हित का नाम भर दिया।

[bs-quote quote=”पंचायत घर कार्यक्रम में राम कैलाश का बिरहा जिस दिन प्रसारित होता, रेडियो के इर्द-गिर्द गाँव के बीसों लोग बैठ जाते थे, उनके लोकगीत को सुनने के लिए। सन् 1984 में जब अमिताभ बच्चन इलाहाबाद के सांसद बने तब उन्होंने उत्तर मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक कला केंद्र की स्थापना की। इलाहाबाद लोक संस्कृति का केंद्र बन गया। राम कैलाश यादव की धाक कला केंद्र में भी जम गयी।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

उस वक्त आकाशवाणी अपने स्वर्ण युग से गुजर रही थी। पंचायत घर कार्यक्रम में राम कैलाश का बिरहा जिस दिन प्रसारित होता, रेडियो के इर्द-गिर्द गाँव के बीसों लोग बैठ जाते थे, उनके लोकगीत को सुनने के लिए। सन् 1984 में जब अमिताभ बच्चन इलाहाबाद के सांसद बने तब उन्होंने उत्तर मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक कला केंद्र की स्थापना की। इलाहाबाद लोक संस्कृति का केंद्र बन गया। राम कैलाश यादव की धाक कला केंद्र में भी जम गयी। उनकी प्रस्तुति देश में ही नहीं अपितु विदेश में भी होने लगी। लगभग उसी समय जब इलाहाबाद में दूरदर्शन केंद्र भी बना तो वहाँ से भी उनके लोकगीत प्रसारित होने लगे।

राम कैलाश जी की गायकी का मैं बचपन से ही प्रशंसक रहा हूं। उनको दंगली बिरहा के अतिरिक्त आकाशवाणी, उत्तर-मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक कला केंद्र, माघ मेले में आयोजित होने वाले सूचना प्रसारण मंत्रालय के कार्यक्रमों में, खादी उद्योग तथा सांस्कृतिक मंत्रालय के आयोजनों में बराबर सुनता था। मेले में पता लगाता रहता था कि राम कैलाश जी का बिरहा आज किस जगह पर है। बात सन 2004 की है। मेले में लगे सांस्कृतिक कला केंद्र के पंडाल में राम कैलाश जी का कार्यक्रम था। हम 4 लोग अपने गांव से कार्यक्रम देखने गए थे। पूरा प्रेक्षागृह खचाखच भर गया था। उस दिन उनके अतिरिक्त राजस्थान, असम और हिमाचल से बहुत अच्छे और ख्यातिलब्ध लोक कलाकारों की प्रस्तुति थी। शाम 6 बजे कार्यक्रम प्रारंभ हुआ। 2-3 गीतों की प्रस्तुति के बाद श्रोता राम कैलाश को सुनने के लिए शोर करने लगे। कार्यक्रम प्रस्तुत करने वाले कलाकार हतोत्साहित होने लगे। मंच पर राम कैलाश जी प्रस्तुत हुए। हाथ जोड़कर दर्शकों से प्रार्थना किया, हे भइया ! हे बाबू ! ई सब देश के बड़े-बड़े कलाकार हवे। आप सब से ई दास हाथ जोड़िके अरदास कर रहल बा कि सब कलाकारन के सम्मान करा। ये सब हमसे ऊंचा कलाकार अहैं। राम कैलाश जी के भावपूर्ण अपील का यह प्रभाव हुआ कि दर्शक शांत हो गए और असम, हिमाचल और राजस्थान के कलाकारों की मनमोहक प्रस्तुति संभव हो सकी। अंत में उन्होंने एक बिरहा शिवजी का विवाह प्रस्तुत किया। यह था राम कैलाश जी अंदर का कलाकार।

