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कितने बचे हैं मिर्ज़ापुर में काशी प्रसाद जायसवाल 

मिर्ज़ापुर। डॉ काशी प्रसाद जायसवाल के स्मृति अवशेष की तलाश में हम उनके पैतृक घर मिर्जापुर गए, जहाँ हमारे स्वागत के लिए एक प्रवेशद्वार था जो अपने आलीशान मेहराब के साथ अपनी भव्यता और अतीत का किस्सा भी समेटे हुये खड़ा था। समय ने उस मेहराब के अंदर दर्ज उनकी तमाम स्मृतियों को भले ही […]

मिर्ज़ापुर। डॉ काशी प्रसाद जायसवाल के स्मृति अवशेष की तलाश में हम उनके पैतृक घर मिर्जापुर गए, जहाँ हमारे स्वागत के लिए एक प्रवेशद्वार था जो अपने आलीशान मेहराब के साथ अपनी भव्यता और अतीत का किस्सा भी समेटे हुये खड़ा था। समय ने उस मेहराब के अंदर दर्ज उनकी तमाम स्मृतियों को भले ही विस्मृत कर दिया हो पर खंडहर आज भी गवाही देते हुये चुपचाप खड़ा है। उनकी जीर्ण-शीर्ण हो चुकी हवेली में उनके परिवार के सेवक रामचन्द्र यादव अतीत के कुछ किस्से और वर्तमान की त्रासदी के बारे में बताते हैं।

जर्जर अवस्था में पड़ी डॉ काशी प्रसाद जायसवाल की हवेली

रामचन्द्र यादव कहते हैं कि ‘बाबू जी के गुजर जाने के बाद इस हवेली को बाबू जी की यादों वाली हवेली नहीं समझा गया बल्कि परिवार के लोग इसमें अपनी हिस्सेदारी के लिए आगे आए और बहुत सा हिस्सा बँटवारे की भेट चढ़ गया। शेष हिस्से पर भी कब्जे को लेकर अदालत में मामला विचारधीन चल रहा है।’ यह दुखद है किन्तु सच्चाई यही है।

यहीं पर एक रहस्य भी उद्घाटित होता है कि यह जो हवेली है उसे डॉ जायसवाल के पिता ने जार्ज विल्सन नामक अंग्रेज़ से पाँच हज़ार रुपए में खरीदी थी। इस हवेली के बाहर ही मिस्टर विल्सन को मृत्यु के बाद दफनाया गया था, पर उस कब्र को कुछ मुस्लिम समाज के लोगों ने मजार में तब्दील कर दिया है। बाहर अरबी में कुछ इबारतें भी लिखी हैं। विल्सन ईसाई थे। उनकी कब्र मजार में तब्दील कर ली गई है और बाहर से रामचन्द्र यादव उस पर हिन्दू रीति-रिवाज से हर रोज पुष्पांजलि देते हैं। यह किसी सद्भाव की उपज नहीं है बल्कि इसके पीछे जमीन पर कब्जा करने का यत्न है।

जार्ज विल्सन की कब्र जो अब मजार में बादल गई है और बॉक्स में हवेली के केयर टेकर रामचन्द्र

फिलहाल हवेली का कुछ हिस्सा अब भी रामचन्द्र के पास है पर उसमें अब किसी हवेली जैसी चमक नहीं बची है। कुछ भी तरतीब से नहीं है सब कुछ बेहद बिखरा हुआ सा दिखता है। जिनके पास इस हवेली का हक है  वह लोग अब देश में नहीं रहते हैं बस रामचन्द्र को मुकदमा लड़ने के लिए पैसा भेजते रहते हैं। 

