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सोनभद्र : कनहर बाँध में डूबती हुई उम्मीदों का आख्यान – एक

कनहर सिंचाई परियोजना के विस्थापितों की हृदय विदारक सचाइयों को देखकर लगता है जैसे ये लोग पचास साल लंबे किसी ऑपेरा के पात्र हैं जो करुणा, विषाद, हास्य, उम्मीद और हताशा के बीच जीने के अभिशाप को चित्रित कर रहे हैं और अभी आगे यह कितना लंबा खिंचेगा इसका कोई संकेत नहीं है।

सोनभद्र। ‘बिपत के लड़के राजेंद्र से आपको मिलना चाहिए।’ यह कहते हुये हमारे साथ अमवार गए भाई महेशानन्द ने रामविचार गुप्ता से पूछा – ‘आजकल वह कहाँ रहता है रामविचार?’ गुप्ता जी ने बताया कि ‘वह तो छत्तीसगढ़ में चला गया है। यहाँ तो अब वह क्या करेगा। दौड़ते-दौड़ते पस्त हो चुका है। अब मेहनत मजदूरी करके जी रहा है।’

राजेंद्र दुद्धी तहसील के भीसुर गाँव के निवासी हैं लेकिन उनका जीवन और भविष्य विकास की वेदी पर चढ़ गया है। राजेंद्र का घर और खेत कनहर सिंचाई परियोजना के डूब क्षेत्र में जा चुका है। इसका उन्हें कोई मुआवज़ा अथवा पुनर्वास पैकेज नहीं मिला है और अब वह दर-दर भटक रहे हैं। फिलहाल वह अपने गाँव में नहीं हैं। उनके बड़े पिता द्वारिका प्रसाद यादव, जो अमवार पुनर्वास कॉलोनी में रहते हैं और गंभीरा प्रसाद के बुलावे पर आए थे, ने बताया कि राजेंद्र की रिश्तेदारी में किसी की मृत्यु हो गई है जिनकी अन्त्येष्टि के सिलसिले में वह छत्तीसगढ़ गए हुये हैं। उन्होंने बताया कि राजेंद्र का नाम विस्थापितों की सूची में नहीं है इसलिए उन्हें कोई पुनर्वास पैकेज नहीं मिला।

लेकिन राजेंद्र के पिता बिपत का नाम सूची में था। उनकी मृत्यु के बाद उनकी पत्नी का नाम जुड़ा परंतु उनकी भी मृत्यु हो गई। इसके बाद राजेंद्र का नाम उनके आश्रित की सूची में नहीं था और अपना नाम जुड़वाने के लिए वह अफसरों के यहाँ दौड़ते रहे। उन्हें केवल आश्वासन मिला लेकिन नाम नहीं जुड़ा।

द्वारिका प्रसाद ने कहा कि राजेंद्र की माँ के मरने के बाद हम लोगों ने उनकी लाश को सड़क पर रखकर प्रदर्शन किया तब सिंचाई विभाग के अधिकारियों ने उनकी अन्त्येष्टि आदि के लिए पचास हज़ार रुपए दिये थे। लेकिन राजेंद्र का नाम सूची में दर्ज़ करने में उन्होंने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। वह बार-बार अपनी दरख्वास्त लगाते और हर बार उन्हें कहा जाता कि हो जाएगा और नहीं हुआ। हारकर वह बैठ गए। अब मेहनत-मजदूरी करके अपने बच्चों को पाल रहे हैं।

इसी तरह सुंदरी गाँव की कुरेशा खातून को भी कोई पुनर्वास पैकेज नहीं मिला। वह विधवा हैं और उनके ऊपर तीन बच्चों को पालने की ज़िम्मेदारी है। वह विकलांग हैं और आँखों में किसी दिक्कत की वजह से उनके बड़े बेटे को ठीक से नहीं दिखता है। वह पुनर्वास कॉलोनी के उत्तरी छोर पर ईंट और खपरैल से बने दो कमरे के मकान में रहती हैं। यह घर ग्राम प्रधान द्वारा दी गई ज़मीन पर बना है जिसे बनाने में गाँव के कई लोगों ने सहयोग किया था। उन्होंने बताया कि बरसात के दिनों में यह घर चूता है।

