वाराणसी। सर्व सेवा संघ के भवनों को ध्वस्त करने के लिए उत्तर रेलवे द्वारा 30 जून 2023 की तिथि घोषित थी। उसी तिथि को सुबह सर्वोदय जगत पत्रिका के सह संपादक प्रेम प्रकाश जीटी रोड से लगी सर्व सेवा संघ की चहारदीवारी के रूप में बनी कंटीली बाड़ के पास सड़क की तरफ मुंह किए खड़े थे। तभी सामने डायल 112 की गाड़ी रुकी। गाड़ी में बैठे एक सिपाही ने प्रेम प्रकाश से कहा- अरे भाई साहब, परिसर खाली नहीं कर रहे हैं क्या आप लोग?
प्रेम प्रकाश ने कहा- नहीं भाई, अभी तो नहीं खाली कर रहे हैं।
सिपाही ने बताया- आपके अधिकारी लोग तो खाली कर रहे हैं।
प्रेम प्रकाश द्वारा परिसर खाली करने वाले अधिकारी का नाम पूछने पर सिपाही ने गांधी विद्या संस्थान से जुड़ा एक नाम बताया। प्रेम प्रकाश ने सिपाही को बताया कि उन्हें तो बिलकुल भी नहीं खाली करना चाहिए। उनको तो कल कमिश्नर ने आश्वासन दिया है कि हम गांधी विद्या संस्थान के संरक्षक हैं। गांधी विद्या संस्थान को खाली नहीं करना है। खाली तो सर्व सेवा संघ को करना था, लेकिन हम लोगों ने भी खाली न करने का तय किया है।
सिपाही ने कहा- भाई साहब फोर्स आ गई है। नोटिफ़िकेशन भी आ गया है।
प्रेम प्रकाश ने कहा कि कल कमिश्नर ने हमें आश्वासन दिया है कि वे रेलवे से बात करेंगे और कोई तोड़फोड़ नहीं होगी।
सिपाही ने कहा- अरे! वो सब छोड़िए भाई साहब! आप उनके चक्कर में मत पड़िए। आप लोग खाली कर दीजिए, नहीं तो पुलिस फोर्स का क्या ठिकाना है?
प्रेम प्रकाश ने कहा कि दो-तीन बातें हमने कमिश्नर से कही थीं, वो हम आपसे भी कह देते हैं। मान लीजिये अदालती कार्रवाई के दौरान हमें सर्व सेवा संघ का अवैध निवासी घोषित भी कर दिया जाता है, तब भी कोर्ट रूलिंग के हिसाब से खाली करने के लिए एक निश्चित समय दिया जाता है।
सिपाही ने कहा- यही तो हम लोग नहीं चाहते हैं। यही तो सरकार भी नहीं चाहती है। हमें पता है कि आप हाईकोर्ट पहुंच जाएंगे।
एक सिपाही के पास ऐसे राष्ट्रीय स्तर के प्रकरण पर बोलने की इजाजत नहीं होती है। पुलिस व्यवस्था में सिपाही के पदक्रम को देखते हुये कहा जाय तो उसकी हैसियत नहीं होती है। जिस प्रकरण में प्रत्यक्ष रूप से जिला प्रशासन के आलाधिकारी सरकारी मंशा को अमलीजामा पहनाने में लगे हुये हों, वहां एक सिपाही ‘वर्कआउट’ का प्रसाद नहीं ले सकता। यह हो सकता है कि सिपाही द्वारा कही गई बातें सर्व सेवा संघ से जुड़े लोगों के लिए एक इशारा हो कि सर्व सेवा संघ सहित पूरे परिसर को लेकर सरकार और जिला प्रशासन का इरादा क्या है? हो सकता है कि सिपाही अप्रत्यक्ष रूप से सलाह दे रहा हो कि जितनी जल्दी जिला प्रशासन को है, उतनी ही जल्दी आप लोग कागज-पत्तर के साथ प्रशासन के इरादों से लड़ने के लिए तैयार हो जाइए।
सिपाही की अप्रत्यक्ष सलाह या जिला प्रशासन के दूत के रूप में उसके द्वारा जताए गए ध्वस्तीकरण के इरादे पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने रोक लगा दी थी। रेलवे ने 26 जून को आनन-फानन में फरमान जारी किया कि 30 जून को ‘उत्तर रेलवे की जमीन’ पर बने सर्व सेवा संघ परिसर स्थित भवनों को ध्वस्त किया जाएगा। रेलवे के दावे को झूठा और ध्वस्तीकरण को गैरकानूनी बताते हुये सर्व सेवा संघ द्वारा इलाहाबाद उच्च न्यायालय में रेलवे के फरमान के खिलाफ 28 जून को याचिका दाखिल की गई। उच्च न्यायालय ने याचिका को संज्ञान में लेते हुये 3 जुलाई को सुनवाई की बात कही। साथ ही सुनवाई होने तक जिला प्रशासन को यथास्थिति बनाए रखने का निर्देश भी दिया। 