काशी प्रसाद जायसवाल विद्यालय के एक मात्र शिक्षक विजय बहादुर सिंह

घर के बाद हम डॉ काशी प्रसाद जायसवाल विद्यालय देखने जाते हैं, यह विद्यालय चल तो रहा है पर सच कहा जाय तो यह उनकी स्मृतियों को महिमा मंडित नहीं करता है बल्कि उन्हें अपमानित करता हुआ सा दिखता है। गेट के ठीक बगल में किसी आकस्मिक दुर्घटना को दावत देता हुआ बिजली का ट्रांसफ़ार्मर लगा हुआ है। उससे लगा हुआ गेट है जिसकी मरम्मत का कार्य भी अधूरा पड़ा हुआ दिखता है। उस गेट से हम अंदर जाते हैं, जहां मात्र एक शिक्षक के भरोसे तीन कक्षा संचालित होने की बात सामने आती है। एक मात्र शिक्षक के रूप में यहाँ विजय बहादुर सिंह से मुलाक़ात होती है। वह बताते हैं कि पहले यहाँ चार शिक्षक थे और यह विद्यालय शहर के गिने-चुने विद्यालयों में से एक माना जाता था पर विवादों के चलते अब तीन शिक्षक सेवा में नहीं है। हम उनसे पूछते हैं कि तीनों कक्षाओं को आप अकेले कैसे पढ़ाते हैं, तब वह कहते हैं कि सब को एक साथ बैठाकर पढ़ाना पड़ता है। इसमें संस्थान चाहकर भी कुछ नहीं कर सकता है क्योंकि एक तरफ बोर्ड का विवाद है दूसरी तरफ शिक्षकों की नियुक्ति के लिए  सरकारी मान-दंड हैं। ऐसे में जब सरकार की तरफ से प्रक्रिया आगे बढ़ेगी तभी कुछ हो सकता है । हम उनसे पूछते हैं कि काशी प्रसाद जायसवाल द्वारा स्थापित इस विद्यालय में क्या उनके कुछ स्मृति चिन्ह मौजूद हैं  तब वह चपरासी को बुलाकर डॉ जायसवाल की एक तस्वीर निकलवाते हैं। यह तस्वीर भी अब वक्त के थपेड़ों से लोहा लेते हुये थकी सी दिखती है। फ्रेम और काँच की धूल साफ करने के बाद भी चेहरा साफ नहीं दिखता।

मिर्जापुर के युवा व्यापारी नेता और सामाजिक कार्यकर्ता शैलेंद्र अग्रहरी

इसके बाद हम गंगा किनारे उनके पिता द्वारा स्थापित गंगा घाट पर पहुंचे। यह घाट उनकी हवेली  के पास ही बना है। यहाँ हमारे साथ मिर्जापुर के युवा व्यापारी नेता और सामाजिक कार्यकर्ता शैलेंद्र अग्रहरी भी थे। वह पिछले चार सालों से डॉ जायसवाल की स्मृतियों को सँजोने-सहेजने में लगे हुये हैं। वह बताते हैं कि  काशी (वाराणसी) की समाजसेविका डॉ रीता जायसवाल  के नेतृत्व में उन्होंने डॉ काशी प्रसाद जायसवाल विद्वता परिषद की स्थापना की है जिसके माध्यम से हम आज की पीढ़ी को डॉ साहब के कृतित्व और व्यक्तिव से परिचित कराने का काम कर रहे हैं। इस परिप्रेक्ष्य में वह कहते हैं कि डॉ जायसवाल का जन्म भले ही मिर्जापुर में हुआ था पर उनकी विद्वता उन्हें भारतीय प्रतिनिधि चेहरे के रूप में स्थापित करती है पर यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि देश खासतौर पर देश की सरकारों ने उन्हें ना तो उनके योगदान के मुताविक याद रखा न ही उनकी स्मृतियों को सहेजने की दिशा में कोई गंभीर प्रयास किया। शैलेंद्र अग्रहरी डॉ जायसवाल को इस तरह से विस्मृत किए जाने के पीछे भारतीय राजनीति की जाति व्यवस्था को भी जिम्मेदार ठहराते हैं। वह कहते हैं कि यदि डॉ साहब पिछड़ी जाति से नहीं होते तो वह इस देश के लिए पूज्य बना दिये जाते।  

डॉ काशी प्रसाद जायसवाल को लेकर मिर्जापुर में स्मृति चिन्ह भले ही नहीं दिखते हैं पर आज भी बहुत से लोग मिलते हैं जिन्होंने उन्हें श्रुतियों और आलेखों के माध्यम से जाना है और उन्हें इस बात का गर्व है कि डॉ जायसवाल जैसे महान इतिहासकार ने मिर्जापुर में जन्म लिया था।

डॉ जायसवाल को लेकर हमारी मुलाक़ात वाराणसी जनपद में मजबूत शैक्षिक और राजनीतिक हस्तक्षेप रखने वाली समाज सेविका डॉ रीता जयसवाल से हुई तब वह बहुत ही शालीनता से यह बात कहती हैं कि डॉ जायसवाल इस देश की धरोहर हैं, देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद उन्हें इस देश का शीर्षस्थ विद्वान मानते थे। भाषा, जाति और समाज तथा सांप्रदायिक सद्भावना को लेकर उनसे पहले किसी भी भारतीय इतिहासकार ने इतनी गंभीरता से विचार नहीं किया। यह कहना भी गलत नहीं होगा की डॉ जायसवाल पहले भारतीय थे जिन्होंने भारतीय इतिहासकार के रूप में इतिहास लेखन की आधुनिक परंपरा की नींव डाली। वह भारत को यह बताना चाहते थे कि मान्यताओं और परम्पराओं से आगे बढ़कर ज्ञान का रास्ता अख़्तियार करना होगा।

