देखा जाय तो मिर्जापुर जिले में पर्यटन की अपार संभावनाएं हैं। यहां के पीतल उद्योग को सरकार की ओर से अगर प्रोत्साहन मिलता तो यह बडे़ पैमाने पर लोगों की रोजी रोटी का साधन बनता। लेकिन दुख की बात है कि स्थनीय जनप्रतिनिधियों का जनता से कोई सरोकार नहीं है, जिसे लेकर जनता में आक्रोश भी है। इसका असर आने वाले चुनाव में भी देखने को भी मिलेगा।
यह कहानी लेखक अतुल यादव के गांव पांडेयपुर की है, जो 30 वर्षों बाद अपने गांव वापस लौटे हैं, अपने गांव लौटने का जिक्र उन्होंने अपने कई शुभचिंतकों, दोस्तों और गुरुजनों से किया, लेकिन किसी ने इस बारे में सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं दी , सभी ने कहा कि तुम्हें और आगे बढ़ना चाहिए गांव में क्या रखा है? आगे की कहानी अतुल की जुबानी...
मिर्जापुर में मिशन जल शक्ति के तहत हर घर नल योजना, कार्यदायी संस्था की लापरवाही की चढ़ रही भेंट। किसी के घर अभी नल ही नही लगा तो वहीँ किसी के यहां पहुंच रहा गंदा और बदबूदार पानी।
किसान चाहते हैं कि सरसों भी तय की गई एमएसपी पर बिके। ब्लॉक और जिले स्तर पर सरसों के लिए कोई भी खरीदी केंद्र न होने से किसान खुले बाजार में औने-पौने दाम में सरसों बेचने के बाद खुद को छला हुआ महसूस कर रहे है
बाणसागर परियोजना के बावजूद किसान खेतों की सिंचाई के लिए तरस रहे हैं। नहर में समुचित मात्रा में पानी नहीं आ रहा है। जुलाई 2018 में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस बहुप्रतीक्षित नहर परियोजना का फीता काटकर किसानों को समर्पित किया था तो उम्मीद जगी थी कि जिले के किसानों को भरपूर पानी सिंचाई के लिए मिलेगा, इसके दावे भी खूब किए गए थे। लेकिन संबंधित विभाग की लचर नीतियों और जनप्रतिनिधियों की उदासीनता के चलते किसानों की उम्मीद खत्म होती दिख रही है।
डॉ काशी प्रसाद जायसवाल, जिन्हें अद्वितीय धरोहर के रूप में सहेज-सँजोकर रखने की जरूरत थी, जिसे देश के प्रतिनिधि चेहरे के तौर पर दुनिया के सामने रखा जाना चाहिए था, पर दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआ। इस देश को जिस पर गर्व करना चाहिए था उस व्यक्ति को इस देश के घृणित जातिवाद ने हाशिये पर धकेलने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी।
उत्तर प्रदेश की राजनीति में बढ़ती धार्मिक पक्षधरता ने श्मशान और कब्रिस्तान को भी राजनीतिक मुद्दे के तौर पर सामने लाने का काम किया। अन्त्येष्टि स्थलों को राजनीति की प्रत्यंचा पर चढ़ाकर, जनमत के ध्रुवीकरण के बहुतेरे प्रयास भी हुये। हर धर्म में अंतिम संस्कार के अपने-अपने तौर तरीके रहे हैं। मुस्लिम समुदाय में जहां दफनाने का रिवाज रहा है वहीं हिन्दू समुदाय में अन्त्येष्टि का विधान शवदाह है। जो प्रायः नदियों के किनारे किया जाता है और शवदाह के उपरांत राख़ नदी में प्रवाहित कर दी जाती है। मुस्लिम समुदाय अपने ग्राम के आस-पास ही कब्रिस्तान में शव को दफनाते रहे हैं। कब्रिस्तान के लिए ग्राम स्तर पर जमीन और निर्माण की आवश्यकता होती थी जिसकी वजह से उन्हें सरकारी सहयोग भी दिया जाता था। कट्टर हिंदूवादी राजनीतिक पार्टियों को यह बात चुभ रही थी कि मुस्लिम समुदाय को श्मशान यानी कब्रिस्तान के लिए भी आर्थिक सहयोग दिया जा रहा है जबकि हिंदुओं के लिए इस तरह की कोई व्यवस्था नहीं है। इसी सोच के तहत सरकार ने हिन्दू श्मशान भूमि या शवदाह घाट के विकास का कार्य शुरू कर दिया और हिन्दू हिस्से के तौर पर सरकारी खजाने का मुंह खोल दिया गया। मीरजापुर जनपद में भी इस दिशा में प्रयास हुये, सरकारी पैसा भी जमकर खर्च हुआ पर आज विकास के नाम पर स्थापित यह शवदाह गृह अपनी ही राख़ में अपना शोक माना रहे हैं। मिरजापुर के चौबेघाट जिसे मुक्तिधाम के नाम से भी जाना जाता है की दुर्दशा पर संतोष देव गिरि की रिपोर्ट।
हल्की बारिश में भी मुख्य मार्ग से बस्ती में आना मुश्किल होने लगता है। बस्ती की समस्याओं को लेकर ग्राम प्रधान से लगायत मुख्यमंत्री पोर्टल तक शिकायत की जा चुकी है, लेकिन समाधान आज तक नहीं हो पाया है। सड़क, बिजली, पानी और साफ-सफाई जैसी बुनियादी सुविधाओं से जूझते आ रहे नकहरा नई बस्ती के लोगों को बरसात के दिनों में अपने घरों तक आने के लिए तमाम दुश्वारियां से दो-चार होना पड़ता है। लोग घायल भी हो जाते हैं। रहवासियों के लिए यह स्थिति समस्या नहीं अब यातना बन चुकी है।