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ग्राउंड रिपोर्ट

Lok Sabha election : क्या उत्तराखंड के पहाड़ भाजपा से मांगेंगे अपनी अस्मिता का जवाब? इस बार चौंका सकते हैं पहाड़ी राज्य के नतीजे

टिहरी सीट इस समय देश भर में चर्चा का विषय बन चुकी है क्योंकि युवा प्रत्याशी बॉबी पँवार ने भाजपा के लिए सिरदर्द पैदा कर दिया है। पिछले कुछ वर्षों में वह उत्तराखंड के युवाओं की आवाज बनकर उभरे हैं। उन्होंने पेपर लीक के खिलाफ पूरे प्रदेश के युवाओ के साथ आंदोलन किया जिसके चलते उन पर कई फर्जी मुकदमे दर्ज किये गए। बॉबी पँवार उत्तराखंड में चल रही बदलाव की आहट का प्रतीक हैं।

उत्तराखंड में 19 अप्रेल को सम्पन्न हो रहे लोकसभा चुनावों से चौंकाने वाले परिणाम आ सकते हैं। हालांकि ‘विशेषज्ञ’ भाजपा को 5 सीट दे रहे हैं लेकिन हकीकत यह है कि भाजपा के पास बताने के लिए कुछ है नहीं। अयोध्या में राम मंदिर के नाम पर उत्तराखंड तो क्या उत्तर प्रदेश में भी लोग वोट देने को तैयार नहीं है। लेकिन ऐसा लगता है कि भाजपा के प्रशंसक उसे ही अपनी नैया का खेवनहार समझ रहे हैं।

असल में उत्तराखंड में भाजपा अजेय है ये सोचना ही गलत है लेकिन ऐसी स्थिति काँग्रेस के थके हारे नेतृत्व के चलते बनी है, जो समय पर जनमानस के प्रश्नों को पूरी शिद्दत के साथ उठाने में असमर्थ रही है। भाजपा के नरेंद्र मोदी का उत्तराखंड से लगातार ‘रिश्ता’ बना रहा चाहे वो किसी भी प्रकार का हो लेकिन काँग्रेस नेतृत्व यहां कभी भी गंभीरता से नहीं आया।

दिल्ली से ऐसे लोगों को उत्तराखंड पर थोपा गया जिन्हें उत्तराखंड की संवेदनशीलता और स्थानीय प्रश्नों की जानकारी भी नहीं है। भाजपा के पास संसाधन और सत्ता दोनों हैं लेकिन उसका अति विश्वास उसपर भारी पड़ सकता है। उत्तराखंड में पाँच संसदीय सीटे हैं लेकिन कोई भी ऐसी नहीं है जहा लड़ाई नहीं है। असल में कांग्रेस के पास अभी भी नेतृत्व की कमी साफ दिखाई दे रही है। सत्ता का सुख भोग चुके नेता उत्तराखंड में कोई प्रेरणादायी नेतृत्व नहीं दे सके। हरीश रावत जरूर एक पहचान थे लेकिन उनका दौर अब जा चुका है और बेटा-बेटी को राजनीति में स्थापित करने के चक्कर में वह उनकी सेवा तक ही सीमित रह गए हैं।