समाज सेविका डॉ रीता जायसवाल

डॉ रीता जायसवाल कहती हैं कि डॉ केपी जायसवाल ने समाज के उस हिस्से को नाराज कर दिया था जो अपने हित में जाति व्यवस्था बनाए रखना चाहता था जबकि डॉ साहब, देश के समग्र विकास के लिए जाति विभाजन की भावना को बड़ा रोड़ा मानते थे। डॉ रीता जायसवाल स्पष्ट तौर पर कहती हैं कि यह कहना दुर्भाग्यपूर्ण किन्तु सत्य है कि इस देश में आज भी सबसे महत्वपूर्ण ताकत जाति है। अपने श्रेष्ठता बोध को बनाए और बचाए रखने के लिए उनके जैसे विद्वान को जब यह देश जानबूझ कर विस्मृत करता है तब कभी उस समाज पर गुस्सा आता है और कभी उसकी मानसिक संकीर्णता पर दया आती है।

डॉ रीता जायसवाल बताती हैं कि उन्हें इस बात का गर्व है कि वह उस समाज से आती हैं जिसमें डॉ केपी जायसवाल जैसे इतिहास पुरुष का जन्म हुआ। वह बताती हैं कि डॉ जायसवाल के विचारों की समाज को आज भी जरूरत है इसीलिए उन्होंने तय कर रखा है कि वह डॉ साहब के विचारों को लेकर लोगों के बीच जाएंगी। डॉ काशी प्रसाद जायसवाल विद्वता परिषद की स्थापना के पीछे उनका यही उद्देश्य है कि डॉ जायसवाल की कीर्तिशेष स्मृतियों को पताका की तरह इस देश में फहराया जा सके और उनके विचारों का अनुकरण करते हुये इस देश को ज्यादा मानवीय बनाने का प्रयत्न किया जा सके।

मिर्जापुर के वरिष्ठ समाज सेवक अरुण मिश्र भावुकता से डॉ काशी प्रसाद जयसवाल को याद करते हैं और कहते हैं कि मिर्जापुर की सांस्कृतिक धरोहर के रूप में जो तीन तीन नाम सबसे प्रमुख हैं उसमें आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, प्रेमघन और डॉ काशी प्रसाद जायसवाल का हैं। वह कहते हैं कि यह दुखद है कि आज मिर्जापुर ने काशी प्रसाद जायसवाल को पूरी तरह से भुला दिया है। जबकि पटना में उनके नाम की स्थापना यहाँ से ज्यादा हुई है। मिर्जापुर के ही मनु गोस्वामी कहते हैं कि सरकार को पहल करते हुये मिर्जापुर में डॉ काशी प्रसाद के स्मृति चिन्ह स्थापित करने चाहिए।

एक साथ अनेक क्षेत्रों के धुरंधर थे काशी प्रसाद जायसवाल 

डॉ काशी प्रसाद जायसवाल, जिन्हें अद्वितीय धरोहर के रूप में सहेज-सँजोकर रखने की जरूरत थी, जिसे देश के प्रतिनिधि चेहरे के तौर पर दुनिया के सामने रखा जाना चाहिए था, पर दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआ। इस देश को जिस पर गर्व करना चाहिए था उस व्यक्ति को इस देश के घृणित जातिवाद ने हाशिये पर धकेलने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी।

डॉ काशी प्रसाद जायसवाल की जब बात हो तब यह तय करना मुश्किल हो जाता है कि हम उन्हें सबसे पहले किस रूप में याद करें। एक इतिहासकार के तौर पर उनका योगदान जितना महत्वपूर्ण दिखता है उससे कम वह न तो भाषा विज्ञान के विद्वान के रूप में दिखते हैं न ही सामाजिक बदलाव के अपने क्रांतिकारी लेखन में वह कहीं से कमतर नजर आते हैं। वह मुद्राशास्त्री के रूप में भी उल्लेखनीय हैं तो पुरातत्वविद और न्यायविद के रूप में भी उनकी भूमिका महत्वपूर्ण दिखती है।

डॉ काशी प्रसाद जायसवाल का जीवन लंबा नहीं अपितु बहुत बड़ा था, उन्होंने अपनी छोटी जीवन अवधि में दर्जनों शोध पत्र लिखे, राष्ट्रीय महत्व की संस्थाओं के निर्माण में बड़ी भूमिका निभाई। उनकी प्रसिद्ध किताबों में हिंदू पोलिटी(हिन्दी अनुवाद – हिन्दू राजतंत्र), मनु एंड याज्ञवल्क्य तथा  अंधकारयुगीन भारत उनकी बहुचर्चित हैं।  इसके साथ ही उन्होंने समकालीन सामाजिक, राजनीतिक, और आर्थिक पहलुओं पर भी खूब लिखा।

