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ग्राउंड रिपोर्ट

अपना कोई गाँव नहीं था लेकिन पूरा बचपन गाँवों में ही बीता

दलित समाज से जुड़े़ लेखक अपनी आत्मकथाएं लिख रहे हैं। इन आत्मकथाओं में दलित जीवन व दलित समाज से जुड़े़ जातीय भेदभाव को मूल रूप से उजागर किया है। जहां तक लेखिकाओं की आत्‍मकथाओं का सवाल है तो वहां भी जाति के साथ-साथ लिंग भेद अपने मुखर रूप में मौजूद रहता है। कवि-आलोचक ईश कुमार गंगानिया ने हरियाणा के विभिन्न गाँवों में बीते अपने बचपन की सहज कहानी कही है।

मेरा बचपन किसी एक गांव तक सीमित नहीं रहा। इसकी वजह मेरे पिता जी यानी मास्‍टर नवीन चन्‍द्र का हरियाणा सरकार में लैदर इंस्‍ट्रक्‍टर (मास्‍टर जी) के रूप में सेवारत होना था। पिताजी दलित युवाओं को आत्‍मनिर्भर बनाने के लिए जूते-चप्‍पल, बैग, अटेची, बिस्‍तरबंद आदि बनाने की ट्रेनिंग देते थे। किसी भी गांव में इसका कार्यकाल एक वर्ष से अधिक नहीं होता था। परिणामस्‍वरूप, हर वर्ष उन्‍हें किसी नए गांव में एक वर्ष के लिए पोस्‍ट कर दिया जाता था इसलिए मेरे बचपन का कई गांवों की यादों में बिखरा होना स्‍वाभाविक है। अपने बचपन के विषय में बात करने से पहले यह बता देना जरूरी महसूस हो रहा है कि मेरे बचपन में जाति के आधार पर सीधे-सीधे भेदभाव जैसा कभी कुछ नहीं रहा।

मेरे बचपन की यादों का कारवां हरियाणा के खरखोदा गांव (अब यह गांव शायद शहर में तब्‍दील हो गया है, मैं कभी गया नहीं) से शुरु होता है। खरखोदा में हम एक किराए के मकान में रहते थे। यहां जो मुझे याद पड़ता है कि घर में पंजीरी (मीठे, ड्राईफ्रूट व देसी घी का ऐसा मिश्रण जो सामान्‍यत: सर्दी में खाया जाता है। यह ठीक वैसा ही था जैसा सामान्‍यत: स्‍त्री को डिलिवरी के बाद दिया जाता है ताकि उसका स्‍वास्‍थ्‍य और बच्‍चे के लिए उसकी फीडिंग क्षमता बनी रहे।) गर्म करके रोज खाई जाती थी। यही नहीं, आंवले के मुरब्‍बे का कसैला-सा स्‍वाद आज भी मेरी यादों से गायब नहीं होता। लेकिन यहां मुझे याद है कि मैं स्‍कूल जाने लगा था और यहां पिताजी के एक मित्र डा. राधाकृष्‍ण थे। मुझे नहीं मालूम उनकी जाति क्‍या थी लेकिन मुझे इतना याद है कि उनका रहन-सहन काफी अच्‍छा था। लेकिन मुझे इतना एहसास था कि वो दलित समाज से नहीं थे।

अब अपने बचपन पर लिखते वक्‍त जब मैंने माता जी से डा. राधाकृष्ण की जाति पूछी तो उन्‍होंने बताया कि वह ब्राह्मण थे। उनके परिवार से कोई बच्‍चा मेरे साथ नहीं पढ़ता था। लेकिन उस परिवार में मुझे प्‍यार बहुत मिलता था। उनके घर में कई प्रकार के बिस्किट व नमकीन होते थे। उनके घर में ये मेरे सामने कई बार परोसे गए। ये मुझे काफी ललचाते थे और उनको खाने की प्रबल इच्‍छा होती थी। आज मैं अपने परिवार के लिए किसी भी प्रकार का स्‍नैक्‍स मुहैया कराने में समर्थ हूं लेकिन उन दिनों डा. राधाकृष्‍ण के घर के स्‍नैक्स से भरी टेबल की स्‍मृति आज भी मुझे ललचाती है। इस पहेली को मैं आज तक नहीं सुलझा पाया कि डा. राधाकृष्‍ण के घर की स्‍नैक्स से भरी टेबल में ऐसा क्‍या था कि उस जैसा सुख मैं आज तक हासिल नहीं कर पा रहा हूं।

पारिवारिक एल्बम में गंगानिया परिवार । चित्र में ईश कुमार गंगानिया अपने माता-पिता और भाई-बहनों के साथ

खरखौदा गांव के बचपन का ही एक डर मेरी स्‍मृति से जाता नहीं है। वाकया कुछ ऐसा था कि मैं स्‍कूल से शर्ट, दोनों कंधों से होती बैल्‍ट के साथ हाफ पैंट और पैरों में जूते पहने स्‍कूल से लौट रहा था। मैं अकेला था, संभवत: मेरा स्‍कूल मेरे घर से दूर नहीं रहा होगा, इसलिए मैं अकेला ही आ रहा था। मैं रास्‍ता भूल गया था और जोर-जोर से रोए जा रहा था। आसपास घर भी थे और लोगों का आवागमन भी लेकिन मुझे कुछ सूझ नहीं रहा था। यद्यपि सड़क के किनारे मेरे पिता जी द्वारा बनवाया गया कुआं और उसके सामने बनी चौपाल भी वहीं पास ही अपनी जगह पर मौजूद थे। लेकिन मुझे ऐसा लगा रहा था, कि इस दुनिया में मैं निपट अकेला हूं। मुझमें कुछ सोचने-समझने की शक्ति नहीं बची थी, बस, मुझे याद है कि मैं बेहद घबराहट के साथ रोए जा रहा था। बस, रोए जा रहा था।

इस दहशत का मुझ पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि आज भी मैं किसी रास्‍ता भूले बच्‍चे को देखता हूं या किसी बच्‍चे को स्‍कूल जाते फूट-फूट कर रोते या स्‍कूल पहुंचने से पहले ही घर भागने की छटफटाहट देखता हूं तो, मुझे अपने बचपन के डर की याद ताजा हो आती है। मुझे ऐसा एहसास होता है कि कहीं इस बालक को भी मेरी तरह ऐसा तो महसूस नहीं हो रहा कि मैं अपने घर से अलग हो गया हूं या मेरे मम्मी-पापा व मेरा घर-संसार खो गया है। कहीं उसे भी ऐसा महसूस तो नहीं हो रहा कि उसके आसपास की दुनिया, दुनिया ही नहीं है, वह भी मेरी तरह एकदम अकेला है। जब भी मैं स्‍कूल में या अपने आसपास ऐसी परिस्थिति देखता हूं तो उस बच्‍चे से मेरी विशेष हमदर्दी होती है और मैं उसे सांतवना देने की भरसक कोशिश करता हूं और आश्‍वस्‍त हो जाना चाहता हूं कि कोई भी बच्‍चा इतना भयभीत व असु‍रक्षित महसूस न करे जितना कि मैंने अपने बचपन में उस दिन किया था।

