कनहर सिंचाई परियोजना के विस्थापितों की हृदय विदारक सचाइयों को देखकर लगता है जैसे ये लोग पचास साल लंबे किसी ऑपेरा के पात्र हैं जो करुणा, विषाद, हास्य, उम्मीद और हताशा के बीच जीने के अभिशाप को चित्रित कर रहे हैं और अभी आगे यह कितना लंबा खिंचेगा इसका कोई संकेत नहीं है।
राही मासूम रज़ा के गाजीपुर और रुद्र काशिकेय से लेकर शिवप्रसाद सिंह, काशीनाथ सिंह और अब्दुल बिस्मिल्लाह के 'बनारसों' की तरह शिवेंद्र का अपना सोनभद्र है जिसका धूसर हरियाला सौन्दर्य और अपनी ही आबादी को न समेट पाने और बहुस्तरीय विस्थापन के शिकार होते लोगों की वंचना, उत्पीड़न और प्रतिरोध की लोमहर्षक कथाओं और उपकथाओं का अपरिमित आगार भी है। इनमें से बहुत सी चीजों को शिवेंद्र ने पकड़ा है और मुझे यह कहने में कोई गुरेज नहीं कि वे सफल हुये हों या न हुये हों, यह एक साहित्यिक सवाल है, लेकिन उनकी जो कथात्मक रेंज है वह आश्चर्यचकित करती है।
क्या ये लोग सिर्फ खीर पीने और मनोरंजन करने आए हैं? खासतौर से इन दिनों जब लोगों को बदलती आर्थिक और राजनीतिक स्थितियों के कारण एक अंधेरा भविष्य दिख रहा है। जब संविधान खतरे में है। युवाओं की नौकरियाँ ही नहीं सामान्य आदमी का रोजगार भी खत्म किया जा रहा है।