उनके लेखन की ताकत यह थी कि वह देश के शीर्ष विद्वान के रूप में चिन्हित किए जाते रहे। राहुल सांकृत्यायन ने उन्हें अपने गुरू के रूप में ग्रहण किया तो डॉ बाबसाहब भीमराव अंबेडकर ने डॉ काशी प्रसाद जायसवाल के लेखों को उद्धृत करके अपनी बात रखी। एक सुप्रसिद्ध इतिहासकार ने काशी प्रसाद जायसवाल की विद्वता को लेकर लिखा है कि ‘गैर ब्राह्मणों में जायसवाल जी सबसे बड़े संस्कृतज्ञ तो हैं ही पर ब्राह्मण पंडितों में भी उनकी कोटि का धुरंधर विद्वान मिलना कठिन है।’

साहित्यकार अमृतलान नागर तो यहाँ तक कहते हैं कि ‘यदि मुझे पीर मुहम्मद चिश्ती की भांति तीन घंटे की बादशाहत मिल जाये तो मैं गाँव-गाँव के मंदिरों में काशी प्रसाद जायसवाल की मूर्तियाँ स्थापित करने का आदेश कर दूँ।’  

इससे सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि काशीप्रसाद जायसवाल का कृतित्व, भवितव्यता का एक अलग शिखर निर्मित करता है। इस सबके बावजूद आज उनकी स्मृतियां बचाए रखने का ना तो कोई प्रयास दिखता है ना ही कोई सम्मानजनक सोच दिखती है। काशीप्रसाद जायसवाल की स्मृतियों को सँजोने का एक बड़ा और सार्थक तौर पर अंतिम प्रयास सन 1981 में हुआ था जब जायसवाल जी पर डाक टिकट जारी किया गया था। 

काशी प्रसाद जायसवाल के बारे में

डॉ काशी प्रसाद जायसवाल का जन्म 27 नवंबर 1881 को उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर में एक व्यवसायी परिवार में हुआ। कुछ लोग इनका जन्म स्थान झालदा, बिहार, अब पश्चिम बंगाल भी मानते हैं। इनके पिता महादेव जायसवाल मिर्जापुर के ही व्यवसायी थे। डॉ काशी प्रसाद के बाल्यकाल में इनके पिता के आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी, जिसकी वजह से वह कुछ समय अपनी माँ के साथ ननिहाल में रहे। बहुत हद तक उन्होंने अपनी माँ के साथ एक उपेक्षित जीवन जिया। बाद में महादेव जायासवाल का समय बहुत ही तेजी से बदला और लाख तथा  चपड़े के कारोबार में उन्हें अप्रत्याशित लाभ हुआ। वह जल्द ही मिर्जापुर के बड़े व्यवसायी के रूप में गिने जाने लगे। आर्थिक स्थिति में  बदलाव का फायदा काशीनाथ जायसवाल को भी हुआ और उनके लिए शिक्षा का उचित प्रबंध हो गया। उन्होंने मिर्जापुर के लंदन मिशन स्कूल से एंट्रेंस की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की थी। इसके बावजूद उन्होंने पिता के व्यावसायिक कार्यों में हाथ बटाने के लिए शिक्षा से दूरी बना ली।

डॉ काशी प्रसाद जायसवाल की हवेली का प्रवेशद्वार, जिसमें हाथी भी प्रवेश कर सकता था

एक बार जब वह चपड़ा व्यवसायियों के साथ एक बैठक में भाग ले रहे थे और किसी विषय पर प्रतिवाद कर रहे थे तब किसी बात पर एक व्यवसायी ने उन पर ताना कसा कि ज्यादा वकील मत बनो। यह बात काशी प्रसाद जायसवाल को लग गई और उन्होंने तय किया कि अब वकील बनना है। इसके उपरान्त उच्च शिक्षा के लिये वे आक्सफोर्ड गये जहाँ इतिहास में एमए किया। यहीं उन्होंने ‘बार’ यानि वकालत के लिये परीक्षा में भी सफलता प्राप्त की। इंग्लैंड में अपने अध्ययन के दौरान उन्होंने तीन डिग्रियां प्राप्त कीं। इसमें लॉ और इतिहास (एम.ए.) के अलावा चीनी भाषा की डिग्री भी शामिल थी। जायसवाल पहले भारतीय थे, जिन्हें चीनी भाषा सीखने के लिए 1,500 रुपए की डेविस स्कालरशिप मिली।