आज मैं अम्‍बेडकरवादी साहित्‍य का जिम्‍मेदार सिपाही होने के नाते इस निष्‍कर्ष पर पहुंचा हूं कि प्रत्‍येक वर्ष रामायण का मंचन एक सोची समझी रणनीति का हिस्‍सा है। इसे मैं हिटलर के प्रचारमंत्री गोयबल्स के सिद्धांत (एक झूठ को सौ बार बोलने पर सच बन जाता है) की कसौटी पर कसकर देखता हूं तो पाता हूं कि यह झूठ को सच बनाने का सोचा-समझा उपक्रम है। लेकिन जब मैं अपने बचपन की ओर देखता हूं तो पाता हूं कि मेरे पिता हम भाइयों को तीरंदाजी सिखाते थे। वे बाँस की एक खपच्‍ची के दोनों सिरों को मजबूत धागे से कसकर धनुष बना देते थे और सरकंडों के तीर बनाते थे। कुछ दूरी पर ज़मीन पड़े एक शहतीर पर निशाना लगाने का प्रयास कराते थे। यह अलग बात है कि आज विश्‍व खेल-प्रतियोगिता में तीरंदाजी की भी प्रतियोगिता होती है। ले‍किन उस समय मेरे पिताजी के दिमाग पर शायद रामायण का प्रभाव रहा होगा तभी तो वे हमें तीरंदाजी सिखाते थे। उस समय यह मनोरंजन का साधन था, दिमागी विकास का साधन था, टाइमपास था या हम भाइयों को रामचंद्र बनाने का कोई उपक्रम, या कुछ और। आज भी यह प्रश्‍न मेरे दिमाग में उठता रहता है कि आखिर ऐसा करके पिताजी मुझसे क्‍या चाहते थे। उनके जीवनकाल में मैं यह प्रश्‍न कभी पूछ नहीं पाया या उस समय मुझे यह प्रश्‍न पूछने की समझ ही नहीं थी, मुझे नहीं मालूम।

ईश कुमार गंगानिया के पहले कविता संग्रह के लोकार्पण के मौके पर डॉ महीप सिंह, कथाकार कमलेश्वर और डॉ तेजसिंह

जर्मन डेलीगेशन इंस्‍पैक्‍शन के लिए आया पिताजी के ट्रेनिंग सैंटर

ऐसा नहीं कि मेरे पिताजी विवेकशील नहीं थे। वे पुराने समय की दसवीं कक्षा पास थे। वे आजीवन खादी पहनते रहे और सामाजिक सरोकारों से भी काफी जुड़े़ रहे (इस विषय पर चर्चा बाद में की जाएगी)। यही नहीं, प्रोफेशनली भी वे काफी मजबूत थे। वे अपनी प्रोफेशनल ग्रोथ के लिए विभिन्‍न एग्जि‍बिशन (प्रदर्शनी) में हिस्‍सा लेते थे और अलग-अलग प्रकार के प्रयोग जैसे लैदर के एक सिंगल पीस से बिना किसी जोड़ के आकर्षक जूता बनाना, ऐसी अटची बनाना जिसमें कई-कई पार्टीशन और कई प्रकार के ऐसे स्‍पेस बने होते थे जिनमें तेल, कंघी, साबुन व जरूरत की अन्‍य सामग्री को अलग-अलग रखने की सुंदर व्‍यवस्‍था होती थी। ऐसी ही स्थिति हैंड बैग और बिस्‍तरबंद के संबंध में भी थी। वे हमारे कपड़े तो स्‍वयं सिलते ही थे और लैदर के कोट बनाने का हुनर भी उनके पास था। इसी हुनर के चलते एक बार एक जर्मन/रसियन डेलीगेशन इंस्‍पैक्‍शन पिताजी के ट्रेनिंग सैंटर पर आया था और उनके हुनर से वह इतना प्रभावित हुआ था कि उन्‍हें अपने साथ विदेश ले जाने का ऑफर भी उन्‍होंने दिया था लेकिन मेरे पिता मेरे नाना-नानी की अंधे की लाठी जैसे थे। नाना-नानी अशिक्षित तो थे ही, साथ में अपनी रोजी-रोटी के लिए कृषि पर निर्भर थे यानी भविष्‍य में दूर तक देखने की सा‍मर्थ्‍य उनमें नहीं थी। जाहिर है, पिताजी उनकी इच्‍छा के विरुद्ध नहीं जा सके। अपने पिताजी की इन विशेषताओं को सामने रखकर भी मैं उनके तीरंदाजी के पीछे छिपी मंशा को नहीं समझ पाता। पिताजी को तो मैं नहीं समझ पाया लेकिन आज मैं इतना जरूर समझ पा रहा हूं कि वेद, पुराण व अन्‍य धार्मिक ग्रथों की सामग्री व क्रियाकलाप आज इक्‍कीसवीं सदी की समस्‍याओं को हल करने की कुव्‍वत नहीं रखते। इसलिए समय के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने के लिए मैं इनसे सर्वथा बचने को ही श्रेयस्कर मानता हूं।

मेरी स्‍मृति का दूसरा पड़ाव मुझे हरियाणा के ही डिघल बेरी गांव ले जाता है। यहां एक जाट कर्नल की कोठी में हम रहते थे। उसकी दो बेटियां हमारे घर आया-जाया करती थी और पेड़ों पर लगने वाले प्रादेशिक फल पील और पिच्‍चू लाया करती थीं और हम उसे मजे से खाया करते थे। एक बार माताजी को मेरे नाना जी के यहां जाने की बात थी तो कर्नल की मां ने कह दिया था कि मास्‍टरनी जा तू अपने घर हो आ, बच्‍चों को खाना मैं अपने आप खिला दूंगी। यहां भी जाति के ज़हर का हमें कोई एहसास नहीं था लेकिन यहां की सबसे अहम घटना मैं कभी भूल नहीं पाता हूं। बल्कि यह घटना मैं अपने छात्रों को भी बताता हूं कि कभी-कभी जीवन में मैंटल ब्लॉक यानी ‘दिमाग के काम न कर पाने जैसी स्थिति’ भी पैदा हो जाती हैं और एक बालक के लिए वह इतनी पीड़ा का सबब बन जाती है कि वह आजीवन इसे भुला नहीं पाता। इस मैंटल ब्‍लाक की स्थिति मुझे अमीर खान की फिल्‍म ‘तारे जमीं पर’ देखकर समझ आती है कि किस प्रकार एक बच्‍चा डिस्‍लैक्सिया जैसी बीमारी के कारण विद्यालय, परिवार और अपने आसपास के वातावरण में उपेक्षा की ही नहीं, घृणा का भी पात्र बन जाता है और जाहिर-सी बात है कि वह सभी के गुस्‍से का भी शिकार होता है। गौरतलब है कि यहां बालक के मनोविज्ञान की जानकारी के अभाव में अनेक प्रकार की समस्‍याओं का जन्‍म होता है और यदि इन समस्‍याओं का निदान समय रहते नहीं हो पाता तो बालक के जीवन की बरबादी तय ही रहती है।

