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 टैरिफ युद्ध : क्या हम तीसरे विश्व युद्ध की ओर बढ़ रहे हैं?

डोनाल्ड ट्रंप ने 2 अप्रैल को अमेरिका की मुक्ति का दिन घोषित किया है। इसी दिन ट्रंप ने पूरी दुनिया के खिलाफ टैरिफ युद्ध छेड़ा है,जो अब तक के बनाए तमाम पूंजीवादी नियमों और बंधनों को तोड़कर केवल अमेरिकी प्रभुत्व और नियंत्रण की इच्छा से संचालित होता है। यह प्रभुत्व और नियंत्रण की इच्छा न्याय की किसी भी भावना और अवधारणा को कुचलकर आगे बढ़ना चाहती है।

ट्रंप के सत्ता में आने के बाद विश्व टैरिफ युद्ध शुरू हो चुका है। इस टैरिफ युद्ध ने भारत सहित दुनिया भर के शेयर बाजारों को हिलाकर रख दिया है। खुद अमेरिका इससे अछूता नहीं है। मंदी और बेरोजगारी पसर रही है और ट्रंप की सनक के खिलाफ बड़े-बड़े प्रदर्शन शुरू हो चुके हैं। ट्रंप ने वैश्विक वित्तीय बाजारों में भारी उथल-पुथल को दवा का असर करार दिया है और अमेरिकी जनता को आश्वासन देने की कोशिश की है कि सब कुछ ठीक हो जाएगा।

यह व्यापार युद्ध क्या रंग लाएगा, यह तो समय बतायेगा, लेकिन अमेरिका सहित कोई भी देश अपनी विकास दर को बनाए रखने की स्थिति में नहीं है। इसका अर्थ है कि वैश्विक विकास दर गिरेगी, महंगाई, बेरोजगारी और गरीबी — जो आज मानवता की मूल समस्या है, बढ़ेगी। पूंजीवाद का चरित्र यही होता है कि वह मानवता को संकट में डालकर मुनाफा बटोरता है। साम्राज्यवाद, जो पूंजीवाद का चरम रूप है, आज अपने सबसे नंगे और वीभत्स रूप में सामने खड़ा है।

ट्रंप का विश्व टैरिफ युद्ध दुनिया के बाजारों का फिर से बंटवारा करने का युद्ध है। बाजारों को बांटने के लिए पूंजीवाद इसके पहले दो विश्व युद्धों को जन्म दे चुका है। हिटलर ने बाजारों के बंटवारे और अपने पूंजीपतियों के मुनाफे के लिए द्वितीय विश्व युद्ध छेड़ा था। बाजार का बंटवारा हुआ, एक-तिहाई दुनिया पूंजीवाद के शिकंजे से मुक्त हो गई और हिटलर का भी पतन हो गया। आज ट्रंप हिटलर की उसी भूमिका में सामने आ रहे हैं। शायद इतिहास अपने आपको फिर से दुहरा दें और हिटलर की तरह ही ट्रंप का भी पतन हो जाए। मानव सभ्यता हमेशा आगे बढ़ना चाहती है, पीछे नहीं और जो इसे पीछे ले जाने की कोशिश करता है, देर-सबेर इतिहास ने उसकी नियति तय कर रखी है। मोदी और ट्रंप की इतिहास-गति शायद एक ही हो!

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डोनाल्ड ट्रंप ने 2 अप्रैल को अमेरिका की मुक्ति का दिन घोषित किया है। इसी दिन ट्रंप ने पूरी दुनिया के खिलाफ टैरिफ युद्ध छेड़ा है। ट्रंप अकेले ही विश्व विजेता बनने के लिए निकल पड़े हैं, हिटलर की तरह किसी सहयोगी की उन्हें जरूरत नहीं है। चीन ने ट्रंप के इस कदम का करारा जवाब दिया है अमेरिकी उत्पादों के आयतों पर 34% कर लगाकर। इस युद्ध के पांचवें दिन ट्रंप ने कहा है कि जब तक चीन, यूरोपीय संघ और अन्य देशों के साथ अमेरिका का व्यापार घाटा समाप्त नहीं हो जाता, तब तक वह टैरिफ वापस नहीं लेंगे। ट्रंप के अनुसार, इसका अर्थ है कि अमेरिका के व्यापार घाटे के लिए पूरी दुनिया जिम्मेदार है और इसलिए व्यापार घाटे से अमेरिका को उबारने के लिए पूरी दुनिया को अमेरिका के लिए अपना बाजार खोलना होगा, भले ही उनको अमेरिकी उत्पादों की जरूरत हो या न हो, भले ही उनके देश के किसानों, मजदूरों और कृषि व उद्योगों का दिवाला निकल जाएं। इस प्रकार यह टैरिफ युद्ध अब तक अमेरिका के साथ खड़े दूसरे पूंजीवादी देशों के खिलाफ भी है। यह उन पूंजीवादी बुनियादी आधारभूत मूल्यों के भी खिलाफ है, जिसे विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व व्यापार संगठन के जरिए वैश्वीकरण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए तय किया गया था।

वस्तुतः 2 अप्रैल को ट्रंप ने एक ऐसी पाशविक भावना को मुक्त किया है, जो अब तक के बनाए तमाम पूंजीवादी नियमों और बंधनों को तोड़कर केवल अमेरिकी प्रभुत्व और नियंत्रण की इच्छा से संचालित होता है। यह प्रभुत्व और नियंत्रण की इच्छा न्याय की किसी भी भावना और अवधारणा को कुचलकर आगे बढ़ना चाहती है। वह सहयोग की हर संभावना को नकारती है और टकराव के हर रूप को बढ़ावा देती है। इस अर्थ में ट्रंप के साम्राज्यवाद के हिटलर के फासीवाद में बदलने की पूरी संभावना मौजूद है। इस व्यापार युद्ध के सैन्य युद्ध में बदलने के खतरे छिपे हुए हैं, क्योंकि ट्रंप का टैरिफ वार विशुद्ध रूप से अमेरिका की सैन्य शक्ति पर ही टिका है।

यह व्यापार युद्ध दुनिया की वैचारिकी में अमेरिकी दादागिरी को स्थापित करने, उसे मान्यता देने का भी युद्ध है। इसीलिए दुनिया को यह कहना पड़ेगा कि अमेरिका के व्यापार घाटे को पूरा करने, उसे खत्म करने का ठेका उन्होंने ले नहीं रखा है। ट्रंप का संरक्षणवाद दुनिया की अर्थव्यवस्था की तबाही की कीमत पर नहीं चल सकता।

ट्रंप के खिलाफ अमेरिका की जनता खड़ी हो रही है। अमेरिका की जनता के साथ भारत और पूरी दुनिया की मेहनतकश जनता को खड़े होना आज वक्त की सबसे बड़ी जरूरत है, क्योंकि दुनिया को बचाने की जिम्मेदारी ट्रंप की नहीं, केवल और केवल विश्व-जनगण की है। इस महती काम में मोदी सरकार की या दक्षिणपंथी सरकारों और ताकतों से किसी भी प्रकार के मदद की आशा नहीं की जानी चाहिए, क्योंकि वे तो ट्रंप की स्वाभाविक सहयोगी ही हैं।

संजय पराते
संजय पराते
लेखक वामपंथी कार्यकर्ता और छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं।

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