इंग्लैंड में डॉ जायसवाल का संपर्क वी.डी. सावरकर, लाल हरदयाल जैसे ‘क्रांतिकारियों’ से भी रहा। बताया जाता है कि सावरकर की हिन्दुत्व की अवधारणा से वे इस कदर चिढ़ गए कि एक दिन बहस के दौरान सावरकर को डांटकर भगा दिया। डॉ जयसवाल मानते थे कि सावरकर एक विध्वंशक हिन्दू सिद्धान्त की वकालत कर रहे हैं जिसका प्रभाव भारत जैसे देश के लिए खतरनाक होगा। रेडिकल गतिविधियों के कारण ही औपनिवेशिक पुलिस उनकी गिरफ्तारी के लिए प्रयासरत थी। गिरफ़्तारी की आशंका को देखते हुए वह जल-थल-रेल मार्ग से यात्रा करते हुए 1910 में भारत लौटे। कलकत्ता उस समय भारत का राजनीतिक केंद्र था जिसकी वजह से वह पहले कलकत्ता में बसे और सन 1912 में बिहार बनने के बाद 1914 में हमेशा के लिए पटना में बस गए। उन्होंने पटना उच्च न्यायालय में आजीवन वकालत की। वे इनकम-टैक्स के प्रसिद्ध वकील माने जाते थे।

भारत लौटने पर वह कोलकाता विश्वविद्यालय में प्रवक्ता (लेक्चरर) बने किन्तु इस पद पर रह नहीं सके। जोरहाट (आसाम) के लेखक राम मनोहर जायसवाल ने अपने एक लेख में इस बारे में लिखा है कि ‘इंग्लैंड से आने के बाद कलकत्ता विश्वविद्यालय के उप-कुलपति सर आशुतोष मुखर्जी ने इन्हें प्राचीन इतिहास विभाग में अध्यापन का कार्य सौंप दिया। लेकिन एक क्रांतिकारी प्रवृत्ति का व्यक्ति इतिहास जैसा विषय विश्वविद्यालय में पढ़ाए, सरकार इसे कैसे बर्दाश्त कर सकती थी। तत्कालीन बंगाल के गवर्नर ने इस नियुक्ति को रद्द करवा दिया। उनके साथ ही उनके दो मित्र डा. ए. सुहरावर्दी तथा 1906 की ऐतिहासिक बारिसाल कांफ्रेंस (इसने बंग-भंग के खिलाफ आंदोलन का शुभारंभ किया था) के सभापति अब्दुल रसूल को भी इस्तीफा देना पड़ा। 

लेकिन प्रवक्ता पद जाने का जायसवाल जी को सिर्फ इतना ही दुख था कि वह देश के छात्रों को वह बहुत सा ज्ञान नहीं दे पाएंगे जो वह उन्हें सीधे संवाद के माध्यम से दे सकते हैं। इसके बाद उन्होंने वकालत करने का निश्चय किया और सन् 1911 में कोलकाता में वकालत आरम्भ की। कुछ समय बाद वे सन 1914 में पटना उच्च न्यायालय आ गये। इसके बाद पटना ही उनकी कर्मभूमि बन गया। शिक्षा को लेकर उनका कहना था कि-

उन्नति की जड़ शिक्षा है और शिक्षाओं में राज-शिक्षा का आदर सब देश, सब काल में अधिक रहा हैं, और रहेगा। इसमें जो चूकता है वह पिछड़ता है। मुसलमानी राज्य में कायस्थों ने मध्य हिन्दुस्तान में और ब्राह्मणों ने बंगाल में राज-भाषा और राज-शिक्षा को पकड़ा, जिससे आज भी वे आगे हैं। जो अंग्रेजी शिक्षा का आज तिरस्कार करेगा, पिछड़ा ही रहेगा, और पददलित रहेगा। अंग्रेजी शिक्षा वस्तुतः यूरोपीय शिक्षा है। जैसाकि एक बार महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्राी ने संस्कृत शिक्षा के तारतम्य में कहा है, अंग्रेजी आंख खोलने वाली है और संस्कृत शिक्षा आंख मूंदने वाली है। संस्कृत उतना ही जानने की जरूरत है कि शास्त्र दूसरे के द्वारा न जानना पड़े। पर उसे साम्प्रत मरहलों (आज के मसलों) को तय करने वाला कोई न समझे। जो विद्या 10 हजार या 5 हजार वर्ष पहले ठीक थी, वह आज काम नहीं दे सकती। दुनिया आगे चलती है, आप भी आगे चलें।’