जब नीम की डंडियों से हुई खूब पिटाई

मेरे साथ ‘तारे जमीं पर’ के बाल कलाकार दर्शिल जैसी भयानक स्थिति नहीं थी। लेकिन मुझे ठीक से नहीं मालूम कि मुझे या मेरे दिमाग में क्‍या होता था कि मैं हिन्‍दी वर्णमाला का अक्षर ‘थ’ नहीं बना पाता था। इस वर्णमाला के अन्‍य मुश्किल अक्षर जैसे क्ष, त्र व ज्ञ मैं आसानी से बना लेता था। बस समस्‍या सिर्फ वर्णमाला के अक्षर ‘थ’ को लेकर थी, अन्‍य को लेकर नहीं। परिणामस्‍वरूप, मुझे पिताजी के गुस्‍से का शिकार होना पड़ता था। मुझे अच्‍छी तरह याद है कि मेरी नीम की बारीक डंडियों से भी खूब पिटाई हुई थी। पिताजी के ड्यूटी से आने का डर मुझे ही नहीं, मेरी माताजी को भी सताता था। वह अशिक्षित होने के बावजूद मुझे मिट्टी में ‘थ’ अक्षर बनाकर दिखाती थीं कि बेटा ऐसे बना ले, वैसे बना ले। तेरे पिताजी आने वाले हैं और वे फिर तुझे मारेंगे और मैं गिड़गिड़ा कर कहता कि बना तो रहा हूं लेकिन मुझसे वह ‘थ’ बनता ही नहीं था। मुझे नहीं मालूम कि कितनी बार मैंने अपनी माताजी को यह कहा कि कैसे करूं, बना तो रहा हूं। मुझे अपनी माताजी का चेहरा आज भी याद है जिसपर डर के साथ-साथ, चिंता भी होती थी। और मुझे ‘थ’ अक्षर न सिखा पाने की उनकी विवशता भी मुझे अच्‍छी तरह याद है।

इस घटनाक्रम का जब मैं एक शिक्षक के रूप में मूल्‍यांकन करता हूं तो मुझे एहसास होता है कि अध्‍ययन या किसी भी कार्य को सीखने के दौरान यदि किसी बालक का दिमाग किसी बिंदु विशेष पर ‘मैंटल ब्लाक’ का शिकार होता है तो उसके शिक्षक/सिखाने वाले परिवार या बाहर के किसी भी व्‍यक्ति को बालक की समग्र गतिविधियों के आधार पर मूल्‍यांकन करते हुए आगे बढ़ जाना चाहिए। उस न समझ आने वाली समस्‍या पर ही नहीं रुके रहना चाहिए। कालांतर में बालक उसे आसानी से समझ सकता है। अपने जीवन की ‘थ’ न लिख पाने की घटना से मैं इस निष्‍कर्ष पर पहुंचा हूं कि किसी समय विशेष पर अपनी बात पर अड़ जाना गैर-मनोवैज्ञानिक है। यह किसी भी शिक्षक, प्रशिक्षक या परिवार के किसी भी सिखाने वाले के लिए पीड़ादायक हो सकता है और इसके सकारात्‍मक परिणाम की अपेक्षा नकारात्मक परिणाम निकलने की संभावनाएं अधिक प्रबल होती हैं।

मेरी स्‍मृति के काफिले का अगला पड़ाव मुझे हरियाणा के ही चुलकाणा गांव में ले जाता है। यहां मैं तीसरी कक्षा में पढ़ता था। मेरी बड़ी बहन लड़कियों के स्‍कूल में पढ़ती थी। उस स्‍कूल में एक गुप्‍ता अध्यापिका थी। उसकी रोटी कुत्ता उठा कर ले गया और उसने चांटा मेरी बहन को जमा दिया। शायद उसने मेरी बड़ी बहन के लिए ‘चमारी-सी’ शब्‍द का प्रयोग किया था। भला ऐसी बात उस बालक को कैसे हजम हो सकती थी जो स्‍वतंत्रता आन्‍दोलन के दौरान मेरठ के कुमार आश्रम में रहता था और रात को अंग्रेजों के खिलाफ दीवारों पर पोस्‍टर चिपकाया करता था। यही बालक बड़ा होकर अपने पिता की अस्थियों को गढ़गंगा या हरिद्वार ले जाने की अपेक्षा ब्राह्मणवादी मानसिकता को चुनौती देता हुआ अपने खेत में डाल देता है, इस उम्‍मीद के साथ कि ऐसा कार्य उसके खेतों को और अधिक उपजाऊ बनाएगा। यही नहीं, वह किसी तेरवीं-वेरवीं के चक्‍कर में नहीं पड़ता।

ईश कुमार गंगानिया के माता-पिता

समझौता न करने की प्रवृत्ति विरासत में मिली

आपको ‘बालक’ शब्‍द का प्रयोग थोड़ा भ्रमित कर रहा होगा। चलो भ्रम से पर्दा हटाने के लिए बता देता हूं कि यह बालक और कोई नहीं मेरे पिता मास्‍टर नवीन चन्‍द्र थे। मेरी बहन की बेहवजह पिटाई का ऐपीसोड उन जैसे रिवोल्यूशनरी प्रवृत्ति के व्‍यक्ति की बर्दाश्त से बाहर था। फिर क्‍या था, बहन को लगे थप्पड़ का बदला लेने के लिए उन्‍होंने अपनी लेखनी चला दी। और हुआ वही कि उसी गुप्‍ता अध्‍यापिका को लेने के देने पड़ गए। अंतत: वह गुप्‍ता अध्यापिका मेरे पिता जी के ट्रेनिंग सेन्टर में आई और जैसे गिड़गिड़ाई वह भी मुझे आज तक याद है। उसने कहा कि भाई साहब यह तो मेरी अपनी बेटी जैसी है। मेरी ऐसी कोई भावना नहीं थी। मैं उस घटना के लिए माफी मांगती हूं। मुझे माफ कर दीजिए। मेरे पिताजी बेरहम नहीं थे, इसलिए उन्‍होंने उस गुप्‍ता अध्‍यापिका को क्षमा कर दिया और अपना विरोध पत्र वापस ले लिया। शायद गलत बात से समझौता न करने व हार न मानने की प्रवृत्ति मुझे मेरे पिताजी से ही विरासत में मिली है। इसी वजह से मैं अपनी लेखक बिरादरी व अपने आसपास के माहौल में मिसफिट व उपेक्षा का शिकार महसूस करता हूं।

यह मेरे पिताजी की एक तस्‍वीर थी जो जातिवाद से समझौता करने को तैयार नहीं थे। इस सिक्के का दूसरा पहलू भी रहा है। वह विभिन्न जातियों के लोगों को अपने घर में समान दर्जा देते थे। उस समय ‘दलित’ शब्‍द का प्रयोग वहां प्रचलन में था या नहीं मुझे नहीं मालूम। लेकिन इतना तय है कि वहां कि कुछ जातियों के नाम मुझे ध्‍यान हैं। उनमें मांगे राम नाम का चमर-जुलाहा भी हमारा पड़ोसी था। वह चूहड़े और धानकों से भेदभाव करता था। हमारे घर ग्‍यासी, उसके चाचा और अन्‍य कई चूहड़े व धानक समाज के लोगों का आना-जाना था। पिताजी का उनके साथ अच्‍छा-खासा हुक्‍का-पानी भी था। पिताजी ने मांगे राम का अहंकार तोड़ने के लिए योजना बनाई थी कि जब यह मांगे मेरे पास हुक्‍का पी रहा हो तो तुम भी आ जाना, बस बाकी मुझ पर छोड़ दो। एक दिन ठीक ऐसा ही हुआ। मांगे राम पिता जी के साथ हुक्‍का पी रहा था। पांच-छः लोगों की मंडली योजना के तहत आ गई। वे लोग थोड़ा फासले से बैठने लगे तो पिताजी ने कहा-‘क्‍या बात है, वहां पीछे क्यों बैठ रहे हो?’ इतना कहना था कि वे आगे आ गए और पिता जी ने उनकी ओर हुक्का बढ़ाते हुए कहा, लो पीओ। फिर क्‍या था वे पिल पड़े हुक्‍का पर। मांगे राम न तो कुछ बोल ही सका और न ही एकदम हुक्‍का छोड़कर जा ही सका। हुक्‍के का दो-तीन राउंड ही चल पाया था कि मांगे राम उठकर चला गया और उसके जाने के बाद जो ठहाके लगे और मांगे राम की भाव-भंगिमा का जो चित्रण हुआ वह बहुत ही उल्‍लेखनीय था। यह घटना मुझे इसलिए याद है क्योंकि इस घटना का जिक्र हमारे घर में आज भी यदा-कदा जाति के मसले पर बात करते हो ही जाता है। पुरुष ही नहीं महिलाओं का भी हमारे यहां अच्‍छा-खासा आना-जाना था। अंगूरी नाम की लड़की भी मेरे ध्‍यान में है जो मेरे छोटे बहन-भाई को अक्‍सर खिलाती थी और माँजी के काम में भी हाथ बंटाती थी।