पौड़ी-गढ़वाल और अल्मोड़ा-पिथौरागढ़ में सबसे रोचक मुकाबला

उत्तराखंड की दो सीटों पर सबसे रोचक मुकाबला है। पौड़ी गढ़वाल सीट पर कांग्रेस ने राज्य में पार्टी के पूर्व प्रमुख श्री गणेश गोड़ियाल को उम्मीदवार बनाया है। गणेश गोड़ियाल जनता में लोकप्रिय हैं और भारतीय जनता पार्टी के दिल्ली से थोपे गए उम्मीदवार पर भारी पड़ रहे हैं जिनके पास सत्ता बल, धन बल और दिल्ली के दरबारी पत्रकारों का खुला समर्थन भी है। इस संसदीय क्षेत्र में राजपूत मतदाताओ को लुभाने के लिए राजनाथ सिंह को भी बुलाया गया जिन्होंने कहा कि उत्तराखंड वासी केवल एक सांसद ही नहीं चुन रहे अपितु आगे खुद ही समझ लीजिए। मतलब ये कि अनिल बलूनी, मोदी दरबार के एक प्रमुख दरबारी हैं और इसलिए उनसे ये न पूछा जाए कि वह उत्तराखंड के लिए क्या करेंगे या उन्होंने क्या किया है। वैसे तो सवाल दूसरे व्यक्ति से भी होना चाहिए जो यहा से सांसद हैं कि आखिर उन्होंने किया क्या? यदि लोग केवल पार्टी या मोदी को वोट करें तो पूर्व संसाद को हटाया क्यों गया और उनकी असफलताओ का हिसाब वर्तमान प्रत्याशी से क्यों नहीं ? दरअसल गणेश गोड़ियाल के साथ में अभी भी कांग्रेस के तथाकथित बड़े नेता नहीं आ पाए हैं। हरीश रावत, अपने पुत्र मोह में हरिद्वार में ही फंस के रह गए हैं और प्रीतम सिंह कोई ऐसे नेता नहीं हैं जिनके नाम पर पहाड़ी क्षेत्र के लोगों पर कोई प्रभाव पड़े। खैर, गणेश गोड़ियाल अच्छी फाइट दे रहे हैं और यदि लोगों ने समझदारी से वोट दिया तो वह चुनाव जीत सकते हैं।

अल्मोड़ा पिथौरागढ़ सीट पर कांग्रेस के उम्मीदवार प्रदीप टमटा पहले भी यहां का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं और एक बार राज्य सभा के सदस्य भी रह चुके हैं। वैचारिक तोर पर प्रदीप एक मजबूत जातिविरोधी सांप्रदायिकता विरोधी सोच के व्यक्ति हैं और हमेशा जनपक्षीय सरोकारों से जुड़े रहे हैं। भाजपा उम्मीदवार अजय टमटा के पास दिखाने के लिए मोदी जी की तस्वीर के अलावा और कुछ नहीं है। क्योंकि पिथौरागढ़ क्षेत्र सीमांत इलाका है और यहां अनुसूचित जाति-जनजाति के वोटरों की संख्या अधिक है और उस संदर्भ में भाजपा का ट्रैक रिकार्ड अच्छा नहीं रहा है। उत्तराखंड के अंदर अनुसूचित जाति-जनजाति के लिए आने वाला बजट कभी भी पूरा खर्च नहीं होता। ये भी खबरे हैं कि उसका इस्तेमाल दूसरे कार्यों के लिए भी होता है। राज्य में न ही भूमि सुधार हुए और न ही इन दमित वर्ग के लोगों को कोई विशेष रियायत दी गई। उनके आरक्षण पर भी सवाल खड़े किये जाते हैं। अब उत्तर प्रदेश और अन्य राज्यों में भाजपा के नेताओ द्वारा चार सौ पार के नारे की सच्चाई भी सामने आने लगी है। प्रधानमंत्री ने तो कह दिया कि यदि बाबा साहब अंबेडकर भी आ जाएं तो संविधान नहीं बदल सकते लेकिन हकीकत ये है कि भाजपा और हिन्दुत्व का एक बहुत बड़ा वर्ग इस संविधान को भारत की आत्मा मानता ही नहीं है और इसे बदलने की वकालत करता है। इसलिए चार सौ पार को लेकर भाजपा अपने दरबारी और भक्त काडर को यह समझा रही है कि संविधान बदलने के लिए उसे चार सौ चाहिए। संविधान को बदलने की क्या जरूरत है जब सरकार अपनी मर्जी से परिवर्तन कर रही है।

