विचार
क्या नेहा सिंह राठौर पर एफआईआर से आतंकवाद की कमर टूट जाएगी
नेहा राठौर और लखनऊ विश्वविद्यालय की प्रोफेसर डॉ माद्री ककोटी उर्फ डॉ मेडुसा के ऊपर देशद्रोह का मुकदमा दर्ज कर लिया गया। गोदी मीडिया और भाजपा के ट्रोल ने उनके खिलाफ ज़हर उगलना शुरू कर दिया है।न तो नेहा राठौर और न ही माद्री ककोटी ने इस मामले में कोई खेद व्यक्त किया बल्कि नेहा लगातार आलोचना जारी रखे हुये हैं। एक वीडियों में उन्होंने गोदी मीडिया को देश का गद्दार और अपराधी भी कहा।
सिनेमा
अभिनेता ही नहीं, सामाजिक आंदोलनकारी भी थे नीलू फुले
नीलू फुले के पूर्वजों में महामना जोतीराव फुले और माता सावित्रीबाई फुले सबसे उल्लेखनीय हैं लेकिन वास्तव में नीलू फुले परिवार के उस हिस्से से ताल्लुक रखते थे जिसने आजीवन जोतीराव फुले का विरोध किया। वे सिनेमा में काम जरूर करते थे लेकिन उनका दिल समाज के लिए धड़कता था। वे आजीवन राष्ट्रसेवा दल के साथ रहे लेकिन बाद के दिनों में कुछ उपेक्षित महसूस करने लगे थे। मैं जब भी उनसे मिला या बात करता उनमें वही जज़्बा और जोश होता जो जवानी के दिनों में होता था। वे हर व्यक्ति के मददगार मित्र थे।
ग्राउंड रिपोर्ट
रोज़मर्रा का संघर्ष करता गोंडा का बेहना समाज
बेहना जाति पसमांदा मुसलमानों में गिनी जाती है और पारंपरिक रूप से रुई धुनने का काम करती रही है लेकिन अब कोई भी यह काम नहीं करता। मशीनें आ जाने से उनको काम मिलना धीरे-धीरे बंद होता गया। जाड़ा शुरू होते ही अपनी धुनकी कंधे पर लिए वे दूर-दराज के इलाकों में निकल जाते और बसंत आते-आते अच्छी-ख़ासी कमाई करके वे वापस आते। बाकी के दिनों में मेहनत-मजदूरी के दूसरे काम भी करते। लेकिन बनी-बनाई रजाइयाँ आने और मशीनों की बढ़ती संख्या ने उन्हें खदेड़ दिया।
सिनेमा
बनारस के मनोज मौर्य की बनाई जर्मन फिल्म ‘बर्लिन लीफटाफ’ फिल्म समारोह की बेस्ट फीचर फिल्म बनी
मनोज मौर्य एक युवा फ़िल्मकार हैं। गाजीपुर में जन्मे और बनारस में पले-बढ़े मनोज अपने को बनारसी कहने में फख्र महसूस करते हैं। लंबे समय से मुंबई में रह रहे मनोज की इस वर्ष दो फीचर फिल्में , हिन्दी में 'आइसकेक' और जर्मन में 'द कंसर्ट मास्टर' रिलीज हो रही हैं। 'द कंसर्ट मास्टर' बर्लिन सहित अनेक फिल्म समारोहों में दिखाई गई और तगड़ी प्रतियोगिता करते हुये बेस्ट फीचर फिल्म नामित हुई।
संस्कृति
क्या होली का त्योहार स्त्री हत्या का उल्लास-पर्व है?
होली उत्तर भारत का प्रमुख त्योहार है लेकिन इस त्योहार को मनाने के पीछे जो मान्यताएं हैं, वह हत्या के बाद खुश होने की है। सवाल यह उठता है कि स्त्री को जलाए जाने की खुशी में उत्सव मनाना कहां तक उचित है?
