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वंदे मातरम् : पहले परहेज अब मौका देख विवाद खड़ा कर रही संघी ताकतें
सांप्रदायिक धारा अब पूरा वंदे मातरम् गाना लाने की मांग कर रही है, उसने यह गाना कभी नहीं गाया था। यह मुख्य रूप से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की बैठकों में गाया जाता था। वंदे मातरम् का नारा अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने वालों ने लगाया था। चूंकि RSS आज़ादी के आंदोलन से दूर रहा और अंग्रेजों की 'बांटो और राज करो' की नीति को जारी रखने में उनकी मदद की, इसलिए उन्होंने यह गाना नहीं गाया और न ही यह नारा लगाया।
सांप्रदायिक राष्ट्रवाद और ‘कर्तव्यों-अधिकारों’ की अवधारणा
जैसे-जैसे भारत में हिंदू राष्ट्रवाद बढ़ रहा है, हमारे राष्ट्रीय आंदोलन और संविधान में मौजूद 'अधिकारों' की अवधारणा को हिंदुत्व की राजनीति द्वारा धीरे-धीरे कमज़ोर किया जाना है। यहीं से नॉन-बायोलॉजिकल नरेंद्र मोदी अधिकारों को कमज़ोर करने और कर्तव्यों को हाईलाइट करने के लक्ष्य को हासिल करने की यात्रा शुरू करते हैं। लॉर्ड मैकाले द्वारा शुरू किए गए डंपिंग एजुकेशन सिस्टम की मांग इसी दिशा में एक छोटी सी कोशिश थी। अब 26 नवंबर को संविधान दिवस पर इसे और साफ़तौर पर कहें तो, 'हाल ही में संविधान दिवस (26 नवंबर, 2025) पर भारतीय नागरिकों को लिखे एक लेटर में, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नागरिकों के लिए अपने आधारभूत कर्तव्यों को पूरा करने के महत्व पर ज़ोर दिया। उन्होंने तर्क दिया कि इन ड्यूटीज़ को पूरा करना एक मज़बूत डेमोक्रेसी और 2047 के लिए उनके 'विकसित भारत' विज़न की दिशा में देश की तरक्की की नींव है।
क्या मंदिर बना कर देश के जख्मों को भरा जा सकता है?
मोदी का रामराज्य, रहीम के अनुयायियों से नफ़रत पर आधारित है। वह न्याय की अवधारणा के खिलाफ है। अयोध्या मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय का निर्णय 'लोकविश्वास' पर आधारित था, जिसे इस अंधाधुंध प्रचार के जरिए गढ़ा गया था कि भगवान राम का जन्म ठीक उसी स्थान पर हुआ था जहाँ बाबरी मस्जिद थी। यह इस तथ्य के बावजूद कि सन 1885 में अपने निर्णय में अदालत ने कहा था कि वह ज़मीन सुन्नी वक्फ बोर्ड की सम्पति है। उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ का अयोध्या मामले में फैसला क़ानून पर नहीं बल्कि भगवान द्वारा सपने में उन्हें दिए गए निर्देशों पर आधारित था क्योंकि इस बात का कोई सुबूत नहीं है कि बाबरी मस्जिद का निर्माण राममंदिर को तोड़ कर किया गया था।
क्या मन में धोती और चुटिया धारण कर मैकाले को समझा जा सकता है
मोदी और उनके जैसे लोग सोचते हैं कि मैकाले/अंग्रेजों का लाया हुआ कल्चर सीधी लाइन में चला। दिलचस्प बात यह है कि वे खुद भाषा या धर्म पर आधारित यूरोपियन स्टाइल के राष्ट्रवाद के पक्ष में हैं। भारत में जो हुआ वह कहीं ज़्यादा मुश्किल था, जहाँ इंग्लिश एजुकेशन की शुरुआत ने मॉडर्न लिबरल वैल्यूज़ को लाने में मदद की और समाज के सभी वर्गों जैसे दलितों और महिलाओं के लिए ज्ञान के रास्ते खोले, जो शिक्षा से दूर थे, जहाँ गुरुकुल जैसी शिक्षा सिर्फ़ ऊँची जाति के पुरुषों तक ही सीमित थी।
अमेरिका में हिंदुत्व के बढ़ते विरोध के चलते आरएसएस कर रहा है पैरवी
अमरीका में भी हिंदुत्व चिंता का विषय है। अनेक रिपोर्टों में हिन्दुत्ववादियों की उनके एजेंडा से जुड़ी गतिविधियों को उजागर किया गया है। रपट में बताया गया है कि किस तरह हिन्दू राष्ट्रवादी समूह अमरीका में हिन्दू धर्म के संकीर्ण और राजनीति पर आधारित संस्करण को बढ़ावा दे रहे हैं। इसके अलावा, हिन्दुत्ववादी, ऊंची जातियों के वर्चस्व और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के पैरोकार हैं और अन्य धर्मों के प्रति असहिष्णुता का भाव रखते हैं। अमरीका में हिंदुत्व के बढ़ते विरोध के चलते ही शायद आरएसएस को अपनी छवि सुधारने के लिए लॉबियिंग फर्म की सेवाएं लेने की ज़रुरत पड़ी है।
छत्तीसगढ़ को नफरत की नर्सरी बना रही है भाजपा
