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सामाजिक न्याय
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जस्टिस गवई को ‘भीमटा’ की गाली सुप्रीम कोर्ट के संवैधानिक सरोकारों के सिमटते जाने का संकेत है
भारत की सड़ी हुई राजनीति और मनुवादी मानसिकता का असली चेहरा तब सामने आता है जब दलित समाज से आया व्यक्ति सत्ता, न्याय या प्रतिष्ठा की ऊँचाई पर पहुँच देश का मुख्य न्यायाधीश बनता हैऔर मनुवादी उसे सहज स्वीकार नहीं करते। इधर सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई को सोशल मीडिया पर 'भीमटा' कहकर अपमानित किया गया। यह केवल एक गाली नहीं है। यह उस आंबेडकरवादी विचारधारा पर हमला है जिसने मनुवाद की नींव हिलाई थी। यह संविधान और लोकतंत्र को नीचा दिखाने की कोशिश है।
घरेलू हिंसा की पीड़िता की मदद करने वाली पुणे की दलित महिलाओं को धंधेवाली कहकर थाने में किया गया प्रताड़ित
पुणे में घरेलू हिंसा की शिकार एक युवती ने अपने बचाव के लिए एक सामाजिक संस्था से संपर्क किया जिसकी कार्यकर्ता ने अपनी एक वकील मित्र से उस युवती को कोथरूड में रहनेवाली कुछ कामकाजी महिलाओं के साथ साथ रहने का बंदोबस्त कर दिया। एक पुलिसकर्मी के परिवार की बहू उस युवती के ससुर ने पता लगाकर उन महिलाओं को न केवल जातिसूचक गालियाँ दी बल्कि उनके साथ मारपीट की और अपनी पहुँच की बल पर उन्हें थाने ले गया, जहाँ उन्हें अश्लील गालियाँ देते हुए देह व्यापार करनेवाली कहा गया। गौरतलब है कि पीड़ित महिलाएं दलित समुदाय से आती हैं। थाणे में उनकी कोई सुनवाई नहीं हुई बल्कि उन्हें प्रताड़ित किया गया। इस मामले ने दलित महिलाओं की सुरक्षा को लेकर कई सवाल खड़े कर दिए हैं। भंडारा की जानी-मानी सामाजिक कार्यकर्ता और सामाजिक अध्येता मिनल शेंडे की टिप्पणी।
जनगणना और आदिवासी पहचान का सवाल
आदिवासियों के बीच ईसाई मिशनरियों और ईसाई धर्मांतरित लोगों को आरएसएस से जुड़े संगठनों द्वारा निशाना बनाया जा रहा है और यह तो जगजाहिर है ही कि बहु-प्रचारित घर वापसी कार्यक्रम आदि के जरिए पिछले कुछ सालों में इन पर हमले भी बढ़े हैं। मोदी सरकार के शासन के एक दशक में आरएसएस संगठनों के काम का विस्तार आरएसएस के इस आख्यान को मजबूत करने के लिए हुआ है कि "वनवासी" ऐतिहासिक रूप से वृहद हिंदू परिवार का हिस्सा हैं। आदिवासी समुदायों के हिंदूकरण के ये नए तरीके हैं, जिसमें राज्य की शक्ति का इस्तेमाल करके पारंपरिक आदिवासी प्रमुखों के हिस्सों को विभिन्न तरीकों से अपने साथ शामिल किया जाता है और उन पर दबाव भी बनाया जाता है। वे आदिवासी रीति-रिवाजों को हिंदू प्रथाओं के साथ जोड़ने, पारंपरिक मंत्रों के बीच हिंदू देवताओं का जश्न मनाने वाले नारे लगाने, आदिवासी इलाकों में मंदिरों का निर्माण और हिंदू त्योहारों को मनाने, हिंदू धार्मिक नारों के साथ भगवा झंडे फहराने, अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए पवित्र आदिवासी क्षेत्रों से मिट्टी लाने आदि की रणनीति के साधन बन गए हैं। इसलिए जनगणना में आदिवासी/एसटी धर्म शीर्षक से एक अलग कॉलम जोड़ा जाना चाहिए, जिसमें आदिवासी अपने विशेष विश्वास को दर्ज कर सकें। इस तरह आदिवासी धर्म उल्लिखित अन्य छह धर्मों के बराबर हो जाएंगे।
इटावा कांड ने ब्राह्मणशाही के खात्मे की जरूरत को अनिवार्य बना दिया है
पिछले दिनों इटावा में एक कथावाचक और उनकी टीम पर हमले और सार्वजनिक अपमान ने देश की फिजा में गर्माहट घोल दी। इस घटना ने कई तरह के विमर्शों को चलायमान कर दिया। प्रगतिशील लोगों ने यादव कथावाचक के भागवतकथा कहने को पोंगापंथ का एक रूप माना तो सामाजिक न्याय में विश्वास करनेवाले लोगों ने इसे सामाजिक अपमान और उत्पीड़न कहकर प्रतिरोध की आवाज बुलंद की। सपा मुखिया अखिलेश यादव ने कथा कहने के मानवीय अधिकार का समर्थन किया और वादक को नई ढोलक और टीम के तीनों लोगों को इक्यावन हज़ार रुपये का सम्मान दिया तथा इस अपमानजनक घटना के खिलाफ मुहिम चलाने की बात कही। जाने-माने लेखक और बहुजन डायवर्सिटी के विचारक-कार्यकर्ता एचएल दुसाध इस घटना को बिलकुल अलग नज़रिये से देखते हैं। दुसाध का कहना है कि पूजा-पाठ और कथा कहने के धंधे पर एकाधिकार ब्राह्मणों की संपत्ति और सम्मान को अपरिमित रूप से बढ़ानेवाला सिद्ध हुआ है और उनका यह धंधा मोदीराज में कई गुना बढ़ा है। वे अपनी बेरोजगारी को दूर करने के लिए दूसरों के धंधे पर धावा मारते और हड़पते रहे हैं लेकिन उनके धंधे में कोई अपनी जगह बनाए यह उनको मंजूर नहीं। इसके लिए वे हिंसक और क्रूर होने में कभी पीछे नहीं रहेंगे। इसके साथ ही दुसाध कहते हैं कि अगर दूरी जातियाँ इस धंधे में नहीं जाएंगी तो ब्राह्मणों की ताकत लगातार बढ़ती जाएगी और वे यही चाहते हैं जबकि बहुजनों को अपने समाजों के व्यापक उपभोक्ताओं की धार्मिक गतिविधियों को अपने धंधे के तौर पर विकसित करना चाहिए। ऐसे ही अनेक आयामों की ओर संकेत करता हुआ यह लेख पढे जाने की जरूरत है।
आखिर संघी क्यों बी. एन. राव को डॉ अंबेडकर के समानान्तर खड़ा करना चाहते हैं?
