भारत में दलित समुदाय के लोगों के साथ उत्पीड़न और भेदभाव एक गंभीर और जटिल मुद्दा है, जो सदियों से चला आ रहा है। दलित समुदाय का सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक आधार पर शोषण और उत्पीड़न कर उनके मानवाधिकारों का हनन लगातार होता आ रहा है। दलित उत्पीड़न की घटनाएं न केवल व्यक्तिगत स्तर पर होती हैं, बल्कि सामूहिक स्तर पर भी होती हैं, जो पूरे समुदाय को प्रभावित करती हैं।
दलित अत्याचार भारत में एक गंभीर और जटिल मुद्दा है, जिसमें विभिन्न रूपों में दलित समुदायों के खिलाफ भेदभाव और हिंसा शामिल है। दलित समुदाय, जिन्हें पहले ‘अछूत’ कहा जाता था, भारतीय समाज में सबसे अधिक उत्पीड़ित और शोषित वर्गों में से एक हैं।
दलित अत्याचार एक गंभीर और जटिल मुद्दा है, जिसमें विभिन्न रूपों में दलित समुदायों के खिलाफ भेदभाव और हिंसा शामिल है।
न्यायपालिका में जातिवाद
पिछले 77 वर्षों में पहली बार सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के पद के लिए एक दलित नायाधीश बी आर गवई को चुना गया है। देश की जाति व्यवस्था के चलते किसी दलित का ऊंचे पद पर पहुँचना एक खबर बन जाती है, क्योंकि सभी जगह ब्रह्मणवाद का बोलबाला है।
भारत की न्यायपालिका में दलित जजों के साथ जातीय भेदभाव और उत्पीड़न एक गंभीर मुद्दा है, जिसकी एक घटना पंजाब हाईकोर्ट के अंदर दिखाई दी। जिसमें अपनी ही बेंच के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट पहुंच जाते हैं।
पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के एक जिला और सत्र अदालत के न्यायिक अधिकारी को केवल इसलिए बर्खास्त कर दिए गए क्योंकि वे अनुसूचित जाति से थे। यह पूरा मामला एक वरिष्ठ न्यायिक अधिकारी से जुड़ा है। वर्ष 2014 में जब पंजाब में अतिरिक्त जिला और सत्र जज के तौर पर उनकी बहाली हुई, तब प्रेम कुमार के बारे में उनके वरिष्ठ जजों की राय पहले तो काफी अच्छी रही। फिर बदलती चली गई। उनका मूल्यांकन काफी उतार-चढ़ाव से भरा रहा। आखिरकार, अप्रैल 2022 में प्रेम कुमार की कार्यशैली को आधार बनाते हुए पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के प्रशासनिक विभाग ने उनको बर्खास्त कर दिया। अपनी गरिमा की हिफाजत में प्रेम कुमार ने इस बर्खास्तगी को पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट में चुनौती दी। जनवरी 2025 में हाईकोर्ट ने उनकी याचिका को स्वीकार किया और प्रशासनिक विभाग के उस फैसले को रद्द कर दिया जिसमें उन्हें बर्खास्त किया गया था। हाईकोर्ट के प्रशासनिक विभाग ने सुप्रीम कोर्ट में उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ अर्जी लगाई, जिस पर अब फैसला आया है।
सुप्रीम कोर्ट के जज सूर्यकांत के सामने यह मामला था। वे खुद भी पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट से आते हैं। जस्टिस सूर्यकांत ने कहा कि पंजाब की न्यायपालिका में चल रही इस जातिगत समस्या पर चिंता जताते हुए कहा कि आखिर यह सब कब तक चलेगा। जस्टिस सूर्यकांत के अलावा जस्टिस एन. कोटिश्वर सिंह इस मामले को सुन रहे थे।
लोकतांत्रिक अधिकारी की बर्खास्तगी के मामले की सुनवाई करते हुए कहा, ‘क्या यह सहन नहीं हुआ कि एक उपेक्षित वर्ग का युवा, कम उम्र में जज साहब उच्च वर्ग के बीच आ खड़े हुए?’ यह टिप्पणी जस्टिस सूर्यकांत वाली बेंच ने की, जो पंजाब के अवशेष सेशन जज प्रेम कुमार की फास्टैग से जुड़े मामले की सुनवाई कर रही थी। अदालत ने स्पष्ट किया कि यह मामला केवल आचरण से यात्रा का नहीं, बल्कि जातिगत पूर्वग्रहों से प्रेरित प्रतीत होता है। सुनवाई के दौरान वयोवृद्ध वकील ने प्रेम कुमार के विपक्ष में पेश की गई दलीलों को सुनने के बाद न्यायाधीश सूर्यकांत ने कहा, ‘अगर आप अदालत में हैं तो मैं यह बात खुली अदालत में कह रहा हूं कि प्रेम कुमार जातिगत भेदभाव का शिकार हैं। उनका आचरण हमेशा अनुकरणीय रहा है।‘ वकील द्वारा हस्तक्षेप करने पर जस्टिस सूर्यकांत ने साफ किया कि जातिगत भेदभाव जैसे मामलों को अब बंद नहीं किया जाएगा। उन्होंने पूछा, ‘ऐसे हालात कब तक रहेंगे?’ – यह प्रश्न केवल एक पर नहीं, बल्कि पूरे लोकतंत्र के लिए एक चेतावनी है। ज्ञात हो कि प्रेम कुमार ने 2014 में अमृतसर जिला अदालत में जेल सत्र न्यायाधीश के रूप में पदस्थापित किया था।
