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रस्सी कूद : दुनिया में जिसकी गाथाएँ हैं वह भारत में टूर्नामेंट में भी नहीं शामिल है

रस्सी कूद एक लोकप्रिय और सबसे किफ़ायती खेल है जिसके लिए बहुत तामझाम की आवश्यकता नहीं पड़ती। खेल के इतिहास में रस्सी कूद में कई उतार-चढ़ाव आए लेकिन प्राचीनकाल से ही अनेक देशों में मौजूद यह खेल आज वैश्विक रिकॉर्ड वाला खेल बन चुका है। खेल के रूप में इसे बचाने के लिए रस्सी कूद विश्व संगठन FISAC-IRSF की स्थापना की गई जिसका उद्देश्य दुनिया भर में रस्सी कूदने के खेल को विकसित करना और लोकप्रिय बनाना था। लेकिन हमारे देश में यह खेल मर-मर कर जी रहा है। हाल के दिनों में हमने गौर किया कि मानव जीवन की दैनिक खेल गतिविधियों से कई खेल फिसड्डी होते गए हैं। इनमें रस्सी कूद भी शामिल है। अब इसे स्कूली टूर्नामेंट में भी शामिल नहीं किया जा रहा। हालांकि रोप जंप फेडरेशन ऑफ इंडिया इसके विकास के लिए लगा है। बेशक आज देश के पास इसके संस्थागत विकास के सारे संसाधन मौजूद हैं लेकिन मजबूत इच्छाशक्ति के अभाव में सारी चीजें महज़ औपचारिकता बनकर रह जा रही है।

बहुत दिनों के बाद मेरी मुलाक़ात रुक्मिणी से हुई। ज़िंदगी के प्रति उसका आत्मविश्वास देखकर खुशी हुई। मेरी एक और मित्र ने बताया था कि रुक्मिणी का पारिवारिक जीवन तनावपूर्ण हो गया था जिसके कारण वह गहरे डिप्रेसन में चली गई थी। यहाँ तक कि वह अपने बच्चे के साथ अपने माँ-बाप के घर में रहने लगी थी। लेकिन आज उसे देखकर मुझे कतई नहीं लगा कि वह बहुत कठिन दिनों से गुजरी होगी।

वह अपने माँ-बाप की इकलौती संतान है। बातचीत में उसने पुराने दिनों को साझा किया। उसने कहा कि ‘मुझे ऐसा लगा जैसे अब कभी नॉर्मल नहीं हो पाऊँगी। बच्चे के भविष्य को लेकर मैंने सोचना बंद कर दिया था। माँ-पिताजी भी बूढ़े हो रहे थे। मेरे बजाय वे ही सोचते कि मेरा क्या होगा?’

उसने चहकते हुये कहा ‘लेकिन तुमको बताऊँगी तो शायद तुम्हें अजीब लगे। लेकिन एक दिन यूं ही घर में बैठे हुये मुझे एक लंबी रस्सी दिखी तो बेसाख्ता मुझे बचपन की याद आ गई। तुम्हें तो याद ही होगा कि हम रोज कितनी रस्सी कूदते थे उन दिनों। बस उसी रस्सी ने मुझे यह दिन दिया है।’

उसने बताया ‘मेरा वजन काफी बढ़ गया था और उत्साह तो जीवन में बिलकुल नहीं था लेकिन मैंने वह रस्सी ली और कमरा बंद कर बत्ती जलाया और कूदने की कोशिश की। आदत अब थी नहीं। कई बार बैलेंस बिगड़ा और गिरी भी लेकिन सचमुच मुझे बहुत मज़ा आया। जल्दी ही थककर हाँफने के बावजूद मैं उसे इंजॉय कर रही थी। इतनी खुशी मुझे कभी नहीं मिली थी।’

रुक्मिणी के चेहरे से सचमुच खुशी बरस रही थी। उसने कहा –‘वह दिन है और आज का दिन। ऐसे लगता है जैसे मैंने फिर से बचपन वापस पाया हो। अब तो मैं अपने बेटे को भी साथ में शामिल करती हूँ। हम दोनों एक साथ कूदते हैं। और तुमको बताऊं। मेरा वजन बीस किलो कम हुआ है। मेरी मान तो तू भी ट्राई कर। तेरा पेट अंदर हो जाएगा।’

स्किपर क्रू के सदस्य अपनी नियमित दिनचर्या का पालन करते हुए। (फोटो – ईपीएस)