उत्तराखंड के स्थानीय मुद्दों को उठाने का सबसे सही समय

खैर, इन चुनावों मे उत्तराखंड के पास अवसर है सवाल पूछने का। सबसे बड़ा सवाल यही है कि विकास के नाम पर उत्तराखंड के विनाश की कहानी किसने लिखी ? किसने दिया उत्तराखंड की पवित्र नदियों के व्यापार का ठेका। रैनी गाँव के लोगों का क्या हुआ ? जोशीमठ पर आए संकट के समाधान के लिए क्या किया गया ? सड़क और रेलवे के नेटवर्क के नाम पर उत्तराखंड के जल-जंगल-जमीन को लूटने की छूट किसने दी? क्या यूनिफॉर्म सिवल कोड उत्तराखंड की मांग थी या ये इसलिए लाया गया ताकि भू कानूनों और मूल निवास के प्रश्नों से ध्यान भटकाया जा सके। तराई में चकबंदी और सीलिंग के सवाल बहुत महत्वपूर्ण हैं लेकिन मजाल क्या कि उस पर चर्चा हो सके और हर एक सवाल को मुसलमानों से जोड़ कर ऐसा बना दिया गया मानो वे सभी उत्तराखंड में आकर जमीनें हड़प रहे हों। सरकार देख ले कि पिछले 20 वर्षों में उत्तराखंड में अवैध होटल और रिज़ॉर्ट आदि किन लोगों के हाथ में हैं। इसका डाटा निकालकर सबके सामने रखे और बताए कि इनमें से पहाड़ के लोगों के हाथ में कितने हैं। सभी जानते हैं कि रामदेव के पास कितनी जमीन है और बिना सरकार की कृपया के वो ले नहीं सकता है। सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी उत्तराखंड की सरकार और यहां के अधिकारियों के काम-काज पर एक साफ टिप्पणी है।

उत्तराखंड मे रोजगार के प्रश्न पर सरकार चुप बैठी है। पेपर लीक की घटनाओ पर रोक नहीं लग पाई है। अग्निवीर योजना ने तो उत्तराखंड के हजारों युवाओ के सपनों पर पानी फेर दिया है जो सेना में भर्ती होकर देश सेवा का जज्बा रखते थे और अपने भविष्य का निर्माण भी करना चाहते थे लेकिन मजाल क्या कि भाजपा के नेता इन सवालों पर कुछ बोलते। राजनाथ सिंह ने बेशर्मी से कह दिया कि ये योजना तो जारी रहेगी। अपने बेटे के लिए और अपनी कुर्सी बचाने के लिए अपने ही प्रदेश के नौजवानों के साथ कितना धोखा ये नेता करते हैं और लोग इनके दर्शन के लिए उतावले रहते हैं। बार बार राम मंदिर के निर्माण का प्रश्न उत्तराखंड मे कोई मायने नहीं रखता। वो प्रदेश जो पौराणिक रूप से शिव का धाम रहा हो और हमारे सारे महत्वपूर्ण धर्मस्थल जहा पर हों वहां राम मंदिर लोगों को बहुत लुभा पाएगा ऐसा नहीं लगता। उत्तराखंड के लोग खान-पान और रहन-सहन के विषय में उन क्षेत्रों के बाबाओं से कुछ ज्ञान नहीं लेना चाहते जो उन्हे ये बताएंगे कि अब तक तो वो सही भोजन नहीं कर रहे थे। उत्तराखंड के लोग शिव परंपरा के हैं जो उदार होते हैं और अपने स्वाभिमान के साथ कोई समझौता नहीं करते।

आज उत्तराखंड के लोग ये प्रश्न भी सरकार से पूछ रहे हैं कि बाबा केदार पर सोने के पत्र चढ़ाने के नाम पर पीतल दान करने वाले कौन हैं ? यदि ये मुद्दा किसी दूसरे समय होता तो भाजपा उस पर पूरे देश भर में आंदोलन कर डालती और हिन्दुओं के देवी-देवताओ के अपमान का प्रश्न बनाकर उनके वोटों का सौदा करती लेकिन आज उत्तराखंड में केदारनाथ के मंदिर से सोना गायब होने की घटना या सोने के स्थान पर पीतल चढ़ा देने की पूरी घटना को मीडिया ने भुला दिया।