3 जुलाई को हुई सुनवाई में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने ध्वस्तीकरण प्रकरण को लेकर दाखिल की गई याचिका पर हस्तक्षेप करने से इंकार कर दिया। केंद्र सरकार द्वारा याचिका पर प्रारम्भिक आपत्ति की गई कि याची संस्था ने सिविल जज (सीनियर डिवीजन) वाराणसी की अदालत में किया हुआ है। कोर्ट ने कहा कि याची संस्था निचली अदालत में मूल मुकदमे के साथ दाखिल निषेधाज्ञा पत्र पर बल दे सकती है। गौरतलब है कि वाराणसी जिला न्यायालय में इस प्रकरण की सुनवाई वर्ष 2007 से चल रही है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा प्रकरण को वापस वाराणसी जिला न्यायालय भेजे जाने के निर्णय के बाद सर्व सेवा संघ प्रकरण की सुनवाई के लिए सुप्रीम कोर्ट जाने की तैयारी में है।
इस बावत सर्व सेवा संघ के कार्यक्रम संयोजक रामधीरज ने कहा कि महात्मा गांधी, जेपी, आचार्य विनोबा, लालबहादुर शास्त्री, राजेंद्र प्रसाद की थाती पर हम मरते दम तक किसी भी प्रकार के कब्जे का विरोध करेंगे। भाजपा-संघ के इशारे पर रेलवे और जिला प्रशासन द्वारा इस परिसर पर कब्जे की साजिश तब तक सफल नहीं होगी, जब देश के सभी गांधीवादियों को एक-एक कर मार न दिया जाए। हम जब तक जीवित रहेंगे, तब तक इस परिसर के माध्यम से गांधी विचारों का प्रचार-प्रसार करते रहेंगे। विविधताओं वाले इस देश को अपने रंग में रंगने के अभियान में लगे संघ और भाजपा की राह में गांधी विचार रोड़ा है। संघ व भाजपा, गांधी विद्या संस्थान और सर्व सेवा संघ पर कब्जा कर गांधी के विचारों की हत्या करना चाहते हैं। इस षड्यंत्र को हम सफल नहीं होने देंगे। संघ और भाजपा के षड्यंत्र को रोकने के लिए हम सुप्रीम कोर्ट जाएंगे।
“रेलवे से उस जमीन की मांग की गई तो उन्होंने कहा कि यह जमीन हमारे रिकॉर्ड में है ही नहीं, तो हम आपको कैसे दें? हालत ऐसी हुई कि यह लोग कहें कि जमीन आपकी है और रेलवे कहे कि हमारी नहीं है। रेलवे बोर्ड को नक्शा दिखाया गया और बार-बार समझाया गया कि आप ही उस जमीन के मालिक हैं, तब कुछ हलचल हुई।”
प्रकरण की शुरुआत कैसे हुई
काशी विश्वनाथ कॉरीडोर के निर्माण के दौरान जिला प्रशासन द्वारा सर्व सेवा संघ की लगभग ढाई एकड़ जमीन कॉरीडोर निर्माण कार्य में लगे ठेकेदारों को दे दी गई थी। सर्व सेवा संघ के अनुसार, ठेकेदारों को जमीन देने के लिए जिला प्रशासन ने जबरन कब्जा किया था। कॉरीडोर का काम समाप्त होने के बाद आज उस जमीन पर काशी रेलवे स्टेशन पर प्रस्तावित इंटर मॉडल स्टेशन की निर्माण सामग्री डंप कर दी गई है। डंप निर्माण सामग्री की मात्रा इतनी नहीं है, जिसे देख कहा जा सके कि यह निर्माण सामग्री 3 हजार करोड़ की योजना से जुड़ी हुई है। निर्माण सामग्री जिला प्रशासन और रेलवे द्वारा सर्व सेवा संघ की जमीन पर प्रतीकात्मक कब्जे का एक सबूत हो सकती है। इसके संदर्भ में सर्व सेवा संघ के पूर्व अध्यक्ष अमरनाथ भाई कहते हैं कि सर्व सेवा संघ की जमीन पर भौतिक कब्जे के लिए धर्म और आस्था का सहारा लिया गया। उनका इशारा काशी विश्वनाथ कॉरीडोर निर्माण के दौरान सर्व सेवा संघ की जमीन पर रखी गई निर्माण सामग्री की तरफ था, जो आज इंटर मॉडल स्टेशन की निर्माण सामग्री के रूप में बदल गई है। भविष्य में सरकार के किसी पूंजीपति मित्र के प्रोजेक्ट की सामग्री के रूप में भी बदल सकती है।
