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भाजपा के चुनावी पैंतरे और सामाजिक न्याय से समर जीतने को तैयार समाजवाद

अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव को लेकर उत्तर प्रदेश की राजनीतिक पार्टियाँ अभी से अपनी सियासी जमीन तैयार करने में लग गई हैं। आगामी चुनाव को यदि हम उत्तर प्रदेश के पिछले दो चुनाव, 2022 विधानसभा चुनाव और 2023 के नगर निगम और नगर महापालिका चुनाव के सापेक्ष देखें तो इस बार बहुत कुछ […]

अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव को लेकर उत्तर प्रदेश की राजनीतिक पार्टियाँ अभी से अपनी सियासी जमीन तैयार करने में लग गई हैं। आगामी चुनाव को यदि हम उत्तर प्रदेश के पिछले दो चुनाव, 2022 विधानसभा चुनाव और 2023 के नगर निगम और नगर महापालिका चुनाव के सापेक्ष देखें तो इस बार बहुत कुछ बदला हुआ देखने को मिलेगा। प्रदेश की दो सबसे बड़ी पार्टियों की रणनीतिक तैयारियां बहुत अलग दिख रही हैं। दरअसल, उत्तर प्रदेश की राजनीति इस समय भाजपा और सपा के बीच केन्द्रित हो चुकी है, कांग्रेस के साथ बहुजन समाज पार्टी की राजनीतिक जमीन कमजोर हो चुकी हैं। दो बड़ी पार्टियों का कमजोर होना उत्तर प्रदेश की राजनीति को एक अलग सी अस्थिरता देता है। इन पार्टियों के कमजोर होने से सबसे ज्यादा असुविधा इनके समर्थक वोटर को होती है। वह ताकतवर तरीके से यह तय ही नहीं कर पाता कि वह अपना वोट अपनी पार्टी के कमजोर प्रत्याशी को देकर अपना हस्तक्षेप मजबूत रखे या फिर जीत-हार की होड़ में खड़ी पार्टियों के साथ खड़ा होकर खुद को निर्णायक भूमिका में बदल दे। इसी उहा-पोह में खड़े बसपा और कांग्रेस के वोटर अपनी पार्टी के प्रत्याशी के लड़ाई से बाहर होने की स्थिति में कब, कहाँ और कैसे करवट बदलेंगे इस पर नजर तो सबकी रहती है पर इन्हें समझ कोई भी नहीं पाता है। यह वोटर कहीं भी एकमुश्त नहीं जाते इस वजह से यह ज्यादातर समाजवादी पार्टी के जिताऊ प्रत्याशियों का खेल खराब कर देते हैं। बसपा का कोर वोटर दलित समाज से आता है और वह समाजवादी पार्टी के समर्थकों को अपने लिए नया खतरा महसूस करता है। दलित समाज को समाज की सवर्ण जातियों ने जिस तरह से आज तक हाशिये पर रखा है उसकी वजह से उन्हें लगता है कि कहीं ऐसा ना हो कि समाजवादी पार्टी के सत्ता में आ जाने से प्रदेश का पिछड़ा वर्ग कहीं इतना ताकतवर ना हो जाए कि उन्हें सवर्ण समाज की तरह पिछड़े वर्ग का भी उत्पीड़न झेलना पड़ जाए। इस डर में वह अक्सर समाजवादी पार्टी को राजनीतिक तौर पर कमजोर बनाने की कोशिश में लग जाते हैं। इस समय वह यह भी भूल जाते हैं कि पिछड़ा समाज भी सामजिक तौर पर उन्हीं की तरह उत्पीड़ित समाज है। उत्तर प्रदेश के अन्दर कुछ और पार्टियां भी हैं जो सीमित या फिर अपने नेता के जातीय  क्षेत्रों में अपने होने का प्रभाव रखती हैं। इन पार्टियों के ज्यादातर नेता पिछड़ा वर्ग समाज से या फिर दलित समाज से हैं जिसकी वजह से दलित और पिछड़े समाज के यह नेता चुनावी राजनीति से इतर कितना भी भारतीय जनता पार्टी के मनुवाद का विरोध करें पर चुनाव के दौरान यह कभी भी साझी ताकत नहीं बन पाते हैं और अक्सर राजनीतिक संघर्ष में अपने ही सामजिक संघर्ष के खिलाफ खड़े हो जाते हैं। इन तमाम वजहों से  चुनाव की केन्द्रीयता भले ही बड़ी पार्टियों के पास रहे पर चुनावी जंग का परिणाम तय करने में हाशिये पर जा चुकी पार्टियों और सिर्फ जातीय ताकत भर की पार्टियों की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है।