डॉ काशी प्रसाद जायसवाल सन् 1899 में काशी नागरी प्रचारिणी सभा के उपमंत्री बने। उनके शोधपरक लेख ‘कौशाम्बी’, ‘लॉर्ड कर्जन की वक्तृता’ और ‘बक्सर’ आदि नागरी प्रचारिणी पत्रिका में छपे।

आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के ‘सरस्वती’ का सम्पादक बनते ही सन् 1903 में काशीप्रसाद जायसवाल के चार लेख, एक कविता और ‘उपन्यास’ नाम से एक सचित्र व्यंग्य सरस्वती में छपे। काशीप्रसाद जी और आचार्य रामचन्द्र शुक्ल समकालीन थे,  दोनों कभी सहपाठी और मित्र भी रहे थे किन्तु बाद में दोनों में इतनी कटुता बढ़ी कि संवाद ही न रहा।

पटना संग्रहालय, जिसके निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका रही डॉ जायसवाल की। (फोटो साभार गूगल )

बिहार के तत्कालीन प्रशासक एडवर्ड गेट ने ‘बिहार रिसर्च सोसाइटी’ से जब ‘बिहार रिसर्च जर्नल’ के प्रकाशन का प्रबंध किया तो श्री जायसवाल उसके पहले संपादक हुए। उन्होंने ‘पाटलिपुत्र’ का भी संपादन किया। पटना के रहने वाले पत्रकार पुष्पराज बताते हैं कि नए बने बिहार की राजधानी और पटना संग्रहालय के निर्माण में डॉ काशी प्रसाद की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण थी।  

1935 में ‘रायल एशियाटिक सोसाइटी’ ने लंदन में भारतीय मुद्रा पर व्याख्यान देने के लिये जायसवाल को आमंत्रित किया। आप इंडियन ओरिएंटल कांफ्रेंस (छठा अधिवेशन, बड़ौदा), हिंदी साहित्य सम्मेलन, इतिहास परिषद् (इंदौर अधिवेशन), बिहार प्रांतीय हिंदी साहित्य संमेलन (भागलपुर अधिवेशन) के सभापति रहे।

स्वर्गीय राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद के सहयोग से आपने इतिहास परिषद् की स्थापना की। डॉ जायसवाल की प्रकाशित पुस्तकों के नाम ‘हिंदू पालिटी’, ‘ऐन इंपीरियल हिस्ट्री ऑव इंडिया’, ‘ए क्रॉनॉलजी ऐंड हिस्ट्री ऑफ  नेपाल’ हैं।  हिंदू पालिटी का हिंदी अनुवाद रामचंद्र वर्मा ने किया है, जिसका प्रकाशन हिंदू राज्यतंत्र के नाम से नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी से हुआ। डॉ जायसवाल नागरी प्रचारिणी पत्रिका के संपादक मंडल के सदस्य भी रहे।

राष्ट्रवादी होने के बावजूद जनेऊ राष्ट्रवाद के शिकार काशी प्रसाद जायसवाल 

एसोसिएट प्रोफेसर रतन लाल

डॉ काशी प्रसाद जायसवाल की स्मृतियों और उनके विचारों को सहेजने की दिशा में दिल्ली यूनिवर्सिटी के हिंदू कॉलेज में इतिहास के एसोसिएट प्रोफेसर, लेखक और संपादक रतन लाल की भूमिका बहुत ही महत्वपूर्ण दिखती हैं। काशी प्रसाद जायसवाल पर शोध

कार्य करने के साथ ही वह पिछले कई सालों से लगातार डॉ जायसवाल के विचारों, लेखों को संकलित और संपादित करने में लगे हुये हैं।

रतन लाल ने उनके बारे में अपनी एक टिप्पणी में लिखा है कि ‘जायसवाल का इतिहास लेखन भारतीय इतिहास की दक्षिणपंथी दृष्टि के आस-पास रखा जा सकता है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की स्थापना से पहले ही जायसवाल प्राचीन भारत की ‘हिंदूवादी’ व्याख्या कर रहे थे। उनकी बहुचर्चित हिन्दू पोलिटी राष्ट्रवादियों के आन्दोलन के लिए गीता समझी जाती थी। सनद रहे! अस्मिता के नाम पर सरकार तो बनाई जा सकती है, राष्ट्रवाद के घनघोर नारे दिए जा सकते हैं, लेकिन वैचारिक वर्चस्व के सभी संस्थान अभी भी ‘जनेऊ राष्ट्रवाद’ के कब्ज़े में है, जिसमें काशी प्रसाद जायसवाल के लिए भी कोई स्थान नहीं है! हालांकि, जायसवाल की विद्वता से प्रभावित होकर अंग्रेजी हुकूमत के समय ही पटना विश्वविद्यालय ने 1936 में उन्हें पीएचडी की मानक उपाधि प्रदान की थी।

