Sunday, May 19, 2024
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सोनभद्र के शिवेंद्र और शिवेंद्र का सोनभद्र

सोनभद्र यात्रा – 4 उम्मीद करता हूँ कि सोनभद्र की मेरी इस यात्रा की पिछली तीनों शृंखला आप पढ़ चुके होंगे नहीं पढे हों तो नीचे दिए लिंक पर जाकर इसे देख सकते हैं। सोनभद्र यात्रा – 1 सोनभद्र यात्रा –2 सोनभद्र यात्रा – 3  गतांक से आगे … सोनभद्र। आइये एक बार पुनः आपके […]

सोनभद्र यात्रा – 4

उम्मीद करता हूँ कि सोनभद्र की मेरी इस यात्रा की पिछली तीनों शृंखला आप पढ़ चुके होंगे नहीं पढे हों तो नीचे दिए लिंक पर जाकर इसे देख सकते हैं।

सोनभद्र यात्रा – 1

सोनभद्र यात्रा –2

सोनभद्र यात्रा – 3 

गतांक से आगे …

सोनभद्र। आइये एक बार पुनः आपके साथ सोनभद्र की यात्रा की अगली शृंखला में प्रवेश करते हैं। इस अंक का फोकस एक ऐसे शिल्पकार पर है जो अपनी अंजुरी में अक्षर भरे सोनभद्र की जमीन में किसी रूढ़िवादी परंपरा की शाखा नहीं लगा रहा है बल्कि प्रगतिशील मूल्य के साहित्य की पौध उगा रहा है। सोनभद्र के साहित्यिक-सांस्कृतिक सरोकार के लोगों के लिए इतना परिचय काफी हो जाता पर बाहर के लोगों के लिए मैं उनका नाम बता देता हूँ। जी, मैं बात कर रहा हूँ कथा शिल्पी रामनाथ शिवेंद्र की। मन था कि मैं शिवेंद्र जी से उनके साहित्य पर बात करूँ पर चूंकि सोनभद्र पहुँचते ही वह मेरी यात्रा के सहचर भी बन गए थे, तब सोचा कि जब वह साथ ही हैं तो उनसे उनके भीतर का दरवाजा खोलने के लिए ना कहूँ बल्कि अपनी तरह से उन्हें देखूँ और उनके रचित साहित्य के माध्यम से उनके होने का अर्थ तलाशूँ। उनके भीतर के मनुष्य और साहित्यकार की परिधि पर खड़े होकर उनके केंद्रीय कोष्ठ तक जा सकने से पहले, कुछ खिड़कियाँ खोलने का यत्न करूँ और संभव हो पाये तो कुछ पर्दे हटाकर थोड़ा सा भीतर झांकू। यह निर्णय अब थोड़ा सा ठीक लग रहा है। दरअसल मुझे हमेशा से लगता रहा है कि बड़े सफर और कठिन रास्ते पर चलने से पहले पथिक को अच्छी तैयारी कर लेनी चाहिए। वैसे तो मैं यह मानकर चला रहा था कि मेरी तैयारी ठीक-ठाक है पर जब उनसे रूबरू होने पर उनकी वृहदता का बोध हुआ तब समझ में आया कि उनका संसार मेरी अनुभूत दुनिया से बहुत बड़ा भी है और सघन भी। इसलिए यही ठीक लगा की इस छोटी यात्रा में कुछ छोटे रास्ते से चलकर उनके कुछ कोष्ठकों का स्पर्श किया जाय।

ये बातें मैं किसी भावावेग में नहीं कह रहा हूँ बल्कि यह बातें उनके रचित पात्रों से मिलने के बाद बहुत ही स्वाभाविक तौर पर आ रही हैं। आगे बढ़ने से पहले उनकी एक पात्र का, एक संवाद आप भी देखिये,

[bs-quote quote=”‘तू का लिखेगा मेरे बारे में? तू भी तो मरद जाती का है, थूथून वाला, कहते हैं, नाक न हो तो मैला खाने वाला, तू का जानेगा मेहरारू के बारे में कि मेहरारू का होती हैं। मेहरारू को तू जब जैसा चाहता है वैसा गढ़ देता है, कभी देवी बनाता है तो जरूरत के हिसाब से रंडी बना देता है। देवी बना कर माला फूल चढ़ाता है, तो रंडी बनाकर जोंक की तरह चूसता है, देह को विछौना बना देता है। खुश हुआ तो खेत बना कर जोतने-कोड़ने लगता है, बेंगा डाल  देता है, खेत में जब बेंगा पड़ जाता है तो कुछ न कुछ जमेगा ही। जाम जाने के बाद दूसरा बेंगा डालने के लिए फिर जोत देता है। देखना है तो दरोगा को देख कि वह का कर रहा है? फिर दरोगा को भी तू काहे देखेगा, खुद अपने को देख ले, तोहरे मुंहे में मेंहरारून के बारे में विषैला लार है कि जलता हुआ लोर है। पर तोहरे पास लोर कहाँ से होगा? लोर तो मेंहरारून के पास होता है, जो उनके दिलों को लगातार हिलोरता रहता है।’” style=”style-7″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