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कुरेशा खातून,सुंदरी गाँव की कुरेशा खातून को भी कोई पुनर्वास पैकेज नहीं मिला, वे विधवा और विकलांग  हैं

कुरेशा खातून ने बताया कि उनके छोटे ससुर के सभी बेटों को पैकेज मिला लेकिन उनके पति को कोई पैकेज नहीं मिला। तय यह हुआ था कि तीन पीढ़ियों को पैकेज मिलेगा लेकिन न तो मेरे पति को मिला न ही मेरे बच्चों को। अब बताइये कि मैं कैसे घर चलाऊँ? एक बच्चा जो काम करने लायक है उसकी आँख से कम दिखता है और दो बच्चे छोटे हैं। लेकिन जब से यहाँ उजड़कर आए हैं तब से काम मिलता ही नहीं। पहले खेती थी तो खेती करते थे और खाने के लिए अनाज और सब्जियाँ उगा लेते थे। अब तो कुछ भी नहीं है।’

हमने दो दिनों तक कनहर सिंचाई परियोजना पुनर्वास कॉलोनी तथा भीसुर, कोरची और सुंदरी गाँव के विस्थापितों से बातचीत की और लगभग हर कहीं यह शिकायत मिली कि चार भाइयों में से दो भाइयों को पैकेज मिला और दो लोगों को नहीं मिला। कहीं तीन में से एक को, कहीं पिता को मिला और पुत्र यह साबित करने के लिए दौड़ धूप कर रहे हैं कि वे उन्हीं के बेटे हैं। यहाँ तक कि कइयों का नाम भी विस्थापितों की सूची में नहीं है और वे दुद्धी तहसील से लेकर राबर्ट्सगंज तक के चक्कर लगा रहे हैं।

अमवार में कनहर सिंचाई परियोजना के लिए बाँध लगभग पूरा हो चुका है। अब वहाँ लोग यह देखने जाते हैं कि बांध कितना सुंदर और ऊँचा है। एक पिकनिक स्पॉट के रूप में उसकी ख्याति फैल रही है। अमवार बाज़ार से बांध की ओर जाने पर दक्षिण भारतीय शैली में बना मंदिर नए रंग-रोगन से ध्यान खींचता है और वहाँ अब दो पुजारी रहने लगे हैं। भविष्य में इस जगह का धार्मिक महत्व बढ़ जानेवाला है।

अमवार से सुंदरी जानेवाला पुराना रास्ता अब केवल एक मेड़ भर रह गया है और उसपर से होकर कुछ महिलाएँ जाती हुई दिख गईं क्योंकि अभी बाँध में पानी नहीं है। यहाँ पांगन और कनहर नदियों का संगम है और तीन गाँवों सुंदरी, भीसुर और कोरची का संधि स्थल भी, लेकिन अब दृश्य ही नहीं रास्ता भी बदल चुका है। एक किलोमीटर दूर के गाँव तक पहुँचने के लिए बीस किलोमीटर का ऊबड़-खाबड़ और जंगली रास्ता पार करना पड़ता है।

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भीसुर गाँव के निवासी विस्थापन के बाद

डूब गाँव में छोड़े गए घरों के दर्दनाक मंजर

बेशक यह एक अप्रतिम दृश्य से भरी रोमांचक यात्रा हो लेकिन भीसुर से आगे बढ़ते ही खाली और टूटे हुये घरों को देखना बहुत दर्दनाक अनुभव था। कुछ घरों पर अभी भी खपरैल है और कुछेक में लोग रहते भी हैं लेकिन अधिकांश अब परित्यक्त हैं। उनकी छतें उजड़ी हुई थीं और सारा मंज़र बेहद उदासी और हूक भरा था। फिलहाल इन्हें किसी साहित्य या वृत्तान्त में इसे दर्ज़ नहीं किया गया था क्योंकि ये एक अत्यंत पिछड़े ज़िले के बेहद साधारण लोगों के घर थे जिनसे उन्हें एक-एक कर खदेड़ा दिया गया। जब बांध में पानी भरने लगेगा तब ये डूब जाएंगे लेकिन इन घरों के आस-पास के पेड़ और झाड़ियाँ इस बात से बेपरवाह थीं कि 39 मीटर ऊंचे बाँध का पानी उन्हें हमेशा के लिए खत्म कर देगा।