हालांकि मैंने अभी तक ट्राई नहीं किया है लेकिन उस दिन से सोचा जरूर है कि लड़कियों में इसकी रुचि अब कितनी है। क्या वे अब भी रस्सी कूदने में दिलचस्पी लेती हैं। रस्सी कूदना हमारे यहाँ सबसे किफ़ायती और सबसे कम झंझट वाला खेल है। इसमें बस एक रस्सी की जरूरत है और जगह तो बहुत कम लगती है। बमुश्किल पाँच फीट लंबी-चौड़ी। इसके अतिरिक्त न किसी खेल के मैदान की जरूरत और न किसी साथी खिलाड़ी की। साथ मिले तो हज़ारों-लाखों लोग एक साथ कूद सकते हैं और कोई साथ न हो तो अकेले ही कूदते रहिए। मज़े की गारंटी पूरी है।

बदलती हुई परिस्थितियों और नई आर्थिक नीतियों के प्रभाव के चलते बहुत सी लड़कियाँ खेलों में आगे आई हैं और देश-दुनिया में अपना और देश का नाम ऊँचा किया है। एथलीट, कुश्ती, भारोत्तोलन, क्रिकेट, हाकी, तीरंदाजी, पर्वतारोहण, वालीबाल, फुटबाल, विम्बलडन, टेबुल टेनिस, बास्केट बॉल, कबड्डी, ऊँची कूद, लंबी कूद सभी में लड़कियों ने परचम लहराया है। क्या रस्सी कूद में भी उन्होंने कोई मेडल लिया है?

उत्साह बाकी है लेकिन रस्सियाँ कम हो गई हैं

मैंने स्कूली लड़कियों से पता करने की सोची। सबसे पहले भदोही जिले की बड़वापुर प्राइमरी पाठशाला के बच्चों से बात हुई। लड़के-लड़कियाँ सभी के चेहरे खिल गए। उन्होंने उत्साह से हाथ उठाया और शोर मच गया। अध्यापक से पूछकर कुछ लड़कियाँ रस्सी लाने स्टोर की ओर भागीं। लेकिन जब वे लौटीं तो उनके पास केवल तीन रस्सियाँ थीं।

बच्चों में कूदने की होड़ लग गई। पहले रस्सी लड़कियों के कब्जे में थी इसलिए वे विजेता भाव से कूद रही थीं लेकिन अनेक लड़के हाथ ऊँचा करके विक्टरी का चिन्ह बनाते हुये कहा मैं इनसे अच्छा कर दूँगा। मुझे रस्सी दिलवाइए। यह मेरे बस में नहीं था। लड़कियाँ रस्सी छोड़ने को तैयार न थीं। दो स्वतंत्र रूप से कूद रही थीं और एक ने जोड़ा बनाया। दो लड़कियाँ एक ही रस्सी पर एक साथ कूदतीं और अपनी गति बढ़ाती जातीं।

कुछ बच्चों ने बताया कि वे क्रॉस जंप कर सकते हैं। ऐसा लगता है उन्होंने अच्छा अभ्यास किया है। लेकिन रस्सियों की कमी से पता चलता है कि इस खेल के लिए माहौल उत्साहजनक नहीं है। इस विद्यालय के बहुत से बच्चे इस साल राष्ट्रीय आय एवं योग्यता आधारित छात्रवृत्ति परीक्षा में उत्तीर्ण हुये हैं। इनके मेंटर अध्यापक रामलाल यादव उनकी तैयारियों के पीछे जान लगा देते हैं। यहाँ पढ़नेवाले ज़्यादातर बच्चे अत्यंत निर्धन और पिछड़ी-दलित जातियों से आते हैं। बेहतर पढ़ाई के लिए पैसा इनकी बहुत बड़ी जरूरत है लेकिन खेलों के प्रति यह उदासीनता अच्छी नहीं है।

बड़वापुर विद्यालय की लड़कियां रस्सी कूदती हुई

यहाँ की अध्यापिका अमरीन बानो मुस्कराते हुये यह स्वीकारती हैं कि बचपन में उनकी भी दिलचस्पी रही है। वह कहती हैं ‘बाहर का तो नहीं पता लेकिन मेरे स्कूल में रस्सी कूद होती है। अगर इन्हें रस्सियाँ मिल जाएँ तो लड़कियाँ बहुत अच्छा खेलती हैं। और लड़के भी उतना ही अच्छा खेलते हैं। बल्कि बहुत अच्छा खेलते हैं। लेकिन इसको लेकर कोई योजना नहीं है। सोचते हैं कुछ नहीं है तो चलो रस्सी कूद लेते हैं।’

अमरीन बानो कहती हैं कि यह बहुत फायदेमंद है। फिटनेस के लिए इससे बढ़िया कोई साधन नहीं है। न केवल शारीरिक बल्कि मानसिक स्वास्थ्य के लिए भी यह बहुत उपयोगी है। लेकिन दुर्भाग्य से इसे कोई प्रोत्साहन नहीं मिलता वरना यह भी एक बेहतरीन खेल होता।