इस तरह के पात्र और परिदृश्य रचना दुस्साहस का काम हैं। पर शिवेंद्र जी के साहित्य में इस तरह के पात्र अपनी पूरी ताकत के साथ बार-बार दिखते हैं। यह संवाद एक ऐसी स्त्री द्वारा बोले गये हैं जो हाशिये के समाज से ताल्लुक रखती है और जब अपने पति को छुड़वाने के लिए थाने जाती है तब थानेदार उसे ही अपनी हवश का शिकार बना लेता है।

यह स्त्री लेखक के दुस्साहस और लोक के साहस की साझी उत्पत्ति के रूप में जब व्यवस्था को चुनौती देने के लिए खड़ी होती है तब दुनिया का कोई भी पौरुष न तो उसके पाँव में जंजीर डाल पाता है न ही उसकी जुबान पर लगाम लगाने की हिम्मत कर पाता है। यह स्त्री पात्र उनके उपन्यास कनफेशन का है। इस उपन्यास के माध्यम से जहां वह सोनभद्र के आदिवासी समाज की त्रासदी को यथार्थ के धरातल से उठाते हैं वहीं तथाकथित सभ्य समाज के तमाम चरित्रों को भी सामाजिक न्याय के कटघरे में खड़ा करते हैं। यहाँ तक की वह खुद को भी ‘उपन्यासकार’ के बहाने उन चुनौतियों के सामने प्रस्तुत करने की हिम्मत दिखाते हैं। वह लिखते हैं कि

[bs-quote quote=”जैसे थानेदार महिला से बलात्कार करता है ठीक उसी तरह से एक लेखक भी महिला को जहां चाहे पटक देता है।‘ या फिर  ‘साला उपन्यासकार बनता है। एक दारू चुआने वाली आदिवासी महिला को पकड़ लिया उपन्यास में और उसे कप्तान तक पहुंचा दिया। अक्षरों की गाड़ी पर बिठाकर दौड़ाने लगा किसी रेसर की तरह ……..” style=”style-7″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

इतना ही नहीं वह इस उपन्यास के माध्यम से देह के उन तमाम सवालों के भी जवाब तलाशते हैं जिनकी वजह से विकास के प्रतीक और किसी रूप में भले ही आदिवासी जीवन तक नहीं पहुँच सके हों पर देह का बाजार पूरी ताकत और सड़ांध के साथ वंचना की उस जमीन पर जम चुका है।

इस संदर्भ में उनके एक अन्य उपन्यास ‘अंतर्गाथा’ का ज़िक्र करना अब जरूरी लगता है जिसमें एक लेखक पात्र है प्रवासीनाथ, जिनके माध्यम से वह लेखक की दुनिया के तमाम स्याह पक्षों को कुरेद-कुरेद कर सामने ला देते हैं, चाहे अपने अधीन शोध करती छात्रा सुशीला से दैहिक संबंध बना लेने कि बात हो या फिर उनका विरोधाभाषी चरित्र। प्रवासीनाथ के बारे में वह लिखते हैं कि, ‘प्रवासीनाथ थे कि बिना सूरा सुंदरी के न कुछ लिख पाते थे न किसी का कोई काम करा पाते थे। । वे इसे लिखने का रोग मानते थे।  ………. कल्पनाओं के सहारे शब्दों एवं संवेदनाओं से निरंतर सहवास करते रहने से लेखक का मनोरोगी हो जाना स्वाभाविक है। लेखक और लेखकीय जीवन के इस तरह के काले अध्याय को इस बेवाकी से बोल देने के लिए हौसला चाहिए होता है। यह हौसला ही रामनाथ शिवेंद्र को जमात से अलग और कई बार तो अलग-थलग भी कर देता है पर वह समझौता नहीं करते। रात में उनसे जब देर तक बतिया रहा था तब इस तरह की उनकी त्वरा के कुछ सूत्र सहज ही मिले थे। उस बातचीत से यह समझ में आया था कि वह लेखक हैं इसलिए नहीं लिखते बल्कि इसलिए लिखते हैं कि लिखा जाना जरूरी है। जिस समाज और उसकी वेदना पर घटाटोप चुप्पी तारी है उसपर बोला जाना चाहिए, लिखा जाना चाहिए ताकि समय और इतिहास को भी सनद  रहे कि अत्याचार और उत्पीड़न की पृष्ठभूमि कितनी त्रासद यात्रा से गुजरी है और गुजर रही है। सोनाञ्चल के रूप में अपनी पहचान बनाने वाले सोनभद्र की सांस्कृतिक और प्राकृतिक संपदा का भयावह दोहन शिवेंद्र जी की चिंता का मूल विषय है।