अमरनाथ भाई ने जो बात कही, उसके सबूत राह चलते अक्सर देखने को मिल जाते हैं। कितने ही दुकानदारों ने अपनी दुकान के अतिक्रमण को ध्वस्तीकरण से बचाने के लिए अतिक्रमण वाले हिस्से में एक धार्मिक स्थल बना दिया है। उन धार्मिक स्थलों का आकार दुकानदार की तिजोरी से छोटा ही होता है। इस तरह बाजार ने अपने अतिक्रमण को पूज्यनीय बना दिया है।
सर्व सेवा संघ परिसर के निर्माण की प्रक्रिया
सर्व सेवा संघ का दफ्तर वर्धा के मगनवाडी में था। सारे काम अलग-अलग लोगों के जिम्मे थे। केवल प्रकाशन का कार्य दूसरों पर अवलंबित था। उनका कुछ प्रकाशन सस्ता साहित्य मंडल, दिल्ली से भी होता था। 1948 में सर्व सेवा संघ बनने के दो-तीन वर्ष बाद यह चर्चा चली कि संघ का अपना प्रकाशन होना चाहिए। सवाल था कि किस व्यक्ति को यह ज़िम्मेदारी सौंपी जाए? तब धीरेंद्र भाई सर्व सेवा संघ के अध्यक्ष और अण्णा साहब सहस्रबुद्धे मंत्री थे। अण्णा साहब की राय थी कि प्रकाशन का काम किसी पढ़े-लिखे व्यक्ति को देना चाहिए। धीरेंद्र भाई का पूरा आग्रह रहा कि यह ज़िम्मेदारी राधाकृष्ण बजाज को उठानी चाहिए। सर्व सेवा संघ प्रकाशन विभाग का काम सर्व-सहमति से राधाकृष्ण बजाज को ही सौंपा गया।
उस समय बनारस में रामकृष्ण भाई का अपना प्रकाशन चलता था, लेकिन वह उससे परेशान थे। मकान सहित उनका सारा प्रकाशन राधाकृष्ण बजाज ने पांच हजार रुपये में खरीद लिया। वह स्थान राजघाट पर था। सर्व सेवा संघ प्रकाशन के नाम से वहां काम शुरू हुआ। आगे चलकर इस जगह से प्रकाशन के अलावा और भी बहुत बड़े-बड़े काम हुए।
पहले सर्व सेवा संघ का मुख्यालय गया (बिहार) में था। कुछ वर्षों बाद सोचा गया कि मुख्य दफ्तर के लिए वाराणसी अधिक उपयुक्त है। शुरू में सर्व सेवा संघ का दफ्तर वाराणसी के गोलघर क्षेत्र में था, लेकिन वह जगह छोटी पड़ने लगी। भूदान आंदोलन के विकास के साथ-साथ महसूस हुआ कि आंदोलन का काम ठीक से चलाने के लिए अपनी जगह पर अपना व्यवस्थित कार्यालय विकसित करना चाहिए। जमीन के लिए काशी नरेश से भी संपर्क किया गया था, लेकिन बात नहीं बनी। राजघाट से आते-जाते राधाकृष्ण बजाज के ध्यान में आया कि गंगा पुल के इस पार कृष्णमूर्ति फ़ाउंडेशन के पास काशी रेलवे स्टेशन के पीछे कुछ खाली जमीन पड़ी है। जमीन क्या थी, 50-50 फीट के गहरे गड्ढों से पटा हुआ एक विस्तार था। कई जगहों पर वरुणा नदी का पानी उसमें भर जाता था। कुछ जगहों पर पहलवानों के अखाड़े थे। बाकी बची जगह का उपयोग सार्वजनिक शौचालय की तरह किया जाता था। प्रथम दर्शन में तो बड़ी ही भद्दी और गंदी जगह थी। नाक पर रुमाल दबाकर वहां से गुजरना पड़ता था।
प्रकाशन में तब राधाकृष्ण बजाज के साथ सदाशिवराव गोडसे नाम के एक सज्जन कार्य करते थे। गोडसेजी ने एक दिन राधाकृष्ण बजाज से कहा कि अगर आप चाहें तो मैं उस जमीन के लिए कोशिश कर सकता हूं। प्रकाशन के लिए एक जमीन खरीदनी ही थी, यही सोचकर राधाकृष्ण बजाज ने गोडसेजी को सहमति दे दी। सहमति के बाद यह पता करना टेढ़ी खीर साबित हुआ कि यह जमीन है किसकी? जिसके मालिक का ही पता नहीं तो बातचीत किससे की जाए? सरकारी रिकॉर्ड में बहुत सिर खपाने