इसी गांव का लस्‍सी ऐपीसोड भी उल्‍लेखनीय है, जो मेरी स्मृति में आज भी ताजा रहता है। हमारे घर भैंस थी और वह अच्‍छा-खासा दूध देती थी। सारा दूध घर में इस्‍तेमाल होता था और घर में मक्खन बिलोया जाता था। बेचने की परंपरा उस वक्‍त हमारे यहां नहीं थी। यहां कम से कम दस पन्‍द्रह बर्तन सभी दलित जातियों के लस्‍सी लेने के लिए रोज लाइन में रखे होते थे और लस्‍सी देने का आग्रह होता था। मांजी भी अपने परिवार के लिए गाढ़ी लस्‍सी निकालकर बाकी में पानी मिलाकर सभी बर्तनों में डाल देती थीं। यह प्रक्रिया मेरी याद में निरंतर रही और मेल-जोल का साधन भी। इन घटनाओं का मैं इसलिए जिक्र कर रहा हूं कि हमारे घर में जातीय भेदभाव का माहौल कभी नहीं रहा और हमारे परिवार का अन्‍य दलित बिरादरियों में भी खान-पान आमतौर पर रहा है। इसके चलते मेरे मन में कभी इन दलित बिरादरियों के बीच किसी प्रकार के भेदभाव/ऊंच-नीच की प्रवृत्ति नहीं रही।

‘दलित’ ही नहीं, यहां जोरा नाम का एक प्रभावशाली गुर्जर भी था। मुझे नहीं मालूम कि वह अपने नाम ‘जोरा’ के सामने ‘सिंह’ लगाता था या कुछ और। मुझे बस इतना ध्‍यान है कि वह व्‍यक्ति गोरे रंग का था और उसकी मूछें सफेद व लम्‍बी थी। लोग उससे बहुत डरते थे और उसके सामने बोलने की हिम्‍मत नहीं करते थे। वह अपनी दबंगई और दबी जुबान में ‘चोरी’ के लिए भी मशहूर था। मुझे यह भी ध्‍यान है कि उसने हमें एक भैंस दी थी और वह भैंस दूध के मामले में बहुत ही अच्‍छी थी। लोगों की चेतावनी के बावजूद वह पिताजी का दोस्‍त हो गया था और वह दोस्‍ती निभा भी रहा था। मेरी माताजी भैंस की चोरी हो जाने के डर की बात जब पिताजी से करती तो पिताजी जोरा से अपनी चिंता जाहिर करते। जोरा गुर्जर का एक ही जवाब होता कि मास्‍टर जी भैंस सुबह खोल दिया करो और शाम को पकड़ कर दूध निकाल लिया करो और सुबह फिर दूध निकाल का छोड़ दिया करो। अगर भैंस खो गई या चोरी हो गई तो तुम्‍हारी नहीं, मेरी भैंस खोएगी। आप चिंता न करें। पिताजी भी उसके ऐसे कथनों से आश्‍वस्‍त रहते थे और कभी चोरी जैसी कोई घटना नहीं हुई।

शिक्षा व्‍यक्ति को शालीन, विनम्र और सभ्‍य बनाती है

सब कुछ ठीक-ठाक था लेकिन एक बात मुझे अच्‍छी तरह याद है कि मैंने उन्‍हें कभी अपने घर की चाय व दूध पीते नहीं देखा और न ही खाना खाते देखा। यही नहीं, जब हम हरियाणा के ही कुण्‍डली गांव में स्‍थायी रूप से रहने आ गए और हमने अपना स्‍थायी घर भी यहां बना लिया तो वे अपनी दोस्‍ती निभाने पिताजी से मिलने कुण्‍डली गांव भी आए थे। गौरतलब है कि यहां भी उन्‍होंने न हमारे घर चाय ही पी थी और न ही दूध। रोटी खाने की बात दो बहुत दूर थी। वे रात में भी हमारे गांव के पिताजी के एक परिचित जाट जाति के व्‍यक्ति के घर ही ठहरे थे। मुझे याद नहीं कि पिताजी ने उनसे इस विषय पर कभी प्रतिवाद भी किया था, या नहीं। लेकिन मुझे इस वक्‍त तक यह बात समझ आ गई थी कि यह जाति का मामला है। आज जब में डा. राधाकृष्‍ण (ब्राह्मण) और जोरे (गुर्जर) की सोच को साथ-साथ रखकर देखता हूं तो इस निष्‍कर्ष पर पहुंचता हूं कि शिक्षा व्‍यक्ति को शालीन, विनम्र और सभ्‍य बनाती है जिसका प्रमाण मुझे डा. राधाकृष्‍ण में मिलता है।

अजगर यानी अहीर, जाट गूर्जर व राजपूत में शिक्षा का अभाव तो है ही साथ में उनमें जाति का झूठा अहंकार भी है इसलिए दलित बिरादरियों के साथ आपसी खानपान के मामले में ये पिछड़े हैं। जहां तक जोरा गुर्जर का सवाल है, एक बार वे बारिश और ठंड के कारण निमोनिया का शिकार हो गए थे और उनकी जान के लाले पड़ गए थे। तब उन्‍होंने पिताजी को अंतिम इच्‍छा के रूप में मिलने को बुलाया था। पिताजी ने उनके सीने पर नोनी घी (मक्‍खन) और नमक का लेप करके सिकाई की तो वे निमोनिया के प्रकोप से बच गए और पिताजी के ऋणी जैसे हो गए थे। लेकिन शायद जोरा गुर्जर पर जाति का इतना भूत सवार था कि वे पिता जी के अच्‍छे दोस्‍त होने के बावजूद हमारे यहां खान-पान से बचते थे। रोटी-बेटी के मामले में भी शिक्षा की भूमि अहम रहती है इसलिए ब्राह्मणों के दलितों के साथ तो रिश्‍ते देखने को मिल जाते हैं लेकिन अजगर के मामले में ऐसा नहीं है। वहां इन मामलों में खून-खराबे के किस्‍से मिलते हैं, आपसी सौहार्द के नहीं। खैर…

मेरी स्‍मृतियों में यह भी ताजा है कि जब हम हरियाणा के चुलकाणा गांव में रह रहे थे तो भारत-पाकिस्‍तान युद्ध चल रहा था और लाल बहादुर शास्‍त्री का ‘जय जवान, जय किसान’ का नारा भी मुझे अच्‍छी तरह याद है। मुझे उस समय की ब्लैक आउट की रातें भी याद हैं। पिताजी ने हमारे घर के पास गड्ढे खुदवाए थे और मिट्टी के कट्टे भी भरवाकर रखवाए थे। सबसे महत्‍वपूर्ण बात जो मुझे याद है वह गमलों में गाजर, मूली, टमाटर जैसी सब्जी उगाना व एक दिन का उपवास भी मुझे अच्‍छी तरह याद है। उस समय समाचार पत्र व टी वी नहीं थे लेकिन हमारे घर ट्रांजिस्‍टर था और लोगों की मंडली घर के पास की चौपाल में इक्ट्ठी होती थी और सभी लोग समाचार सुनकर युद्ध के हालचाल जानते थे और उसके अनुसार ही अपनी तैयारी करते थे। उस युद्ध के दौरान जो तैयारी व जागरुकता मुझे याद है, वह गौर करने लायक है।