आगामी चुनाव में भी ये पार्टियां महत्वपूर्ण भूमिका निभाने जा रही हैं। इनकी भूमिका समझने से पहले दोनों बड़ी पार्टियों का चुनावी एजेंडा समझ लेते हैं कि 2024 के लिए ये क्या प्लान कर सकती हैं।

सिर्फ मोदी के चेहरे पर नहीं तय होगी भाजपा की चुनावी रणनीति

भाजपा हमेशा से ही अपने हिन्दुत्ववादी एजेंडे को बनाए रखते हुए शेष मुद्दों पर परिस्थिति के अनुसार अपना स्टैंड बदलती रही है। इस बदलाव में भाजपा का मुख्य फोकस किसी भी तरह से सत्ता तक पंहुचना ही रहा है, इसके लिए उसने कभी भी किसी सिद्धांत की परवाह नहीं की। वह सत्ता के लिए किसी भी तरह की वैचारिकी को अपने पाले में साधने के लिए हमेशा तैयार दिखती रही है। पिछले एक साल में वह उन राजनीतिक व्यक्तित्वों को भी सामाजिक तौर पर अपने मंच पर स्थापित करने का नाटक करती रही है जो भाजपा के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और हिन्दुत्ववादी दृष्टिकोण की प्राथमिक पाठशाला ‘मनुवाद’ के विपरीत रहे हैं। इन प्रतीकों में तीन चेहरे सबसे आगे दिखते हैं। भाजपा के अनुसांगिक संगठन पिछले साल भर से अचानक भगत सिंह जैसे क्रांतिकारी, प्रेमचंद जैसे गांधीवादी और भारतीय राजनीति में दलित चेतना के केन्द्रीय चेहरे डॉ. बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर को अपने मंच पर लाकर उनका महिमामंडन करती रही है। भाजपा उनकी विचारधारा को गठरी में बांध कर नेपथ्य में रखते हुए उनके चेहरे को जनता के सामने इस तरह से पेश करती है की जैसे वह इन लोगों की राजनीतिक चेतना की वारिस हो। जबकि सच्चाई यह है कि इन प्रतीक चेहरों की राजनीतिक चेतना भाजपा की चेतना से सर्वथा अलग है। हिंदी साहित्य के महान कथाकार मुंशी प्रेमचंद ने हमेशा ही बहुलतावादी समाज और सद्भावना, समानता की विचारधारा से काम करते हुए सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के विरोध का पाठ प्रस्तुत किया है। भाजपा अपने राजनीतिक एजेंडे में हमेशा ही दबे पाँव कुछ ऐसे टूल्स का सहारा लेती रही है जिससे वह तात्कालिक तौर पर सत्ता तक पंहुच जाए। अब तक की भाजपा की चुनावी चाल देखते हुए यह समझा जा सकता है कि 2024 लोकसभा चुनाव में भाजपा अपनी सियासी हुकूमत को सत्ता में बनाए रखने के लिए और तात्कालिक तौर पर अपने पूरे प्रचार को किसी ऐसे मसविदे पर केन्द्रित कर सकती है जिनका राजनीतिक गलियारे में अभी तक जन्म ही नहीं हुआ है। भाजपा अपनी उपलब्धियों और कारगुजारियों का जिक्र नहीं करेगी। 2024 के चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भाजपा पूरी तरह से फ्री हैण्ड देने से बच सकती है।

