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मंदिर प्रवेश मत करो दोस्तों  (डायरी 21 अक्टूबर, 2021) 

कल पूरे दिन एक सवाल मेरी जेहन में बना रहा। देर रात तक उस सवाल ने मेरा पीछा नहीं छोड़ा। सवाल बीते 15 अक्टूबर, 2021 को सिंघु बार्डर पर निहंग सिक्खों द्वारा दलित सिक्ख लखवीर सिंह की निर्मम हत्या से संबंधित है। अखबारों में आरोपियों का जो बयान आया है, उसके अनुसार लखबीर देर रात […]

कल पूरे दिन एक सवाल मेरी जेहन में बना रहा। देर रात तक उस सवाल ने मेरा पीछा नहीं छोड़ा। सवाल बीते 15 अक्टूबर, 2021 को सिंघु बार्डर पर निहंग सिक्खों द्वारा दलित सिक्ख लखवीर सिंह की निर्मम हत्या से संबंधित है। अखबारों में आरोपियों का जो बयान आया है, उसके अनुसार लखबीर देर रात निहंगों के टेंट से उनके पवित्र ग्रंथ (गुरुग्रंथ साहिब नहीं) नहीं) चुराने की कोशिश कर रहा था। कुछ रपटों में बेअदबी करने की बात सामने आई है। इसके आरोप में ही निहंगों ने पहले लखबीर का एक हाथ काटा, फिर उसका पैर। इसके बाद उसे पुलिस द्वारा लगाए गए लोहे के बैरिकेड से लटका दिया। निहंगों ने इस पूरी घटना का वीडियो भी बनाया।

कल सिंघु बार्डर पर रह रहे एक सामाजिक कार्यकर्ता से बात हुई तो उन्होंने एक अहम जानकारी दी। उनके मुताबिक, लखबीर निहंगों के साथ ही रह रहा था। वह साईस था। साईस मतलब निहंगें के सरदार के घोड़े की देख-रेख करनेवाला। इस जानकारी ने मेरी जेहन में सवाल पैदा कर दिया। सवाल यह कि आखिर लखबीर सिंह कर क्या रहा था? वह अनपढ़ था। जाहिर तौर पर उसे निहंगों के पवित्र ग्रंथ से कोई लेना-देना नहीं था। फिर वह उस ग्रंथ को चुराता ही क्यों? यदि वह पढ़ा-लिखा होता और पढ़ना चाहता तो मुमकिन था कि वह उस ग्रंथ को  किसी गुरुद्वारे से खरीद सकता था। चोरी क्यों करता? या फिर बेअदबी क्यों करता?

[bs-quote quote=”बिहार के तमाम दलित-पिछड़े नेता सवर्णों से अधिक सवर्ण और ब्राह्मणों से अधिक ब्राह्मण हैं। वे ब्राह्मणों से अधिक आडंबर करते हैं। यही स्थिति समाज में भी है। दुर्गा, लक्ष्मी और सरस्वती आदि की जितनी प्रतिमाएं लगा सवर्ण पूजा नहीं करते, उससे अधिक तो दलित और पिछड़े करते हैं।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

यह बेअदबी का सवाल बेहद महत्वपूर्ण है। बेअदबी का मतलब क्या है? क्या एक गंथ को छू लेने मात्र से उसकी बेअदबी हो जाती है? यदि इसका जवाब सकारात्मक है तो फिर मनुवादियों और निहंगों में फर्क क्या रहा जाता है? मनुवादी आज भी यही मानते हैं कि शूद्रों-अतिशूद्रों-महिलाओं को वेद पढ़ने का अधिकार नहीं होना चाहिए। उनका वश चले तो वे आज भी वेद पढ़ने को वेद की बेअदबी मानें और पढ़ने वाले के कान में पिघला हुआ शीश डाल दें। लेकिन वे ऐसा नहीं कर सकते हैं क्योंकि देश में संविधान है।

लेकिन निहंगों के मन में भारतीय संविधान के प्रति कोई सम्मान नहीं है? उन्हें कानून का कोई खौफ नहीं है? अभी मैं पंजाब के मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी का सत्यापित (ब्लू टिक मार्क) ट्वीटर अकाऊंट देख रहा हूं। चन्नी पंजाब के पहले दलित और 17वें मुख्यमंत्री हैं। मुझे आश्चर्य हो रहा है कि चन्नी ने 15 अक्टूबर की घटना को लेकर कोई ट्वीट नहीं किया है। मुमकिन है कि उन्होंने अखबारों में कुछ बयान वगैरह दिया हो और यहां दिल्ली के अखबारों में उसे जगह नहीं दी गई हो। लेकिन आजकल ट्वीटर को एक विश्वसनीय स्रोत माना जाने लगा है, इसलिए मैं यह कह सकता हूं कि चन्नी ने लखबीर सिंह की हत्या को लेकर कोई अफसोस जाहिर नहीं किया है। ये वही चरणजीत सिंह चन्नी हैं, जिन्होंने लखीमपुर खीरी में भाजपाइयों द्वारा कुचले गए किसानों को पचास लाख रुपए तक की सहायता राशि देने की घोषणा की।