भाजपा ने बेशर्मी से पूरी खबर दबा दी। जिस समय केदारधाम मंदिर में सोने की कोटिंग या उसके पत्र चढ़ाने की बात हो रही थी उस समय वहा के पुरोहितों ने उसका विरोध किया था। उनका कहना था कि यह इस ऐतिहासिक मंदिर की ऐतिहासिकता के साथ खिलवाड़ होगा लेकिन प्रदेश सरकार ने उस विरोध के बावजूद ऐसा होने दिया। अब इस बारे में चुप्पी साध ली जब बाद में यह पता चला कि जिसे सोना बोलकर प्रचारित किया गया वह असल में पीतल है। जो हिन्दुओं की इतनी बड़ी आस्था के साथ खिलवाड़ करे उन पर कोई कार्यवाही नहीं होती। अगर इस विषय में आ रही खबरे गलत हैं तो सरकार बताए कि असलियत क्या है ? क्या ये सोना भी इलेक्टरल बॉन्ड की तरह तो नहीं था ?

उत्तराखंड की बेटी अंकिता भंडारी को न्याय कब मिलेगा ?

उत्तराखंड की बेटी अंकिता भण्डारी के साथ हुए अत्याचार के अपराधियों को भाजपा की सत्ता का प्रश्रय रहा है। पूरे पहाड़ के अंदर लोगों मे इस बात को लेकर इतना गुस्सा है कि मोदी की गारंटी के शोर में अंकिता भंडारी को भुलाया नहीं जा सकता। आखिर अंकिता भण्डारी के हत्यारे कौन हैं और क्यों सरकार उन्हें बचा रही है? असल मे अंकिता भण्डारी का प्रश्न अब पहाड़ बनाम मैदान के मतभेदों में बदल चुका है। उत्तराखंड राज्य का गठन हिमालय की अस्मिता के सवाल से पैदा हुआ है लेकिन धीरे-धीरे करके वह गायब होता जा रहा है। पहाड़ों में रिज़ॉर्ट संस्कृति के मालिक बड़े पैसे वाले लोग हैं जो मुख्यतः मैदानी भागों से हैं। नदियों, पहाड़ों को काट-काट कर बड़े-बड़े होटल और रिज़ॉर्ट बनाए जा रहे हैं। पहाड़ का युवा पलायन कर रहा है और उसके लिए पलायन आयोग बना भी था लेकिन कुछ हुआ नहीं। आज भी पहाड़ में 2000 से अधिक गाँव भूत गाँव कहे जाते हैं। उत्तराखंड में पहाड़ी क्षेत्रों की आबादी लगातार कम हो रही है जबकि उसके मुकाबले मैदानी क्षेत्रों की आबादी हर वर्ष बड़ी रफ्तार से आगे बढ़ रही है जिसके चलते आने वाले समय में जब भी परिसीमन होगा तो पहाड़ी क्षेत्रों का राज्य विधानसभा में प्रतिनिधित्व कम होगा और मैदानी क्षेत्रों का बढ़ेगा। यह आने वाले समय में व्यापक असंतोष का कारण बन सकता है। भाजपा सरकार की और से पहाड़ी लोगों को ऐसा कोई वादा नहीं है कि ऐसा नहीं होगा।

अंकिता मामले मे भी उत्तराखंड के पहाड़ और मैदान की खाई दिखाई देती है। पहाड़ में लोग ये मानते हैं कि मैदानी भागों के लोग वहां आकर अपने पैसे के दम पर बदतमीजी करते हैं और उत्तराखंड के पहाड़ों को इस नजर से देखते हैं मानो कोई इन्हें अपना शोषण करने को आमंत्रित कर रहा हो। हिमालयी क्षेत्रों मे महिलाएं और पुरुष साथ-साथ काम करते हैं और यौनिक हिंसा और कानून व्यवस्था की स्थिति आम तौर पर मैदानी इलाकों की तुलना मे बहुत अच्छी होती है। इसलिए अंकिता भण्डारी पर हुए अत्याचार से हिमालय सहमा है क्योंकि इस प्रकार की घटनाएं वहां पर नहीं होती हैं।