उस समय ऐसा लगता था कि जैसे फौजियों के साथ-साथ हम भी अपने घरों में युद्ध लड़ रहे हैं। उपवास रखना और घर में सब्जियां उगाना, घर में गड्ढे खोदना और रेत के बोरे भरकर रखना देखकर ऐसा लगता था कि जैसे हम भी देश के लिए युद्ध लड़ रहे हैं। इस दौरान पिताजी ने रक्षा कोष में कुछ पैसे भी दिए थे। लेकिन बाद के युद्धों में, भले ही कारगिल का आधुनिक हथियारों का ही युद्ध क्‍यों न हो अपने चारों ओर ऐसा महसूस होता था जैसे यह युद्ध सेना और नेताओं का था, आम आदमी की उसमें कोई भमिका नहीं थी।

जब मैं चौथी कक्षा में था तो हमारा परिवार हरियाणा के कुण्‍डली गांव, जिला सोनीपत में स्‍थायी रूप से रहने को आ गया। यह कुण्‍डली गांव दिल्‍ली के सिंघू बार्डर से हरियाणा में प्रवेश करने पर पहला गांव पड़ता है। हमने कुण्‍डली गांव में ही डिग्घल बेरी के कर्नल की कोठी के नक्‍शे के अनुरूप ही अपना दो मंजिला मकान बना लिया था। यहां आने का कनेक्शन यह था कि मेरी माताजी की बुआ की शादी इसी गांव में हुई थी और एक वर्ष तक पिताजी यहां ट्रेनिंग सेन्‍टर चला चुके थे। यानी यहां का सारा माहौल मेरे पिताजी व माताजी का जाना-पहचाना था। यह माताजी का दूसरा मायका होने के नाते पूरा गांव (सभी बिरादरियों समेत) ही हमारे मामा-नाना का गांव बन गया। जहां कहीं भी पिताजी की पोस्टिंग होती थी, वे यहीं से ड्यूटी करते थे।

जब मैं चौथी कक्षा में था तो पढाई में अच्‍छा था लेकिन शर्मीला और संकोची अधिक था। हुआ यूं कि हमारी कक्षा अध्‍यापिका, जिनका नाम आशा था, वह मुझे खास तवज्जो देती थीं। एक दिन वह कुछ लड़के-लड़कियों के नाम लिख रही थीं। मैंने भी कहा मैडम जी मेरा भी लिख लो। नहीं, तुम्‍हारा नहीं। मैं बड़ा परेशान हुआ और दुखी भी क्‍योंकि मैं तो पढ़ाई में भी अच्‍छा था और साफ-सुथरा भी रहता था। फिर मैडम मेरा नाम क्‍यूं नहीं लिख रहीं। लेकिन मुझे पता चला कि वे नाम कव्‍वाली के लिए लिखे जा रहे थे। मैं आज भी स्‍वीकार करता हँ कि इस मामले में आज भी मैं बुद्धू ही हूं क्‍योंकि मैं न तो काई गाना-वाना जानता हूं और न ही नाचना। जहां तक स्‍टेज पर आने-जाने का मामला है, उसकी हिम्‍मत तो मुझे शिक्षक बनने के बाद आई। और साहित्‍य की दुनिया ने मेरे अंदर से बचे-खुचे डर व झिझक को दूर करने में अहम भूमिका अदा की।

माँ के साथ ईश कुमार गंगानिया

गांव में हमारे घर के अलावा एक ढाई-तीन सौ गज का एक प्‍लाट भी था। हमने कटीले तारों और कीकर के कांटों से उसकी फैंसिग कर रखी थी। उसमें हम गन्‍ना, गेहूं, आलू, लहसुन, प्‍याज, पिताजी के हुक्‍के के लिए तम्‍बाकू और भैंस के चारे के लिए ज्‍वार व बर्सी (बिर्शम) आदि मौसम के अनुसार उगाते थे। इस प्‍लाट में पानी की व्‍यवस्‍था हैंडपंप से की जाती थी। इस गांव का पानी बहुत मीठा और पेट के लिए भी बहुत अच्‍छा था। इसलिए हाजमा भी खूब होता था। हम टमाटर, प्‍याज, गाजर, मूली, मटर व मेथी कच्‍चे ही जमकर खाया करते थे। भैंस का दूध हमें पर्याप्‍त मात्रा में मिल जाता था। ऐसी दिनचर्या के चलते हमने गांव के स्‍कूल से बोर्ड की पांचवीं कक्षा पास की। पांचवीं कक्षा में बोर्ड की परीक्षा थी और हमारा सेंटर हमारे गांव से लगभग चार-पांच किलोमीटर दूर नांगल गांव में था। हम अपने अध्‍यापक गुप्‍ता जी की निगरानी में पैदल ही नांगल गांव तक आते जाते थे। यह पैदल चलने का एक अजीब अनुभव था।

पांचवीं कक्षा पास करने के बाद मेरा भी गांव के अन्‍य बच्‍चों की तरह सिंघू गांव के हॉयर सैकेंड्री स्‍कूल में दाखिल करा दिया गया। इस स्‍कूल का जुगराफिया अजीब था और जुगराफिए के अलावा इस स्‍कूल का हर पहलू ही अनोखा था। सिंघू स्‍कूल हमारे गांव से ढाई-तीन किलोमीटर की दूरी पर था। इस स्‍कूल में पढ़ने वाले छात्र शेरसा, खटगड़, भैरा बांकी पुर, जांटी कला व सिंघू गांव से आते थे। इस स्‍कूल के विषय में उल्‍लेखनीय बात यह है कि हर गांव कम से कम दो से चार-पांच किलामीटर की दूरी पर था और प्रत्‍येक पढ़ने वाले के लिए यह दूरी पैदल तय करनी होती थी क्‍योंकि उस समय साइकिल व घोड़े-तांगे जैसे साधन वहां उपलब्‍ध नहीं थे। यह पैदल चलने का मामला इतना सहज था कि कोई किसी यातायात के विषय में सोचने की भी जरूरत नहीं समझता था।

इस विद्यालय की बिल्डिंग, हाल व मैदान सब अच्‍छा था लेकिन यहां अध्‍यापकों की स्थिति अजीब थी। जो अध्‍यापक यहां स्‍थायी रूप से टिके थे, वे आस-पास के गांवों से आते थे और उनके अपने लोकल सरोकार भी थे। अध्‍यापकों की कमी हमेशा रहती थी। दिल्‍ली से जिन अध्‍यापकों को यहां भेजा जाता था, वे एक प्रकार से सजायाफ़्ता जैसे होते थे। वे अक्सर एक-ढेढ घंटा लेट ही पहुंचते थे और एक-ढेढ घंटे पहले ही यहां से निकल भी लेते थे। इनको यहां से अधिक दूर भेजने के लिए शायद शिक्षा विभाग के पास कोई सजा ही नहीं थी। खैर, यह स्थिति जैसी भी थी, मैं इस विद्यालय व शिक्षकों को आज भी सैल्‍यूट करता हूं। जब भी मैं स्‍वयं या अपने परिवार के साथ सिंघू बार्डर से गुजरता हूं तो उन्‍हें अपने इस विद्यालय के दीदार अवश्‍य कराता हूं।

