हाल ही में राजस्थान के शिक्षा मंत्री ने राज्य के ग्रामीण क्षेत्रों में संचालित स्कूलों के विकास से संबंधित कई अहम निर्देश दिए हैं। उन्होंने स्कूली शिक्षा के क्षेत्र में लागू होने वाले नवाचारों और नई तकनीकों पर आधारित गतिविधियों से राज्य के ग्रामीण विद्यालयों को जोड़ने में प्राथमिकता पर ज़ोर दिया है। ताकि नई तकनीक पर आधारित कार्यक्रमों से गांव के विद्यार्थी भी लाभांवित हो सकें। दरअसल आज भी राजस्थान के कई ऐसे ग्रामीण क्षेत्र हैं जहां शिक्षा का प्रतिशत अन्य क्षेत्रों की तुलना में कम है।
हालांकि राज्य सरकार की वेबसाइट पर उपलब्ध 2011 की जनगणना के आधार पर राज्य के ग्रामीण क्षेत्रों में साक्षरता की औसत दर 61.4 प्रतिशत दर्शाई गई है। गंगानगर के ग्रामीण क्षेत्रों में साक्षरता दर सबसे अधिक 66.2 प्रतिशत और प्रतापगढ़ में सबसे कम 53.2 प्रतिशत है। जिन ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा का प्रतिशत कम है उसके पीछे कई कारण बताए जाते हैं जिसमें सबसे प्रमुख गांव से स्कूल की दूरी है, जिस कारण सबसे अधिक किशोरियों की शिक्षा प्रभावित होती है।
गांव के बच्चे 2 किमी पैदल चलकर स्कूल जाने को मजबूर
राज्य में अजमेर जिला स्थित धुवालिया नाडा गांव इसका एक उदाहरण है। जिले के रसूलपुरा पंचायत स्थित इस गांव में अनुसूचित जनजाति भील और रैगर समुदाय की बहुलता है। सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े इस गांव में आने-जाने के लिए ग्रामीणों को न तो परिवहन की कोई विशेष सुविधा उपलब्ध है, न सार्वजनिक शौचालय की और न ही सामुदायिक भवन की सुविधा है।
इतना ही नहीं, गांव में कोई राजकीय विद्यालय भी नहीं है। इसके लिए बच्चों को प्रतिदिन 2 किमी दूर रसूलपुरा में स्थापित सरकारी स्कूल जाना पड़ता है। परिवहन की सुविधा नहीं होने के कारण बच्चों को यह दूरी प्रतिदिन पैदल ही तय करनी पड़ती है। इसका सबसे अधिक नुकसान छोटे बच्चों के साथ-साथ किशोरियों को होता है। जो अक्सर माहवारी के दिनों में पैदल स्कूल जाने के बजाय घर में रहने को मजबूर हो जाती हैं। वहीं कई अभिभावक सुरक्षा के दृष्टिकोण से भी लड़कियों को इतनी दूर स्कूल भेजने की जगह उनकी पढ़ाई छुड़वाने को तरजीह देते हैं।
सरकारी विद्यालयों में नहीं हैं मूलभूत सुविधाएं
कक्षा 9वीं की छात्रा जाह्नवी बताती है, ‘गांव के बच्चे प्रतिदिन पैदल स्कूल जाते हैं लेकिन वहां सुविधाएं नाममात्र की हैं। क्लास रूम तो बने हुए हैं लेकिन विद्यार्थियों के लिए न तो शौचालय की सुविधा उपलब्ध है और न ही पीने के साफ़ पानी की व्यवस्था है। जो पानी उपलब्ध है वह इतना खारा है कि बच्चे उसे पीना नहीं चाहते हैं, इसके बावजूद स्कूल की ओर से उसी पानी में मिल्क पाउडर मिलाकर बच्चों को पीने के लिए दिया जाता है। जिससे कई बार बच्चों की तबीयत बिगड़ जाती है।’
9वीं की छात्रा सोनू बताती हैं, ‘पहले स्कूल में छात्र-छात्राओं के लिए शौचालय की कोई व्यवस्था नहीं थी। पिछले वर्ष स्कूल में शौचालय का निर्माण कराया गया लेकिन स्कूल प्रशासन की ओर से यह कहकर उसमें ताला लगा दिया गया कि बच्चे इसे गंदा कर देते हैं। ऐसे में छात्राएं माहवारी के समय स्कूल आने की जगह घर पर रुकना ही उचित समझती हैं क्योंकि जब शौचालय की व्यवस्था ही नहीं है तो वह ज़रूरत के समय पैड कहां चेंज करेंगी? कई बार छात्राओं ने इस समस्या से स्कूल की शिक्षिकाओं को अवगत भी कराया, लेकिन उनकी ओर से भी कोई पहल नहीं की गई।’
