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मस्जिद में लगेगी आग तो मंदिर भी नहीं बचेंगे (डायरी 20 अक्टूबर, 2021)

जिन दिनों भारत ने वैश्वीकरण की नीति को अपना समर्थन दिया था और जब मेरे गांव-शहर में दीवारों पर डंकल प्रस्ताव के खिलाफ नारे लिखे जाते थे, तब मेरी उम्र बहुत कम थी। मेरी समझ में कुछ नहीं आता था। दीवारों पर लिखी गयी बातों का मतलब क्या है। चूंकि पढ़ना आता था तो नारों […]

जिन दिनों भारत ने वैश्वीकरण की नीति को अपना समर्थन दिया था और जब मेरे गांव-शहर में दीवारों पर डंकल प्रस्ताव के खिलाफ नारे लिखे जाते थे, तब मेरी उम्र बहुत कम थी। मेरी समझ में कुछ नहीं आता था। दीवारों पर लिखी गयी बातों का मतलब क्या है। चूंकि पढ़ना आता था तो नारों को पढ़ता था। ये नारे वामपंथी दलों की ओर से लिखे जाते थे। मुझे याद है कि एक बार एक ऐसा ही नारा किसी वामपंथी कार्यकर्ता ने मेरे गांव के एक ब्राह्मण की दीवार पर लिख दिया था। उस वक्त उन्होंने कितना हंगामा किया था। नारों को शायद रात में लिखा गया था, इसलिए किसी ने देखा नहीं था कि किसने लिखा है। लेकिन ब्राह्मण महोदय थे कि अज्ञात को संबोधित कर उसकी मां-बहन को गालियां दे रहे थे। वे थे भी एकदम बूढ़े। कम से कम 80 साल के तब तो वे रहे ही होंगे। क्योंकि जब उनका निधन हुआ तब उनकी उम्र शायद 98 साल थी।

तो जब वे गालियां दे रहे थे तो गांव में मजमा जैसा लग गया था। ब्राह्मण महोदय का कहना था कि उन्होंने इतना धन खर्च कर अपना घर पुतवाया है और किसी ने आकर दीवार गंदी कर दी। दिलचसप यह कि कुछ ही दिन पहले उनकी दीवार पर किसी ने यह भी लिख दिया था – गर्व से कहो हम हिंदू हैं – तब उन्होंने कुछ नहीं कहा था। तब मुझे यह बात समझ में नहीं आयी कि पहले वे चुप क्यों थे और अब क्यों गालियां दे रहे हैं।

अब जब सोचता हूं तो दुनिया में मनुष्य के अधिकांश आचरण के पीछे कोई न कोई खौफ जरूर होता है। यदि खौफ ना हो तो आदमी का आचरण भी आदमी जैसा हो। मेरे गांव के उस ब्राह्मण के मन में भी खौफ ही था। उनके मन में खौफ था कि यदि वैश्वीकरण हुआ और दुनिया भर की संस्कृतियां जब भारत पहुंचेंगीं तब उनका और उनके स्वजातियों का सांस्कृतिक एकाधिकार खत्म हो जाएगा। मुझे लगता है कि यह डर सबसे बड़ा डर था। नहीं तो दीवार पर वामपंथी नारे लिखे जाने से वह छान-पगहा नहीं तोड़ते।

खैर यह खौफ केवल जाति विशेष के लोगों में ही नहीं है। हालत यह है कि हमारे अखबारों पर भी खौफ का साया है। इन दिनों भारत के हिंदी अखबारों में बांग्लादेश में हिंदुओं पर हो रही हमलों की खबरों को प्रमुखता से दिखाया जा रहा है। पाकिस्तान से आनेवाली ऐसी खबरों को भी हिंदी के अखबारों में प्रथम पृष्ठ पर जगह दिया जाता है। जबकि अपने ही देश में होनेवाली खबरों को अंदर के पन्नों पर भी जगह नहीं दी जाती है। मसलन, आज का उदाहरण ही देखें। आज दिल्ली से प्रकाशित जनसत्ता ने अपने पहले पन्ने पर तसलीमा नसरीन के बयान को प्रकाशित किया है। अपने बयान में नसरीन ने कहा है कि आज का बांग्लादेश जिहादिस्तान बन गया है।

[bs-quote quote=”दुनिया में मनुष्य के अधिकांश आचरण के पीछे कोई न कोई खौफ जरूर होता है। यदि खौफ ना हो तो आदमी का आचरण भी आदमी जैसा हो। मेरे गांव के उस ब्राह्मण के मन में भी खौफ ही था। उनके मन में खौफ था कि यदि वैश्वीकरण हुआ और दुनिया भर की संस्कृतियां जब भारत पहुंचेंगीं तब उनका और उनके स्वजातियों का सांस्कृतिक एकाधिकार खत्म हो जाएगा। मुझे लगता है कि यह डर सबसे बड़ा डर था। नहीं तो दीवार पर वामपंथी नारे लिखे जाने से वह छान-पगहा नहीं तोड़ते।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

