Thursday, August 28, 2025
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सामाजिक न्याय

घरेलू हिंसा की पीड़िता की मदद करने वाली पुणे की दलित महिलाओं को धंधेवाली कहकर थाने में किया गया प्रताड़ित

पुणे में घरेलू हिंसा की शिकार एक युवती ने अपने बचाव के लिए एक सामाजिक संस्था से संपर्क किया जिसकी कार्यकर्ता ने अपनी एक वकील मित्र से उस युवती को कोथरूड में रहनेवाली कुछ कामकाजी महिलाओं के साथ साथ रहने का बंदोबस्त कर दिया। एक पुलिसकर्मी के परिवार की बहू उस युवती के ससुर ने पता लगाकर उन महिलाओं को न केवल जातिसूचक गालियाँ दी बल्कि उनके साथ मारपीट की और अपनी पहुँच की बल पर उन्हें थाने ले गया, जहाँ उन्हें अश्लील गालियाँ देते हुए देह व्यापार करनेवाली कहा गया। गौरतलब है कि पीड़ित महिलाएं दलित समुदाय से आती हैं। थाणे में उनकी कोई सुनवाई नहीं हुई बल्कि उन्हें प्रताड़ित किया गया। इस मामले ने दलित महिलाओं की सुरक्षा को लेकर कई सवाल खड़े कर दिए हैं। भंडारा की जानी-मानी सामाजिक कार्यकर्ता और सामाजिक अध्येता मिनल शेंडे की टिप्पणी।

जनगणना और आदिवासी पहचान का सवाल

आदिवासियों के बीच ईसाई मिशनरियों और ईसाई धर्मांतरित लोगों को आरएसएस से जुड़े संगठनों द्वारा निशाना बनाया जा रहा है और यह तो जगजाहिर है ही कि बहु-प्रचारित घर वापसी कार्यक्रम आदि के जरिए पिछले कुछ सालों में इन पर हमले भी बढ़े हैं। मोदी सरकार के शासन के एक दशक में आरएसएस संगठनों के काम का विस्तार आरएसएस के इस आख्यान को मजबूत करने के लिए हुआ है कि "वनवासी" ऐतिहासिक रूप से वृहद हिंदू परिवार का हिस्सा हैं। आदिवासी समुदायों के हिंदूकरण के ये नए तरीके हैं, जिसमें राज्य की शक्ति का इस्तेमाल करके पारंपरिक आदिवासी प्रमुखों के हिस्सों को विभिन्न तरीकों से अपने साथ शामिल किया जाता है और उन पर दबाव भी बनाया जाता है। वे आदिवासी रीति-रिवाजों को हिंदू प्रथाओं के साथ जोड़ने, पारंपरिक मंत्रों के बीच हिंदू देवताओं का जश्न मनाने वाले नारे लगाने, आदिवासी इलाकों में मंदिरों का निर्माण और हिंदू त्योहारों को मनाने, हिंदू धार्मिक नारों के साथ भगवा झंडे फहराने, अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए पवित्र आदिवासी क्षेत्रों से मिट्टी लाने आदि की रणनीति के साधन बन गए हैं। इसलिए जनगणना में आदिवासी/एसटी धर्म शीर्षक से एक अलग कॉलम जोड़ा जाना चाहिए, जिसमें आदिवासी अपने विशेष विश्वास को दर्ज कर सकें। इस तरह आदिवासी धर्म उल्लिखित अन्य छह धर्मों के बराबर हो जाएंगे।