ग्राउंड रिपोर्ट
सोनभद्र : कनहर बाँध में डूबती हुई उम्मीदों का आख्यान – एक
कनहर सिंचाई परियोजना के विस्थापितों की हृदय विदारक सचाइयों को देखकर लगता है जैसे ये लोग पचास साल लंबे किसी ऑपेरा के पात्र हैं जो करुणा, विषाद, हास्य, उम्मीद और हताशा के बीच जीने के अभिशाप को चित्रित कर रहे हैं और अभी आगे यह कितना लंबा खिंचेगा इसका कोई संकेत नहीं है।
लोकल हीरो
सोनभद्र : सत्ता, भ्रष्ट व्यवस्था और गरीबी से जूझते हुये न्याय के लिए संघर्ष और जीत के नायक
सोनभद्र जिले की दुद्धी विधानसभा के भाजपा विधायक रामदुलार गोंड द्वारा बलात्कार की शिकार होनेवाली लड़की के बड़े भाई रामसेवक प्रजापति ने न्याय के लिए नौ साल लंबी कानूनी लड़ाई लड़ी। अनेक धमकियों और मुकदमों को झेलते हुये भी उन्होंने हार नहीं मानी। 15 दिसंबर 2023 को एमपीएमएलए कोर्ट ने रामदुलार गोंड को नाबालिग लड़की से रेप के मामले में 25 साल के कठोर कारावास और 10 लाख रुपए जुर्माने की सज़ा सुनाई।
ग्रामकथा
वाराणसी : एक ऐसा गाँव जहाँ एक अंग्रेज़ को लोग बाबा की तरह पूजते हैं
वाराणसी जिले का घोड़हा गाँव में इसके बसने को लेकर कई तरह की किंवदंतियाँ प्रचलित हैं। कहा जाता है कि इस गाँव के कुएँ में एक अंगेज़ घोड़े सहित गिरकर मर गया था। उस जगह को लोग घोड़हा बाबा का स्थान कहने लगे और इसी पर गाँव का नाम पड़ गया। अपनी सांस्कृतिक विशेषताओं के साथ ही घोड़हा के लोगों ने शिक्षा के महत्व को समझा है। अब लगभग हर घर के बच्चे स्कूल जाते हैं। लड़के-लड़की में पहले की तरह भेदभाव करने की परंपरा कमजोर पड़ती गई है। अब लड़के ही केवल दुलरुआ नहीं हैं, बल्कि लड़कियां भी दुलारी हैं।
लोकल हीरो
जौनपुर: गाय-भैंसों के संकटमोचक
हर काम का प्रशिक्षण नहीं लिया जाता, कुछ काम ऐसे होते हैं जो व्यक्ति स्थितियों को देखते-सुनते सीख लेता है। जौनपुर जिले के बेलापार गाँव के निवासी भानु प्रताप यादव ऐसे ही भगत परंपरा के आदमी है। जो गाय-भैंसों के बच्चे पैदा होते समय होने वाली परेशानियों का मिनटों में निपटारा करते हैं।
ग्राउंड रिपोर्ट
बलिया में घाघरा ने दो हजार एकड़ खेत निगल लिया, चुप्पा प्रशासन चाहता है कि गाँव डूबें तो हम तीसरी फसल काटें
बलिया जिले में बलिया-सिवान को जोड़ने के लिए घाघरा नदी पर बनने वाले दरौली पुल के कारण बलिया जिले के दर्जनों गाँवों की ज़मीन घाघरा में समाती जा रही है। ग्रामीणों का कहना है कि पुल के निर्माण की जो गाइडलाइन है उसका पालन नहीं किया गया। नदी के ऊपर इसकी अनुमानित लंबाई 1542 मीटर तय थी। इसके अलावा दोनों किनारों को एप्रोच मार्ग से जोड़ा जाना था। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। अभी तक 1542 मीटर का काम भी अधूरा है।
ग्राउंड रिपोर्ट
sonbhadra: वन अधिकार कानून 2006, जुबान पर नहीं धरातल पर हो लागू
वन अधिकार कानून 2006 को धरातल पर लागू करने से सरकार की घबराहट भरी मंशा आम आवाम के समझ से भले ही परे हो, लेकिन यह स्पष्ट होता है कि सरकार और पूंजीपतियों, खासकर कॉरपोरेट घरानों से जो तालमेल है, वह इस विधेयक के धरातल पर लागू होने से गड़बड़ा सकता है।
ग्राउंड रिपोर्ट
किसान भागीदारी चाहते हैं और मंच पर लोग जीरो लागत की खेती पर भाषण दे रहे हैं
कृषि-बागवानी जैसे श्रमजनित कामों को भी कैसे राजनीतिक जुमलेबाजी के चंगुल में रखा जा सकता है तो दूसरी तरफ यह कि इधर के दशकों में खेती में क्या बदलाव आए हैं? लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि किसान जुमलेबाजियों से थक चुका है। मेहनतकशी की अंतहीन शृंखला और इसके बावजूद वंचना और कर्ज के जाल ने उसे बुरी तरह तोड़ा है और अब वह कृषि-वाणिज्य में अपनी समुचित भागीदारी चाहता है।
ग्राउंड रिपोर्ट
नई पीढ़ी अब तबेले के काम से तौबा कर रही है
तबेले के ऊपर ही उनका मचान है जिस पर उनकी गृहस्थी का सारा सामान है। वह कहते हैं कि 'आपको मेरे कपड़ों से दूध की महक आ रही होगी लेकिन यहाँ काम करते-करते अब मुझे इन सब चीजों की आदत हो गई है। दस महीने काम के बाद दो महीने गाँव में जाकर रह आता हूँ। वहाँ भी खेत है लेकिन खेती से किसको पूरा पड़ता है?