तो अब सवाल उठता हे कि चरणजीत सिंह चन्नी लखबीर सिंह की हत्या के संबंध में असंवेदनशील क्यों बने रहे? लेकिन इस सवाल का कोई मतलब आज के दौर की राजनीति में रह नहीं गया है। इस बारे में कभी और सोचूंगा। फिलहाल तो यही कि लखबीर सिंह को क्या हुआ था, जो वह एक पवित्र ग्रंथ को चुराने अथवा छूने की कोशिश कर रहा था? क्या उसे यह लग रहा था कि उस ग्रंथ को एक बार छू लेने से उस दंश से उसे मुक्ति मिल जाएगी जो दलित परिवार में जन्मने के कारण भुगतना पड़ रहा था?  या फिर उस ग्रंथ को पढ़ लेने से वह निहंगों की तरह ही पूज्य हो जाएगा?

[bs-quote quote=”अभी मैं पंजाब के मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी का सत्यापित (ब्लू टिक मार्क) ट्वीटर अकाऊंट देख रहा हूं। चन्नी पंजाब के पहले दलित और 17वें मुख्यमंत्री हैं। मुझे आश्चर्य हो रहा है कि चन्नी ने 15 अक्टूबर की घटना को लेकर कोई ट्वीट नहीं किया है। मुमकिन है कि उन्होंने अखबारों में कुछ बयान वगैरह दिया हो और यहां दिल्ली के अखबारों में उसे जगह नहीं दी गई हो। लेकिन आजकल ट्वीटर को एक विश्वसनीय स्रोत माना जाने लगा है, इसलिए मैं यह कह सकता हूं कि चन्नी ने लखबीर सिंह की हत्या को लेकर कोई अफसोस जाहिर नहीं किया है” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

यह समस्या मुझे दलितों और पिछड़ों में सबसे अधिक दिखती है। बिहार के तमाम दलित-पिछड़े नेता सवर्णों से अधिक सवर्ण और ब्राह्मणों से अधिक ब्राह्मण हैं। वे ब्राह्मणों से अधिक आडंबर करते हैं। यही स्थिति समाज में भी है। दुर्गा, लक्ष्मी और सरस्वती आदि की जितनी प्रतिमाएं लगा सवर्ण पूजा नहीं करते, उससे अधिक तो दलित और पिछड़े करते हैं। उदाहरण के लिए कई बार मेरे विधानसभा क्षेत्र फुलवारी से विधायक रहे संजीव प्रसाद टोनी दलित समुदाय के हैं, और इससे अधिक उनकी ख्याति इसलिए है कि वे पटना के डाकबंगला चौराहे पर दुर्गापूजा के दौरान दुर्गा की प्रतिमा व पंडाल लगवानेवाल कमेटी के अध्यक्ष हैं।

मैं तो लालू प्रसाद की बात कहता हूं। 1990 से लेकर 1995 तक लालू प्रसाद ने ब्राह्मणवाद का पुरजोर विरोध किया था। लेकिन बाद के दिनों में वे ब्राह्मणों से अधिक ब्राह्मण हो गए। वे और उनका पूरा कुनबा अब ब्राह्मणों का पैर पूजता है। ऐसे ही एक मुख्यमंत्री रहे जीतनराम मांझी। जब वे मुख्यमंत्री थे तब मधुबनी के अंधराठाड़ी में एक मंदिर में पूजा करने गए थे। वहां उनके पूजा करने के बाद ब्राह्मणों ने मंदिर को गंगा जल से साफ किया था।

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सामान्य जनों की बात करें तो आए दिन खबरें आती हैं कि मंदिर प्रवेश को लेकर किसी दलित को पीट दिया गया तो किसी को मार दिया गया। सवाल फिर वही है कि आखिर दलित और पिछड़े मंदिरों में जाते क्यों हैं? जबकि सभी जानते हैं कि मंदिरों पर उनका नहीं, ब्राह्मणों का कब्जा है, जो परजीवी है और उन्हें मानसिक गुलाम बनाए रखता है।

मैं गुजरात के दलित कवि प्रवीण गढ़वी की एक कविता को पढ़ रहा हूं। उनकी इस कविता का हिंदी में अनुवाद साहिल परमार ने किया है। कविता है–

मंदिर प्रवेश मत करो दोस्तों

रुक जाओ

उस मंदिर की सीढ़ियों पर

जहां पड़ी है

अपने ही बेटे की 

खून से सनी लाश

नजदीक में पड़ी है

अपनी ही बेटी

निर्वस्त्र, अर्द्धमृत

छिन्न-भिन्न है उसका रूप

उस मंदिर के 

विशाल गुंबज से आती है

हरे-भरे जलाए गए

अपने अन्न की दुर्गंध।

 

नवल किशोर कुमार फारवर्ड प्रेस में संपादक हैं ।

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