गौरतलब है कि मेरी पांचवीं तक की शिक्षा ठीक-ठाक ही रही लेकिन आज जब मैं अपनी छठी कक्षा की शिक्षा के विषय में मुड़कर देखता हूं तो अजीब-सी पीड़ा होती है। छठी कक्षा में हमारी कक्षा को कमरा नहीं मिला था और हमें कला कक्ष (ड्राइंग रूम) के सामने बरांडे में बैठने के लिए जगह मिली। शिक्षा व शिक्षण के मामले में ड्राइंग टीचर श्री एस डी शर्मा ही थे। जब उन्‍हें अपनी कक्षा से थोड़ी फुर्सत मिलती थी तो वे अपने कमरे से बाहर आकर वे हमें कहानियां सुनाया करते थे। इसके अलावा मुझे यह भी याद है कि हमसे अंग्रेजी सिखाने के लिए चार लाइन वाली कापी भी मंगाई गई थी और ‘जी’ निब वाला होल्‍डर भी मंगाया गया था। हमें कौन पढ़ाते थे, कौन नहीं, मुझे याद नहीं।

हमारे विद्यालय व अध्‍यापकों का हमारे प्रति जो भी रवैया था, अभिभावकों का भी जैसे इससे बेहतर कुछ था ही नहीं। इसलिए ऐसा कोई वाकया हमें याद नहीं आता कि हमारे अभिभावक विद्यालय में इसकी‍ शिकायत करने या हमारे लिए किसी सुविधा की मांग करने कभी विद्यालय गए हों। हां, इतना जरूर याद है कि हमें सातवीं कक्षा में कमरा मिल गया था। लेकिन इस वर्ष शिक्षकों की हड़ताल हो गई थी और यह लम्‍बी चली थी। इसलिए इस वर्ष भी पढाई व्‍यवस्‍था सुचारू रूप से नहीं चल पाई थी। बच्‍चों को बिना परीक्षा ही अगली कक्षाओं में प्रोन्‍नत कर दिया गया था। जैसे-तैसे हम आठवीं कक्षा में आ गए और हमें कमरा और अध्यापक दोनों ही मिल गए और पढ़ाई ठीक-ठीक होने लगी। हम भी जमकर पढ़ाई करने लगे और ऐसा याद आता है कि हमने पिछले दो वर्षों की कमी जैसे इसी वर्ष पूरी कर ली थी।

ट्रेनी के रूप में ट्रेनिंग सेंटर नाम लिखा

इसी वर्ष मेरे पिताजी का ट्रेनिंग सैंटर जांटी कलां गांव में आ गया था। मेरे गांव से जांटी कला की दूरी चार-पांच किलोमीटर थी। पिताजी ने मेरा और मेरे छोटे भाई राजकुमार का नाम अपने ट्रेनिंग सैंटर में ट्रेनी (प्रशिक्षु) के रूप में लिख लिया और हम दोनों भाई स्‍कूल से दो बजे छुट्टी होने के बाद दो किलोमीटर चलकर जांटी कलां जाते थे और वहीं शाम के साढ़े चार-पांच बजे तक जूते-चप्‍पल बनाना सीखते थे। शाम को पिता जी हम दोनों भाइयों को अपनी साइकिल पर बैठाकर घर ले आते थे। मुझे ऐसा याद नहीं कि हम दोनों भाइयों में से किसी ने भी पिताजी के इस निर्णय का विरोध किया हो। मुझे यह भी याद नहीं कि हम दोनों भाई मन मारकर इस ट्रेनिंग को कर रहे हों। मुझे जहां तक याद आता है कि पिताजी के निर्णय को संदेह से देखने की प्रवृत्ति हम भाई-बहनों में जैसे थी ही नहीं।

जहां तक इस ट्रेनिंग का सवाल है, इस ट्रेनिंग की शुरुआत में हमें चमड़े का टुकड़ा दिया गया। हमें इसके किनारों को रांपी से छीलना होता था और कुछ अभ्‍यास के बाद हमने इसे सफलतापूर्वक छीलना भी सीख लिया। हमने इस छिले हुए भाग के किनारों पर चिपकाने वाला सोल्युशन लगाकर इन्‍हें मोड़ना और हथौड़ी की मदद से इसे कूट कर उचित आकार देना भी सीख लिया। ट्रेनिंग के दूसरे भाग के रूप में हमें लैदर के दो पीस दिए गए और उन्‍हें कटरनी (सुतारी) की मदद से सिलना सिखाया गया। कुछ अभ्‍यास के बाद हमने कटरनी चलाना व लैदर की सिलाई करना भी सीख लिया था। यह कहना अनुचित नहीं होगा कि कई बार कटरनी से मेरा हाथ जख्‍मी भी हुआ था। इसके बाद हमें चप्‍पल बनाने और इसके बाद जूता बनाने के लिए भी दिया गया। हम दोनों भाइयों ने यह काम भी ठीक-ठाक ही कर लिया था। इससे आगे हम नहीं बढ़ पाए थे क्‍योंकि हम इस ट्रेनिंग सैंटर में लंच के बाद जाते थे, पूरे समय के लिए नहीं। अपने पिताजी के इस ट्रेनिंग सेंटर द्वारा प्राप्‍त ट्रेनिंग के संबंध में मुझे एक अफसोस निरंतर बना रहता है कि मैं अपने द्वारा बनाए गए चप्‍पल व जूते को इस ट्रेनिंग की यादगार के रूप में संजोकर नहीं रख सका और न ही इस ट्रेनिंग का सर्टिफिकेट ही हासिल कर सका जबकि यह सर्टिफिकेट देने वाले अधिकारी खुद मेरे पिताजी ही थे।

नवीं कक्षा तक पहुंचते-पहुंचते शायद पिताजी को लगने लगा था कि मैं बड़ा हो गया हूं। इसलिए उन्‍होंने मुझे बाकी तीनों भा‍इयों को साथ लेकर घूमने जाने का फरमान जारी कर दिया। हमारी बस्‍ती खेतों की सीमा पर ही थी। इसलिए शुरु में हमें पांच बजे जगा दिया जाता और हमारी सैर की सीमा पहले ही तय कर दी गई थी। धीरे-धीरे यह सीमा एक किलोमीटर से बढ़ाकर कन्‍या गुरुकुल तक यानी तीन किलोमीटर तय कर दी गई। गौरतलब है कि उस दौरान इस गांव में या आसपास के गांव में रात में भी किसी की जानमाल का कोई खतरा नहीं था और न ही किसी चोरी-चकारी का ही खतरा कभी देखने में आया था। मुझे अच्‍छी तरह याद है कि उस दौरान हम अपने घर के आंगन में बिना कोई ताला लगाए ही सो जाया करते थे। हम चारों भाई बाद में भी कन्‍या गुरुकुल तक अक्‍सर घूमने जाया करते थे। गर्मियों में समय पांच के बदले चार बजे हो जाता था। लेकिन पिताजी थोड़ा देर से यानी आराम से उठते थे।