 इटावा कांड ने ब्राह्मणशाही के खात्मे की जरूरत को अनिवार्य बना दिया है

पिछले दिनों इटावा में एक कथावाचक और उनकी टीम पर हमले और सार्वजनिक अपमान ने देश की फिजा में गर्माहट घोल दी। इस घटना ने कई तरह के विमर्शों को चलायमान कर दिया। प्रगतिशील लोगों ने यादव कथावाचक के भागवतकथा कहने को पोंगापंथ का एक रूप माना तो सामाजिक न्याय में विश्वास करनेवाले लोगों ने इसे सामाजिक अपमान और उत्पीड़न कहकर प्रतिरोध की आवाज बुलंद की। सपा मुखिया अखिलेश यादव ने कथा कहने के मानवीय अधिकार का समर्थन किया और वादक को नई ढोलक और टीम के तीनों लोगों को इक्यावन हज़ार रुपये का सम्मान दिया तथा इस अपमानजनक घटना के खिलाफ मुहिम चलाने की बात कही। जाने-माने लेखक और बहुजन डायवर्सिटी के विचारक-कार्यकर्ता एचएल दुसाध इस घटना को बिलकुल अलग नज़रिये से देखते हैं। दुसाध का कहना है कि पूजा-पाठ और कथा कहने के धंधे पर एकाधिकार ब्राह्मणों की संपत्ति और सम्मान को अपरिमित रूप से बढ़ानेवाला सिद्ध हुआ है और उनका यह धंधा मोदीराज में कई गुना बढ़ा है। वे अपनी बेरोजगारी को दूर करने के लिए दूसरों के धंधे पर धावा मारते और हड़पते रहे हैं लेकिन उनके धंधे में कोई अपनी जगह बनाए यह उनको मंजूर नहीं। इसके लिए वे हिंसक और क्रूर होने में कभी पीछे नहीं रहेंगे। इसके साथ ही दुसाध कहते हैं कि अगर दूरी जातियाँ इस धंधे में नहीं जाएंगी तो ब्राह्मणों की ताकत लगातार बढ़ती जाएगी और वे यही चाहते हैं जबकि बहुजनों को अपने समाजों के व्यापक उपभोक्ताओं की धार्मिक गतिविधियों को अपने धंधे के तौर पर विकसित करना चाहिए। ऐसे ही अनेक आयामों की ओर संकेत करता हुआ यह लेख पढे जाने की जरूरत है।

आखिर संघी क्यों बी. एन. राव को डॉ अंबेडकर के समानान्तर खड़ा करना चाहते हैं?

हाल ही में ग्वालियर हाई कोर्ट परिसर में डॉ. भीमराव अंबेडकर की प्रतिमा स्थापित करने के प्रयास ने एक अप्रत्याशित और बहुस्तरीय विवाद को जन्म दिया। वकीलों के एक वर्ग द्वारा इस पहल का स्वागत किया गया, जबकि दूसरे समूह ने यह कहते हुए आपत्ति उठाई कि न्यायालय परिसर में किसी भी प्रकार की स्थायी संरचना या मूर्ति स्थापना के लिए भवन समिति की पूर्व अनुमति आवश्यक है, जो इस मामले में प्राप्त नहीं की गई थी। किंतु यह तकनीकी आपत्ति शीघ्र ही वैचारिक और सांप्रदायिक रंग लेने लगी, जिसमें अंबेडकर की भूमिका, विचारधारा और प्रतीकात्मकता को निशाना बनाया गया।

न्यायपालिका में दलित जजों के साथ जातीय भेदभाव और उत्पीड़न  

जस्टिस के जी बालकृष्णन के बाद बी आर गवई दूसरे दलित जज हैं, जो सुप्रीम कोर्ट के मुख्य जज बने हैं। ऐसा इसलिए नहीं कि दलितों में योग्यता की कमी है,बल्कि सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम में जातिवाद का बोलबाला है। जातिवाद के चलते अनेक बार ऊंचे पदों पर बैठे योग्य लोग भी इसके शिकार होते हैं। ऐसी ही एक घटना पंजाब हाईकोर्ट के अंदर दिखाई दी। जिसमें अपनी ही बेंच के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट पहुंच जाते हैं, जहां जज पूरी सुनवाई के बाद साफ-साफ शब्दों में फैसला देते हुए कहे कि पीड़ित जातिगत भेदभाव का शिकार हुआ है।

आज़ाद भारत में ब्राह्मणवादी व्यवस्था ही नहीं बदली तो क्या बदला?

संविधान निर्माताओं ने सोचा था कि कुछ दशकों में स्थिति बदल जाएगी, चुनाव इसका माध्यम होगा, लेकिन परिणाम हम सबके सामने है। आज भी यह निर्विवाद सत्य है कि लोग डॉ. अंबेडकर के विचारों का पालन करें या न करें लेकिन आज अंबेडकर के नाम पर राजनीति सबसे ऊपर है।  ऊपरी तौर पर ही सही सभी राजनेता आज मानने को बाध्य है कि डॉ. भीम राव अंबेडकर ने हमें दुनिया का सबसे अच्छा संविधान दिया है। लेकिन इसके बाद भी ब्राह्मणवादी सोच ने पूरे देश में दलित,पिछड़े और अल्पसंख्यकों पर हावी हैं। सवाल यह भी होगा कि क्या संविधान बनने के 75 साल बाद भी बाबा साहब डॉ. भीम राव अंबेडकर असफल रहे? क्या उनका सपना बस सपना ही रह गया और अगर ऐसा है तो क्या इसके लिए हम सब जिम्मेदार नहीं हैं?