ग्राउंड रिपोर्ट
बलरामपुर में थारू जनजाति के बीच प्रवास में मिथकों और वास्तविकता की छानबीन
हिमालय की तराई में निवास करनेवाली थारू जनजाति अपने बारे में प्रचलित मिथकों और थोपी गई धारणाओं को सच मानते हुये जी रही है लेकिन गहराई से छानबीन करने पर पता लगता है कि मूलतः कृषि प्रधान संस्कृति का हिस्सा रही यह जनजाति व्यापक रूप से थोपी गई मान्यताओं को अपनाकर अपनी पुरानी जीवन-पद्धतियों को पीछे छोड़ रही है। इसके साथ ही वह कई तरह की चुनौतियों का सामना कर रही है। शिक्षा और स्वास्थ्य के अतिरिक्त रोजगार के मोर्चे पर कठिन संघर्ष कर रहे थारू अभी भी महज़ वोट बैंक की तरह देखे जा रहे हैं। बलरामपुर के थारुओं के बीच रहकर उनको जानने की कोशिश की गई।
ग्राउंड रिपोर्ट
एक धूसरित होता शहर बरहज
बाबा राघवदास बेशक साधु थे लेकिन उनका दिल समाज के लिए धड़कता था। समाज के दुखों को दूर करने के लिए उन्होंने बहुत काम किए। खासतौर से शिक्षा के क्षेत्र में उनका योगदान बेमिसाल है। उन्होंने लगभग डेढ़ सौ संस्थाएं बनाई थी और उसके प्रमुख रहे लेकिन बाद में उन्होंने सबसे इस्तीफा दे दिया और मात्र कुछ में ही शामिल रहे। बरहज में भी अब केवल पाँच-छः संस्थाएं ही बच रही हैं जो इन शिक्षण संस्थाओं का प्रबंधन कर रही हैं।
ग्राउंड रिपोर्ट
वाराणसी : योगी सरकार में बुनकरों पर बिजली बिल की मार
बनारस के आसपास के इलाकों में रहने वाले ग्रामीण बुनकरों की समस्याओं का कोई अंत नहीं है। वे लगातार अपना काम कर रहे हैं। इसलिए कि बिना काम किए उनका गुजारा नहीं है। लेकिन अब वे अपने भविष्य को लेकर चौकन्ने हो गए हैं और इसका एक ही रास्ता दिखाई पड़ता है कि वे संगठित होकर अपनी मांगों को उठाएं। वे लगातार सरकार की निरंकुशता को झेलने को अभिशप्त रहते हैं।
ग्राउंड रिपोर्ट
न्यूनतम मजदूरी भी नहीं पा रहीं पटखलपाड़ा की औरतें लेकिन आज़ादी का अर्थ समझती हैं
नालासोपारा के अचोले गाँव के पूर्वी इलाके पटखलपाड़ा में सबसे ज्यादा ध्यान खींचते हैं तबेले, डम्पिंग ग्राउंड बनता जा रहा खाली मैदान और एक जगह बने कई पार्टियों के दफ्तर तथा खंभे पर लगे सीसीटीवी कैमरे। इसके साथ ही एक ही जगह सूअर के मीट की दुकान और दुर्गा मंदिर है। ऐसा दृश्य बेशक मुंबई और उसके आस-पास ही संभव है। मीट की दुकान में एक आदमी गहरी नींद में सो रहा था और दुर्गा मंदिर में दरवाजे के पास बनी शेर की मूर्ति के पास एक कुत्ता निश्चिंत भाव से खड़ा था।
ग्राउंड रिपोर्ट
उत्तन पाली में मछलियों की गंध से तेज फैलती जा रही है कूड़े की बदबू
सच बहुत भयानक है। जिस देश में ईवीएम से चुनाव होता है और एक संसद भवन रहते हुये दूसरा बन रहा हो। जिस देश में दुनिया के अमीरों में शुमार लोग रहते हों। जहां लाखों रुपए वाले मोबाइल हों। जो विश्वगुरु होने का दंभ पालता हो वहाँ पर कोलियों की स्थिति अभी भी उजड़ने-बसने की है और उनमें अपने जैसे मेहनत करनेवालों के प्रति नफरत भरी जा रही है। यह नफरत उनके मन में कौन भर रहा है? इससे उनको क्या हासिल होने जा रहा है?