ये ऐसे घर थे जिनके कई दशकों का अपना इतिहास है और अब जबकि इनमें रहनेवाले लोग यहाँ से विस्थापित कर दिये गए हैं तब भी ये अपने इतिहास का एक चरण पूरा कर रहे हैं और जब डूब जाएंगे तब भी इनका इतिहास विकसित होता रहेगा। इस प्रकार इतिहास अनेक स्थितियों के साथ रूपांतरित होता हुआ हमेशा वर्तमान में मौजूद रहता है।

इन वीरानियों जैसे हालात को देखकर ही महाकवि गालिब ने कहा होगा कि ‘कोई वीरानी सी वीरानी है/दश्त को देखके घर याद आया’। यहाँ भी दश्त में घर और घर में वीरानी है। लेकिन जब ये बने होंगे तो क्या उत्साह और खुशी फैली रही होगी। कल ही जब हम पुनर्वास कॉलोनी में गए तो एक परिवार मिट्टी का घर बना रहा था। अब मिट्टी के घर हमारे जैसे लोगों के लिए अतीत की बात हो गए हैं। आमतौर पर ईंट के घर अब गाँव-गाँव में बन रहे हैं। स्वयं पुनर्वास कॉलोनी में भी ज़्यादातर घर ईंट के बनने लगे हैं, लेकिन मिट्टी का घर बनाते हुये यह परिवार बहुत खुश लग रहा था। यहाँ तक कि इस घर के दो सबसे छोटे सदस्य अपनी खुशमिजाज़ किलकारियों से अपने माँ-बाप के साथ पूरे वातावरण में खुशी से भर रहे थे।

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कनहर परियोजना में आया सुंदरी गाँव ग्रामीणों के विस्थापन के बाद वीरानी की दास्तान कह रहा है

इन छोड़ दिये गए घरों में न जाने कितने लोगों का जन्म हुआ होगा। न जाने कितनी शादियाँ हुई होंगी और दुल्हने आई होंगी। न जाने कितने लोगों ने अपनी अंतिम यात्रा यहीं से की होगी और उनके पार्थिव शरीर को पांगन और कनहर के किनारे आग और मिट्टी के हवाले किया गया होगा। आँकड़े के अनुसार सोनभद्र के डूब क्षेत्र के ग्यारह गाँवों में कम से कम छह हज़ार घर थे जिन्हें खाली कराया गया है।

समूचा दृश्य मीलों तक फैला हुआ है। कुछ घरों की खपरैलें अभी उतारी नहीं गई हैं लेकिन कोई भी अब वहाँ नहीं रहता। हो सकता है बाद में उतारकर ले जाएँ। प्रकृति गरीबी को पीछे धकेल देती। यहाँ भी ऐसा लगता है लेकिन यह ऊपरी दृश्य है। एक-एक चीज की कीमत है और वह बहुत मेहनत से जुटती है। सबसे बड़ी समस्या पानी की है जो दूर से लाना पड़ता है। भीसुर गाँव के वे लोग जिन्हें विस्थापन पैकेज मिल चुका है अब पुनर्वास कॉलोनी में नए घर की व्यवस्था में लगे हैं। लेकिन जिन लोगों को नहीं मिला है, वे कहाँ जाएँ?