मिर्ज़ापुर जिले की सामाजिक कार्यकर्ता संध्या कहती हैं कि रस्सी कूद पहले बहुत लोकप्रिय था लेकिन अब उसका चलन सिमट गया है। इसके पीछे एक नहीं कई कारण हैं। अब वह सामाजिकता और मोहल्लेदारी नहीं रही जहां एक उम्र की बहुत सारी लड़कियाँ एक साथ पास-पड़ोस की किसी खाली जगह पर रस्सी कूदती या दूसरे खेल खेलतीं। अब सभी के अपने काम हैं लेकिन मुझे लगता है लड़कियों के ऊपर दबाव बढ़ा है जिस कारण उनकी सहज स्वतन्त्रता खत्म हो गई है। तीसरे अब हर खेल फायदे से जुड़ गया है। लड़का या लड़की को प्रोत्साहन तभी मिलता है जब लगता है वह उसमें नाम बनाएगा। रस्सी कूदने से शरीर तो ठीक रह सकता है लेकिन उसमें समय लगाकर किसी को नाम या पैसा नहीं मिल सकता।’

टूर्नामेंट के समय रस्सियाँ स्टोर में रख दी जाती हैं

भदोही जिले में खेम्हईपुर उच्च प्राथमिक विद्यालय कई कारणों से अलग महत्व रखता है। इसकी बागडोर संभालनेवाली अध्यापिका उर्मिला देवी अंतर्राष्ट्रीय गोल्ड विजेता एथलीट हैं और यह उपलब्धि उन्होंने चालीस की उम्र पार होने पर ही हासिल की। उनके विद्यालय में तीस रस्सियाँ थीं।

लेकिन जैसे ही रस्सियाँ निकाली गईं तो बच्चों में छीना-झपटी होने लगी। उर्मिला देवी ने उन्हें डाँटा। उन्होंने कहा –‘आप देख रही हैं। तीस रस्सियाँ मैंने मंगाई है लेकिन वे भी कम पड़ गईं। अब लगता है और मंगवानी पड़ेंगी।’

उर्मिला बताती हैं कि ‘पहले रस्सी कूद गेम होता था। लड़कियां बहुत रुचि रखती थी। लड़कियाँ आज भी रुचि रखती हैं। लड़कियाँ ग्रुप में रस्सी कूदती हैं। यहाँ तक कि स्कूल की शिक्षिकाएँ भी इसमें शामिल होती हैं। हमारे विद्यालय में प्रत्येक शनिवार खेल प्रतियोगिता का आयोजन होता है। उसमें रस्सी कूद भी है पर विभागीय तौर पर यह कोई महत्व नहीं रखती। इसलिए इसकी कोई योजना आगे नहीं बढ़ पाती है। जैसे और प्रतियोगाताएं जिला लेवल पर खो खो, कबड्डी, बालीबाल क्रिकेट हॉकी आदि हैं वैसे रस्सी कूद नहीं है। अभी हॉकी में हमारे स्कूल की लड़कियाँ झाँसी में राष्ट्रीय स्तर पर खेल कर आई हैं।  लडके हाकी खेल के आये हैं। ये सब बेसिक शिक्षा परिषद से चयन होकर जिला और मंडल से निकलते हुए स्टेट में प्रतिभाग कर के आये हैं।’

उच्च प्राथमिक विद्यालय,खेम्हाईपुर भदोही की प्रभारी प्रधानाचार्य उर्मिला देवी अपने विद्यालय के बच्चों के साथ।

वह कहती हैं कि विद्यालय के अनेक कामों के चलते हम रस्सी कूद पर ध्यान नहीं दे पाते। हमारा आधा घंटा गेम के लिए रोज निर्धारित है। अगर विभाग के बेसिक गेम में रस्सी कूद प्रतियोगिता को शामिल कर लिया जाए तो बच्चियाँ उसमें भी मेडल लेकर आएँगी। लेकिन यह दुख की बात है कि अभी सितम्बर में गेम होने लगेंगे तो रस्सी को अन्दर रख दिया जाएगा।’

केवल स्कूली टूर्नामेंट में ही नहीं देश में भी उपेक्षित

लेकिन रस्सी कूद के साथ यही रवैया पूरे देश में है जबकि भारत में रस्सी कूद बहुत पुराने समय से होता आ रहा है। अगर छानबीन की जाय तो बहुत से मिले-जुले तथ्य सामने आते हैं। ये तथ्य बहुत सकारात्मक संकेत देते हैं इसके बावजूद इसके लिए जो दीवानगी चाहिए वह यहाँ पर असंभव की हद तक जा पहुंची है।