भाजपा इस संदर्भ में पहाड़ के लोगों को कोई संतोषजनक उत्तर नहीं दे पाई क्योंकि उनकी पार्टी के बड़े नेता का पुत्र इसमें आरोपित है और पार्टी उसे पूरी तरह से बचा रही है। इसलिए पहाड़ की इस चिंता पर पार्टी चुप है और उसने पहाड़ बनाम मैदान के इस प्रश्न से ध्यान भटकाने के लिए हिन्दू-मुस्लिम का कार्ड खेला जिसमें वह कुछ हद तक कामयाब हो गई फिर भी मूलनिवास  का सवाल, अंकिता को न्याय, केदारनाथ का सोना चोरी, पहाड़ों का दोहन और अग्निवीर आदि प्रश्न पहाड़ मे अभी भी मुख्य बने हुए है और भाजपा के लिए परेशानी पैदा कर रहे हैं।

गैरसैंण को राजधानी बनाने के नाम पर सिर्फ छल

जब उत्तराखंड राज्य बना था तो पूरे हिमालय में सहमति थी कि गैरसैंण यहां की राजधानी होगी। लेकिन अब विधायक, नेता, अधिकारी नहीं चाहते कि वे देहरादून छोड़कर वहा जाएं। पहले विधान सभा का एक सत्र वहां होता था लेकिन वो भी सरकार ने नहीं होने दिया क्योंकि ‘वहा ठंड’ अधिक थी। हकीकत यह है कि बड़े नेता और अधिकारी नहीं चाहते कि वे ऐसी जगह पर रहें जहा जनता उनसे आसानी से संवाद करे।

उत्तराखंड के लोगों में व्यापक असंतोष हैं लेकिन कांग्रेस पार्टी के पास कोई भी प्रेरणादाई नेतृत्व नहीं है। हरीश रावत अपनी बाजी हार चुके हैं और अब केवल अपने बेटे को स्थापित करने की लड़ाई लड़ रहे हैं। उन्हें प्रदेश मे चुनाव प्रचार करना चाहिए था लेकिन वो नहीं कर पा रहे। ये जरूर हैं कि कांग्रेस पार्टी के प्रत्याशी गणेश गोड़ियाल और प्रदीप टमटा अपने क्षेत्रों मे अच्छी टक्कर दे रहे हैं और सीट निकालने की संभावना है।

युवा नेता बॉबी पँवार ने टिहरी गढ़वाल की सीट पर लड़ाई को बनाया रोचक

उत्तराखंड की जिस सीट के नतीजे पूरे प्रदेश के लिए निर्णायक हो सकते हैं वह है टिहरी गढ़वाल की सीट जहां से भाजपा प्रत्याशी और यहां की महारानी माला राज लक्ष्मी शाह चुनाव मैदान में है। हालांकि कांग्रेस ने यहां पर अपना एक प्रत्याशी दिया है लेकिन वो मुकाबले में दिखाई नहीं देते। टिहरी सीट इस समय देश भर में चर्चा का विषय बन चुकी है क्योंकि युवा प्रत्याशी बॉबी पँवार ने भाजपा के लिए सिरदर्द पैदा कर दिया है। 26 वर्षीय बॉबी पँवार एक निम्न मध्यवर्गीय पृष्ठभूमि से आते हैं जिन्होंने बचपन में ही अपने पिता को खो दिया था। उनकी मा आंगनवाड़ी कार्यकर्ता है और पिछले कुछ वर्षों में वह उत्तराखंड के युवाओं की आवाज बनके उभरे हैं। उन्होंने पेपर लीक के खिलाफ पूरे प्रदेश के युवाओ के साथ आंदोलन किया जिसके चलते उन पर कई फर्जी मुकदमे दर्ज किये गए। बॉबी पँवार उत्तराखंड में चल रही बदलाव की आहट का प्रतीक हैं । उत्तराखंड को भाजपा अपना अजेय ग़ढ़ समझती थी लेकिन उत्तराखंड भाजपा को बड़ा झटका दे सकता है। बदलाव की इस हवा को काँग्रेस पार्टी के नेतृत्व को समझना चाहिए था और बॉबी जैसे युवाओ को तुरंत समर्थन दे देना चाहिए था जिसके चलते उन्हें पूरे प्रदेश में युवाओं की भरोसा हासिल होता। टिहरी में कांग्रेस कुछ कर नहीं पाएगी और इसलिए समय चलते वह अपना उम्मीदवार यदि बॉबी पँवार के पक्ष में वापस ले ले तो न केवल भाजपा के लिये सीट निकालना मुश्किल होगा अपितु उत्तराखंड के इतिहास में एक महत्वपूर्ण अध्याय भी लिख दिया जाएगा।

