होली उत्तर भारत का प्रमुख त्योहार है लेकिन इस त्योहार को मनाने के पीछे जो मान्यताएं हैं, वह हत्या के बाद खुश होने की है। सवाल यह उठता है कि स्त्री को जलाए जाने की खुशी में उत्सव मनाना कहां तक उचित है?
आखिर क्यों हम वैज्ञानिक युग में भी इतने मूर्ख हैं कि इस तरह की काल्पनिक कहानियों को सत्य मान बैठे हैं? और एक मां, बहन, बेटी को जिंदा जलाने का जश्न, त्योहार के रूप में मनाते हैं? आप पता लगाइए, पूरे विश्व में कहीं भी, किसी भी संप्रदाय में, किसी भी तरह की मौत का जश्न नहीं मनाया जाता है? यहां तक कि खूंखार आतंकियों के मारे जाने का भी नहीं। क्या ओसामा बिन लादेन के भी मरने का कोई जश्न मनाता है?
हिन्दू त्योहारों की अवधारणा किसी न किसी देवता की या उसके सूबेदार की जीत तथा उसकी मुखालफत करनेवाले मूल निवासी राजा की हार पर आधारित है। भारत में शूद्रातिशूद्र आंदोलन के जनक महात्मा ज्योतिबा फुले इस अवधारणा को विखंडित करनेवाले पहले विचारक और चिंतक हैं। उनकी विश्वप्रसिद्ध किताब ‘गुलामगीरी’ हिन्दू मान्यताओं को विखंडित करने वाली सबसे महत्वपूर्ण किताब है। इस किताब में वह होली की मान्यता के पीछे की कहानी कहते हैं।