पंजाब में रस्सी कूद की राज्य स्तरीय प्रतियोगिताएं  होती रही हैं। पंजाब रोप स्कीपिंग फेडरेशन नामक एक संस्था राज्य में इसका आयोजन करती रही है, हालांकि वहाँ भी यह खेल उपेक्षा का शिकार होने लगा है। लोगों का मानना है रस्सी कूद शरीर को स्वस्थ रखने के लिए सबसे बढि़या साधन है लेकिन समय के अभाव और नए ग्लैमरस खेलों के कारण इसके प्रति रुझान कम हुई है। हालांकि स्कूल गेम्स आफ इंडिया और अन्य कई बोर्ड इसे खेल को मान्यता देते हैं। फिर भी भारत सरकार ने इसे बढ़ावा नहीं दिया है

jump rope fedration of india
भारतीय जंप रोप फेडरेशन ऑफ इंडिया में अभ्यास सत्र

भारत में रस्सी कूद की राष्ट्रीय संस्था जंप रोप फेडरेशन ऑफ इंडिया है। हालांकि अनेक राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय आयोजनों में भागीदारी के के बावजूद यह संस्था अभी अपने फॉर्म में नहीं आ पाई है। जिस तेजी से भारत में अन्य खेलों के प्रति रुझान बढ़ा और प्रगति हुई है वैसा रस्सी कूद में अभी तक नहीं देखने को मिली है।

चौथी एशियाई रस्सी कूद चैंपियनशिप की मेजबानी भारत को मिली थी। यह आयोजन 9 फरवरी 2007 को तालकटोरा इनडोर स्टेडियम, नई दिल्ली में सम्पन्न हुआ था। आल इंडिया रोप स्कीपिंग फेडरेशन नामक संस्था इसे लोकप्रिय और रुचिकर बनाने की दिशा में काम कर रही है।

इसके बावजूद कि भारत में इस खेल को लेकर ढुलमुल रवैया है लेकिन कई भारतीयों ने इसमें रिकॉर्ड भी बनाया है। 3 फरवरी 2020 को गिनीज़ बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड द्वारा किए गए एक आयोजन में जोरावर सिंह नामक व्यक्ति ने roller skates skipping में वर्ल्ड रिकॉर्ड बना दिया। यह रिकॉर्ड उन्होंने केवल 30 सेकेंड में रोलर स्केट्स पर 147 बार रस्सी कूदकर बनाया था।  इस रिकॉर्ड की विशेषता यह थी कि या सामान्य रस्सी कूद नहीं थी बल्कि खिलाड़ी ने अपने पाँव में पहिये लगे जूते पहन रखे थे।

रायटर की रिपोर्ट के अनुसार ‘जोरावर सिंह ने कठिन परिश्रम से यह संभव किया। पहले वह डिस्कस थ्रोवर बनना चाहते थे लेकिन अपने साथ हुई एक दुर्घटना के कारण वह उसमें सफल नहीं हो सके। जब जोरावर 13 साल के थे, तो उन्होंने डिस्कस थ्रोअर के रूप में मेहनत शुरू की लेकिन एक दिन एक ट्रेनिंग दुर्घटना के कारण उनको स्लिप डिस्क हो गया। डॉक्टरों ने उनको कई महीने आराम करने की सलाह दी, लेकिन केवल एक सप्ताह के आराम के बाद उन्होंने अपनी शारीरिक फिटनेस को बनाए रखने के लिए स्किपिंग सीखना शुरू कर दिया। इससे जोरावर के मन में प्रतिस्पर्धी रस्सी कूद में रुचि पैदा हुई। जोरावर ने पहले राष्ट्रीय चैंपियनशिप और फिर दक्षिण एशियाई चैंपियनशिप पर विजय प्राप्त की।

दुनिया भर में रस्सी कूद एक लोकप्रिय खेल है 

माना जाता है कि ऐतिहासिक रूप से सबसे पहले रस्सी कूदने की शुरुआत चीन में हुई थी। नए साल का उत्सव मनाने का चीनियों का तरीका रस्सी कूदना था और यह खेल इतना लोकप्रिय हो गया कि पूरे चीन में खेला जाने लगा। इसके लिए रस्सी बनाने वाले कुशल कारीगरों की एक जमात ही हो गई। इसके अतिरिक्त फीनिशिया और प्राचीन मिस्र में भी रस्सी का इस्तेमाल कूदने के लिए किया जाता था।

प्राचीन यूनानी सभ्यता में भी रस्सी कूदने के सबूत मिलते हैं। उन दिनों के कई यूनानी चित्रकारों ने रस्सी कूदते बच्चों के चित्र बनाए हैं। वहाँ युवाओं में भी यह खेल लोकप्रिय था। इस खेल की प्रतियोगिता होती।

प्राचीनकाल में रस्सी कूदने का चलन नीदरलैंड में भी था और बहुत लोकप्रिय था। सत्रहवीं शताब्दी के पहले  दशक में यह खेल नाविकों के साथ अटलांटिक के पार चला गया। अमेरिका में डचों  के बीच यह बहुत जल्दी लोकप्रिय हो गया लेकि अंग्रेज रस्सी कूदने वालों को  बड़ी हिकारत की नज़र से देखते थे।