भाजपा के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जिस तरह से हर चुनाव अपने चेहरे को सामने करके लड़ना चाहते है उससे यह तो स्पष्ट हो गया है कि भाजपा में आतंरिक लोकतंत्र अब खतरे में है। चूँकि भाजपा ने केंद्र की सत्ता में रहने के लिए नरेंद्र मोदी के चेहरे की ब्रांडिंग किसी प्रोडक्ट की तरह की थी और उसे जादुई बताया था पर यह जादू अब अपना असर खोने लगा है। जादू सिर्फ तब तक सत्य बना रह सकता है जब तक कि उसके आयामों पर लपेटे गए छल और भ्रम का परदा कायम रहता है पर नरेंद्र मोदी के चेहरे पर चस्पा किए गए जादुई विज्ञापन के भ्रम अब अपना अर्थ खोने लगे हैं। कर्नाटक विधान सभा चुनाव की पराजय ने जो सबसे बड़ा नुकसान किया है वह नरेंद्र मोदी के उस जादू का ही किया है जिसके सहारे भाजपा अब तक कुलांचे मार रही थी। कर्नाटक चुनाव में भी नरेंद्र मोदी ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी थी पर कांग्रेस ने जिस तरह से मुद्दों की बात करके नरेंद्र मोदी की आभासी या जादुई ब्रांडिंग की हवा निकाली थी उससे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का चौकन्ना होना लाजिमी है। संघ ने व्यक्ति की कभी परवाह नहीं की उसने हमेशा सत्ता की सीढ़ी के रूप में भाजपा के उन नेताओं को चुना जो कट्टर और ताकतवर तरीके से उसके हिन्दुत्ववादी एजेंडे को जनता के बीच ले जा सकते थे। जब तक जो नेता संघ को सत्ता की ओर ले जाता दिखा उसे ब्रांड बनाये रखने में कभी कोई कोताही नहीं की पर जब राजनीति के बाजार में चेहरे की ब्रांडिंग  कमजोर पड़ी तो उसे हाशिये पर भेजने में भी संकोच नहीं किया। लाल कृष्ण आडवानी और मुरली मनोहर जोशी जैसे नेता इस बात के बड़े उदाहरण हैं। कभी भारतीय जनता पार्टी का नारा था “भारत माँ की तीन धरोहर- अटल, अडवानी, मुरली मनोहर” पर इन तीन धरोहरों में से दो अभी भी जीवित होने के बावजूद नरेंद्र मोदी के आभा मंडल तले कहाँ कुचले जा चुके हैं इसका उत्तर फिलहाल तो कोई नहीं बतायेगा। संघ के लिए भाजपा के तमाम नेता सिर्फ सत्ता में बने रहने के माध्यम हैं उससे ज्यादा कुछ भी नहीं। 2014 से नरेंद्र मोदी के रूप में भाजपा को वह चेहरा मिला जिसने प्रोपेगेंडा के लिए तमाशाई जुमले का सहारा लिया और अपने भूतपूर्व नेताओं को बहुत पीछे छोड़ते हुए केंद्र में भाजपा की पूर्ण बहुमत की सरकार बनवा दी। यह जादू किसी विकास माडल का नहीं था बल्कि एक ऐसे आभासी सुख का था जो काल्पनिक रूप से बहुत सुखकर था पर यथार्थ के धरातल पर उसका कोई वजूद नहीं था। सुख के इस गल्प में भारत देश की जनता लम्बे समय तक तैरती रही। 2023 में कर्नाटक चुनाव से भाजपा इस गल्प के सुख को अगले पायदान पर ले जाने का प्रयत्न कर रही थी पर 2014 के बाद पहली बार कांग्रेस ने भाजपा को मुद्दों पर इस तरह से घेरने का काम किया कि भाजपा को ना सिर्फ घुटनों पर नाचने के लिए मजबूर होना पड़ा बल्कि सत्ता से बाहर होने के साथ भाजपा के पोस्टर नेता नरेंद्र मोदी के मैजिक का गुब्बारा भी फूट गया।

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तीन दिनी अमेरिका यात्रा, नौ साल के कार्यकाल में पहली प्रेसवार्ता

