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आई लव मोहम्मद : साम्प्रदायिक हिंसा का नया बहाना
इन दिनों हम ‘आई लव मोहम्मद‘ के सीधे-सादे नारे को लेकर हिंसा भड़काने के नजारे देख रहे हैं। इसकी शुरुआत कानपुर से हुई जब मिलादुन्नबी के दिन पैगम्बर मोहम्मद के जन्म दिवस के अवसर पर निकाले गए जुलूस में शामिल ‘आई लव मोहम्मद‘ बैनर पर कुछ लोगों द्वारा इस आधार पर आपत्ति की गई कि इस धार्मिक उत्सव में यह नई परंपरा जोड़ी जा रही है।
भारतीय संविधान और सामाजिक न्याय : एक सिंहावलोकन
भारतीय समाज में अनेक असमानताएं व्याप्त हैं। कुछ ऐसी ताकतें हैं जो भारतीय संविधान का ही अंत कर देना चाहती हैं। वह इसलिए क्योंकि संविधान समानता की स्थापना के संघर्ष में एक महत्वपूर्ण औज़ार है। इस समय  जो लोग सामाजिक न्याय की अवधारणा के खिलाफ हैं वे खुलकर भारत के संविधान में बदलाव की मांग कर रहे हैं। लेकिन जरूरी है कि संविधान के सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने वाले उसके प्रावधानों सहित, रक्षा की जाये और उसे मज़बूत बनाये जाये।
उत्तर प्रदेश : जाति की राजनीति के बहाने विपक्ष को कमजोर करने की रणनीति
उत्तर प्रदेश हाईकोर्ट ने निर्देश दिया कि पुलिस रिकॉर्ड, एफआईआर और गिरफ्तारियों में जातिगत उल्लेख नहीं होगा। सार्वजनिक स्थानों से जातिसूचक स्टिकर हटाए जाएँगे और जाति-आधारित रैलियों पर रोक लगाई जाएगी। सतही तौर पर यह कदम जातिगत भेदभाव खत्म करने की दिशा में क्रांतिकारी प्रतीत होता है, लेकिन जब इसे राजनीतिक संदर्भ में देखा जाता है, तो इसके पीछे कई गहरे प्रश्न खड़े हो जाते हैं।
बिहार के पहले दलित मुख्यमंत्री ही नहीं सामाजिक न्याय के सूत्रधार भी थे भोला पासवान शास्त्री
आमतौर पर भोला पासवान शास्त्री का जिक्र आते ही एक व्यक्तिगत ईमानदार और आदर्शवादी राजनेता का चेहरा उभरता है जिसने तीन बार बिहार के मुख्यमंत्री की कुर्सी संभालने के बावजूद अपने लिए कुछ नहीं किया। अत्यंत संयम और किफायत के साथ अपना पूरा जीवन गुजार दिया। लेकिन केवल इतना ही काफी नहीं है बल्कि भोला पासवान शास्त्री ने सामाजिक न्याय की दिशा में बेमिसाल काम किया है जिसकी ओर प्रायः ध्यान नहीं दिया गया है। अपने कार्यकाल में मुंगेरी लाल आयोग का गठन करके उन्होंने भविष्य में मण्डल आयोग की जरूरत का सूत्रपात कर दिया था। हरवाहे-चरवाहे के रूप में जीवन शुरू करनेवाले भोला पासवान शास्त्री के रोचक और प्रेरक जीवन पर एच एल दुसाध का लेख।
देश का सांप्रदायिककरण करने में आरएसएस के बाद ढोंगी बाबाओं की कतार सबसे आगे
बाबा पंडा-पुरोहितों के परंपरागत वर्ग से ताल्लुक नहीं रखते। वे  लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने की स्वयं की नई-नई तरकीबें ईजाद करते  हैं। कुछ परंपरागत ज्ञान और कुछ अपनी कल्पनाओं को मिश्रित कर वे ऐसे विचार प्रस्तुत करते हैं जो उनकी पहचान का केन्द्रीय बिंदु होता है। अपने हुनर पर उनका भरोसा वाकई काबिले तारीफ होता है और वे प्रायः बहुत अच्छे वक्ता होते हैं। 
संघ का ‘एकात्म मानववाद‘ बहुजन समाजों के विषमतापूर्ण विभाजन का दर्शन है
संघी विचारक बार-बार एकात्म मानववाद का बखान करते हैं और भारत के बहुजन समाजों को एक प्रतिगामी इतिहास से जोड़ने की साजिश करते हैं। व्यावहारिक तौर पर यह ब्राम्हणवादी मूल्यों को बढ़ावा देता है और इसके चलते मंदिर (मस्जिदों को ढहाया जाना), पवित्र गाय (लिंचिंग), लव जिहाद और धर्मपरिवर्तन एजेंडे के मुख्य मुद्दे बन गए हैं। इस विचारधारा की मान्यता यह है कि भारत को पहले मुस्लिम राजाओं और फिर अंग्रेजों ने गुलाम बनाया। यह विचारधारा हिंदू समाज की बहुत सी खराबियों के लिए, खासतौर से मुस्लिम राजाओं के अत्याचारों को दोषी मानती है। तथ्य यह है कि हिंदू धर्म की बहुत सी कमियां जाति, वर्ण और लिंग आधारित ऊंच-नीच की वजह से हैं जिनका जिक्र हिंदुओं द्वारा पवित्र मानी जाने वाले कई प्राचीन ग्रंथों में मिलता है।
बोधगया : महाबोधि मंदिर को ब्रह्मणवाद के कब्जे से मुक्ति जरूरी क्यों है?