अंग्रेजों के समय से आज तक इस देश में ईसाई शैक्षणिक संस्थाएं सेवा और उत्कृष्टता के केंद्र हैं। ईसाई समुदाय, विशेष रूप से ननों और पादरियों ने स्वास्थ्य, शिक्षा और सामाजिक सेवा क्षेत्र में अभूतपूर्व योगदान दिया है। यही कारण है कि भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे पी नड्डा सहित संघी गिरोह के कई बड़े नेता, जो आज हिंदुत्व के पुजारी बने हुए हैं, इन्हीं शिक्षा संस्थाओं से पढ़कर निकले हैं और उनका हिंदुत्व की कोई नसबंदी नहीं हुई है। इसलिए ईसाई संस्थाओं पर धर्मांतरण का थोक के भाव में आरोप लगाने का एक ही उद्देश्य है कि उनकी धार्मिक स्वतंत्रता को प्रतिबंधित किया जाए और समाज में सांप्रदायिक विभाजन किया जाए।
एनसीईआरटी : पाठ्यक्रम को साम्प्रदायिक रंग और नफरत को बढ़ावा देने के लिए इतिहास का इस्तेमाल
राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) वह संस्था है जो स्कूली पाठ्यपुस्तकों की सामग्री के संबंध में अंतिम निर्णय लेती है। पिछले कुछ दशकों से विद्यार्थियों को तार्किक व निष्पक्ष ढंग से हमारे अतीत के बारे में ज्ञान देने की बजाए इसकी किताबें साम्प्रदायिक नजरिया पेश करने का जरिया बन गई हैं। चूंकि इतिहास युवा दिमागों की समझ को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, इसलिए पाठ्यक्रम को साम्प्रदायिक रंग देने से विभिन्न तरीकों से पहले ही बेगाने बना दिए गए समुदाय (मुसलमानों) के प्रति मौजूदा नफरत और बढ़ेगी।
जन सुरक्षा अधिनियम के मुद्दे पर महाराष्ट्र में विपक्ष की नीयत साफ क्यों नहीं है?
अब वर्तमान महाराष्ट्र सरकार ने जन सुरक्षा अधिनियम के नाम से विधानसभा और विधान परिषद दोनों सदनों में विधेयक पारित कर दिया है। विधानसभा के एकमात्र कम्युनिस्ट सदस्य को छोड़कर सभी दलों के विधायकों ने इस विधेयक को दोनों सदनों में पारित करने के लिए अपनी सहमति दे दी है। लेकिन उद्धव ठाकरे राज्यपाल से इस पर हस्ताक्षर न करने का अनुरोध करने वाले हैं। तब सवाल उठता है कि उद्धव ठाकरे, शरद पवार और मंच पर लगातार संविधान की प्रतियाँ लहरा रहे कांग्रेस विधायकों ने दोनों सदनों में इस विधेयक को पारित करने के लिए वोट क्यों दिया? और अब राज्यपाल से इस पर हस्ताक्षर न करने के लिए कहना कैसी राजनीति है?
बिहार : विशेष गहन पुनरीक्षण के नाम पर चुनिंदा समुदायों के नाम मिटाये जा रहे हैं
बिहार चुनावों से पहले चुनाव आयोग ने 24 जून 2025 को जो आदेश पारित किया, उसमें कहा गया कि 25 जुलाई तक पूरे राज्य में मतदाता सूची का विशेष पुनरीक्षण (SIR) किया जाएगा, जिसमें डुप्लीकेट, मृत या गैर-नागरिकों के नाम हटाए जाएंगे। इस प्रक्रिया को मात्र 31 दिनों में संपन्न करना है, जो कि सामान्य सूची पुनरीक्षण की तुलना में असाधारण रूप से त्वरित है। यह निर्णय अपने आप में चुनावी प्रक्रिया की निष्पक्षता और पारदर्शिता को संदिग्ध बनाता है
आखिर हिन्दू राष्ट्रवादियों के आँख की किरकिरी क्यों बना हुआ है संविधान में धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद
आरएसएस/भाजपा की कार्यशैली काफी जटिल है। वो एक-साथ कई विरोधभासी बातें कर सकते हैं और करते हैं। वे छोटे-छोटे कदम उठाकर संविधान के साथ छेड़छाड़ कर रहे हैं और साथ ही संविधान के मूल्यों और नीतियों का उल्लंघन भी कर रहे हैं। पिछले एक दशक से हम यही देख रहे हैं। होसबोले का बयान एक सोची-समझी रणनीति के तहत दिया गया है।
इमरजेंसी में आरएसएस ने क्या किया
इस साल (2025) में जून में देश ने आपातकाल (इमरजेंसी) लागू किए जाने की 50वीं वर्षगांठ मनाई। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 1975 में 25 जून को देश में आपातकाल लागू किया था। इस दौर के बारे में बहुत कुछ लिखा जा चुका है - किस तरह लोकतांत्रिक अधिकार छीन लिए गए, हजारों लोगों को जेलों में ठूंस दिया गया और मीडिया का मुंह बंद कर दिया गया। इस काल को कई दलित नेता काफी अलग नजर से देखते हैं और याद करते हैं कि उसके पिछले दशक में इंदिरा गांधी ने बैंकों के राष्ट्रीयकरण और प्रीविपर्स की समाप्ति जैसे कई बड़े मौलिक फैसले लिए गए थे। इनके बारे में और इनका विश्लेषण करते हुए भी बहुत कुछ लिखा जा चुका है।