के बाद वह जमीन रेलवे की ठहराई गई। रेलवे से उस जमीन की मांग की गई तो उन्होंने कहा कि यह जमीन हमारे रिकॉर्ड में है ही नहीं, तो हम आपको कैसे दें? हालत ऐसी हुई कि यह लोग कहें कि जमीन आपकी है और रेलवे कहे कि हमारी नहीं है। रेलवे बोर्ड को नक्शा दिखाया गया और बार-बार समझाया गया कि आप ही उस जमीन के मालिक हैं, तब कुछ हलचल हुई। ऊपरवालों से बातें हो जाती थी, लेकिन गाड़ी नीचे तक नहीं खिसकती थी। उनके लिए यह रिश्वत का अच्छा मौका था। इन लोगों को रिश्वत नहीं देनी थी। इसके बाद रेलमंत्री से लेकर रेलवे बोर्ड का चक्कर इतना चला, जिसकी कोई गिनती नहीं।
“उस समय तो रिश्वत नहीं दी गई या इसे ऐसे भी कहा जा सकता है कि रेलवे के अधिकारी/ कर्मचारी रिश्वत नहीं ले पाए। शायद सात दशक बाद रेलवे को रिश्वत नहीं ले पाने की टीस उभरी है। उस टीस को शांत करने के लिए सरकार की शह पर रेलवे और जिला प्रशासन ने कंधे से कंधा मिला लिया है।”
उस जमीन को प्राप्त करने के काम में गोडसेजी ने अद्भुत पराक्रम दिखाया। जमीन पाने के रास्ते में नीचे के स्तर पर आने वाली एक-एक बाधा को उन्होंने दूर किया। जिस आदमी से काम करवाना होता, गोडसेजी पहले उसकी दिक्कतों के बारे में पता करते। उसकी दिक्कतें दूर करवाते फिर अपने मतलब की बात कहते। इस अनोखी पद्धति से और ऊपरी दबाव के बावजूद, बरसों की सतत भागदौड़ के बाद गड्ढों और गंदगी से भरा 10 एकड़ जमीन का टुकड़ा मिला। उस जमीन पर गुंडों के अड्डे भी थे। उन सबको हटाने में बहुत मुसीबत झेलनी पड़ी। तरह-तरह की धमकियों, बदतमीजियों और जोखिम का सामना करना पड़ा। हर मोर्चे पर गोडसेजी साथ रहे। उनके प्रयास से असंभव दीखने वाला कार्य संभव हुआ।
जमीन मिली तो नई बाधाएं खड़ी हुईं। सबसे पहली समस्या उन विशाल गहरे गड्ढों को पाटने की थी। यह बहुत बड़ा काम था और पैसे कम से कम खर्च करने थे। इसके लिए एक तरकीब निकाली गई। पूरे वाराणसी शहर के कूड़े-कचरे के ट्रक वहां लाकर उन गड्ढों में डाले जाएं, इसका इंतजाम किया गया। किसी ने बीच में आपत्ति उठाई कि कूड़े से तो बड़ी बदबू आती है। इसे बंद किया जाए, लेकिन फिर जयप्रकाश नारायण वहां आए तो उन्होंने कहा- बाद में सब ठीक हो जाएगा। काम चलने दो।
इसके बाद पुरातत्व विभाग ने जोरदार आपत्ति उठाई। पुरातत्व विभाग ने कहा कि उन्हें यहां खोदाई का काम करना है, इसलिए पक्के मकान न बनाये जाएं। कई बार बातचीत के बाद पुरातत्व विभाग ने एक एकड़ जमीन पर मकान बनाने की मंजूरी दी। इसके बाद नगर परिषद के टाउन प्लानिंग विभाग ने आपत्ति उठाई कि यहां की जमीन पोली है। इसलिए इस पर पक्के ऊंचे मकान टिकेंगे नहीं। इस मोर्चे पर फिर लड़ाई चली और अंततः एक मंजिल तक मकान उठाने की इजाजत मिली। एक ही मंजिल करीब 15 फीट ऊंची हो, ऐसा नक्शा पास करवाया गया। अंदर कमरों में ‘माले’ जैसी व्यवस्था रखी गई, जो करीब-करीब अतिरिक्त मंजिल का काम दे सके।
मकान तैयार होते ही सबसे पहले सर्व सेवा संघ का दफ्तर वहां लाया गया। प्रकाशन विभाग भी कुछ बाद में वहां आया। उस जमाने में यह सर्व सेवा संघ का मुख्य केंद्र था। उसे साधना केंद्र नाम दिया गया था। शंकरराव देव, नारायण देसाई, कृष्णराज मेहता, सिद्धराज ढड्ढा, दादा धर्माधिकारी, विमला ताई आदि सर्वोदय के काम से जुड़े लोग तब वहां रहते थे। जयप्रकाश नारायण जब भी बनारस आते तो वहीं रुकते। हिंदी के प्रसिद्ध लेखक जैनेन्द्र कुमार वहीं आकार रुकते थे। अच्युत पटवर्धन वहीं नजदीक रहते थे।