हडसन रिवर वैली की डच कॉलोनी अंग्रेजों का शासन था। रस्सी पर कूदनेवाला ऐसा खेल उन्हें बिल्कुल हास्यास्पद लगता था। डच निवासी बच्चे अपने घरों के सामने अपनी एक या दो रस्सियों से कूदते थे। कूदते समय बच्चे  तरह-तरह के गाने भी गाते थे। डच भाषा में गए जाने वाले गाने फ्रांसीसी या अंग्रेज नहीं समझ सकते थे। इसलिए अंग्रेज़ों ने डचों को अपमानित करने के लिए दो रस्सी वाली किस्म को ‘डबल डच’ कहना शुरू कर दिया। अंग्रेज़ डच संस्कृति को कमतर मानते थे।

बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध तक डबल डच अमेरिकी शहरों के मोहल्लों तक पहुँच गया। घर के सामने की खाली जगह, गलियाँ, फुटपाथ और पार्क ऐसे लोगों से भरे रहते जिनकी दिलचस्पी रस्सी कूदने में होती थी। लड़कियाँ अपनी माँ की कपड़ों की रस्सी के साथ फुटपाथ पर जाती थीं, अकसर वे कपड़े धोने के दिन की गीली रस्सी भी ले जातीं ताकि रस्सियाँ इतनी भारी हों कि ज़मीन पर ठीक से लग सकें।

लेकिन 1950 के दशक के अंत तक डबल डच लगभग विलुप्त हो गया क्योंकि युवाओं के बीच टेलीविज़न और रेडियो की लोकप्रियता ने इसे फीका कर दिया था। सन 1973 में न्यूयॉर्क पुलिस विभाग (NYPD) के अधिकारी यूलिसिस एफ. विलियम्स ने अपने युवा आउटरीच कार्यक्रमों में डबल डच का उपयोग करने का फैसला किया।

american double dutch rope skipping
अमेरिकी डबल डच रस्सी कूद

इस परियोजना को चतुराई से ‘रोप, नॉट डोप’ नाम दिया गया था और इसका उद्देश्य लड़कियों को शहर के भीतरी इलाकों के विनाशकारी प्रलोभनों से दूर रखना था। 1980 के दशक के दौरान संगठित डबल डच टीमों की संख्या बढ़ गई। अकेले न्यूयॉर्क शहर में पंद्रह सौ से ज्यादा जम्पर हो गए।

लड़कियों को गिरोह, ड्रग्स, अपराध और सेक्स के जाल से बचाने के लिए  पूर्व डीसी पुलिस अधिकारी डेविड वॉकर ने अमेरिकन डबल डच लीग (ADDL) का गठन किया था। उन्होंने डबल डच के अपने समुदाय पर सकारात्मक प्रभाव देखा था।

अमेरिकन डबल डच लीग की स्थापना के कुछ समय बाद मैकडॉनल्ड्स रेस्तराँ ने उसके साथ साझेदारी करते हुये स्थानीय और राष्ट्रीय स्तर पर टूर्नामेंट प्रायोजित करना शुरू कर दिया। वह इन आयोजनों के लिए बहुत ज़रूरी वित्तीय सहायता प्रदान करता था जिससे डबल डच को व्यापक दर्शक प्राप्त मिलने लगे और इसे एक खेल के रूप में वैधता मिली।

लेकिन नवें दशक में दोनों साझीदारों के बीच अंतर्विरोध खड़े हो गए। मैकडॉनल्ड्स ने अमेरिकन डबल डच लीग से संबंध तोड़ लिए। लीग को पैसा मिलना ही नहीं बंद हुआ बल्कि उसका व्यापक नेटवर्क भी ध्वस्त हुआ। अब उसे   मैकडॉनल्ड्स की ताकत और संसाधनों के बिना ही इसे आगे बढ़ाने का संघर्ष करना था। उसकी सदस्यता में गिरावट आई और टूर्नामेंट बहुत कम होने लगे। अक्सर इसका आयोजन दूर-दराज होने लगा। लेकिन कुछ ही वर्षों में फिर से डबल डच सड़कों पर वापस आ गया।

कहानियों की कमी नहीं 

आखिर ऐसा क्या है कि रस्सी कूद को इतनी उतार-चढ़ाव भरी यात्रा करनी पड़ी फिर भी उसकी लोकप्रियता कहीं कम नहीं हुई? एक तरह से यह खेल मर-मर कर जीता रहा है। क्यों यह जीवन के लिए अत्यंत जरूरी के खेल के रूप में अपनी बढ़त बनाए हुये है?

