कर्नाटक में कांग्रेस की जीत के बाद और दो राज्यों से विधानसभा चुनावों के मद्देनजर आए सर्वे ने कांग्रेसी खेमे का जोश बढ़ा दिया है। इस जोश का असर तेलंगाना और पश्चिम बंगाल में देखा जा रहा है। तेलंगाना में तो इसी साल के अंत में विधानसभा चुनाव होने हैं। वहां कांग्रेस का इंटरनल सर्वे और आकलन है कि वह बीजेपी से बहुत आगे है, साथ ही पार्टी अब KCR को चुनौती देने की स्थिति में भी आ गई है। इसलिए अगले महीने से लगातार आक्रामक चुनाव प्रचार शुरू करने का लक्ष्य रखा गया है। राज्य में प्रियंका गांधी की सभाओं का आयोजन तय हुआ है। BRS (भारत राष्ट्र समिति, जिसे पहले तेलंगाना राष्ट्र समिति (TRS) के रूप में जाना जाता था, यह एक भारतीय राजनीतिक दल है, जो मुख्य रूप से तेलंगाना में सक्रिय है) के कई नेताओं को अपने पाले में करने का भी प्रयास किया जा रहा है। उधर, आंध्र प्रदेश के सीएम जगन रेड्डी की बहन वाईएस शर्मिला के साथ भी गठबंधन की कोशिश की जा रही है। पश्चिम बंगाल में भी कांग्रेस को लग रहा है कि वहां उसके लिए ‘संभावना’ है। पार्टी अब वहां भी तेजी से संगठन को मजबूत करने की दिशा में पहल करने वाली है, लेकिन इसका दूसरा पहलू भी है। अगर पार्टी इन राज्यों में आक्रामक रूप से आगे बढ़ती है, तो इसका असर विपक्षी एकता की मुहिम पर भी पड़ेगा। हालांकि, पार्टी के एक नेता के अनुसार, KCR तो पहले ही खुद को ‘विपक्षी एकता’ की कोशिशों से अलग कर चुके हैं। लेकिन ममता के बारे में वह मानते हैं कि अभी वहां दुविधा की स्थिति है।
बकौल विनय दूबे (यूट्यूबर) ने अपने एक वीडियो में बताया कि मैं लम्बे समय से हुए सारे चुनाव का रिकॉर्ड एनालाइज कर रहा हूँ। वह समय-समय पर भाजपा की रणनीति को समझने की कोशिश करते हैं। वह बताते हैं कि हर चुनाव के पहले ही भारतीय जनता पार्टी का एक पैटर्न होता है, जिसे हम चुनावी रणनीति कहते हैं। विगत चुनावों में भाजपा की रणनीति को देखकर तो यही लगता है कि कर्नाटक में कांग्रेस की जीत को BJP ने खुद ही उसके सामने रख दिया है। बीजेपी, कांग्रेस से हारी नहीं है, अपितु भाजपा ने कांग्रेस को जिताया है। अब आप पूछेंगे यह कैसे हो सकता है कि कोई एक राजनीतिक दल चुनाव लड़े और वह भी हारने के लिए। ऐसा नहीं है, भारतीय जनता पार्टी बहुत अलग तरीके की राजनीति करती है। भाजपा की कूटनीति को अगर आप समझने की कोशिश करें तो आपको कुछ तथ्यों और आंकड़ों से मेल-मिलाप करना होगा। तब आप समझ जाएंगे कि आखिर इन बातों का क्या मतलब है? इधर बीच हुए सारे चुनाव में सबसे बड़ा मुद्दा क्या था? हिंदू, मुसलमान, बजरंगबली, हलाला इत्यादि।
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इस वक्त ‘मुसलमान’ प्रमुख मुद्दा है। एक मुद्दा ईवीएम का भी है। अब आप हसेंगे और बोलेंगे- देखो, आ गए रोना रोने। …नहीं ऐसी बात नहीं है। भारतीय जनता पार्टी की नजर मध्य प्रदेश और राजस्थान में आगामी विधानसभा व लोकसभा चुनावों पर है। याद करिए कि जब लोकसभा चुनाव जीतने के बाद नरेंद्र मोदी दूसरी बार प्रधानमंत्री बने थे। उससे ठीक पहले, अगर आप सारे विधानसभा चुनावों को देखें तो भाजपा का सारा खेल समझ आ जाएगा कि आखिर कर्नाटक में पार्टी क्यों हारी? इसे आपको कुछ उदाहरण के साथ समझना होगा।