तसीलमा बेहतरीन लेखिका हैं। लेकिन लेखिका होने का मतलब यह नहीं है कि वह खौफ से मुक्त हैं। खौफ उनके अंदर भी है। यदि वाकई वह अपने वतन जाकर वहां अल्पसंख्यक विरोधी गतिविधियों का विरोध करतीं। लेकिन उन्हें खौफ है कि वहां के कट्टरपंथी कहीं उनकी हत्या ना कर दें। यह खौफ भी बहुत महत्वपूर्ण नहीं हैं। और कहने की आवश्यकता नहीं है कि तसलीमा को भारत में रहने की अनुमति क्यों दी जाती रही है। यह केवल आज की नरेंद्र मोदी हुकूमत का मामला नहीं है। इसके पहले कांग्रेस की हुकूमत ने भी उन्हें अपना संरक्षण दिया है।

खैर, मैं यह देख रहा हूं कि खौफ कितना है चारों ओर भारत में। मैं तो आये दिन इस खौफ को अपने सामने देखता हूं। दफ्तर जाने के लिए मेट्रो का उपयोग करता हूं तो होता यह है कि मेट्रो स्टेशन पर मुझे अपना बैग सुरक्षाप्रहरियों के हवाले करना पड़ता है। मेरा बैग एक मशीन से होकर गुजरता है जो एक तरह से एक्स-रे मशीन होता है, उस मशीन से सुरक्षा प्रहरी यह जांचते हैं कि मेरे बैग में कोई हथियार अथवा कोई आपत्तिजनक सामान तो नहीं। सुरक्षाप्रहरियों को मेरे बैग की जांच से संतुष्टि नहीं मिलती है तो वे मेरी भी जांच करते हैं। एक सुरक्षा प्रहरी पहले मुझे आगे से चेक करता है। मेरी हर जेब को टटोलता है। उसके बाद पीछे घूमने को कहता है। इस तरह वह सुनिश्चित कर लेता है कि मेरे पास कहीं भी कुछ भी आपत्तिजनक नहीं है तभी मुझे मेट्रो स्टेशन में घुसने की अनुमति दी जाती है।

ऐसी ही सुरक्षा जांच एयरपोर्ट पर भी की जाती है। वहां तो मुझे अपनी घड़ी, बेल्ट, जेब में पड़े सभी सिक्के और चाबियां तक सुरक्षाप्रहरियों को दिखाना होता है। अभी हाल ही में एक महिला मित्र कोलकाता से आयी थीं। उनकी इच्छा थी कि वे अक्षरधाम देखें। मैंने कहा कि मैं नास्तिक आदमी वहां जाकर क्या करूंगा तो उनका कहना था कि तुम केवल इमारतें देखना, लेकिन चलो। तो वहां भी हमारी सुरक्षा जांच हुई। जब वहां सुरक्षा जांच की जा रही थी तो मैं हुक्मरानों के खौफ को महसूस कर रहा था। मतलब यह कि जिसे वह ईश्वर का घर कहते हैं, उसे लेकर भी वे आश्वस्त नहीं हैं। वह ईश्वर जिसे वह दुनिया का सृजनकर्ता और संचालक बताते हैं।

[bs-quote quote=”कुल मामला खौफ का है। वैश्वीकरण के बाद सूचना एवं प्रौद्योगिकी क्रांति ने इसमें इजाफा किया है। आज हालत यह है कि उत्तराखंड में पश्चिमी विक्षोभ के कारण कल हुई तबाही के मंजर से शेष विश्व वाकिफ है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

खैर, हर जगह खौफ है। क्यों है यह खौफ? क्या कुछ लूट जाने का खतरा है? क्या कुछ ऐसा होने की संभावना है जिसके बारे में सोचा ही नहीं गया है? यदि कुछ है तो इस परिस्थिति का निर्माण कैसे हुआ? वे कौन से तत्व हैं जिनके कारण आज हर आदमी के मन में खौफ है।

खौफ की बात करूं तो मेरे परिजनों के मन में भी रहता है। मेरी पत्नी रीतू के मन में तो खौफ इस कदर रहता है कि वह दिन में जबतक पांच बार फोन न कर ले, उसके मन को चैन नहीं मिलता है। पहले मुझे लगता था कि यह सब वह मुझसे प्यार होने के कारण करती है। लेकिन अब समझ में आता है कि उसके मन में भी खौफ है। संभव है कि उसे लगता हो कि मैं दिल्ली में उससे करीब एक हजार किलोमीटर दूर हूं और मेरे साथ कोई भी नहीं तो, मैं कुशल हूं या नहीं। अपने इस खौफ की अभिव्यक्ति वह अलग-अलग रूप में करती है।

तो कुल मामला खौफ का है। वैश्वीकरण के बाद सूचना एवं प्रौद्योगिकी क्रांति ने इसमें इजाफा किया है। आज हालत यह है कि उत्तराखंड में पश्चिमी विक्षोभ के कारण कल हुई तबाही के मंजर से शेष विश्व वाकिफ है। हाल ही में सिंघु बार्डर पर एक निहंग के द्वारा दलित की बर्बर हत्या और निहंगों के सरदार की केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर द्वारा सम्मानित किये जाने की खबर से बिहार के पूर्णिया जिले के मेरे मित्र अशोक भी वाकिफ हैं।