आज  खुलेआम धर्म का इस्तेमाल राजनैतिक एजेन्डे को आगे बढ़ाने के लिए किया जा रहा है। बौद्ध मंदिर का संचालन ब्राम्हणवादी तौर-तरीकों से हो रहा है और सूफी दरगाहों का ब्राम्हणीकरण किया जा रहा है।  बौद्ध भिक्षु अपने पवित्र स्थान का संचालन उनकी अपनी आस्थाओं और मानकों के अनुसार करना चाहते हैं और उसके ब्राम्हणीकरण का विरोध कर रहे हैं।
क्या बिहार की राजनीति में नए अरविंद केजरीवाल होनेवाले हैं प्रशांत किशोर
प्रशांत किशोर की उपस्थिति ने बिहार की राजनीति को काफी हद तक गरमा दिया है हालांकि उनको लेकर ढेरों सवाल भी खड़े हो रहे हैं। खासतौर से प्रशांत किशोर को भाजपा की बी टीम के रूप में देखा जा रहा है। बरसों से बिहार की सत्ता पर चले आ रहे पिछड़ों के कब्जे पर सेंध लगाने के लिए भी प्रशांत किशोर को एक माकूल व्यक्ति माना जा रहा है। लेकिन बातें इतनी आसान नहीं हैं। यह तो भविष्य बताएगा कि प्रशांत किशोर क्या रंग दिखाते हैं लेकिन उनकी राजनीति में शामिल घटकों का बेबाक विश्लेषण कर रहे हैं मनीष शर्मा।
बिहार चुनाव में मोदी-नीतीश की चुनावी रणनीति क्या होगी?
प्रधानमंत्री मोदी अपने  जंगलराज को ढंकने की रणनीति के तहत ही,शायद बस्तर नरसंहार को बिहार में एजेंडा बना रहे है और बिहार में 2014 बाद से माओवाद को लगभग ख़त्म कर देने का श्रेय लेने की कोशिश अपने संबोधन में कर रहे हैं। हालांकि इस नए नैरेटिव के बावजूद यह देखना  बाकी है कि पुराना जंगलराज का नैरेटिव अभी की नई परिस्थितियों में भी कितना कारगर हो पाएगा।
खून में बहते सिंदूर के व्यापार का समय
सीमाओं पर जिन जवानों ने अपना खून बहाया, वह व्यर्थ गया। इसलिए कि देश को सिंदूर की जरूरत है और सिंदूर की जगह वे अपना खून बहा गए। अब खून की कोई कीमत रही नहीं, क्योंकि हमारा देश तो आए दिन खून-खराबा देख रहा है। यह खून दंगों को तो भड़का सकता है, लेकिन राष्ट्रवादी जोश को नहीं। अब देशभक्ति इस पैमाने से नापी जाएगी कि किसकी रगों में कितने प्रतिशत सिंदूर बह रहा है
सत्ता की भूख हमारे देश को किधर ले जा रही है
अधिकतर राजनेता या तो राजघरानों से आते हैं या फिर धनी परिवारों से जिनमें से अधिकतर दागी आचरण के हैं। लेकिन यह सभी अपने को गरीब परिवारों के होने की बात करते हैं। आचरण की तो बात ही क्या करना। लेकिन जनता है कि बार-बार ऐसे ही लोगों को चुनकर संसद में बिठाने का काम करती है। सरकार बन जाने के बाद उनकी कोई नहीं सुनता। एक बार चुने जाने के बाद अपने इलाके तक में कोई नहीं झांकता। अब इस सबके लिए दोषी कौन है? क्या ऐसे राजनेताओं को कुर्सी देकर आपने गलत नहीं किया है? ‘हमें सत्ता सौंपेंगे तो आखिर आपकी भाग्य रेखाएं बदलेंगी।