शिवेंद्र जी को समझने के क्रम में ही मुझे लगा कि सोनभद्र और रामनाथ शिवेंद्र के बीच काफी कुछ इतना अक्षुण्ण है कि एक की बात करिए तो दूसरे की परतें भी साथ-साथ खुलती हैं। प्राकृतिक संपदाओं से भरा सोनभद्र ज़मीनों, जंगलों और पहाड़ों के लुटेरों के कब्जे में है और सोनभद्र के लोकेल को अपनी रचनाओं में बड़ी शिद्दत से रखने वाले शिवेंद्र साहित्यिक माफियाओं की दुनिया से बहिष्कृत हैं। क्या यह महज़ संयोग है? असल में जब भी मैंने अलग से शिवेंद्र जी से अपने लेखन पर एक टिप्पणी की उम्मीद की वे न जाने कहाँ-कहाँ बहक जाते रहे हैं। गोया वे लिखे जा चुके से नितांत असंतुष्ट हैं और अभी जो देख रहे हैं वह पहले के मुक़ाबले अधिक दुर्धर्ष और चीमड़ यथार्थ है। वह उसे भाषा में पकड़ रहे हैं और कथानक बार-बार धोखा दे रहे हैं। भूमंडलीकरण के इस दौर ने हर समुदाय को पूंजी के मार्ग पर चलने का धोखा क्रिएट किया है लेकिन हम सभी जानते हैं कि सरमायेदारी की इस सार्वजनिकता ने सबके लिए हाइवे नहीं बनाया है। अधिसंख्य के लिए तो पैदल चलने लायक पगडंडी भी नहीं छोड़ी है। मुझे लगता है कि इसीलिए शिवेंद्र के कथन ज्यादा तल्ख़ और बेबाक तो हैं लेकिन यह गद्य बिना सामाजिक सरोकारों के समझ में आनेवाला नहीं है।

राही मासूम रज़ा के गाजीपुर और रुद्र काशिकेय से लेकर शिवप्रसाद सिंह, काशीनाथ सिंह और अब्दुल बिस्मिल्लाह के ‘बनारसों’ की तरह शिवेंद्र का अपना सोनभद्र है जिसका धूसर हरियाला सौन्दर्य और अपनी ही आबादी को न समेट पाने और बहुस्तरीय विस्थापन के शिकार होते लोगों की वंचना, उत्पीड़न और प्रतिरोध की लोमहर्षक कथाओं और उपकथाओं का अपरिमित आगार भी है। इनमें से बहुत सी चीजों को शिवेंद्र ने पकड़ा है और मुझे यह कहने में कोई गुरेज नहीं कि वे सफल हुये हों या न हुये हों, यह एक साहित्यिक सवाल है, लेकिन उनकी जो कथात्मक रेंज है वह आश्चर्यचकित करती है। आदिवासी जीवन के प्रतिरोध और विडंबनाओं का शायद ही ऐसे चित्र किसी और हिन्दी उपन्यासकार के पास हों। प्रतिरोध को वह नई कोंपल की तरह देखते हैं लेकिन सबकुछ को चबा जानेवाली व्यवस्था के दुर्दमनीय और दमनकारी चरित्र को दिखाते हुये उनका हृदय हाहाकार कर उठता है। मुझे लगता है शिवेंद्र का यही रचनात्मक हासिल है। उनका एक उपन्यास हरियल की लकड़ी ही उनके सोनभद्र की सैकड़ों परतें खोलता है। यही उनके लोकेल को बहुत ताकतवर बनाता है।