भीसुर गाँव के पहाड़ पर बसे लोग

भीसुर गाँव की प्राइमरी पाठशाला सड़क से दिखती है लेकिन अब वह बंद हो चुकी है। पाठशाला से कुछ दूर पहाड़ पर दस-बारह घरों की एक छोटी सी बस्ती है। यहाँ रहनेवालों ने कोई विकल्प न होने के कारण यह जगह चुनी और अपने झोपड़े बनाए। यहाँ रहने वालों का कहना है कि घर तो बुलडोजर से गिरवा दिया और कोई ठिकाना नहीं दिया तो फिर हम कहाँ जाएँ? इस गाँव की शकुंतला कहती हैं कि ‘घर ढहा दिया लेकिन मुआवज़ा नहीं दिया। हम कहाँ जाएंगे?’ वह विकलांग हैं और कमाई का कोई साधन नहीं है। अभी फिलहाल जहाँ उनकी  झोपड़ी है उसके ठीक पीछे घाटी है और यहाँ से बाँध साफ-साफ दिखता है। जब बाँध में पानी इकट्ठा होगा तब घाटी भर जाएगी और इस ऊंचाई के भी डूबने का खतरा बढ़ जाएगा लेकिन शकुंतला पूछती हैं कि ‘मैं कहाँ जाऊँगी। किसके घर या खेत में रहूँगी? मुझे न पुनर्वास पैकेज मिला न कॉलोनी मिली। सब जगह दौड़-दौड़ कर थक चुकी हूँ। अब मैं किस रास्ते जाऊँ?’

वह बताती हैं कि ‘मेरा नाम सूची में है’, लेकिन वहाँ मौजूद कोरची गाँव के फिरोज़ कहते हैं कि ‘अभी नाम है नहीं बल्कि जोड़ने का प्रस्ताव गया है।’ शकुंतला अपने को सही करते हुये कहती हैं कि ‘पता नहीं क्या हो रहा है क्या नहीं क्योंकि हम तो लिखे-पढ़े नहीं हैं।’ शकुंतला को उनकी सास के पिता की ज़मीन का अधिकार है। दुर्भाग्य यह है कि अब परिवार के ज़्यादातर लोग मर चुके हैं। उनके पति बेलदारी करते हैं। यह पूछने पर कि अगर यह जगह डूब जाएगी और पैकेज भी नहीं मिलेगा तो क्या करेंगी? वह निराशा से कहती हैं –‘क्या करूंगी। भटभटा कर मर जाऊँगी और क्या करूंगी। हाथ में कौड़ी नहीं है। गाड़ी का भाड़ा भी नहीं है कि कोर्ट-कचहरी जा सकूँ। पेट तक चलाना मुहाल है। चार-चार बच्चे हैं उनको खिलाना भी मुश्किल हो गया है।’

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कनहर बांध बन जाने के बाद शकुंतला को न जमीन मिली न ही मुआवजा, कुछ मिल जाए इस आस में दौड़ लगाती थक गई है

शकुंतला की तरह उनके पड़ोसी बिगन पुत्र जोखू भी निराश हो चुके हैं। कनहर सिंचाई परियोजना के अधिकारियों ने उनका पैतृक घर तोड़ दिया लेकिन उसके बदले उन्हें कोई विस्थापन पैकेज, प्लॉट या मुआवज़ा नहीं मिला। अधिकारियों द्वारा जबरन भगाये जाने के बावजूद वे कुछ दिनों तक वहीं रहे लेकिन अधिकारियों का बहुत ज्यादा दबाव बढ़ने लगा तो हटना पड़ा। यहाँ पहाड़ पर आ गए लेकिन यहाँ पानी का कोई बंदोबस्त नहीं है। दूर से पानी लाते हैं। केवल लकड़ियाँ मिल जाती हैं। किसी चीज का कोई ठिकाना नहीं है। वह बताते हैं कि ‘एसडीएम और डीएम के यहाँ चक्कर लगाने के बावजूद अभी तक कुछ नहीं हुआ।’

बिगन कहते हैं कि अधिकारियों का चक्कर काटने पर आश्वासन मिलता है लेकिन कई साल बीतने पर भी कुछ हासिल नहीं हुआ। लेखपाल के यहाँ जाते हैं तो वह कहता है कि पहले से जितने लोगों का सूची में नाम है उन लोगों का हो जाएगा तब तुम्हारा भी होगा। यह कब होगा इसके बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता। वह बताते हैं कि हम लोग प्रारूप छः में हैं जिसके बारे में अधिकारियों का कहना है कि घबराओ मत जब समय आएगा तो जोड़ा जाएगा।