राम कैलाश यादव के लोक कला का फलक बहुत विस्तृत था। सादगी, गवंईं, ठेठपन और माटी की सोंधी खुशबू में पगे हुए उनके गीत और उनका अंदाज-ए-बयां उन्हें अन्य कलाकारों से अलग पहचान प्रदान करता था। उन्होंने हर तरह के लोकगीत गाए। उत्तर प्रदेश में गाया जाने वाला कोई ऐसा लोकछंद नहीं, जो राम कैलाश जी की गायकी से अछूता हो। उन्होंने जहाँ चैता, पुरबी, फगुआ, बेलवरिया, कजरी, देवी गीत, विवाह गीत जैसे लोकगीतों को पूरे अधिकार के साथ गाया, वहीं दूसरी ओर जातीय लोकगीतों जैसे खड़ा बिरहा, अहिरऊ बिरहा, धोबिया गीत, पसिअऊ गीत (पवारा), कोहरउआ गीत, चनैनी जैसे जातीय लोकछंदों को बहुत मोहक और बिल्कुल ठेठ अंदाज में गाया। महिलाओं के गीत गाने में तो उन्हें विशेषज्ञता प्राप्त थी। तभी तो उनके श्रोताओं में महिलाओं की संख्या भी कम न थी। जबाबी बिरहा के आयोजनों में गांव की बहुत सारी महिलाएं भी पुरुषों से अलग एक कोने में बैठकर उनके बिरहा का आनंद लेती थीं। उनके बिरहा गायन की प्रस्तुति भी बेमिसाल थी। कभी ठुमककर तो कभी नाच कर जब वह अपनी प्रस्तुति देते थे तो श्रोतागण मंत्रमुग्ध हो जाते थे।

[bs-quote quote=”राम कैलाश जी निरंकारी मिशन से जुड़े हुए थे। वह अपने श्रोताओं में भगवान के दर्शन करते थे। उन्होंने बहुत से संगीत एलबम निकाले, जो दर्शकों में आज भी बहुत लोकप्रिय हैं। उनके एल्बमों में मुख्य है- बंबई बम कांड, सती सुलोचना, दहेज, नेहरू की बात, महात्मा गौतम बुद्ध, क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद आदि। उन्होंने देशभर के लगभग सभी बड़े शहरों में अपने कार्यक्रम प्रस्तुत किए।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

राम कैलाश जी निरंकारी मिशन से जुड़े हुए थे। वह अपने श्रोताओं में भगवान के दर्शन करते थे। उन्होंने बहुत से संगीत एलबम निकाले, जो दर्शकों में आज भी बहुत लोकप्रिय हैं। उनके एल्बमों में मुख्य है- बंबई बम कांड, सती सुलोचना, दहेज, नेहरू की बात, महात्मा गौतम बुद्ध, क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद आदि। उन्होंने देशभर के लगभग सभी बड़े शहरों में अपने कार्यक्रम प्रस्तुत किए। उनके साथ लोक वाद्य यंत्रों की पांच-छः कलाकारों की एक मंडली होती थी। जैसे कि बिरहा गायन की परंपरा है, वे हमेशा खड़े होकर ही अपनी प्रस्तुती देते थे। बीच-बीच में जब वह अंगरेजी डायलाग बोलते और मूछों पर हाथ फेरते तो बहुत मनमोहक लगते थे। मोरे रा..मा  हो..मोरे रामा.. हो भोले जोगिया..हो रा..म.. राम कैलाश जी मंच पर आकर जब इस तरह अलाप भरते तो दर्शक भाव विभोर हो जाते थे।

और जब, रामा रामा रामा रामा रामा रामा, जीवन में काला दाग लगि गवा। यह टेरी गाने की शुरुवात करते तब तो दर्शक पूर्णतः वशीभूत ही हो जाते थे।

एक गीत जो अक्सर वह गाते थे, ध्यातव्य है-

        हमरे नईहर से घुमरि घुमरि आवे बदरा।

        जाइके बरस बदरा वोहीं धोबी घटवा

       जहां धोबइन भीगोइके पछारे कपड़ा

       हमरे नईहर से घुमरि घुमरि आवे बदरा।

बाल विवाह पर गाए हुए एक खड़ा बिरहा की सुंदरबानगी दर्शनीय है-

      गउने के दौरी भितर कइ द्या भउजी

      अब हम न गवनवां जाब।

      स्वामी हएन मोरे बारे गदेलवा मोरी भउजी,

      हम केकर कमइया खाब।।

ननद भौजाई का एक मनोहारी संवाद जिसे वह बहुत ही रोचक ढंग से गाते थे। इसमें भौजाई सवाल करती है-