रतन लाल लिखते हैं कि ‘पटना स्थित जायसवाल का घर अंतरराष्ट्रीय स्तर के विद्वानों का अड्डा हुआ करता था और शोध के क्षेत्र में उभरती नई प्रतिभाओं को वे वित्तीय सहित हर तरह की मदद किया करते थे, जिसका ज़िक्र राहुल सांकृत्यायन और दिनकर ने किया है। सांकृत्यायन की तिब्बत यात्रा के खर्च का बंदोबस्त जायसवाल ने ही किया था। जायसवाल की मृत्यु पर सांकृत्यायन ने लिखा, ‘हा मित्र! हा बंधु! हा गुरू! अब तुम मना करने वाले नहीं हो, इसलिए हमें ऐसा संबोधन करने से कौन रोक सकता है? हो सकता है, तुम कहते– हमने भी तो आपसे सीखा है, किन्तु तुम नहीं जानते (कि) मैंने कितना तुमसे सीखा है। इतनी जल्दी प्रयाण! अभी तो अवसर आया था, अभी तो तुम्हारी सेवाओं की इस देश को बहुत जरूरत थी।  आह! सभी आशाएं खाक में मिल गईं… तुम्हारा वह सांगोपांग भारत का इतिहास तैयार करने और साम्यवाद के लिए मैदान में कूदने का ख्याल… हा, वंचित श्रमिक वर्ग, सहृदय मानव! निर्भीक, अप्रतिम मनीषी, दुनिया ने तुम्हारी कदर न की।

डॉ काशी प्रसाद जायसवाल के अभिन्न सखा राहुल सांकृत्यायन 

राहुल के इन वाक्यों पर टिप्पणी करते हुए प्रसिद्ध हिन्दी आलोचक डॉ विश्वनाथ त्रिपाठी ने लिखा है, ‘समूचे राहुल वाङ्मय में उनके ऐसे भावुक उद्गार और किसी के प्रति न मिलेंगे। राहुल की यह भावुकता सिर्फ़ जायसवाल के लिए है। यह मार्क्स-एंगेल्स की मित्रता की कोटि की मित्रता है। इसे पढ़कर तथागत के वे शब्द याद आते हैं जो उन्होंने मौद्गल्यायन की मृत्यु पर कहे थे– भिक्षुओं, मुझे आज यह परिषद् शून्य-सी लग रही है।’

डॉ काशी प्रसाद जायसवाल के बारे में कहा जाता है कि भारत के इतिहास में अपनी दिलचस्पी को पूरा करने के लिए उन्होंने अभिलेख-शास्त्र और पुरातत्व-शास्त्र का प्रशिक्षण लिया था। डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने एक बार उनके विषय में कहा था कि ‘वह अपने स्वभाव और पसंद से एक इतिहासकार थे जबकि मजबूरीवश एक वकील। स्वयं के रुझान तथा प्रतिभा ने उन्हें इतिहास की ओर खींचा तो सांसारिक ज़रूरतों ने कानून की अदालतों तथा कानून के प्रतिवेदनों की ओर।’ जायसवाल हिंदू विधि के ऐतिहासिक विकास को चिह्नित करने के लिए उत्सुक थे और इस हेतु वह संवैधानिक संस्थाओं तथा उन संस्थाओं, जो विभिन्न कालों में विकसित हुई, के मूल को सामने लाना चाहते थे। इसका परिणाम उनकी महत्वपूर्ण कृति हिंदू पॉलिटी (1918) के प्रकाशन में निकला। इस पुस्तक में उन्होंने यह तर्क विकसित किया कि संसदीय तथा लोकतांत्रिक सरकारे प्राचीन भारत में कार्यरत थीं जिनमें प्रतिनिध्यात्मक सभाएँ भी अस्तित्वमान थी। जायसवाल से पूर्व प्राच्यवादी विद्वानों, जैसे मैक्स मूलर, ने यह प्रदर्शित किया था कि अब तक ज्ञात किसी भी न्यायशास्त्र में हिंदू विधि का मूल सबसे प्राचीनतम काल में स्थित था। किंतु यह जायसवाल ही थे जिन्होंने यह सिद्ध किया कि हिंदू राजव्यवस्था एक सांविधानिक इतिहास की व्यवस्था पर आधारित थी तथा शासकों ने समाज तथा राजव्यवस्था को शासित करने के लिए एक विधिक व्यवस्था का विकास किया था। उन्होंने तर्क दिया कि प्रतिनिधित्व के सिद्धातों पर आधारित भारतीय गणतंत्र और सामूहिक निर्णय निर्माण की प्रक्रिया प्राचीन विश्व में यहीं सबसे पुरानी थी। डॉ जायसवाल ने अपनी किताब हिंदू पॉलिटी में- वैदिक काल की संप्रभु सभा, वैदिक काल की न्यायिक सभा, हिंदू गणतंत्र राज्य, हिंदू राजत्व, जनपद, हिंदू राजतंत्र के अधीन मंत्रि परिषद, कराधान, हिंदू साम्राज्यिक व्यवस्थाएँ तथा हिंदू सांविधानिक परंपराओं का पतन तथा पुनरुत्थान आदि विषयों पर विस्तार से लिखा।