बिगन बताते हैं कि ‘समस्या यह है कि जब प्रारूप छः में शामिल बहुत से लोगों को पैकेज मिला लेकिन मेरी फाइल छांट दी गई। उसमें कमी यह थी कि मेरे पिता का नाम तो सही था लेकिन उनके पिता के नाम की जगह उनके दादा का नाम लिखा गया था।’

बिगन पूछते हैं ‘यह तो किसी अधिकारी ने ही किया होगा न। तो उसको सही करने का काम भी उसी का है लेकिन उसकी सज़ा मुझे क्यों मिल रही है। मैं तो पढ़ा-लिखा हूँ नहीं कि गलत कर दिया है। अधिकारियों ने गलत किया है तो उसकी छानबीन करके उनको ठीक करना चाहिए। सबके पास घर है। मेरा खेत मकान सब डूब में चला गया और बदले में मिला कुछ नहीं। बोलिए मैं कहाँ जाऊँ? क्या करूँ? कैसे जीवन चलेगा?’

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विस्थापन के बाद कहीं ठौर न मिलने पर पास की पहाड़ी पर रहने को मजबूर, जहां पानी भी दूर से लाना होता है

सिंचाई परियोजना से जुड़े एक अधिकारी ने इस संबंध में पूछने पर बताया कि ‘बहुत से लोगों को अभी कुछ नहीं मिला। उसका एक कारण यह कि कई बार सर्वे हुये और उनमें कई विरोधी बातें दर्ज़ की गई थी। इसलिए उनका मिलान और सही आकलन एक जटिल समस्या है लेकिन उसमें सुधार का काम हो रहा है। लेकिन आप जानते हैं कि सरकारी काम में देर तो होती ही होती है।’

सुंदरी गाँव के एक सज्जन कहते हैं कि ‘बांध तो बन गया। जिन लोगों को पैकेज मिला वे अब नए सिरे से बसने में लगे हैं। इसलिए अब किसी आंदोलन की गुंजाइश नहीं है। वैसे बुलाने पर सौ-पचास लोग जुट जाते हैं लेकिन अब वे हताश हैं। जिन लोगों को कुछ नहीं मिला अब न उनकी ओर से कोई बोलनेवाला है और न ही उनकी अपनी कोई आवाज ही है।’

कनहर सिंचाई परियोजना के विस्थापितों की हृदय विदारक सचाइयों को देखकर लगता है जैसे ये लोग पचास साल लंबे किसी ऑपेरा के पात्र हैं जो करुणा, विषाद, हास्य, उम्मीद और हताशा के बीच जीने के अभिशाप को चित्रित कर रहे हैं और अभी आगे यह कितना लंबा खिंचेगा इसका कोई संकेत नहीं है।

डूब क्षेत्र में आने वाले गांवों से, बांध के विरोध ने अनेक नायकों को जन्म दिया 

यहाँ एक-एक गाँव और एक-एक व्यक्ति की एक स्वतंत्र कहानी है। कुछ भी ऐसा नहीं है जिसे एक साथ निपटाया जा सकता है। हर चीज के कई-कई सिरे हैं। 1976 में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी द्वारा रखे गए पहले पत्थर से लेकर अभी बनकर तैयार हुये बांध तक सपनों, उम्मीदों और निराशाओं के साथ विश्वासघात, अवसरवाद और नृशंस दमन की सैकड़ों कहानियाँ यहाँ बिखरी हुई हैं और सबको समेटना जरूरी है। इसमें दर्जनों नायक-नायिकाएँ और प्रतिनायक-खलनायक हैं। राष्ट्रीय हरित अधिकरण से लेकर राजस्व विभाग, सिंचाई विभाग, जिला प्रशासन, तहसील आदि सभी की कई-कई भूमिकाएँ हैं। अनेक स्तरों पर चले अभियानों-संघर्षों आदि का हासिल अभी आँका नहीं जा सकता लेकिन अपने जीवन और भविष्य की गारंटी चाहने वाली जनता कितनी बुरी तरह कुचली जाती है इसका एक बड़ा उदाहरण कनहर सिंचाई परियोजना है।