         कउने रंग मूंगवा कवन रंग मोतिया

         कवन रंग ननदी मोर बिरना।

ननद जवाब देती है-

         लाल रंग मूंगवा सुफेद रंग मोतिया

         सावंरे रंग भउजी मोरा बिरना।

वह विरहिनी की विरह वेदना बहुत ही मार्मिक ढंग से गाते थे-

        बालम परदेसिया लौटिके नाहीं आए।

        दुलहिन के  दर्द -मर्द समझि ना पाए।

राम कैलाश जी द्वारा गाये विरह गीत की एक और बानगी-

      मोरे पिछवरवा जमुनिया के पेड़वा,

      ताही ऊपर बोलेला सुगनवा हो ननदी।

      पियवा बेदर्दी दरदिया न जाने,

      डर लागे देखी जब सपनवा हो ननदी।

राम कैलाश जी का लोक पक्ष और गायकी जितनी समर्थ और निश्चल थी उतना ही सबल था उनका मानवीय पक्ष। लोक गायकी के प्रति समर्पण और ईमानदारी के संदर्भ में एक घटना याद आती है। यहां उस एक घटना को भी उद्धृत करना आवश्यक समझता हूं। बात 1973-1974 के आसपास की है। राम कैलाश जी तब-तक अपनी गायकी में स्थापित हो चुके थे। जैसा कि पहले ही चर्चा कर चुका हूं कि वह रेडियो पर गाते थे। जिसके कारण वह जन-जन में लोकप्रिय हो गए थे। दंगली बिरहा में तो पहले ही उनकी धाक जम चुकी थी। उनके नाम पर श्रोताओं की भीड़ लगती थी। मेरे गांव में एक बिरहिया थे शंभू यादव। उस समय वह नए-नए उभर रहे थे। उनकी आवाज में बेस तो कम था मगर कंठ कोयल की तरह सुरीला थी। उस समय बिजली घर (इलाहाबाद) में शम्भू यादव और राम कैलाश के बीच जबाबी बिरहा का एक आयोजन हुआ था। बिरहा हार-जीत के फैसले पर था। आयोजन स्थल पर एक झंडा गाड़ा गया था। उसी झंडे मे 101 रुपये का पुरस्कार भी बंधा हुआ था। यह झंडा विजयी गायक के लिए था। आयोजकों ने फैसले के लिए एक निर्णायक मंडल का गठन किया था। प्रसिद्धि के लिहाज पर यह शेर और मेमने की लड़ाई थी। बिरहा रात 10 बजे शुरू हो गया। दुबली-पतली कद काठी और सांवले रंग वाले शंभू यादव को देखकर दर्शक मंडली मुकाबले से पहले ही फैसला दे चुके थे। उनका मानना था कि राम कैलाश के सामने शम्भू यादव का टिकना मुश्किल है। ढोलक मजीरा लेकर भाग जाएगा।

[bs-quote quote=”मगर कहावत है- खान, पान और पागड़ी कबहुं-कबहुं सधि जाइ। जब शंभू यादव का कोकिल स्वर गूजनें लगी तो उपस्थित जनसमुदाय वाह-वाह कर उठा। अनुभवी राम कैलाश जी को भी अनुमान हो गया कि आज का मुकाबला कठिन होने वाला है। पूरी रात जमकर बिरहा हुआ। श्रोता टस से मस न हुए। दोनों गायकों ने अपनी पूरी कला झोंक दी। मगर पलड़ा भारी रहा नवोदित गायक शंभू यादव का। अब एक कठिन धर्मसंकट था निर्णायक मंडल के सामने।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