अंबेडकर जयंती पर महिलाओं के समता, समानता और सुरक्षा के लिए उपवास कार्यक्रम

अपराधियों को सीधे गोली मारकर  जहन्नुम भेजने का दावा करने वाले पुलिसस्टेट में तब्दील हो चुके राज्य में डबल इंजन की नाक के नीचे सेक्स और नशे का धंधा करने का आरोप है इन बदमाशों पर। ये इम्पॉसिबल है कि बिज़नेस मॉडल के ऐसे संगठित अपराध बिना पुलिस के जानकारी के फल फूल पाएं।

क्या बहुजनों में सापेक्षिक वंचना का अहसास होता तो मोदी-योगी और करणी सेना का अस्तित्व न होता?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले दस सालों में संसद में मिले विपुल बहुमत का उपयोग सबसे अधिक सवर्ण वर्चस्व कायम करने में किया है। इस क्रम में वर्ग संघर्ष का ऐसा इकतरफा खेल खेला है जिसकी नई सदी में कोई मिसाल ही नहीं है। दुनिया में कहीं भी सुविधाभोगी वर्ग के हित में ऐसी नीतियां ही नहीं बनीं। सवर्ण हितों में इकतरफा नीतियां बनाते देख सवर्णों का हर तबका मोदी का आँख मूँदकर समर्थन कर रहा है। पढ़िये जाने-माने लेखक एच एल दुसाध का विचारोत्तेजक विश्लेषण ।

दलित दूल्हों का घोड़ी पर चढ़ना : उनका कहना है कि घोड़ी हमारे बाप की है, हमारी ज़िद है कि इंसान सब बराबर हैं

संविधान भले ही सभी को बराबरी का अधिकार देता है लेकिन समाज में मनुस्मृति के समर्थकों के गले यह बात नहीं उतरती। यही लोग हैं जो समाज की जातिवादी व्यवस्था को मजबूत किए हुए हैं। इसके साथ नेता मंत्री अपने भाषणों में सभी के बराबर होने की बात करते हैं लेकिन कहीं न कहीं उनके लोग इसे नकारते दिख जाते हैं। दलितों को समाज में उपेक्षित नज़रों से देखते हैं। दलित दुल्हों को घोड़ी पर देखकर सवर्ण बिदक जाते हैं। समाज के वंचित समुदाय के लोगों का आगे बढ़ना उन्हें नागवार गुजरता है और विरोधस्वरूप मारपीट पर उतारू हो जाते हैं। वैसे तो दलितों से भेदभाव हर प्रदेश में हो रहा है लेकिन इन पर हमले और हिंसा के मामले में उत्तर प्रदेश सबसे आगे है।

ओड़िशा : बरगढ़ में संयुक्त कृषक संगठन की हुई महापंचायत

बरगढ़ में संयुक्त कृषक संगठन ने 17 मार्च को आयोजित महापंचायत में हजारों किसान और कृषि मजदूर शामिल हुए। वे उच्च बिजली शुल्क और टाटा पावर द्वारा लगाए गए स्मार्ट मीटर के खिलाफ अपने विरोध की सफलता के लिए एकत्रित हुए।

फुले दम्पति को सामाजिक क्रांति का नायक बनाने वाली पुरखिन सगुणाबाई

ज्योतिबा फुले की व्यक्तिगत जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि थी जिस कारण उन्हें तत्कालीन सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ काम करने की प्रेरणा और सामान्य से अधिक अध्ययन का मौका मिला। सगुणाबाई ने जोतीबा को अच्छी शिक्षा-दीक्षा देने के लिए मिस्टर जॉन की भी मदद ली। सगुणाबाई ने ज्योति-सावित्रीबाई फुले के जीवन को आकार देने में बहुत बड़ी भूमिका निभाई थी।
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