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अकलू चेरो, जिन्हें 2015 को अमवार में अंबेडकर जयंती पर एक जनजुटान में सीने पर गोली मारी गई। अब वे कनहर सिंचाई परियोजना के मुलाज़िम हैं

इस शुरुआती हिस्से को पूरा करते हुये मैं कनहर आंदोलन के तीन चरित्रों का उल्लेख करना चाहूँगा। हमारे बुलाने पर बिश्वनाथ खरवार के घर पर अकलू चेरो आए। 14 अप्रेल 2015 को अमवार में अंबेडकर जयंती पर एक जनजुटान था जिसको भगाने के लिए पुलिस ने लाठीचार्ज किया और गोलियाँ चलाईं। एक गोली अकलू चेरो की छाती में लगकर आर-पार हो गई।

अकलू चेरो और उनके एक बेटे को कनहर सिंचाई परियोजना में नौकरी मिल गई। अब वे महंगे कपड़े पहनते हैं और बाइक से चलते हैं। मिलने पर उन्होंने बांध और विस्थापितों पर कोई भी बात करने से इंकार कर दिया लेकिन 2015 की घटना पर बहुत विस्तार से बोले।

विश्वनाथ खरवार भी कनहर आंदोलन के महत्वपूर्ण लोगों में थे। अब वे अस्सी साल के हो रहे हैं। मुआवज़े और विस्थापन पैकेज को लेकर उनका मामला भी पूरी तरह हल नहीं हो पाया है इसलिए उन्होंने गाँव नहीं छोड़ा है। 2024 की बरसात में जब बांध में पानी जमा होगा और नदी में बाढ़ आएगी तब क्या होगा? इस पर वह कुछ नहीं कहते। उन्होंने बताया कि ‘मोदी जी का राशन मिल रहा है। पेंशन नहीं मिल रही। अखिलेश जी ने विस्थापन पैकेज दिया था।’

वह हाथ जोड़कर कहते हैं ‘ओगी जी से कहूँगा कि वे न्याय करें। उनसे हमको बहुत उम्मीद है।’

कनहर आंदोलन की एक महत्वपूर्ण नेता सुकालो रही हैं। उनका मायका सुंदरी गाँव में है और उनकी ससुराल दुद्धी-रेणुकूट मार्ग पर मझौली में है। सुकालो बताती हैं कि अभी भी वे वनाधिकार आंदोलन में शामिल हैं और जब भी कनहर के विस्थापितों की लड़ाई चलेगी मैं उसमें शामिल होऊँगी।’

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कनहर आंदोलन की एक महत्वपूर्ण नेता सुकालो

ताज़ातरीन घटनाओं के बारे में बताते हुये उन्होंने कहा कि ‘पिछले दिनों म्योरपुर में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ आए थे। उन्होंने जनता की समस्याएँ सुनने का वादा किया था और बहुत से लोगों को बुलाया गया था। मैं भी गई थी लेकिन मुझे मिलने नहीं दिया गया बल्कि जब तक म्योरपुर में योगी जी रहे तब तक मुझे एक कमरे में बंद रखा गया। बताइये मेरे पास कौन सा हथियार था कि मैं उनपर हमला कर देती?’

सुकालो के घर तक पहुँचने के लिए सड़क से उतरकर एक मेड़ से छः-सात सौ मीटर जाना पड़ता है। पहुँचते ही उनकी नहीं पौत्री ने हुलसकर स्वागत किया। नाम पूछने पर उसकी बड़ी बहन ने कहा –सावित्रीबाई फुले।

(हर हफ्ते कनहर से एक कहानी दी जाएगी।)

रामजी यादव
रामजी यादव
लेखक कथाकार, चिंतक, विचारक और गाँव के लोग के संपादक हैं।

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