अमेरिका यात्रा के दौरान प्रधानमंत्री बनने के नौ साल बाद नरेंद्र मोदी को पहली बार जब मजबूरी में फंसकर अमेरिकी राष्ट्रपति के साथ संयुक्त प्रेसवार्ता में शामिल होना पड़ा तब वैश्विक मीडिया के साथ कुछ भारतीय मीडिया ने उनकी और उनकी अंग्रेजी की जिस तरह से चुटकी ली है वह भी नरेंद्र मोदी की छवि को धूमिल करने में अहम भूमिका निभा रही है। फिलहाल भाजपा अगले चुनाव में भी नरेंद्र मोदी के चेहरे पर चुनाव लड़ेगी जरूर पर यह तय को है कि वह प्लान बी के साथ ही चुनावी मैदान में जायेगी। बहुत हद तक संभव है कि संघ उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को अगले चेहरे के तौर पर इस चुनाव से कमान देने का प्रयास करे। भाजपा का पूरा जोर फिलहाल चुनाव को 80 बनाम 20 करने का होगा। पर यह भी तय है या फिर कहीं न कहीं भाजपा पर वैश्विक दबाव भी है कि पार्टी के बड़े नेता सीधे तौर पर अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ कुछ ना बोलें। ऐसे में पार्टी की सेकंड लाइन की भूमिका एक बार वापस भाजपा के अन्दर अपना रुतबा हासिल कर सकती है। 2014 के बाद भाजपा के अन्दर सेकेण्ड लाइन की राजनीति लगभग नेपथ्य में चली गई थी पर नरेंद्र मोदी के जादू का असर अब जबकि कमजोर पड़ने लगा है तब संघ का ध्यान एक बार वापस उस दूसरी लाइन को आगे लाने की कोशिश में दिख रहा है। फिलहाल भाजपा लोकसभा चुनाव के लिए कमर कस चुकी है और ‘मेरा बूथ सबसे मजबूत’ का नारा देकर परिधि पर खड़े अपने कार्यकर्त्ताओं को चुनावी रण के लिए तैयार होने का इशारा भी कर दिया है और रणघोष भी कर दिया है। वैसे केंद्र के साथ उत्तर प्रदेश की राज्य सत्ता में काबिज भाजपा के लिए यदि यह कहा जाय कि वह हमेशा चुनावी मोड में बनी रहती है तो यह बात बहुत गलत नहीं होगी और बहुत हद तक यही भाजपा की सबसे बड़ी ताकत है।