मगर कहावत है- खान, पान और पागड़ी कबहुं-कबहुं सधि जाइ। जब शंभू यादव का कोकिल स्वर गूजनें लगी तो उपस्थित जनसमुदाय वाह-वाह कर उठा। अनुभवी राम कैलाश जी को भी अनुमान हो गया कि आज का मुकाबला कठिन होने वाला है। पूरी रात जमकर बिरहा हुआ। श्रोता टस से मस न हुए। दोनों गायकों ने अपनी पूरी कला झोंक दी। मगर पलड़ा भारी रहा नवोदित गायक शंभू यादव का। अब एक कठिन धर्मसंकट था निर्णायक मंडल के सामने। इतने प्रतिष्ठित गायक राम कैलाश के मुकाबले एक बेनाम गायक को कैसे विजयी घोषित करें। निर्णायक मंडल काफी देर तक इसी समस्या से जूझता रहा, मगर कोई हल नहीं निकल रहा था। उनकी समस्या का हल किया स्वयं राम कैलाश जी ने। उन्होंने निर्णायक मंडल से कहा, पंचै, अगर आप सभे हमका विजयी घोषित कर देब्या तो बिरहा हार जाई। पंचै, राम कैलाश बिरहा से बड़ा नाहीं अहै। आज के दंगल में शंभू यादव विजयी अहैं और वोही पुरस्कार का हकदार भी। निर्णायक मंडल ने शंभू यादव को विजय घोषित किया और राम कैलाश जी द्वारा कही हुई उपरोक्त बात को भी दर्शकों को सुनाया। राम कैलाश जी की न्याय प्रियता पर दर्शकों की तालियां गूंज उठी थी। सभी उनकी दरियादिली पर वाह-वाह करने लगे।

लोक गायक राम कैलाश

राम कैलाश जी को उनकी गायकी पर बहुत से पुरस्कार और सम्मान मिले। पटना में राष्ट्रीय जनता दल के अधिवेशन में उन्हें स्वर्ण रथ देकर सम्मानित किया गया। मध्य प्रदेश सरकार ने उन्हें तुलसी पुरस्कार से सम्मानित किया था। उसी समय अमिताभ बच्चन भी कबीर पुरस्कार से सम्मानित हुए थे और पुरस्कार वितरण समारोह में राम कैलाश जी के साथ वह भी उपस्थित थे। अमिताभ बच्चन ने राम कैलाश जी से पूछा, दादा, आप क्या करते हो? राम कैलाश जी ने बहुत सधा हुआ जवाब दिया, जवन तूं करत्ह, उहै हमहू करित्ह। तूं शहर के नचवैया हय्या त हम गाँव के नचवैया हई। अमिताभ बच्चन उनका जवाब सुनकर मुस्कुराने लगे। उन्हें संगीत नाटक अकादमी उत्तर प्रदेश ने भी सम्मानित किया था। एक बार उत्तर मध्य क्षेत्र संस्कृति कला केंद्र इलाहाबाद की ओर से उनको सैफई महोत्सव में प्रस्तुति के लिए भेजा गया। उनके गीतों ने सैफई महोत्सव में धूम मचा दिया। उनके गीतों को सुनकर वहाँ पर उपस्थित श्रोतागण खुशी से झूम उठे। श्रोताओं में समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष माननीय मुलायम सिंह जी भी उपस्थित थे। वह भी राम कैलाश जी की लोक गायकी पर  मुरीद हो गए।

2 सितंबर 2010 को अपनी मंडली के साथ पूना से वापस लौटे। पूना में स्थित स्पिक मैके ने उनके गीतों की रिकॉर्डिंग कराई थी। उसी साल दिल्ली में राष्ट्रमंडल खेलों का आयोजन हुआ था। उसमें राम कैलाश जी भी अपने गीत की प्रस्तुति के लिए आमंत्रित थे। उन्होंने अपनी मंडली के कलाकारों को बताया भी, कि 16 सितंबर को कार्यक्रम के लिए दिल्ली चलना है। मगर होनी को कुछ और ही मंजूर था। 3 सितंबर 2010 को अचानक उनकी तबीयत खराब हुई और लोक गायकी की खुशबू बिखेरने वाला महान कलाकार हृदय गति रुक जाने के कारण सदा के लिए अपनी आँखें मूंद ली। गाँव के ठेठपन का आभास कराने और हमारे बीच अपने सादेपन का एहसास कराने वाला यह महान लोककलाविद 82 वर्ष 2 माह 9 दिन की अपनी जीवन यात्रा पूर्ण करके जब अचानक चल बसा तो पूरा लोक जगत खासकर इलाहाबाद और बनारस के उनके साथी गायक और श्रोता स्तब्ध रह गए। बनारस के मूर्धन्य लोकगायक हीरालाल जी, इलाहाबाद के हैदर अली जुगनू, बचऊ यादव, लालजी लहरी, बाबूलाल भंवरा आदि गायकों ने उनको श्रद्धा सुमन समर्पित किया। समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव जी ने भी फोन से शोक संतप्त परिवार को सांत्वना दी।