सोनू बताती है कि गांव से कम से कम 20 छात्राएं नियमित रूप से स्कूल जाती हैं। लेकिन माहवारी के समय उन्हें सुविधाओं की कमी के कारण घर पर ही रुकना पड़ता है। जिससे उनकी क्लास छूट जाती है और पढ़ाई का नुकसान होता है। हालांकि धुवालिया नाडा से करीब डेढ़ किमी दूर मदार गांव में भी राजकीय उच्च विद्यालय है, लेकिन वहां आने-जाने का रास्ता रसूलपुर से भी अधिक सुनसान बाला है। इसीलिए अभिभावक वहां अपनी लड़कियों का एडमिशन नहीं कराते हैं।
जाह्नवी बताती हैं, ‘स्कूल में केवल सुविधाओं की ही कमी नहीं है, बल्कि हमारे साथ जातिगत भेदभाव भी किया जाता है। रसूलपुरा में उच्च जातियों की संख्या अधिक है और स्कूल में भी इसी जाति से संबद्ध शिक्षकों और विद्यार्थियों की बहुलता है, ऐसे में वह हमें पढ़ाने में बहुत अधिक दिलचस्पी नहीं दिखाते हैं। वह हमें कक्षा में बोलने भी नहीं देते हैं।
जाह्नवी आरोप लगाती है, ‘जब स्कूल में उच्च जातियों के छात्र-छात्राएं हमारे साथ जातिगत भेदभाव करते हैं और हम जब इसकी शिकायत शिक्षकों से करते हैं तो वह इस पर ध्यान नहीं देते हैं। जब अभिभावक स्कूल आकर इसकी शिकायत करते हैं तो उस समय शिक्षक कुछ नहीं बोलते हैं लेकिन उनके जाने के बाद हमें डांटा जाता है कि स्कूल की बात घर पर मत बताया करो। ‘
ऊंची जाति के लड़के करते हैं छेड़छाड़
वह बताती हैं कि एक-दो बार स्कूल आते या जाते समय रसूलपुरा के उच्च जातियों के लड़के यहां की लड़कियों के साथ छेड़छाड़ भी कर चुके हैं। अभिभावकों ने इस समस्या को उठाया भी था जिस कारण दोनों इलाकों में तनाव हो गया। इसका असर उल्टे लड़कियों की शिक्षा पर ही पड़ा। अभिभावक हमारी सुरक्षा के प्रति बहुत चिंतित रहते हैं। यही कारण है कि अब इस गाँव की लड़कियों को अकेले स्कूल जाने नहीं दिया जाता है।’
राज्य सरकार की वेबसाइट पर उपलब्ध 2011 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार राज्य के ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं की औसत साक्षरता दर मात्र 45.8 प्रतिशत है। अजमेर जिले के ग्रामीण क्षेत्रों में साक्षरता दर औसत से भी कम मात्र 41.3 प्रतिशत है। हालांकि 2001 के 32.7 प्रतिशत के मुकाबले यह काफी अच्छा है लेकिन इसे संतोषजनक नहीं कहा जा सकता है।
इसके लिए ज़रूरी है कि स्कूलों में किशोरियों के लिए बुनियादी सुविधाओं को अधिक से अधिक बढ़ाया जाए। साथ ही स्कूल का ऐसा वातावरण तैयार किया जाए जहां वह आसानी से शिक्षा प्राप्त कर सकें। दरअसल शिक्षा हमें जातिगत भेदभाव से दूर करती है, लेकिन सच तो यह है कि हाशिए पर खड़े समुदाय और अति पिछड़े समाज के बच्चों को आज भी इसे पाने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। उन्हें कई प्रकार के भेदभावों से गुज़रना पड़ रहा है। उनके हौसले को बढ़ाने की जगह मनोबल को तोड़ने का काम किया जा रहा है।
कब तक होगा शिक्षा के अधिकार का हनन ?
जबकि यह शिक्षकों और स्कूल प्रबंधन का कर्तव्य बनता है कि वह स्कूल का ऐसा वातावरण बनाए जहां भेदभाव का कोई स्थान न हो बल्कि बच्चे शिक्षकों के साथ बिना भय के अपने मन की बात साझा कर सकें। माहवारी किशोरियों की ज़िंदगी से जुड़ी एक प्राकृतिक प्रक्रिया है लेकिन जब स्कूल में इसी से संबंधित प्रबंध नहीं होंगे, उन्हें शौचालय की सुविधा नहीं मिलेगी तो हो सकता है कि भविष्य में किशोरियों के स्कूल बीच में ही छोड़ने की संख्या और बढ़ जाए। हम सभी स्वतंत्र देश के नागरिक हैं, सभी को शिक्षा प्राप्त करने का पूरा अधिकार है। इसके बावजूद देश में कई ऐसे गांव, बस्ती और कस्बे हैं जहां भेदभाव और बुनियादी सुविधाओं की कमी के कारण शिक्षा के अधिकार का हनन हो रहा है। जिसका सबसे ज्यादा नकारात्मक प्रभाव किशोरियों की शिक्षा पर पड़ता है।