12.9 एकड़ के हरे-भरे परिसर में बसे सर्व सेवा संघ के निर्माण की प्रक्रिया राधाकृष्ण बजाज और अनुसूया बजाज की जीवनी ‘जाको राखे गोमैया’ से उद्धृत है। जीवनी की लेखिका नंदिनी मेहता, राधाकृष्ण बजाज और अनुसूया बजाज की पुत्री हैं। जीवनी में उन्होने राधाकृष्ण बजाज के लिए पिताजी शब्द का प्रयोग किया है। इस रिपोर्ट में पिताजी की जगह राधाकृष्ण बजाज लिखा गया है।
कब-कब हुई जमीन की खरीद
अध्यक्ष चंदन पाल के अनुसार, आचार्य विनोबा भावे की पहल पर यह जमीनें सर्व सेवा संघ ने 1960, 1961 एवं 1970 में रेलवे से खरीदी हैं। डिवीज़नल इंजीनियर नार्दन रेलवे (लखनऊ) द्वारा हस्ताक्षरित तीन रजिस्टर्ड सेल डीड हैं। ज़मीनों की खरीद की तरह यह भवन 3 बार में पूरा बना है।
सर्व सेवा संघ के परिसर प्रबंधक तारकेश्वर सिंह बताते हैं कि आचार्य विनोबा भावे की पहल पर पूर्व प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री के सहयोग से सर्व सेवा संघ ने 1960, 1961 एवं 1970 में रेलवे से इसे खरीदा है, जिसकी डिविजनल इंजीनियर उत्तर रेलवे, लखनऊ द्वारा हस्ताक्षरित तीन रजिस्टर्ड सेल डीड हैं। 1960 में खरीद की गई जमीन की रकम 26,730 रुपये, 1961 में खरीद की गई जमीन की रकम 3,240 रुपये एवं 1970 में खरीद की गई जमीन की रकम 4,485 रुपये स्टेट बैंक ऑफ इंडिया, वाराणसी के क्रमश: ट्रेजरी चलान नं. 171 दि. 5 मई 1959, ट्रेजरी चलान नं. 31 दि. 27.04.1961 एवं ट्रेजरी चलान नं. 3 दि. 18.01.1968 के माध्यम से भुगतान किया गया है। यह रकम सरकार के खजाने में गई है।
सर्व सेवा संघ की स्थापना
अप्रैल, 1948 में पांच संगठनों- अखिल भारत चरखा संघ, अखिल भारत ग्राम उद्योग संघ, अखिल भारत गौ सेवा संघ, हिंदुस्तानी तालिमी संघ और महरोगी सावा मंडल के विलय के बाद सर्व सेवा संघ अस्तित्व में आया था। महात्मा गांधी की मृत्यु के उपरांत पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री, पूर्व राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद, डॉक्टर संपूर्णानंद, आचार्य विनोबा भावे, जयप्रकाश नारायण आदि लोगों की पहल से सर्व सेवा संघ को शुरू किया गया था।
गांधी विचार के राष्ट्रीय संगठन सर्व सेवा संघ की स्थापना मार्च, 1948 में भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की अध्यक्षता में हुई थी। विनोबा भावे के मार्गदर्शन में करीब 62 साल पहले सर्व सेवा संघ भवन की नींव रखी गई। इसका मकसद महात्मा गांधी के विचारों का प्रचार-प्रसार करना था।
महात्मा गांधी के विचारों के प्रचार-प्रसार के उद्देश्य से सर्व सेवा संघ और गांधी विद्या संस्थान का गठन किया गया। सर्व सेवा संघ का दावा है कि 1963 में समाजवादी आंदोलन के दौरान जयप्रकाश नारायण ने गांधी विद्या संस्थान की स्थापना की। इसका उद्घाटन लाल बहादुर शास्त्री ने किया और रेलवे से जमीन लेकर इसकी रजिस्ट्री भी कराई गई थी।
सर्व सेवा संघ के राष्ट्रीय मंत्री डॉ. आनंद किशोर ने बताया कि वर्ष 1960 में इस जमीन पर गांधी विद्या संस्थान की स्थापना के प्रयास शुरू हुए। भवन का पहला हिस्सा 1961 में बना था। 1962 में जय प्रकाश नारायण खुद यहां रहे थे।
…तो क्या अब वसूली जा रही रिश्वत?