[bs-quote quote=”आज भौतिक रूप से तो राम कैलाश जी हमारे बीच नहीं है, मगर अपने चाहने वाले हजारों श्रोताओं की स्मृतियों में वह हमेशा जीवित रहेंगे। लोक गायकी के कठिन पथ पर जो निशान उन्होंने छोड़ दिए, वह रहती दुनिया तक अमिट रहेंगे। बावजूद इसके इस बाजारवादी संस्कृति में अपनी लोक विरासत को बचाने की एक कठिन चुनौती अवश्य हमारे सामने आ चुकी है। हमें अपनी संस्कृति को बड़ी शिद्दत के साथ बचाने की कोशिश करनी पड़ेगी।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

आज भौतिक रूप से तो राम कैलाश जी हमारे बीच नहीं है, मगर अपने चाहने वाले हजारों श्रोताओं की स्मृतियों में वह हमेशा जीवित रहेंगे। लोक गायकी के कठिन पथ पर जो निशान उन्होंने छोड़ दिए, वह रहती दुनिया तक अमिट रहेंगे। बावजूद इसके इस बाजारवादी संस्कृति में अपनी लोक विरासत को बचाने की एक कठिन चुनौती अवश्य हमारे सामने आ चुकी है। हमें अपनी संस्कृति को बड़ी शिद्दत के साथ बचाने की कोशिश करनी पड़ेगी और राम कैलाश जैसे गायकों की लोक साधना को अक्षुण बनाए रखने के लिए तन, मन और धन से समर्पित रहना होगा। अगर राम कैलाश जी को ईमानदारी से याद करना है तो हमें उनकी लोकविरासत को बचाने के लिए आगे आना पड़ेगा। उनकी गायकी की परख करने और सुनने की आदत डालनी होगी। राम कैलाश जी अपने जीवन काल में भी संगीत के बिगड़ते माहौल और उसके लोकस्वरुप को कुरूप करने वाले कलाकारों से बहुत क्षुब्ध रहते थे। हालांकि बिरहा गायन की इस लोकप्रिय परम्परा को देशभर में बहुत से अन्य कलाकार भी यथासम्भव आगे बढ़ा रहे हैं, मगर उनकी अपने सीमाएं और विचारधाराएं हैं। उनके दो नाती प्रेमचंद और दिनेश यादव भी उनकी परंपरा को आगे बढ़ाने में प्रयासरत हैं। इसके अलावा इलाहाबाद की युवा पीढ़ी के कुछ नए गायक जैसे अभय राज यादव, फूलचंद फिरंगी और कुछ महिला गायिकाएं भी इस लोक विधा को आगे बढ़ाने में सतत प्रयत्नशील है। परंतु असली समस्या तो श्रोताओं की हो गई है, जिसके लिए एक जन जागरण की नितांत आवश्यकता है। निष्कर्षतः राम कैलाश जी की लोक विरासत को हमें अपने खेत-खलिहानों की तरह बड़े जतन के साथ संभाल कर रखना होगा।

 

कवि,नाटककार और लोककलाकार मोहनलाल यादव

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1 COMMENT
  1. बहुत बढ़िया लिखा है मोहनलाल जी ने। दिल को छू गया यह आलेख। वाकई बेजोड़ प्रतिभा और सरल सहज व्यक्तित्व के धनी थे बिरहा गायक राम कैलाश यादव जी। बरसों पहले मुंबई के एक लोक उत्सव में उनकी प्रस्तुति देखी और सुनी थी। आज तक स्मृति में बसी है। साधुवाद।

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