हाल ही में ग्वालियर हाई कोर्ट परिसर में डॉ. भीमराव अंबेडकर की प्रतिमा स्थापित करने के प्रयास ने एक अप्रत्याशित और बहुस्तरीय विवाद को जन्म दिया। वकीलों के एक वर्ग द्वारा इस पहल का स्वागत किया गया, जबकि दूसरे समूह ने यह कहते हुए आपत्ति उठाई कि न्यायालय परिसर में किसी भी प्रकार की स्थायी संरचना या मूर्ति स्थापना के लिए भवन समिति की पूर्व अनुमति आवश्यक है, जो इस मामले में प्राप्त नहीं की गई थी। किंतु यह तकनीकी आपत्ति शीघ्र ही वैचारिक और सांप्रदायिक रंग लेने लगी, जिसमें अंबेडकर की भूमिका, विचारधारा और प्रतीकात्मकता को निशाना बनाया गया।
दख़ल संगठन ने महिलाओं के अधिकार बोध के लिए आयोजित किया मेरी रातें मेरी सड़कें
देर रात बनारस की जागरूक लड़कियाँ एवं महिलाएं सार्वजनिक स्थान पर जुटीं और गीत, कविता, नुक्कड़ नाटक आदि के माध्यम से नारी-विमर्श के मुद्दे को उठाया।
ब्राह्मणवादी चालों और षड्यंत्रों को डुबाने के लिए अधिक गहरा नहीं है ठाकुर का कुआं
दुर्भाग्य से राजद के एक नेता की अभद्र भाषा में व्यक्त की गई प्रतिक्रिया ने मीडिया को जानबूझकर असल मुद्दे से ध्यान भटकाने में मदद की। इस विषय में मीडिया और ‘बुद्धिजीवियों’ की प्रतिक्रिया हास्यास्पद और पाखंडपूर्ण रही है। आनंद मोहन सिंह की 'जीभ काट डालता’ कहना कुछ और नहीं, बल्कि बिहार में राजपूतों को लामबंद करने का एक प्रयास था। धर्मनिरपेक्ष ब्राह्मणों ने मनोज झा की ओर से एक ऐसे मुद्दे का बचाव करने की कोशिश की है, जिसे उनके द्वारा संसद में जानबूझकर और पूरी तरह से संदर्भ से अलग जाकर उठाया गया था।
वाचाती मामले पर आया फैसला आदिवासियों के संघर्ष की मिसाल है
तीन दशक पहले राज्य सत्ता का दमन झेलने वाले तमिलनाडु के एक आदिवासी समुदाय ने अभी एक ऐसी लड़ाई जीती है जो लोकतांत्रिक प्रक्रिया...
बिहार में हुई जाति जनगणना अब सामने है भागीदारी की चुनौती
लोकसभा चुनाव से पहले बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने एक बड़ा सियासी दाँव खेलते हुए जातीय जनगणना की रिपोर्ट सार्वजनिक कर दिया। सरकार...
आरक्षण की वजह से लड़कियों के प्रति बदलेगी सामाजिक सोच
देश के ऐसे कई दूर दराज़ ग्रामीण क्षेत्र हैं जहां महिलाओं के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार किया जाता है। उसे शिक्षा से वंचित रखने का प्रयास किया जाता है। समाज की यह सोच बनी हुई है कि लड़की को शिक्षित करने से कहीं अधिक उसे चूल्हा चौका में पारंगत होना आवश्यक है।
मोदी सरकार का आखिरी पांसा महिला आरक्षण बिल
अंततः वोट बंटोरने और सत्ता में बने रहकर 'अपनों' को रेवड़ियाँ बांटने के लिये आखरी पांसा भी फेंक दिया गया है।
मनुस्मृति को देश के...