डॉ काशी प्रसाद पर जारी डाक टिकट तथा उनकी किताबें

हिंदू विधि तथा न्यायशास्त्र को समझने हेतु उनके योगदान को इस क्षेत्र में अग्रणी माना जाता है। उनके विचारों ने राष्ट्रवादी इतिहासलेखन के विकास में सहायता की। अपनी रचनाओं के माध्यम से उन्होंने भारत में ब्रिटिशों के आगमन से पूर्व भारत में प्राच्य निरंकुशतावाद के प्रचलित होने के मिथक का खंडन किया। उन्होंने अपनी कृति में प्राचीन सभ्यता की शुरुआत से ही भारत में स्व-शासन के प्रचलन को सिद्ध किया था। शुरुआती बौद्ध स्रोतों, कौटिल्य के अर्थशास्त्र तथा महाभारत का, साथ ही यूनानी स्रोतों का, संदर्भ देकर उन्होंने भारत में छठी शताब्दी से ही गणतंत्र की परम्परा के अस्तित्व के पक्ष में तर्क दिया था। उनके अनुसार प्रतिनिधित्व का सिद्धांत भी वैदिक युगों जितने पुरातन समय से ही प्रचलन में रहा था। उन्होंने पौर तथा जनपद को लोगों की संप्रभु सभाओं के रूप में चिह्नित किया था। उन्होंने लिखा है, ‘यहाँ तक कि कौटिल्य भी, जो राजतंत्र का बड़ा पक्षधर है, यह कहता है कि राज्य के मामलों की मंत्रियों के परिषद में चर्चा की जानी चाहिए और जो भी बहुमत की राय हो राजा को उसका निर्वाह करना चाहिए। यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि यह नियम मंत्री परिषद से भिन्न एक मंत्रिमंडल के प्रावधान के बावजूद था’ (हिंदू पॉलिटी)। हिंदू पॉलिटी के अतिरिक्त उनकी अन्य महत्वपूर्ण ऐतिहासिक कृति हिस्ट्री ऑफ इंडिया में भी उन्होंने यह स्थापित करने का प्रयास किया कि लोकतंत्र भारत की प्राचीन राजनीतिक परम्परा का अविभाज्य अंग रहा था।

जिस राष्ट्रवाद की स्थापना के लिए डॉ केपी जायसवाल ने अपना सम्पूर्ण जीवन लगा दिया उसी राष्ट्र ने उन्हें पूरी तरह से विस्मृत करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है। भारतीय इतिहास का एक प्रतिनिधि चेहरा आज पूरी तरह विलोपन की कगार पर खड़ा है। बस सुखद यह है कि आज भी कुछ छोटी-छोटी संस्थाएं डॉ काशी प्रसाद जायसवाल को अपनी तरह से बचाने का यत्न कर रही हैं और उनकी स्मृतियों के संरक्षण के लिए सरकार से आग्रह भी कर रही हैं पर यदि रतन लाल के शब्दों में कहूँ तो आज का जनेऊ धारी राष्ट्रवाद डॉ काशी प्रसाद जायसवाल को पूरी तरह से भूल चुका है यह अलग बात है कि भारत के राष्ट्रवादी इतिहास लेखन की नींव निःसंदेह डॉ काशी प्रसाद जायसवाल हैं।  आज उन्हीं जायसवाल जी के व्यक्तित्व और कृतित्व के बारे में जानने की मिर्ज़ापुर शहर में भी एक बेचैनी है। फिलहाल आज उनका जन्मदिन है और बहुत ही सम्मान से हम उन्हें याद कर रहे हैं।  

(डॉ काशी प्रसाद जायसवाल पर गाँव के लोग द्वारा एक डाक्यूमेंटरी फिल्म भी बनाई जा रही है।)

गाँव के लोग
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