दरअसल मानव जीवन और स्वास्थ्य के लिए इसकी उपयोगिता और लाभ निर्विवाद है। यह शारीरिक और मानसिक चुस्ती-फुर्ती की कुंजी है और लाखों लोगों को इसने डिप्रेसन और तनाव से उबारा है। सबसे महत्वपूर्ण तो यह है कि यह बिना किसी टीम और ताम-झाम के और बहुत कम जगह में खेला जानेवाला खेल है। यह बिना किसी इन्वेस्ट का खेल है।

डॉक्टरों और फिजियोथेरेपिस्टों ने अपने मरीजों को ठीक करने में इसका भरपूर उपयोग किया है। दुनिया भर में लोग इसे जीतने उत्साह से अपनाते हैं उतने ही उत्साह से खेलते भी रहते हैं। दुनिया के अनेक प्रसिद्ध खिलाड़ियों ने अपने मूल खेल के दौरान घायल होने और अनफ़िट होने की दशा में रस्सी कूद करके अपने फॉर्म को पुनः पाया।

ऊपर जोरावर सिंह का ज़िक्र आया है जो डिस्कस थ्रो खेलना चाहते थे लेकिन 13 वर्ष की उम्र में कमर में चोट लगने से उनका सपना टूट गया। अपने को ठीक रखने के इरादे से वह रस्सी कूदने लगे और एक दिन अपना नाम गिनीज़ बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में दर्ज करवाया।

लिंक में जाकर देखें जोरावर सिंह का रस्सी कूदने में गिनीज़ बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड 

अमेरिकी फुटबॉलर रिचर्ड सेंडली की कहानी तो और भी मज़ेदार है। उनके कोच ने उन्हें शारीरिक चुस्ती बनाए रखने के लिए एक घंटे तक स्टेडियम की सीढ़ियों के ऊपर-नीचे दौड़ने या रस्सी लेकर 15 मिनट तक कूदने को कहा। सेंडली ने पहला विकल्प चुना क्योंकि रस्सी कूदना लड़कियों का खेल माना जाता था। परेशानी तब शुरू हुई जब बर्फ गिरने लगी और सीढ़ियों पर जम गई। अब खतरा फिसलकर गिरने का था।

सेंडली के दिमाग में दूसरा विकल्प आया और उन्होंने रस्सी ले ली। यह कोई कठिन काम न था। खेल को और मज़ेदार बनाने के लिए वह क्रिस-क्रॉस, साइड स्विंग, डबल और मल्टीपल अंडर करने लगे। धीरे-धीरे अभ्यास और आनंद दोनों बढ़ते गए।

रिचर्ड सेंडली के कौशल की संख्या बढ़ती गई। बाद में उन्होंने सोचा कि क्यों न अब अब अपने छात्रों को ‘रस्सी कूदना’ सिखाया जाय। वह रस्सी और कौशल के बारे में उत्साही थे और एकल रस्सी के साथ नए-नए कौशलों  को खोजना शुरू कर दिया। उन्होंने लंबी रस्सी और डबल डच भी लिया और सभी तरह के नए कौशल, संयोजन और संभावनाएँ बनाईं।

बीसवीं सदी के सातवें दशक की शुरुआत में रिचर्ड सेन्डली ने पूरे अमेरिका में घूम-घूम रस्सी कूद का प्रचार किया और बाद में दुनिया के बाकी हिस्सों में रस्सी कूदने का खेल फैलाना शुरू किया। वे जहाँ भी जाते वहाँ  अपने साथ सैकड़ों और बाद में हज़ारों रस्सियाँ ले जाते।

आयोजकों द्वारा उन्हें रहने की जगह दी जाती और भोजन कराया जाता था। उनके लिए आयोजित कार्यशालाओं के बाद उन्हें अपनी रस्सियाँ बेचने का मौक़ा दिया जाता था ताकि वे अपने यात्रा खर्च का भुगतान कर सकें और खेल को और आगे फैला सकें। उनके छात्रों ने रस्सी कूदने की प्रदर्शन टीम बनाई और उनके साथ मिलकर पूरी दुनिया की यात्रा की।

यूरोपीय और अमेरिकी रस्सी कूद के संगठन

रिचर्ड सेंडली के प्रचार अभियान का बहुत माकूल असर पड़ा अमेरिका भर में रस्सी कूदने के कई राष्ट्रीय संगठन बन गए। नब्बे के दशक में रस्सी कूदने का यूरोपीय संगठन (यूरोपियन रोप स्किपिंग ऑर्गनाइजेशन ERSO) अस्तित्व में आया। पहले महाद्वीपीय रस्सी कूद संगठन (कॉन्टिनेन्टल रोप स्किपिंग ऑर्गनाइजेशन CRSO) की स्थापना की गई। थोड़े ही समय बाद ओशिनिया, अमेरिका और एशिया में CRSO की नींव रखी गई।

