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अपना कोई गाँव नहीं था लेकिन पूरा बचपन गाँवों में ही बीता
दलित समाज से जुड़े़ लेखक अपनी आत्मकथाएं लिख रहे हैं। इन आत्मकथाओं में दलित जीवन व दलित समाज से जुड़े़ जातीय भेदभाव को मूल रूप से उजागर किया है। जहां तक लेखिकाओं की आत्मकथाओं का सवाल है तो वहां भी जाति के साथ-साथ लिंग भेद अपने मुखर रूप में मौजूद रहता है। कवि-आलोचक ईश कुमार गंगानिया ने हरियाणा के विभिन्न गाँवों में बीते अपने बचपन की सहज कहानी कही है।
मंदिर प्रवेश मत करो दोस्तों (डायरी 21 अक्टूबर, 2021)
कल पूरे दिन एक सवाल मेरी जेहन में बना रहा। देर रात तक उस सवाल ने मेरा पीछा नहीं छोड़ा। सवाल बीते 15 अक्टूबर,...
मस्जिद में लगेगी आग तो मंदिर भी नहीं बचेंगे (डायरी 20 अक्टूबर, 2021)
जिन दिनों भारत ने वैश्वीकरण की नीति को अपना समर्थन दिया था और जब मेरे गांव-शहर में दीवारों पर डंकल प्रस्ताव के खिलाफ नारे...
अराजकता फैलती नहीं, फैलाई जाती है… (डायरी 4 अक्टूबर, 2021)
कल उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी में एक नरसंहार को अंजाम दिया गया। जैसी खबरें मुझे प्राप्त हुई हैं, उनके हिसाब से चार किसान...