टिहरी का चुनाव इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि यह राजशाही के विरुद्ध लोगों की निर्णायक लड़ाई होगी। हमें समझना पड़ेगा कि ये वही राजशाही है जिसके विरुद्ध प्रजा परिषद का आंदोलन चला था और श्रीदेव सुमन जैसे लोगों की शहादत हुई। याद रहे कि टिहरी की राजशाही शुरुआत में भारत राज्य में मिलने को तैयार नहीं थी और जनता के विद्रोह के बाद ही उसे मजबूर होकर मिलना पड़ा और अंततः एक अगस्त 1949 को टिहरी राज्य भारत के गणतंत्र का हिस्सा बना और उत्तर प्रदेश राज्य का एक जिला।

टिहरी से बॉबी पँवार की जीत इस हिमालयी प्रदेश में एक नई राजनीति का सूत्रपात कर सकती हैं हालांकि अभी भी तीसरे दल के लिए प्रदेश मे जगह नहीं है और यह कई बार साबित हो चुका है। उत्तराखंड में लोगों ने बहुत समझदारी से वोटिंग की है। 1980 में तमाम तामझाम के बावजूद गढ़वाल सीट पर हेमवती नंदन बहुगुणा चुनाव जीते थे हालांकि उस चुनाव के बाद यहा पर ब्राह्मण ठाकुर के अंतर्द्वंद्व बहुत उभर गए थे लेकिन शायद पुनः धीरे-धीरे कम हो रहे हैं। उत्तराखंड में शिल्पकार समुदाय की आबादी भी अपने अधिकारों के लिए संघर्षरत है इसलिए केवल ब्राह्मण-ठाकुरों के सवाल ही यहां के सवाल नहीं है अपितु दलित-पिछड़ों का प्रश्न भी अति महत्वपूर्ण है। एक बात अवश्य ध्यान रखनी चाहिए और वो ये कि ‘दिल्ली के कनेक्शन’ या दिल्ली में मंत्री पद या दिल्ली का मीडिया आदि से प्रभावित हुए बगैर लोग उसे चुनें जो उनके प्रश्नों पर उनके साथ खड़ा रहे। उत्तराखंड की पांचों सीटों पर भाजपा के लिए राह इतनी आसान नहीं होगी जितना दिल्ली के प्री- पोल सर्वे हमें बताने की कोशिश कर रहे हैं। उत्तराखंड के लोगों को चाहिए कि ध्यान भटकाने वाली खबरों और सर्वे पर न जाकर अपने भले-बुरे की सोचकर और दस वर्षों का हिसाब मांगने के बाद वोट करे। ये चुनाव उत्तराखंड और देश के भविष्य के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं इसलिए सभी लोग समझदारी से वोट कर ऐसे लोगों को चुनें जो वीआईपी न हों और जनता के दुःख-दर्द को समझते हों। इसके लिए सबसे जरूरी है भ्रष्ट जातिवादी मीडिया के भ्रामक प्रचार से दूर रहकर बेखौफ होकर वोट करें ताकि आप एक सही निर्णय ले सकें जो आपके प्रदेश और लोकतंत्र को मजबूत कर सके।

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