अमेरिका में, मुख्य जम्प रोप संगठन यूएसए जम्प रोप है। इसमें देश भर की सैकड़ों जम्प रोपिंग टीमें और सैकड़ों जम्पर शामिल हैं। ये टीमें कार्यशालाओं, प्रशिक्षण शिविरों में भाग लेती हैं और जनता के लिए प्रदर्शन करती हैं तथा पूरे वर्ष एक-दूसरे के खिलाफ प्रतियोगिता करती हैं।

यूएसए जम्प रोप हर वर्ष जून में फ्लोरिडा के ऑरलैंडो में वॉल्ट डिज़्नी वर्ल्ड के वाइड वर्ल्ड ऑफ़ स्पोर्ट्स कॉम्प्लेक्स में विभिन्न क्षेत्रीय प्रतियोगिताओं के अलावा एक राष्ट्रीय प्रतियोगिता भी आयोजित करता है। यूएसए जम्प रोप नेशनल्स का प्रसारण ईएसपीएन द्वारा प्रतिवर्ष किया जाता है। प्रतिस्पर्धी टीमों में सभी आयु वर्ग के एथलीट शामिल होते हैं, लेकिन यह ग्रेजुएट स्कूल से लेकर हाई स्कूल के छात्रों के बीच सबसे आम है।

आगे चलकर रस्सी कूद विश्व संगठन FISAC-IRSF की स्थापना की गई जिसका उद्देश्य दुनिया भर में रस्सी कूदने के खेल को विकसित करना है। कई अफ्रीकी देशों में नियमित खेल के रूप में रस्सी कूद का विकास हो रहा है।

रस्सी कूद का अभ्यास प्रतियोगी तरीके से किया जाता है। खिलाड़ी एकल रस्सी या डबल-डच का उपयोग करके व्यक्तिगत और टीम स्पर्धाओं में प्रतिस्पर्धा करते हैं। फ्रीस्टाइल रूटीन में कूदने वालों के पास कौशल के संयोजन को प्रदर्शित करने के लिए एक निर्धारित समय सीमा होती है। कई प्रतियोगिताओं में इन्हें संगीत के साथ कोरियोग्राफ भी किया जाता है। खिलाड़ी एक निश्चित समय के भीतर अधिक से अधिक छलांग लगाने की कोशिश करते हैं। उदाहरण के लिए, 30 सेकंड की गति का विश्व रिकॉर्ड 188 छलांग का है।

जोरावर सिंह जो पहले डिस्कस थ्रो खेलना चाहते थे लेकिन फिटनेस के लिए रस्सी कूदना शुरू किया और गिनीज़ बुक ऑफ रिकॉर्ड में नाम दर्ज़ कराया

FISAC-IRSF विश्व रस्सी कूद चैंपियनशिप हर दूसरे वर्ष जुलाई में आयोजित की जाती है। भारत भी 9 फरवरी 2007 को तालकटोरा इंडोर स्टेडियम, नई दिल्ली में चौथी एशियाई रस्सी कूद चैंपियनशिप की मेजबानी कर चुका है।

अमेरिका में इंटरनेशनल रोप स्किपिंग ऑर्गनाइजेशन (IRSO) तथा वर्ल्ड रोप स्किपिंग फेडरेशन (WRSF) नामक दो प्रतिस्पर्धी जम्प रोप संगठन थे। IRSO ने स्टंट वाले और जिमनास्टिक/एथलेटिक जैसी जम्प रोप पर अपना ध्यान केंद्रित किया। WRSF ने जम्प रोपिंग के सौंदर्यशास्त्र और रूप की सराहना की। 1995 में इन दोनों संगठनों का विलय करके यूनाइटेड स्टेट्स एमेच्योर जम्प रोप फेडरेशन ( USAJRF ) का गठन किया गया।

रस्सी कूद के विश्व रिकॉर्ड

रस्सी कूद के रिकॉर्डों को देखते हुये यह आसानी से समझा जा सकता है कि यह कितना लोकप्रिय है। 24 मार्च 2006 को यूनाइटेड किंगडम और आयरलैंड में सामूहिक भागीदारी का रिकॉर्ड बनाया गया। देश भर में 85 अलग-अलग स्थानों पर 7,632 बच्चे लगातार तीन मिनट तक रस्सी कूदे। यह आयोजन ब्रिटिश रोप स्किपिंग एसोसिएशन और स्किपिंग वर्कशॉप द्वारा संयुक्त रूप से स्कूलों में रस्सी कूद को फिर से शुरू करने का प्रयास था। इसको गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स ने दर्ज़ किया।

इसी तरह 25 जून 2006 को टोरी बोग्स ने USAJR राष्ट्रीय प्रतियोगिता में दो विश्व रिकॉर्ड तोड़े। 12 अक्टूबर 2006 को नीदरलैंड के 335 स्कूलों में 50,000 स्किपर्स ने 30 सेकंड तक स्किपिंग की। इनमें ज़्यादातर बच्चे और प्राइमरी स्कूलों के शिक्षक शामिल थे।