इसी के बयाज़ से मुझे एक और बात कह देनी चाहिए जो सोनभद्र और शिवेंद्र दोनों के लिए सटीक होगी। सोनभद्र बनारस के मैदानी इलाके को पार कर दिखनेवाला ऊबड़-खाबड़ जिला नहीं है बल्कि यह मैदानी और आदिवासी के बीच में स्पष्ट विभाजन रेखा खींच देनेवाला जिला भी है जहां मैदान अपनी लोलुपता की बोरियाँ भरने के लिए जाता है। ज़ाहिर है इसके लिए वह अपने षडयंत्रों का पूरा तंत्र और अपनी पहुँच का पूरा जाल लेकर सोनभद्र जाता है। वहाँ लाई जानेवाली परियोजना ज़मीन पर उतरने से पहले ऐसे लोगों के बीच बंट चुकी होती हैं। यहाँ के पहाड़ पहले सत्ता के गलियारों में खोद लिए जाते हैं और उनका हिस्सा बंट चुका होता है तब उसके बाद सोनभद्र में डाइनामाइट और जेसीबी लगाई जाती हैं। यहाँ के जंगल और महंगे मोरङ  बालुओं से भरी सोन नदी पहले माफियाओं के दफ्तरों निचोड़ी जाती है और उसके बाद यहाँ जेसीबी और ट्रकों का काफिला आता है। और इस आने को शिवेंद्र अपने चेतनालोक में इतनी अच्छी तरह देख लेते हैं कि मैदानी सामंतों और जातिवादियों के कुटिल षडयंत्रों को वे सोनभद्र की सामाजिक संरचनाओं से बाहर जाकर समझते हैं और उनके कथानकों में सहज जीवन की प्रांजलता भी लोमहर्षक लालच की आग में झुलसती नज़र आती है। एक बार इस नज़र से रामनाथ शिवेंद्र को देखे जाने की जरूरत है।

मैं उनसे रोज ढहाए जा रहे अहरौरा के पहाड़ों और सीमेंट की गर्द में पटते जा रहे सोनभद्र के कस्बों में टीबी और अस्थमा के शिकार लोगों के बारे में पूछना चाहता था। औद्योगिक विकास के कारण बार-बार विस्थापित होते आदिवासियों और जंगल महकमे द्वारा अपने नैसर्गिक अधिकारों से वंचित किए जानेवाले आदिवासियों के बारे में जानना चाहता था कि एक कथाकार के रूप में वे इनपर क्या सोचते हैं? लेकिन वह कथाकार लगे ही नहीं। उनकी धज ऐसी किसानी की है कि लगता है इनसे सिंचाई की व्यवस्था और खाद के बारे में बात करना ही ठीक रहेगा। क्योंकि वह अलग से बहुत कुछ छोड़ते ही नहीं। शायद उनका कथाकार किसानी से इतर कुछ कहना ही नहीं चाहता। इसीलिए जब मैं बनारस से चल रहा था तो गाँव के लोग के संपादक रामजी यादव ने कहा कि ‘शिवेंद्र जी और सोनभद्र की जटिलता को कम मत आँकना। भले ही दोनों उदासीन और सहज दिखते हों लेकिन दोनों से पार पाना मुश्किल है।’

सोनभद्र में आज भी बहुतायत में दिखते हैं कच्चे घर।

शिवेंद्र जी उन तमाम प्रश्नों के उत्तर खोजते हुये जंगल में नंगे पाँव भटकते दिखते हैं जिन्होंने हाशिये के जीवन को प्रभावित किया है या फिर छला है। अपने उपन्यास तीसरा रास्ता में वह एनजीओ को इसी रूप में सामने लाते हैं जो बेहद शातिर तरीके से प्रगति के गीत गाता हुआ उत्थान के संघर्ष को पतन की राह पर मोड़ देता है। वह इस उपन्यास में एक जगह कहते हैं कि ‘आर्थिक उदरवाद तथा एनजीओ संस्कृति ने आंदोलनों के चरित्र की हत्या कर दी है। यह कहने का वह सिर्फ साहस ही नहीं करते बल्कि इसे अपने जीवन में उतारते भी हैं। जब सरकार से उन्हें उनके साहित्य सृजन में सहयोग के रूप में 70 हजार रूपये की पेशकश होती है तब वह उसे अस्वीकार कर बता देते हैं कि उन्होंने खुद को सोनभद्र के पत्थरों से तराशा है। इस तराश और शिल्प को किसी सरकारी सहायता की अधीनता का चोला नहीं पहनाना चाहते हैं।

वह अपने समाजवादी लबादे में जीवन की जनपक्षधरता पर कहीं से भी एक खरोंच तक नहीं लगने देना चाहते हैं और नहीं चाहते कि उनके सोनभद्र का रंग विकास के नए प्रतिमान के पहिये से कुचलकर पहले लहूलुहान और बाद में कत्थई होकर मिट्टी में दफन हो जाये। वह नहीं चाहते कि सोनभद्र के आदिवासी समाज की औरतें देह को दांव पर लगाकर भूख के खिलाफ रोटियां जीतने के यत्न में महज वस्तु बनकर रह जायें। वह नहीं चाहते कि एनजीओ के छलावे में समाज के मूल प्रश्न और उनके उत्तर तलाशने के आंदोलन उभरने से पहले खत्म हो जायें। रामनाथ शिवेंद्र संविधान की मूल भावना के अनुरूप सबके लिए हक और सम्मान तलाश रहे हैं।