15 मई, 2023 को दोपहर बाद सर्व सेवा संघ परिसर में लोकनायक जयप्रकाश नारायण द्वारा स्थापित गांधी विद्या संस्थान परिसर (गांधी इंस्टीट्यूट ऑफ स्टडीज) गांधी विद्या संस्थान की लाइब्रेरी का चार्ज इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र को दे दिया गया था। वाराणसी के कमिश्नर कौशलराज शर्मा के आदेश पर मजिस्ट्रेट, पुलिस अधिकारी और काफी संख्या में पुलिस बल की मौजूदगी में सर्व सेवा संघ के पदाधिकारियों के विरोध के बावजूद ताला तोड़ दिया गया था।
कमिश्नर कौशलराज शर्मा के निर्देश पर क्षेत्रीय मजिस्ट्रेट आकांक्षा सिंह 15 मई को भारी पुलिस फोर्स के साथ सर्व सेवा संघ परिसर में पहुंची और गांधी विद्या संस्थान, लाइब्रेरी और निदेशक भवन का ताला तुड़वा दिया और इन तीनों इमारतों को केंद्र सरकार के अधीन चलने वाले इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के हवाले कर दिया गया। फिलहाल, गांधी विद्या संस्थान सरकारी पहरेदारी में बैरिकेट कर नज़रबंद कर दिया गया है। आने-जाने वालों पर निगरानी रखने के लिए जिला प्रशासन की तरफ से दो प्राइवेट गार्डों की तैनाती की गई है।
सर्व सेवा संघ से जुड़े लोगों का आरोप है कि दरवाज़ों पर लगे ताले तोड़ दिए गए और बाद में इसे इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के हवाले कर दिया गया। वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के मुखिया हैं। सर्वोदय मंडल के कार्यालय प्रभारी सौरभ सिंह के अनुसार, राम बहादुर राय के नेतृत्व में इस कला केंद्र को फिलहाल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के निर्देशानुसार संचालित किया जा रहा है।
इस संबंध में समाजिक कार्यकर्ता जागृति राही ने प्रेस विज्ञप्ति के माध्यम से कहा था कि गांधी विद्या संस्थान का मामला माननीय उच्च न्यायालय (इलाहाबाद) में लंबित है। इसलिए कमिश्नर का गांधी विद्या संस्थान को किसी दूसरी संस्था को सौंपना विधि विरुद्ध है। संस्थान के बायलॉज के अनुसार, सभी चल-अचल संपत्तियां सर्व सेवा संघ को पुन: वापस होनी हैं। इस संबंध में सर्व सेवा संघ ने उच्च न्यायालय (इलाहाबाद) में वाद दायर किया है, जो विचाराधीन है। इस मामले में कोई भी निर्णय सर्व सेवा संघ और उत्तर प्रदेश गांधी स्मारक निधि की सहमति से ही संभव है। संस्थान के सुचारू संचालन के लिए कमिश्नर की सह-अध्यक्षता में संचालन समिति बनाई गई है। इसे किसी अन्य संस्था को स्थानांतरित करने पर विचार करना समिति के अधिकार क्षेत्र में नहीं है।
“छोटी-बड़ी नदियां घूमते-घामते अंत में समंदर में ही जाकर मिलती हैं। कब्जा चाहे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ करे या वर्तमान सरकार, अंत में वह ‘मित्र पूंजीपतियों’ के नाम हो जाएगा।”
प्रेस विज्ञप्ति में जागृति राही ने बताया था कि गांधी इंस्टीट्यूट ऑफ स्टडीज के बायलॉज (नियम-कायदों) और डीड में साफ तौर पर इस बात का उल्लेख किया गया है कि कतिपय कारणों से संस्था विघटित अथवा कहीं स्थानांतरित होती है तो ज़मीन सर्व सेवा संघ को पुनः वापस हो जाएगी। लीज डीड के क्रमांक-चार में यह स्पष्ट उल्लेख है कि यदि पट्टे की अवधि के भीतर गांधी विद्या संस्थान किसी दूसरी जगह स्थानांतरित हो जाए अथवा इसका काम बंद हो जाए तो ज़मीन छोड़कर उक्त संपत्ति पुनः उत्तर प्रदेश गांधी स्मारक निधि की हो जाएगी। सर्व सेवा संघ इन मकानों जो भी प्रवृत्ति चलाना चाहे, गांधी स्मारक निधि की इजाजत से चला सकता है।