सुबह की सैर के अलावा मैं बैलगाड़ी के खेतों में आने-जाने का कच्‍चे रास्‍ते (जिसे हरिया‍णवी भाषा में गोंडा कहते थे) में अपने साथियों के साथ खेलता था। यह गोंडा हमारी हाकी के मैदान का सबस्‍टीट्यूट था। यहां गेंद कपड़े की बनी होती थी और जाल के पेड़ की हाकीनुमा घुमावदार लकड़ी हमारी हॉकी हुआ करती थी। धूल-धमाल के तूफान के बीच हम घंटो रूरल हॉकी (देहाती हाकी) खेलते थे। यही नहीं, फागुन के महीने में एक बेवकूफी वाला गेम भी खेलते थे। रात के समय गेहूं के खेतों जाकर दूर-दूर तक छिपा-‍छिपी का खेल खेलते थे। न यह परवाह थी कि गेहूं के खेतों में कोई जहरीला जीव जंतु भी हो सकता है और वह हमें नुकसान पहुंचा सकता था। हमें यह भी परवाह नहीं होती थी कि जिन खेतों में औरतें पाखाने के लिए जाती थीं, उन्‍हीं खेतों में रात को हम लुका-छिपी का खेल खेलते थे। बस एक अजीब तरह का जुनून व बेवकूफी होती थी। इस बेवकूफी से हमें क्‍या नुक्‍सान हो सकता था और फसल को क्या, परिणाम के बारे मैं जैसे सोचने की जरूरत ही कभी महसूस नहीं होती थी।

ईश कुमार गंगानिया के पिता मास्टर जी नवीन चन्द्र

बड़ा अजीब था बदबूदार कीचड़ वाला किस्सा

हॉकी के साथ-साथ हम मौसमानुसार खैतों में कबड्डी, कुश्‍ती आदि भी जमकर खेलते थे। मुझे अच्‍छी तरह याद है कि एक बार मेरी नाक पर एक कबड्डर का घुटना इतनी जोर से लगा था कि, इसे सामान्‍य होने में महीना भर लगा। इसी प्रकार एक बार मैं कबड्डी की रेड डालने गया था कि सामने वाले खिलाड़ी ने घुटने से नीचे मेरी टांग को कुछ ज्‍यादा ही जोर पकड़ लिया था और जैसे ही मैंने अपना पैर छुड़ाने के लिए जोर से साइड में ट्वीस्टिंग की, मेरे घुटने में कुछ चटकने/टूटने जैसी आवाज हुई और मैं अपने पैरों का खड़ा न हो सका। कुछ ही समय बाद सूजन भी इतनी तगड़ी हो गई कि घुटने का मूवमेंट खत्‍म हो गया। मुझे जैसे-तैसे घर पहुंचाया गया, लेकिन घर में इसे कोई खास तवज्‍जो नहीं दी गई और न ही किसी डॉक्‍टर की ही जरूरत महसूस की गई। इलाज के रूप में घर के बाहर नाली से घड़े के एक टूटे हुए बड़े से टुकड़े में सड़ा हुआ बदबूदार कीचड़ लिया गया। उसमें नमक डाला गया था और एक बच्‍चे से उसमें पेशाब कराकर उसे अच्‍छी तरह पकाया गया था। फिर इसे रूई पर रखकर मेरे घुटने पर बांधा गया। यह प्रक्रिया हफ्ते भर चली। लेकिन मैं पूरी तरह ठीक हो गया था। यह नुस्‍खा अजीबोगरीब लग सकता है लेकिन हैं बड़ा कारगर। बाद में ही कई बार इसे आजमाया गया और कहने की जरूरत नहीं कि इसके परिणाम काफी उत्‍साहवर्धक ही रहे।

जैसा कि पहले बताया गया है कि पिताजी मेरठ के कुमाराश्रम में रहे थे। उन्‍हें आर्य समाज की हवन पद्धति कंठस्‍थ थी। वे आमतौर पर प्रत्‍येक रविवार को पूरे परिवार को साथ लगाकर पूरे घर की सफाई कराते थे और शाम को सूर्यास्‍त से पहले हवन पूरा कर लेते थे। वे आर्य समाज रिति से विवाह भी संपन्‍न करा देते थे। लेकिन उस समय हमें न आर्य समाज की समझ थी और न किसी अन्‍य धर्म व्‍यवस्‍था की। न ही पिताजी ने कभी इस विषय में हमें सिखाने जैसी ही कोई मुहिम ही चलाई थी। उनकी नजर में गायत्री मंत्र ही सभी तालों की कुंजी थी। इसके अतिरिक्‍त जो कुछ भी पाठ्यपुस्‍तकों में होता था, सिर्फ उसकी जानकारी के संबंध में ही पिताजी समयानुसार हमारी मदद कर दिया करते थे, इसके अतिरिक्‍त कुछ नहीं।

एक बात उल्‍लेखनीय है कि गांव के काफी सारे लोग संत रविदास मंदिर के निर्माण के पक्षधर थे और कुछ संतों की वाणी का सत्संग भी किया करते थे। पिताजी ने संत रविदास मंदिर के निर्माण में अहम भूमिका अदा की थी। उस जमाने में शायद हुकम सिंह हमारे क्षेत्र के एम.एल.ए हुआ करते थे। पिताजी ने गांव में जलसा कराकर मंदिर के लिए राशि ही नहीं जुटाई थी बल्कि मंदिर के साथ जुड़ी लाइब्रेरी की लिए घोषणा के माध्‍यम से पांच सौ पुस्‍तकों की भी व्‍यवस्‍था कराई थी।

जहां तक नॉन-वेज का प्रश्‍न है, मेरी माताजी मेरे नाना के यहां से ही जबरदस्‍त नॉन-वेज लेती थी। लेकिन पिताजी चूंकि आर्य समाज की पृष्ठभूमि से थे, इसलिए नॉनवेज नहीं खाते थे। माताजी बीच में बीमार रहने लगी तो डाक्‍टर ने उनके लिए नॉनवेज अनिवार्य बताया तो वे सप्‍ताह में एक बार मेरी माताजी को मेरे नानाजी के यहां खेखड़ा ले जाते थे और नॉन-वेज की जरूरत पूरी करा लेते थे। लेकिन बार-बार कुण्‍डली से खेखड़ा लाना ले जाना पिताजी को भारी पड़ने लगा और अंतत: नॉन-वेज हमारे यहां घर में ही बनने लगा और पिताजी भी नॉन-वेज लेने लगे।

गांव में कोई नियमित नॉन-वेज की दुकान नहीं थी। हमारे गांव से छ: किलोमीटर दूर नरेला में भी उस जमाने में रेल की पटरी के पार सिर्फ एक ही दुकान थी। शायद उस समय आज की तरह नॉन-वेज का चलन नहीं था और खुलापन भी नहीं था। लेकिन गांव की वाल्‍मीकि बस्‍ती में शायद महीने-पंद्रह दिन में एक बार सूअर काटा जाता था और इसकी सूचना चमारों के मुहल्‍ले में भी दी जाती थी। इस गांव में मेरे नाना (माता जी के फूफा) गांव के चौकिदार थे, उनको पहले ही सूचना मिल जाती थी। जब वे मीट लेने बाल्‍मीकी बस्‍ती जाते तो माताजी को भी पूछ कर जाते कि तुम्‍हें भी मीट मंगाना है क्‍या। माताजी अपनी जरूरत के अनुसार हां या ना में जवाब देती और मीट की व्‍यवस्‍था हो जाती। हम सब मीट उसी उत्‍साह से खाते जैसे अन्‍य सब्जियां खाते थे। इसमें अटपटा कुछ भी नहीं लगता था।

