बातचीत में माओ नाम के एक व्यक्ति ने अपने स्मृतियों को विस्तार से साझा किया। उन्होंने कहा कि नदी हम लोगों के लिए प्राणदायिनी थी। इसके बिना हमारे जीवन का कोई अस्तित्व न था। आज से 25 बरस पहले हम लोग न सिर्फ इसमें नहाते थे बल्कि कहीं से थके-हारे हुए आते थे तो इसमें का पानी भी पी लेते थे। हमारे दादा-परदादा का जीवन-बसर नदी के सहारे हुआ। किंतु आज यह पानी जानवर भी नहीं पीते, नदी के ऐसी हालत देखकर हम लोग बहुत दुखी हैं।
बीसवीं शताब्दी के अंतिम चार दशक बिरहा गायन के स्वर्णकाल के रूप में जाने-जाते हैं जब बनारस और आसपास के जिलों में अनेक उद्भट बिरहिए सक्रिय थे। हीरालाल, बुल्लू यादव, रामदेव, पारस, रामकैलाश, हैदर अली जुगनू के अलावा सैकड़ों गायक इस लोकविधा को ऊंचाई दे रहे थे लेकिन ठीक इसी समय बनारस के एक गाँव से निकलनेवाले नसुड़ी यादव इन सबसे अलग और अद्भुत थे। वे बिरहा में कबीर बनकर उतरे थे और आजीवन अपने तेवर को बनाए रखा। पढ़िये विलक्षण बिरहा गायक नसुड़ी के जीवन-संघर्ष और सामाजिक योगदान के बारे में।