न्यायपालिका में जजों से जातीय पक्षपात के मामले में बेहद सख्त टिप्पणी की। कोर्ट ने कहा- यह जज हालात और जातिगत पक्षपात का शिकार हुआ। सब पहले से फिक्स था। ऊंचे समुदाय के लोग बर्दाश्त ही नहीं कर पा रहे थे कि उपेक्षित समुदाय के व्यक्ति का लड़का (मोची) कम उम्र में जज बन जाए और उनके बीच आ गया। उन्होंने कहा- जज की बर्खास्तगी गलत थी, उनको बहाल किया जाए। साथ ही उनकी सेवा के पदोन्नति व अन्य सभी लाभ दिए जाएं। विदित हो कि जज प्रेम कुमार को दुष्कर्म के मामले में आरोपी की शिकायत पर ‘संदिग्ध निष्ठा’ का दोषी मानते हुए बर्खास्त कर दिया गया था।
क्या था पूरा मामला
दरअसल, बरनाला के प्रेम कुमार 26 अप्रैल 2014 को एडिशनल जिला एवं सेशन जज बने और अमृतसर जिला कोर्ट में नियुक्त हुए। इस दौरान दुष्कर्म के आरोपी ने हाईकोर्ट में शिकायत दी कि प्रेम कुमार ने वकालत करते वक्त दुष्कर्म पीड़िता की ओर से समझौते के लिए संपर्क किया और पीड़िता को 1.50 लाख रुपए दिलवाए। हाईकोर्ट ने विजिलेंस जांच शुरू की। इसके आधार पर जज की वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट में ‘ईमानदारी संदिग्ध’ दर्ज कर दी गई। फिर 2022 में पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट की फुल बेंच ने 2015 की इस रिपोर्ट और शिकायत के आधार पर प्रेम कुमार को बर्खास्त कर दिया गया। प्रेम कुमार ने अपनी बर्खास्तगी को पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट में चुनौती दी। जनवरी 2025 में सबूतों की कमी का हवाला देते हुए उनकी बर्खास्तगी रद्द कर दी गई। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद अब फिर एक बार प्रेम कुमार की बहाली का रास्ता खुल गया है। साथ ही, उनका पूरा बकाया और वरिष्ठता भी बहाल किया जाएगा। हाईकोर्ट ने इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी।
संदिग्ध निष्ठा पर सवाल उठे
किसी जज के संदर्भ में संदिग्ध निष्ठा एक बहुत गंभीर आरोप होता है, क्योंकि न्यायपालिका की मूल शक्ति ही जनता के भरोसे, निष्पक्षता और ईमानदारी पर टिकी होती है। अगर किसी जज की निष्ठा संदिग्ध मानी जाती है, तो इसका मतलब है कि उसके निर्णय, व्यवहार या व्यक्तिगत संपर्कों में कोई ऐसा संकेत पाया गया है जो न्यायिक निष्पक्षता पर सवाल उठाता है।
संदिग्ध निष्ठा से जुड़े मामलों में उत्पीड़ित जजों के कुछ नाम
1) जस्टिस सी. एस. कर्णन (कलकत्ता हाईकोर्ट) : इन्होंने सुप्रीम कोर्ट के जजों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए थे और खुद को प्रताड़ित दलित बताया। सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें अवमानना का दोषी ठहराया और 6 महीने की सजा दी। यह भारत में पहली बार हुआ जब किसी सिटिंग जज को जेल भेजा गया। इस प्रकरण में उनकी मानसिक स्थिति और न्यायिक आचरण पर सवाल उठे।
2) जस्टिस पी. डी. दिनाकरण (पूर्व चीफ जस्टिस, कर्नाटक हाईकोर्ट) : उन पर भ्रष्टाचार, जमीन हथियाने और न्यायिक निर्णयों में अनियमितता के गंभीर आरोप लगे। राष्ट्रपति ने उनके खिलाफ महाभियोग चलाने की अनुमति दी, लेकिन उन्होंने स्वेच्छा से इस्तीफा दे दिया था।
3) जस्टिस बी.एन. श्रीवास्तव: इलाहाबाद उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस बी.एन. श्रीवास्तव ने दलित होने के कारण उत्पीड़न का सामना किया।
4) जस्टिस के. शिवाजी: आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस के. शिवाजी ने दलित होने के कारण भेदभाव का सामना किया।
5) जस्टिस आर. लक्ष्मणन: तमिलनाडु के पूर्व लोकायुक्त जस्टिस आर. लक्ष्मणन ने दलित होने के कारण उत्पीड़न का सामना किया।
इन जजों ने अपने अनुभवों के बारे में सार्वजनिक रूप से बात की है और न्यायपालिका में दलितों के उत्पीड़न के मुद्दे को उजागर किया है।
पूरे देश में न्यायपालिका में जातिवाद एक गंभीर मुद्दा है, जिसके लिए ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है।
भाजपा सरकार लगातार दावा कर रही है कि दलितों की स्थिति में सुधार हो रहा है, दलित उत्पीड़न की घटनाओं में कमी आई है। सफाई कर्मियों के पांव धोकर, अंबेडकर की तस्वीर और अन्य प्रतीकों का इस्तेमाल करके तरह-तरह से भाजपा दलित हितैषी होने का दावा कर रही है। लेकिन वास्तविकता कुछ और ही है।