हाल में ‘गाय एक पवित्र पशु है और मुसलमान गायों की हत्या कर रहे हैं’ की गलत धारणा ने जोर पकड़ा है। इस धारणा को आधार बनाकर ही जहां एक ओर शाकाहार का प्रचार किया जा रहा है वहीं दूसरी ओर लिंचिंग की जा रही है। नफरत भरे भाषण भी देश के लिए बड़ी समस्या बन चुके हैं। नफरत भरे भाषण देने वालों पर काबू पाने और उन्हें सजा देने का तंत्र एवं प्रक्रिया मौजूद है, मगर जमीनी हकीकत यह है कि ऐसा करने वाले सामान्यतः न केवल दंड से बचे रहते हैं, वरन् उन्हें पदोन्नत कर पार्टी के बड़े पदों से नवाजा जा रहा है। इसी मुद्दे पर प्रस्तुत है राम पुनियानी का लेख।
भारत बंद की सफलता के बाद जहां अधिकांश राजनीतिक विश्लेषकों ने दलित आंदोलनकारियों के व्यवहार में आए बड़े बदलाव को देखते हुए भविष्य में धरना- प्रदर्शनों के सैलाब आने की संभावना जाहिर किया, वहीं दलित आंदोलनकारी अपनी बहन जी को पुराने रूप में लौटते देख खुशी से झूम उठे। सबसे बड़ी बात तो यह है कि जिस कांशीराम का नाम लेकर मायावती राजनीति करती रही हैं, लोग राहुल गांधी में अब कांशीराम की छवि देखने लगे हैं। यदि कांशीराम के रूप में राहुल गांधी की छवि स्थापित हो जाती है, तब पहले से ही काफी हद तक अपना वोटबैंक गवां चुकी मायावती का राजनीतिक भविष्य का क्या होगा?
दलित, आदिवासी या कोई भी अन्य किसी धर्म में धर्मांतरण करे या नास्तिक हो जाए, उसे हतोत्साहित करने का अधिकार राजनीति विशेष व पालतू छुटभैयों को कैसे मिल जाता है। क्या वे देश से अलग किसी और संविधान को मानते हैं? उन्हें यह अधिकार किसने दिया कि वे किसी का सिर काटने व पचास लाख का इनाम घोषित करें।