गिनीज़ बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड ने जो सूची दी है उसके अनुसार सन 2019 में डबल अंडर में पुरुष वर्ग में चीन के सेन ज़ियाओलिन ने 30 सेकंड की अवधि में 105 तथा महिला वर्ग में यूएसए की जो एलिस ने 94 की संख्या पूरी की और विश्व विजेता बने।

इसी वर्ष छलांग लगाने के मामले चीन के सेन जियाओलिन ने 30 सेकंड में 250 जंप लगाया जबकि इनाका पिछला रिकॉर्ड 228 जंप का था। सन 2021 में महिला वर्ग में चीन की ही शीहुई फेंग ने 218 छलांग लगाकर विश्व रिकॉर्ड बनाया।

महिला वर्ग में चीन की ही शीहुई फेंग ने 218 छलांग लगाकर विश्व रिकॉर्ड बनाया।

सन 2021 में एकल रस्सी कूद में पुरुष वर्ग में 3 मिनट की अवधि में चीन के झोंगफेई डुआन ने 1164 छलांग लगाई। महिला वर्ग में शीहुई फेंग ने 1057 छलांग का रिकॉर्ड कायम किया।

ट्रिपल अंडर में 2019 में आस्ट्रेलिया के जेरेमी इंगलिश ने पुरुष वर्ग में 535 जंप लगाकर रिकॉर्ड कायम किया जिसे आगामी वर्षों में कोई नहीं तोड़ पाया। ट्रिपल अंडर महिला वर्ग में 2021 में अमेरिका की टोरी बोग्स ने 493 छलांग लगाकर विश्व रिकॉर्ड बनाया।

कनाडा के जॉर्डन कोएन ने 2022 में 1 घंटे में सबसे अधिक 14,657 छलांग लगाई। 2022 में ही दक्षिण अफ्रीका के एसडी हेइन्स ने 12 घंटों में सबसे अधिक 105,000 छलांग लगाकर विश्व रिकॉर्ड अपने नाम किया। जापान के सेला रोजा रेगा ने 2019 में 24 घंटों में सबसे अधिक 168,394 छलांग लगाई थी।। फिलीपींस के रयान अलोंजो ने 2022 12 घंटों में सर्वाधिक 40,980 डबल अंडर का रिकॉर्ड दर्ज़ कराया।

भारत में रस्सी कूद को लोकप्रिय बनाना बड़ी चुनौती है

जहां पूरी दुनिया में रस्सी कूद के प्रति एक दीवानगी है और इसमें तरह-तरह के प्रयोग होते रहे हैं वहीं इसको लेकर अनेक किताबें भी लिखी गई हैं। कई देशों के सांस्कृतिक पर्यावरण की चर्चा रस्सी कूद के बगैर अधूरी मानी जाती है। जबकि भारत में यह लगातार चलन से बाहर होती गई है। ऐसे में इस पर विचार करना जरूरी है कि मानव जीवन की दैनिक खेल गतिविधियों से कई खेल क्यों फिसड्डी होते गए हैं। बेशक आज देश के पास इसके संस्थागत विकास के सारे संसाधन मौजूद हैं लेकिन मजबूत इच्छाशक्ति के अभाव में सारी चीजें महज़ औपचारिकता बनकर रह जा रही है।

हमने पूर्वांचल के कई जिलों में यह गौर किया कि यहाँ अनेक ऐसे खेल हैं जो धीरे-धीरे गायब होते जा रहे हैं। खेल अब आम लोगों के स्वास्थ्य से ज्यादा फायदे-नुकसान के नजरिये से देखे जाने लगे हैं। जिन खेलों में ग्लैमर और पैसा नहीं है उसके प्रति उदासीनता बढ़ती गई है। खेलों के प्रति यह प्रवृत्ति कोई सामान्य बात नहीं है बल्कि यह इस ओर इशारा करती है कि हमारा समाज अपनी मौलिक ज़मीन लगातार छोड़ रहा है।

जैसा कि भदोही की अध्यापिका उर्मिला देवी कहती हैं कि इसे जब तक टूर्नामेंट का हिस्सा नहीं बनाया जाएगा तब तक इसमें प्रतिभाएं निखरकर सामने नहीं आएंगी। बेशक आज भी बच्चे-बच्चियों इसको लेकर उत्साह की कोई कमी नहीं है।

उम्मीद की जानी चाहिए कि भारत में रस्सी कूद एक बेहतर भविष्य पाएगा।

अपर्णा
अपर्णा
अपर्णा गाँव के लोग की संस्थापक और कार्यकारी संपादक हैं।

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