जबकि इसी प्रकरण में इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति आलोक माथुर ने 16 मई, 2023 को फैसला सुनाते हुए वाराणसी के कलेक्टर को निर्देश दिया था कि वह दो महीने के भीतर समूचे अभिलेखों की जांच करें और जिस जगह सर्व सेवा संघ स्थापित है, अगर वह ज़मीन उसी संस्था की है तो उसे लौटा दें। इस फैसले की भनक वाराणसी जिला प्रशासन को लग गई थी, इसलिए उसने हाईकोर्ट के आदेश के एक दिन पहले 15 मई को ही अपनी तानाशाही का परिचय देते हुए गांधी विद्या संस्थान को जबरन इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के हवाले कर दिया।
राधाकृष्ण बजाज द्वारा सर्व सेवा संघ भवन के निर्माण के लिए तलाशी जा रही जमीन के संदर्भ में सर्व सेवा संघ से जुड़े तत्कालीन लोगों और रेलवे के साथ हुई बातचीत में जीवनी लेखिका नंदिनी मेहता ने रिश्वत की संभावना जाहिर की है। इस संबंध में अनूप श्रमिक ने कहा कि उस समय तो रिश्वत नहीं दी गई या इसे ऐसे भी कहा जा सकता है कि रेलवे के अधिकारी/ कर्मचारी रिश्वत नहीं ले पाए। शायद अब रेलवे को रिश्वत नहीं ले पाने की टीस उभरी है। उस टीस को शांत करने के लिए सरकार की शह पर रेलवे और जिला प्रशासन ने कंधे से कंधा मिला लिया है।
सिपाही का इशारा था या प्रशासन का इरादा
उत्तर रेलवे और सर्व सेवा संघ के बीच जमीन के स्वामित्व को लेकर लंबे समय से विवाद चल रहा था। बीते 26 जून को वाराणसी के डीएम एस. राजलिंगम ने उत्तर रेलवे के पक्ष में फैसला सुनाया। इसके तुरंत बाद उत्तर रेलवे द्वारा परिसर में अतिक्रमण के ध्वस्तीकरण का नोटिस लगा दिया गया। इस नोटिस में साफ लिखा था कि उत्तर रेलवे प्रशासन 30 जून, 2023 को सुबह 9:00 बजे सर्व सेवा संघ परिसर में स्थित सभी अवैध निर्माण ध्वस्त करने जा रहा है।
सर्व सेवा संघ से जुड़े लोगों के अनुसार, करीब 1 बजे के आस-पास डीएम ने अपने फैसले की कॉपी सर्व सेवा संघ को दी और 2 बजे रेलवे ने सभी बिल्डिंगों पर नोटिस चिपका दिया कि 30 जून को पूरे परिसर को गिराया जाएगा। यह नोटिस सर्व सेवा संघ के हिस्से के भवनों पर लगाए गए थे। इंदिरा गांधी कला केंद्र के अंतर्गत आने वाले भवनों पर नोटिस चस्पा नहीं की गई थी।
पहले भी हो चुकी हैं सर्व सेवा संघ परिसर पर कब्जे की कोशिशें
अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में मानव संसाधन विकास मंत्री रहे प्रो. मुरली मनोहर जोशी ने संघ पृष्ठभूमि की कुसुम लता केडिया को यहां प्रोफेसर बनाकर भेजा। वह अपने मूल संस्थान में लेक्चरर थीं। गांधी विद्या भवन के तत्कालीन निदेशक प्रो. रामजी सिंह (प्रसिद्ध गांधीवादी एवं पूर्व कुलपति) ने इस नियुक्ति का विरोध किया। सन् 2003 में प्रो. रामजी सिंह और कुसुम लता केडिया के बीच आपसी विवाद बहुत तीखा हो गया। केडिया तत्कालीन सरकार की नजदीकी और आरएसएस से जुड़ी थीं, इसलिए उन्होंने संस्था के अस्तित्व से ही खिलवाड़ करना शुरू कर दिया। गांधी विद्या संस्थान सर्व सेवा संघ की जमीन पर था और हर 30 साल बाद उसका नवीनीकरण होना था। कतिपय कारणों से संस्थान का नवीनीकरण नहीं हो सका था। इस बात की भनक लगते ही केडिया ने अपने संपर्कों का लाभ उठाते हुए संस्थान का रजिस्ट्रेशन ही रद्द करवा दिया। साल 2003 से साल 2007 तक चली लंबी लड़ाई के बाद कोर्ट ने एक अस्थायी संचालन समिति बनाई, जिसका सह-अध्यक्ष बनारस मंडल के कमिश्नर को बनाया गया।
1963 में सोसाइटी एक्ट के अंतर्गत गांधी विद्या संस्थान का पंजीकरण हुआ और सर्व सेवा संघ ने अपनी जमीन का एक हिस्सा 30 साल के लिए संस्थान को दे दिया था। नियम के अनुसार, ये जमीन दोबारा सर्व सेवा संघ को मिल जानी चाहिए थी। संस्थान के बायलॉज के अनुसार, ‘गांधी विद्या संस्थान के बंद होने या अन्यत्र चले जाने पर जमीन सर्व सेवा संघ की हो जाएगी। सर्व सेवा संघ इस जमीन पर स्थित भवनों, जिनका निर्माण उत्तर प्रदेश गांधी स्मारक निधि द्वारा किया गया है, का उपयोग स्मारक निधि की सहमति से कर सकेगा।’