डॉ अनिल मिश्र, रामनाथ शिवेंद्र को विद्रोही साहित्यकार बताते हैं और कहते हैं कि अव्यवस्था से विद्रोह की वजह से उन्होंने अपने प्रोफेशन तक को छोड़ दिया। उनका व्यक्तित्व आज के आम व्यक्तिव से बहुत अलग है। मुझे जब यह मालूम हुआ कि उनके साहित्य के प्रकाशन के लिए सरकार से 70हजार का अनुदान स्वीकृत हुआ था तब उनकी धर्मपत्नी ने कहा कि, ‘जब जीवन भर किसी का एक टका भी स्वीकार नहीं किया तब क्या इस उम्र में आकार अपना साहित्य छपवाने के लिए सरकार का पैसा स्वीकार करोगे’,  और  उन्होंने उस पैसे को सरकार को वापस कर दिया। यही वजह है कि मैं शिवेंद्र जी से बहुत प्रभावित हुआ और बतौर मनुष्य भी उनका कद बहुत बड़ा है।

अमरनाथ अजेय, रामनाथ शिवेंद्र को लेकर कहते हैं , मुझे इनके जीवन का संघर्ष और लेखन का विषय दोनों ही बहुत प्रभावित करता है। यह मुझे अपने उपन्यास हरियल की लकड़ी की तरह दिखता है। इनके समग्र साहित्य में आदिवासी जीवन की त्रासदी कई परतों में मौजूद है। इसीलिए मैंने इनके समग्र साहित्य पर समीक्षा लेखन किया जिस पर कल ही अप्रत्याशित शीर्षक से पुस्तक प्रकाशित हो चुकी है।

मैं रामनाथ शिवेंद्र से आदिवासी जीवन की त्रासदियाँ जानना चाहता हूँ और वह बताने के बजाय मुझे सोनभद्र को बहुत करीब से दिखाना चाहते हैं। वह कृतित्व में जिन आदर्शों को रचते हैं उन्हें अपने जीवन में भी उतना ही समाहित किए हुये दिखते हैं  जितना पन्नों पर वह दिखता है।  फिलहाल डॉ अर्जुनदास केसरी से एक अच्छी मुलाक़ात कर शिवेंद्र जी के घर पर वापस आ चुका हूँ। अमरनाथ अजेय तथा शायर और पत्रकार प्रभात सिंह चंदेल अब तक यात्रा में साथ थे। अब उन्हें अलविदा कहना है। मुनीर बख्श आलम के पुत्र खुर्शीद आलम अपने पुत्र राजा के साथ आ चुके हैं। उनके साथ निकलना है पर माता जी (शिवेंद्र जी की धर्मपत्नी) ने भोजन तैयार कर दिया है। इसलिए हम लोग भोजन करते हैं। शेष यात्रा में भी शिवेंद्र जी तो साथ रहेंगे पर अब माता जी से विदा लेनी है। अमूमन मैं किसी के पाँव नहीं छूता हूँ पर माता जी के वातसल्य के सामने सहज ही पाँव छूने के लिए हाथ बढ़ जाता है, पाँव छूता हूँ और अनंत आशीर्वाद लेकर शेष सफर के लिए आगे बढ़ता हूँ।

राजा अब हमारे अगले सारथी हैं और शिवेंद्र जी तथा खुर्शीद भाई सहचर हैं। अगला पड़ाव मरहूम मुनीर बख्श आलम की बेटी का घर है पर उनके घर पहुँचने तक की यात्रा में शिवेंद्र जी से बहुत सारी बात कर लेना चाहता हूँ। आगे की यात्रा में यह भी जानना है कि सोनभद्र के साहित्यकार उनके बारे में क्या राय रखते हैं। उनके साथ कुछ कदम और चलना है। सोनभद्र के ग्रामीण परिदृश्य की झलक देखनी है। जंगल के जीवन का राग और त्रासदी महसूस करनी है।फिलहाल वह सब कुछ इस शृंखला की पाँचवी  किस्त में, जिसे डाक्यूमेंटरी के तौर पर लाना है, में आपसे रूबरू कराऊंगा। तो शब्दों की यह यात्रा यहीं समाप्त करते हैं।

गाँव के लोग
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