ग्राउंड रिपोर्ट
बकरे की माँ यहाँ खैर नहीं मनाती
पहले जो लोग पचास-साठ बकरे पालते थे अब वे बीस-पचीस भी मुश्किल से पाल रहे हैं। इसका असर पूरे मार्केट पर पड़ा है। पहले बहुत बड़े पैमाने पर मुर्गियाँ पालते थे लेकिन कोरोना की वजह से इसमें भारी गिरावट आई और यह धंधा अभी तक संभल नहीं पाया है। राजस्थान, गुजरात और मध्य प्रदेश आदि में बकरी पालन कम हो रहा है क्योंकि उधर से बकरियाँ कम आ रही हैं।
ग्राउंड रिपोर्ट
पेंटागन के बिल्ले यहीं शिवाले में बनते हैं
यहाँ पेंटागन के बिल्ले भी बनते हैं। पेंटागन यानी अमेरिकी सेना। हालांकि उन्होंने कहा कि अब काम में कोई दम नहीं है। बाहर के ऑर्डर लगातार कम होते जा रहे हैं। एक्सपोर्ट आदि को लेकर भी कई परेशानियाँ खड़ी होने लगी हैं। लेकिन हम काम इसलिए चला रहे हैं क्योंकि इसके अलावा पेट के लिए और कोई धंधा नहीं कर सकते।
संस्कृति
बिरहा ही नहीं, चेतना का व्याकरण बदल देनेवाला बिरहा का आदिविद्रोही
बीसवीं शताब्दी के अंतिम चार दशक बिरहा गायन के स्वर्णकाल के रूप में जाने-जाते हैं जब बनारस और आसपास के जिलों में अनेक उद्भट बिरहिए सक्रिय थे। हीरालाल, बुल्लू यादव, रामदेव, पारस, रामकैलाश, हैदर अली जुगनू के अलावा सैकड़ों गायक इस लोकविधा को ऊंचाई दे रहे थे लेकिन ठीक इसी समय बनारस के एक गाँव से निकलनेवाले नसुड़ी यादव इन सबसे अलग और अद्भुत थे। वे बिरहा में कबीर बनकर उतरे थे और आजीवन अपने तेवर को बनाए रखा। पढ़िये विलक्षण बिरहा गायक नसुड़ी के जीवन-संघर्ष और सामाजिक योगदान के बारे में।
सिनेमा
सिनेमा का सफरनामा : बेचैन रूहों की पहली पीढ़ी
सिनेमा हमेशा एक घटना की तरह जनमानस में शामिल होता रहा है और वह समाज और देश में होनेवाली घटनाओं को भी अपने भीतर समेट लेता है। एक सौ वर्ष के सिनेमा के अतीत के साथ ही भारत और दुनिया के अतीत की अनगिनत घटनाएँ जुड़ी हुई हैं। विश्वयुद्ध, क्रांतियाँ, भारतीय राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन, स्वतन्त्रता, विभाजन, राष्ट्रीयकरण और हरितक्रांति से लेकर भूमंडलीकरण और सरमायेदारी के नए दौर के बीच की असंख्य छोटी-बड़ी घटनाएँ। और स्वयं सिनेमा ने समाज पर जो असर डाला है वह अनेक घटनाओं के होने की प्रेरणा भी बना। सिनेमा ने समाज की सोच को बदला है और अनेक जड़ताओं को तोड़कर उसे आगे बढ़ने की प्रेरणा भी दी है।