सामजिक न्याय के मोर्चे को मजबूत करने पर होगा समाजवादियों का पूरा फोकस

अखिलेश यादव और समाजवादी पार्टी दोनों के लिए यह चुनाव करो या मरो का चुनाव होगा। इस बात को समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव भी जानते हैं। अखिलेश यादव 2012 में पूर्ण बहुमत की सरकार के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। सन 2012 के बाद उनके नेतृत्व में समाजवादी पार्टी विधान सभा और लोक सभा चुनाव के साथ निकाय और पंचायती चुनाव में भी खुद को अगली कतार में नहीं खड़ी कर पाई है। 2022 के विधान सभा चुनाव में अखिलेश यादव ने काफी मेहनत की थी, विजय रथ यात्रा के माध्यम से सड़कें भी खूब नापी थी और उसका यह फायदा भी मिला था कि उनका वोट प्रतिशत भी 2012 के मुकाबले बढ़ा था। 2012 में जिस वोट प्रतिशत के साथ वह पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने में सफल हो गए थे उससे ज्यादा वोटर प्रतिशत के बावजूद भी 2022 में वह बहुमत के आधे तक ही पंहुच सके जिसकी वजह दोनों समय के बदले हुए राजनीतिक समीकरण थे।  उस समय बसपा उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक ताकतवर पार्टी थी और कांग्रेस भी कुछ विधानसभाओं में 2022 की अपेक्षा ज्यादा मजबूत थी। जिसकी वजह से वोटों का बटवारा ज्यादा बिखरा हुआ था पर 22 तक आते-आते प्रदेश के राजनीतिक सरोकार बदल गए और वोटों का केन्द्रीयकरण भी विकेन्द्रित हो गया। अति पिछड़ा वर्ग समाज के साथ दलित वोट बड़ी संख्या में भाजपा के साथ चला गया। इसके पीछे दो बड़ी वजहें रही पहला ‘मुफ्त राशन’ और दूसरा ‘मुस्लिम समाज के खिलाफ नफ़रत का राजनीतिक मुहाबरा’। हिन्दू समाज में जातीय तौर पर परिधि पर खड़ा समाज भी धार्मिक रूप से मुसलमानों के खिलाफ घृणा का झंडा उठाकर कुछ  देर के लिए ही सही ‘गर्व से कहो हम हिन्दू हैं’ की खुशी से भर जाता है। लम्बे समय से उत्पीडित समाज के लिए यह क्षणिक और आभासी सुख उसके लिए इतने भवितव्य से भरा हो जाता है कि वह पीढियों की वंचना को भूल जाता है और बकरीद के बकरे की तरह (जिसे सिर्फ कुर्वान करने के लिए हफ्ते दस दिन खूब खिलाया पिलाया जाता है और बकरीद पर कुर्वान कर दिया जाता है) खुद को हलाल करने वाले के हवाले कर देता है। फिलहाल उत्तर प्रदेश की राजनीति में इस बार सामजिक न्याय की इसी लड़ाई को आगे बढाने की कोशिश अखिलेश यादव करते दिखेंगे। सामाजिक न्याय की यात्रा निकालकर उन्होंने इस मुद्दे पर मुहर लगा दी है पर सिर्फ इतने से बात बनने वाली नहीं है वजह साफ़ है की चुनाव से पहले संगठन में इस भागीदारी को स्थापित करना होगा और दलित समाज को स्पष्ट तौर पर बताना होगा कि समाजवाद सामजिक न्याय की लड़ाई और संवैधानिक हक़ और राष्ट्र की धर्मनिरपेक्ष भावना के अनुरूप समाज निर्माण का मंच है।  अखिलेश यादव बीच-बीच में इस आन्दोलन को शुरू जरूर करते हैं पर किसी लम्बे आन्दोलन में जाने के बजाय उसे झंडे की तरह उठाकर किसी मुंडेर पर टांग देते हैं और भूल जाते हैं। यह झटके से जगी हुई चेतना हमेशा ही खतरनाक होती है और हमेशा ही सबकुछ असंतुलित कर देती है।

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जातीय आग में जलता हुआ मणिपुर, गुजर गए पचास दिन

2024 के लोक सभा चुनाव में चुनाव पूर्व तक विपक्ष की राजनीति में अखिलेश यादव की भूमिका महत्वपूर्ण रहने वाली है पर इस वजह से अखिलेश पर खुद को साबित करने का दबाव भी ज्यादा होगा और अखिलेश यादव को हतोत्साहित करने के लिए भाजपा की ओर से ज्यादा हमले भी उन पर होंगे।  उत्तर प्रदेश में सुरक्षा का मामला अखिलेश के पक्ष में जनता को जोड़ेगा। सन 2023 में भाजपा सरकार में उत्तर प्रदेश में जिस तरह से ह्त्याओं और हमले के मामले बढे हैं उसने आम आदमी को डराने का काम किया है। पुलिस अभिरक्षा के बीच हुई तीन बड़ी हत्यायों ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के उस दावे को पूरी तरह से खोखला साबित कर दिया है जिसमे वह कहते रहे हैं कि उत्तर प्रदेश में क़ानून व्यवस्था दुरुस्त है। इस चुनाव में अखिलेश यादव के पास बड़ा मौका है और कर्नाटक से पूरे देश के विपक्ष को मिली हुई सीख भी है।  यदि अखिलेश यादव दलित, पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यक समाज को उसके हक़ और सामजिक सम्मान की बुनियाद पर अपने साथ जोड़ पाते हैं तो यह कहना गलत नहीं होगा कि उत्तर प्रदेश में भी भाजपा पुनः नेपथ्य में वैसे ही चली जाय जैसे कभी मुलायम सिंह यादव और कांशीराम ने उत्तर प्रदेश की राजनीति में नया समीकरण स्थापित कर भाजपा और कांग्रेस दोनों को ही प्रदेश की राजनीति में हाशिये पर धकेल दिया था।