इस संदर्भ में एक बात और गौरतलब है कि चुलकांणा के जिस मांगे राम का मैंने जिक्र किया है और जो व्‍यक्ति अपने गांव के चूहड़ों और धाणकों से घृणा करता था, उनके यहां मरे हुए जानवरों का मांस खाने का प्रचलन था। वे इसे आने वाले दिनों के लिए भी सुखाकर रख लेते थे और समयानुसार इस्‍तेमाल करते थे। अन्‍य कई दलित साहित्‍यकारों व डा. अम्‍बेडकर ने भी ऐसे प्रचलन पर चर्चा की है। मेरे दिमाग में यह प्रश्‍न उठता है कि ऐसे परिवार स्‍वाभाविक रूप से ही मरे हुए पशु का सूखा/ताजा मांस खा लेते होंगे। कभी यह विवशता भी रही होगी लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि बाद में तो यह सब अज्ञानतावश/ सहज प्रक्रिया के आत्‍मसातीकरण रूप में यूं ही चलता रहा होगा। ऐसे में बच्‍चे तो ऐसी प्रक्रिया के इन्‍नोसैंट विक्टिम (मासूम शिकार) बनने पर विवश हैं, ऐसा मेरा मानना है। समाज में जागरुकता के बल पर ऐसी समस्‍याओं से मुक्ति पाई जा सकती है। जब मेरे पिताजी अपना कार्यकाल खत्‍म करके परिवार सहित चुणकाणा से विदा हो रहे थे तो वहां लोगों की भीड़ के दिल बहुत भारी थे और कुछ की आंखों में आंसू थे। वे अपने-अपने तरीके से विलाप कर रहे थे। पिताजी ने इस मौके पर उनसे कहा-‘यदि सचमुच मेरे प्रति आप अपनापन रखते हैं तो मुझे आपसे एक छोटा-सा उपहार चाहिए।’ उन्‍होंने बिना सोचे-विचारे एक सम्‍मोहित से अंदाज में कह दिया-‘मांगो, मास्‍टर जी।’ पिताजी ने फिर दोहराया-‘देख लो।’ उन्‍होंने सामूहिक रूप से कहा ठीक है। पिताजी ने उनसे हाथ उठाकर शपथ दिलाई कि आज के बाद वे मरे हुये जानवर का मांस नहीं खाएंगे तो उन्‍होंने सहर्ष इसे स्‍वीकार कर लिया। बाद में मांगे राम हमारे यहां कुण्‍डली मिलने आया तो उसने बताया कि उस दिन के बाद किसी ने मरे का मांस नहीं खाया है। यह सुनकर मुझे भी बहुत अच्‍छा लगा था।

ईश कुमार गंगानिया की माता जी

जहां तक मेरे पोर्क (सूअर) खाने का सवाल है, अपने बचपन में मैं सहज रूप में इसे खाता था। आज इसके खाने के अवसर मेरे पास उपलब्‍ध नहीं हैं, लेकिन मुझे इसका सेवन सहज लगता है, अटपटा नहीं। मुझे चिकन, मटन, फिश के स्‍वाभाविक खाद्य के साथ-साथ वैचारिक स्‍तर पर भैसे के मीट से भी कोई खास परहेज नहीं है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि मैं नॉन-वेज का बहुत बड़ा शौकीन हूं। आज भी महीने में एक-आध बार ही इसका सेवन करता/कर पाता हूं। यही मोर दैन सफ्फीसिऐंट है, इससे ज्‍यादा की मेरी कोई चाहत नहीं है।

गांव ही में पिता जी ने खोली परचून की दुकान

जैसाकि पहले कहा गया है कि मैं नौंवी कक्षा में आ गया था। यह नौवी कक्षा मेरे जीवन का ट्रनिंग पॉयन्‍ट है। इसी क्‍लास से मेरे जीवन में संघर्ष का दौर शुरु होता है। नवीं कक्षा में प्रवेश के लिए प्रत्‍येक छात्र को हॉयर सैकेन्‍ड्री के तीन वर्ष के कोर्स के लिए आर्ट्स, कामर्स व साइंस तीनों स्‍ट्रीम्स में से किसी एक को चुनना होता था। मैंने साइंस स्‍ट्रीम को चुना क्‍योंकि मेरे पड़ोस के एक छात्र ने मुझसे तीन वर्ष पहले साइंस से हॉयर सैकेन्‍ड्री पास की थी और अब वह कालेज में जाता था। बिना किसी विचार-विमर्श व सोचे-समझे मैंने भी देखा-देखी साईंस साईड ले ली और पढ़ाई शुरु कर दी। पिताजी ने अपनी ओर से न कोई उत्‍साह दिखाया और न ही मैंने इस मामले में उनसे कोई खास चर्चा की ही जरूरत समझी। मेरे पांच विषय फिजिक्‍स, कैमिस्‍ट्री, हॉयर मैथ्‍स, अंग्रेजी व इंजिनियरिंग ड्राइंग थे। हिन्‍दी मेरी ऐलीमैन्‍ट्री थी जो मैंने नवीं कक्षा में ही सितम्‍बर मास में पास कर ली थी। अब मेरा हिन्‍दी से एक विषय के रूप कोई लेना-देना नहीं रह गया था।

इधर मेरी विज्ञान की पढ़ाई आए राम, गए राम की तर्ज पर आने वाले अध्‍यापकों के साथ शुरु हुई और दूसरी ओर पिताजी की सर्विस बुक में तीन वर्ष पहले की गलत एन्‍ट्री के कारण वह तीन वर्ष पहले ही नौकरी से रिटायर हो गए। पिताजी ने चंडीगढ़ के एक कोर्ट में केस कर दिया। केस के सिलसिले में उन्होंने एक व्‍यक्ति को चंडीगढ़ में रख छोड़ा। कोर्ट और इस व्‍यक्ति यानी दोनों के चलते रिटायरमेंट का जो पैसा मिला था वह बट्टे खाते लग गया। छ:-छ: बच्‍चों (चार भाई और दो बहनें) की पढ़ाई और आमदनी धेला नहीं, का दौर शुरु हुआ। गांव में पिताजी के हुनर का कोई मोल नहीं था और शहर जाने की औकात नहीं बची थी। इसलिए पिताजी ने गांव ही में परचून की दुकान खोली तो उसे उधारी वाले खा गए।

पिताजी यानी मास्‍टरजी और उनके परिवार के सारे ठाठ धरे रह गए और परिवार को दाल-रोटी के लाले पड़ गए। जो  माताजी घर के चूल्हे-चौके के बाद दोपहर में गली-मुहल्‍ले की औरतों को सिलाई-कढ़ाई और सबसे मुश्किल सिंधी कढ़ाई भी सिखाती रहती थी। खाने-पकाने की बातें करती थीं, वह खुरपी-दरांती उठाने यानी घास खोदने जाने के लिए विवश हो गईं। वह किसान परिवार से रही हैं, इसलिए उनके पास इसके अलावा अन्‍य कोई विकल्‍प शेष नहीं रह गया था। जब उन्‍होंने अपनी खुरपी-दरांती उठाने की बात की तो पिताजी व माताजी में काफी खींचातानी हुई और हफ्तों बाद किसी प्रकार पिताजी को सहमत होना पड़ा। वे समझ गए थे कि सूखी प्रतिष्‍ठा व मान-सम्‍मान से परिवार का पेट नहीं भरने वाला। इसलिए इस संकट की घड़ी में भैंस का दूध बेचना शुरू हुआ। एक और भैंस भी इसी उद्देश्‍य की पूर्ति के लिए जैसे-तैसे खरीदी गई। मुहल्‍ले-पड़ोस में मास्‍टरनी के रूप में जानी वाली मेरी माताजी बड़ी शिद्दत के साथ घास-फूंस मुहैया कराने की जंग में जुट गईं। हम छ: बहन-भाइयों ने भी माताजी का नेतृत्‍व बखूबी स्‍वीकारा और बिना किसी ना-नुकुर, तेर-मेर या मीन-मेख के जी-जान से रोजी-रोटी की चुनौती से भिड़ गए।

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