इस बाबत सर्व सेवा संघ के प्रकाशन संयोजक अरविंद अंजुम ने बताया कि सर्व सेवा संघ और गांधी विद्या संस्थान, दोनों एक ही विचारधारा के लोगों द्वारा संचालित संस्थान हैं। हमने आपसी सहमति और समान विचारधारा के आधार पर गांधी विद्या संस्थान की ‘लीज’ बढ़ाने की कागजी कार्यवाही नहीं की। दोनों संस्थाओं के बीच के परस्पर सहयोग और विश्वास के आगे हमने कागजी कार्रवाई को तवज्जो नहीं दी। हमारे बीच सहयोग और विश्वास के आधार पर कुछ लोगों के लिए गांधी विद्या संस्थान पर कब्जा करने का अवसर मिल गया। इन लोगों की आंख में महात्मा गांधी और उनके विचारों के प्रचार-प्रसार के बनाई गई ये संस्था शुरू से ही खटकती रही है। जैसे ही उन्हें मौका मिला, उन्होंने एक बार फिर महात्मा गांधी पर हमला बोल दिया है।
सर्व सेवा संघ पर हो रहे सरकारी और प्रशासनिक हमलों के संदर्भ में जागृति राही ने कहा कि 1998 से गांधी विद्या संस्थान पर कब्जे की लड़ाई चल रही है। आरएसएस वालों को गांधी के हर केंद्र पर कब्जा चाहिए। हम लोगों ने गांधी विद्या संस्थान, राजघाट परिसर से इन्हें चार बार भगाया है। पहले प्रो. कुसुम लता केडिया और कपिल मिश्रा के पिता रामेश्वर मिश्र पंकज घुसाए गए। वाजेपयी सरकार में सारा विवाद उन्होंने ही खड़ा किया। बोर्ड द्वारा नौकरी से निकालने के बावजूद उनको समर्थन देकर सरकार ने उन्हें बनाए रखा था। उन्होंने यह परिसर उच्च शिक्षा विभाग को दिया, पर वह दो दिन में ही भाग गए। इसके बाद कब्जा कर रहे संस्कार भारती से भी कैम्पस को कब्जा मुक्त कराया गया। फिर यह परिसर एम्बिशन इंस्टिट्यूट को किराए पर दे दिया। उनको भी हटवाया गया। पीएसी से भी परिसर को कब्जा मुक्त कराया गया। आखिर में तत्कालीन जिलाधिकारी विजय किरण आनंद और यूपी सरकार के एक उच्च शिक्षा मंत्री की मदद से कब्जा कर रहीं प्रो. कुसुम लता केडिया से भी परिसर को मुक्त कराया गया था। इन मामलों को लेकर आज भी कोर्ट में विवाद विचाराधीन है। बावजूद इसके, 10 साल बाद वर्तमान कमिश्नर कौशलराज शर्मा ने जबरन कब्जा कर लिया। इस सारे मामले में इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के राष्ट्रीय अध्यक्ष राम बहादुर राय काफी रुचि रखते हैं। उनकी मदद से गांधी विचार के केंद्रों पर संघ का हमला है, जिसमें कमिश्नर कौशलराज शर्मा अपने लालच के कारण गैरकानूनी रूप से मदद कर रहे हैं।
नदी अंततः समंदर में ही मिलेगी
सर्व सेवा संघ और गांधी विचारधारा से जुड़े अधिकतर लोग इसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कब्जे की साजिश बता रहे हैं। सर्वोदय जगत के सह संपादक प्रेम प्रकाश सर्व सेवा संघ परिसर के पास ही हुए वरुणा और गंगा नदी के संगम स्थल की तरफ इशारा करते हुए कहते हैं कि छोटी-बड़ी नदियां घूमते-घामते अंत में समंदर में ही जाकर मिलती हैं। कब्जा चाहे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ करे या वर्तमान सरकार, अंत में वह ‘मित्र पूंजीपतियों’ के नाम हो जाएगा।
इस संदर्भ में हरिशंकर परसाई एक बार फिर प्रासंगिक हो उठते हैं। हरिशंकर परसाई ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बारे में लिखा कि, ‘संघ पूंजीपतियों की पैदल सेना है।’ इस कथन को सर्व सेवा संघ परिसर पर दशकों से चल रही कब्जे की साज़िशों से जोड़ कर देखा जाए तो साम्राज्यवाद की राजनीति की शतरंज की बिसात पर अपनी-अपनी चाल चल रहे मोहरे सामने आ जाएंगे। पैदल सेना कब्जा करने के बाद राजा को ही सूचना देती है- महाराज की जय हो!
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