[bs-quote quote=”समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने कहा है कि भाजपा जबसे सत्ता में आई है देश की अर्थव्यवस्था, सामाजिक सद्भाव तथा लोकतंत्र को तहस-नहस करने पर तुली है। भाजपा लोकसभा चुनाव 2024 की पवित्रता भी नष्ट करने की रणनीति बनाने में लगी है। भाजपा द्वारा जनादेश के साथ खिलवाड़ अब जनता बर्दाश्त करने वाली नहीं है। समाजवादी पार्टी आगामी लोकसभा चुनाव 2024 को पूरी गंभीरता से ले रही है। बूथस्तर तक संगठन को मजबूती दी जा रही है। प्रशिक्षण शिविरों के माध्यम से समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं को भाजपा की साजिशों और चुनावी हथकंड़ो से परिचित कराया जा रहा है। भाजपा ने विकास के नाम पर जनता को जो धोखा दिया है उसको घर-घर, जन-जन तक पहुंचाने का समाजवादी पार्टी का संकल्प है। उत्तर प्रदेश में समाजवादी सरकार में जो उल्लेखनीय विकास कार्य बिजली, सड़क, नदियों की सफाई और प्रमुख स्थलों के सौंदर्यीकरण के साथ वृहद वृक्षारोपण आदि हुए थे भाजपा सरकार उन विकास कार्यों को बर्बाद करने पर तुली हैं। भाजपा ने जनता को परेशान करने के सिवाय और कुछ नहीं किया है। किसान, नौजवान, व्यापारी, शिक्षक सभी परेशान है। कानून व्यवस्था पूरी तरह ध्वस्त है। भाजपा राज में सरकारी और प्रशासनिक उत्पीड़न से जनता क्षुब्ध और आक्रोशित है। बेलगाम भाजपाईयों और पुलिस के द्वारा गरीबों के घर उजाडे़ जा रहे हैं। कभी भी किसी का बुलडोजर से घर गिरा दिया जाता है। पिछड़ों, दलितों और अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव पूर्ण कार्यवाही भाजपा सरकार की पहचान बन गयी है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

छोटे दल करेंगे बड़ा कारनामा

उत्तर प्रदेश में छोटे-छोटे दल भी अभी से खुद को इस तरह से चमकाने में लग गए हैं कि चुनावी राजनीति में उनका बेहतर मोलभाव हो सके। इसके लिए वह सिद्धान्त के बजाय हित लाभ के फार्मूले को तरजीह देते हैं। अंत तक यह उस पार्टी के साथ जाने को तैयार बैठे रहते हैं, जो इन्हें बेहतर हिस्सेदारी दे सके। फिलहाल, यह खुद सत्ता तक पहुंचे या न पहुंचे पर दूसरों का खेल बनाने बिगाड़ने में इनकी बड़ी भूमिका हो सकती है और तीर सही निशाने पर लग गई तो यह पार्टियाँ बड़ा कारनामा भी  कर सकती हैं।

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कांग्रेस भी लगी है मिशन में पर बसपा का हाथी अभी नींद से जगा नहीं

फिलहाल कांग्रेस किसी भी तरह से वापस उत्तर प्रदेश में अपनी जड़ें जमाने की फिराक में है। प्रदेश स्तरीय कार्यकर्ता जातीय जनगणना के मुद्दे को लेकर समाज के अल्पसंख्यक, दलित और अन्य पिछड़ा वर्ग को साधने में लगी हुई है। जातीय जनगणना के मुद्दे पर ही वह उत्तर प्रदेश में कर्नाटक के विजन को दोहराना चाहेगी। अन्ततः बसपा की बात करें तो अभी तो यहीं कहा जा सकता है की जब हाथी नींद से जागेगा तब देखा जाएगा कि किस करवट बैठेगा। फिर भी इतिहास के सहारे इतना तो कहा ही जा सकता है कि जब जग कर करवट बदलेगा तो उत्तर प्रदेश की जमीन में एक हलचल भी होगी जो बहुत हद तक भाजपा को राजनीतिक  फायदा दिलाने में बड़ी भूमिका अदा कर सकती है।

 

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