लोकसभा (2019) चुनाव के ठीक पहले 2018 में बहुत राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए। आपने देखा होगा कि छत्तीसगढ़ चुनाव में क्या हुआ? दूसरा बड़ा राज्य है राजस्थान, जहां पर बीजेपी की वसुंधरा राजे मुख्यमंत्री हुआ करती थीं और 7 दिसंबर, 2018 को राजस्थान के चुनाव होने के बाद कांग्रेस को पूर्ण बहुमत मिल गई और वहां पर कांग्रेस के मुख्यमंत्री बन गए अशोक गहलोत। तीसरा राज्य है मध्य प्रदेश, जहां भारतीय जनता पार्टी ने लोकसभा चुनाव से पहले सरेंडर कर दिया और वहाँ का मुख्यमंत्री कांग्रेस के कमलनाथ को बनाया गया। यह सभी को मालूम होगा कि मोदी द्वारा दूसरी बार प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के ठीक कुछ महीनों बाद मध्य प्रदेश में ‘ऑपरेशन लोटस’ चलाया गया और 2020 में कांग्रेस की सरकार को गिराकर शिवराज सिंह की सरकार को वापस लाया गया। उनको मुख्यमंत्री बना दिया गया। उसके ठीक कुछ महीने बाद यानी चुनी हुई सरकार की हत्या करके उनके विधायकों को खरीदकर लाना भाजपा के लिए कोई बड़ी बात नहीं। इस तरह जब किसी लोकसभा चुनाव में भाजपा को जीतना होता है तो EVM पर बिना सवाल उठाए कुछ बड़े चुनाव वह खुद से हार जाती है। हार इसलिए जाती है, ताकि EVM पर सवाल उठाने वालों को करारा जवाब दिया जा सके।
भविष्य में लोकसभा चुनाव में यदि सारे विपक्षी राजनीतिक दल एकजुट होकर चुनाव लड़ें तो भारतीय जनता पार्टी इनसे सीधे टक्कर नहीं ले सकती। यदि सारी विपक्षी पार्टियां मिलकर केवल एक ही उम्मीदवार उतारे और उसे सपोर्ट भी करें तो भारतीय जनता पार्टी का जीतना मुमकिन ही नहीं है। इस ओर, विपक्षी दलों ने काम भी करना शुरू कर दिया है। हाल ही में विपक्षी दलों की पटना में हुई बैठक (महाजुटान) इस बात का प्रमाण है। किंतु विपक्ष की अगली बैठक से पहले ही कुछ सवाल उठ खड़े हुए हैं कि शायद भाजपा की ‘बी’ पार्टियाँ विपक्षी दलों के संभावित गठबंधन में शामिल होने का नाटक करें। आखिरी समय पर गठबंधन से अलग होकर अकेले-अकेले चुनाव लड़कर भाजपा खेमे की मदद को चुनाव में उतर जाएं, जिनमें बसपा, आप, ओवैसी की पार्टियां शक के घेरे में हैं! इतना ही नहीं सभी दलों के मुखिया अपना-अपना व्यक्तिगत हित पहले देखते हैं, राष्ट्र या समाज हित बाद में। किंतु यह भी सच है कि यदि EVM में बिना हेराफेर के चुनाव होते हैं तो विपक्ष की एकजुटता के चलते भारतीय जनता पार्टी 100 सीटों के अंदर सिमट सकती है, क्योंकि भाजपा ने जनता को जिस तरह से हलाल किया है, उसे जिस तरह से कष्ट दिया है, बेरोजगारी की समस्याओं पर मुंह बंद कर लिया है, किसानों को आंदोलन करने पर मजबूर किया है…। वह सारा गुस्सा लोगों के अंदर आज भी है। ऐसा कहा जा सकता हैं कि मतदान में जनता भाजपा के खिलाफ वोट देती है, लेकिन कुछ ऐसी चीजें हैं जो एकाएक बदल जाती हैं। बाद में पता चलता है कि जनता का जो गुस्सा था, वह मतदान के बाद भी प्रकट नहीं हो पाया। दूसरे, मोदी सरकार इलेक्शन कमीशन ऑफ इंडिया, सीबीआई, ईडी और बाकी सरकारी संस्थाओं के बल पर विपक्षी दलों में डर पैदा करने से नहीं चुकती है। विपक्षी राजनीतिक दलों को यह नहीं भूलना चाहिए कि भाजपा के खिलाफ जिस प्रकार विरोध अब देखने को मिल रहा है, उनका फायदा उठाया जा सकता है। महिला पहवानों के आंदोलन, जलते हुए मणीपुर पर, किसानों की एमएसपी आदि अन्य घटनाओं को सुलझाने के लिए प्रधानमंत्री की चुप्पी और बात-बात पर झूठ बोलने से इस बार भी जनता भाजपा सरकार से नाराज है। भाजपा की सभाओं में अपेक्षित लोगों का न आना, खाली पड़ी कुर्सियों को सोशल मीडिया पर देखकर विपक्ष को ज्यादा जोश में रहने की जरूरत नहीं है, यह भाजपा की एक चुनावी कूटनीति भी हो सकती है, ताकि विपक्ष इस भ्रम में रहे कि सरकार की हालत खस्ता है। ऐसा ही माहौल 2019 में भी था, किंतु हुआ क्या… भाजपा लोकसभा चुनावों में विजयी हुई।
तेजपाल सिंह ‘तेज’ विचारक और लेखक हैं।
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