कहने की आवश्यकता नहीं है कि लखीमपुर खीरी में सिख किसानों के उपर भाजपाइयों द्वारा गाड़ी चढ़ा देने की घटना के बाद भाजपा की जो दुर्गति हो रही थी, उसे सिंघु बार्डर वाली घटना ने संतुलित कर दिया है। लेकिन खौफ बढ़ा है। अभी हाल ही में छत्तीसगढ़ के जशपुर में एक बेकाबू कार ने कुछ हिंदुओं को उस समय कार से कुचल दिया जब वे दुर्गा का विसर्जन करने जा रहे थे।

असल में यह मुमकिन नहीं है कि किसी एक ही समुदाय के ऊपर हमेशा हमले किए जाएं। आरएसएस भी यह समझता है। उसके निशाने पर अल्पसंख्यक हैं, दलित हैं, सिख हैं, पिछड़े हैं और आदिवासी हैं। जैसे डाक्टर बीमारी के हिसाब से दवाएं देता है, वैसे ही इस देश का शासक वर्ग है। अभी भारत में दलित और सिख हैं तो बांग्लादेश का शासक वर्ग भी वहां के अल्पसंख्यकों पर जुल्म ढा रहा है।

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हमें यह याद रखना चाहिए कि अब कोई देश केवल एक देश बनकर नहीं रह गया है। वैश्वीकरण साकार हो रहा है। अमेरिका के मिनियापोलिस में जब एक अश्वेत जार्ज फ्लॉयड की हत्या एक श्वेत पुलिस अधिकारी द्वारा की जाती है तो भारत में भी आवाज उठता है – ब्लैक लाइव्स मैटर। ऐसे में यह कहा जाना सत्य के अधिक करीब रहना होगा कि खौफ का वैश्वीकरण हो चुका है। हर राष्ट्र में इसका स्वरूप भले अलग-अलग हो।

मैं बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद का एक संबोधन उद्धृत कर रहा हूं। 27 नवंबर, 2002 को राज्यसभा में अपने संबोधन के दौरान उन्होंने खौफ को परिभाषित करते हुए कहा था– मस्जिद में लगेगी आग तो मंदिर भी नहीं बचेगा।

खैर, कल देर शाम एक कविता जेहन में आयी– यह देश हड़प्पा नहीं, आज का हिन्दुस्तान है

उस रात जब

सर्दियों ने दी थी दस्तक

तब गया था

संसद से थोड़ी ही दूर

जहां सोये थे गरीब फुटपाथ पर

इस सुकून के साथ कि

कोई अमीरजादा दारू पीकर बहकेगा नहीं

और अपनी गाड़ी नहीं चढ़ा देगा

जिनके पास कुछ रोटियां थीं

और पिज्जा के कुछ टुकड़े थे

एक कुत्ता उनकी पोटलियां सूंघ रहा था

यदि मैं राजा होता

और वेश बदलकर जाता

तो मुमकिन था कि

उन्हें दे आता कुछ मुद्राएं

या फिर करवाता मुनादी कि

इस मुल्क में फुटपाथ पर सोना अपराध है

फुटपाथ पर सोनेवालों का सिर

कलम कर दिया जाएगा।

लेकिन मैं कवि था

और वह भी अपनी महबूबा के लिए

हरसिंगार के फूल खोजने निकला था

और मैं चाहता भी तो क्या दे सकता था

अपनी ऊनी चादर

जो मेरी प्रेमिका ने बड़े प्यार से मुझे

तोहफे में तब दिया था

जब पहाड़ पर नहीं थे बर्फ

और कमरे में थी गर्माहट?

नहीं, मैं अपनी ऊनी चादर तुम्हें नहीं दे सकता

मेरे मुल्क के मजलूम बाशिंदों

तुम कहो तो

मैं तुम्हारे लिए कविता लिख सकता हूं

और कह सकता हूं पूरी दुनिया से कि

यह जो देश है

इसके दो रूप हैं

दिन के उजाले में यह देश है

और रात के अंधेरे में

हड़प्पा के खात्मे के बाद का

कोई उजड़ा हुआ नगर

जिसके कुछ बाशिंदे जो कि शिल्पकार हैं

हाथों में छेनी-हथौड़ा लेकर

चले जा रहे हैं

जिधर जा रही है हवा

और कुछ किसान अपने माथे पर बीज लादे

मुझसे कर रहे हैं सवाल कि

उन्हें भूख लगी है

उन्हें खाना चाहिए

और पीने को पानी भी

मैं उन्हें बीज की याद दिलाता हूं

वह पीढ़ियों के खाने की चिंता जताते हैं

मैं कहता हूं कि

अब इस देश में एक हुक्मरान है

और यह देश हड़प्पा नहीं

आज का हिन्दुस्तान है।

हां, यह देश हड़प्पा नहीं

आज का हिन्दुस्तान है।

(नई दिल्ली, 19 अक्टूबर, 2021)

 

 नवल किशोर कुमार फारवर्ड प्रेस में संपादक हैं।

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