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वाचाती मामले पर आया फैसला आदिवासियों के संघर्ष की मिसाल है

तीन दशक पहले राज्य सत्ता का दमन झेलने वाले तमिलनाडु के एक आदिवासी समुदाय ने अभी एक ऐसी लड़ाई जीती है जो लोकतांत्रिक प्रक्रिया और न्याय प्रणाली में भरोसा मजबूत करती है। बीते 29 सितंबर को मद्रास हाईकोर्ट से मिली यह जीत भारतीय न्याय प्रणाली में आमूल-चूल बदलाव का संकेत देती है। यह पहला मौका […]

तीन दशक पहले राज्य सत्ता का दमन झेलने वाले तमिलनाडु के एक आदिवासी समुदाय ने अभी एक ऐसी लड़ाई जीती है जो लोकतांत्रिक प्रक्रिया और न्याय प्रणाली में भरोसा मजबूत करती है। बीते 29 सितंबर को मद्रास हाईकोर्ट से मिली यह जीत भारतीय न्याय प्रणाली में आमूल-चूल बदलाव का संकेत देती है। यह पहला मौका है जब 655 आदिवासियों के एक समुदाय ने राज्य की सामूहिक शक्ति को पराजित किया।

वाचाती गाँव पूर्वी घाट में चितेरी की सुरम्य तलहटी में बसा है। चितेरी की पहाड़ियां चंदन के पेड़ों के लिए मशहूर हैं। यहां पीढ़ियों से रहने वाले आदिवासियों को सत्ता की क्रूरता का सामना करना पड़ा था। गौरतलब है कि  आदिवासी बहुल वाचाती गांव के लोगों पर 20 जून, 1992 को पुलिस, वन और राजस्व विभाग के 269 अधिकारियों ने धावा बोला और ग्रामीणों पर अवैध रूप से काटी गयी चंदन की लकड़ी का जखीरा जमा करने और तस्करी में मदद करने का आरोप लगाया।

अगले तीन दिनों तक, गांव की महिलाओं, बुजुर्गों और बच्चों को बुरी तरह पीटा गया।  उनके घरों को आग लगाकर तहस-नहस किया गया जिसके कारण अनेक मवेशी खूँटे से बंधे-बंधे मर गए। यहाँ तक कि उन मरे हुये मवेशियों को गाँव में मौजूद कुओं में फेंक दिया गया। यह सब इसलिए किया गया ताकि गाँववाले कबूल कर सकें कि वे चन्दन तस्कर वीरप्पन के सहयोगी हैं। उन दिनों तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता थीं।

20 जून को रात में वन विभाग और पुलिस के कर्मचारी गाँव में आए और उन्होंने उसे चारों तरफ से घेर लिया। फिर उन लोगों ने गाँव में मौजूद स्त्री पुरुषों और बच्चों को बुरी तरह मारना-पीटना शुरू किया। उनके घर में मौजूद सामानों को तहस-नहस कर दिया। उनके घरों को ढहा दिया। उन लोगों ने एक लड़की समेत 18 महिलाओं के साथ बलात्कार किया।

यह घटना गाँववालों को अच्छी तरह सबक सिखाने के लिए अंजाम दी गई थी क्योंकि इससे पहले भी पुलिस और वन विभाग के कर्मचारी कई बार गाँव में आ चुके थे। गौरतलब है कि 1990 के दशक में तमिलनाडु सरकार चंदन तस्कर वीरप्पन को पकड़ने के लिए चितेरी पहाड़ियों से सटे गांवों और सत्यमंगलम के जंगलों में लगातार कई अभियान चला रही थी। इन अभियानों का उद्देश्य ग्रामीणों से कड़ी पूछताछ करके इस बात का सुराग निकालना होता। पुलिस और वन विभाग के कर्मचारी मानते थे कि गाँव वाले वीरप्पन और उसके आदमियों को शरण देते हैं।

इन अभियानों में प्रायः कुछ लोगों को पकड़ लिया जाता और उन्हें कई तरह की यातनाएं भी दी जाती थीं। उनको मरणासन्न हो जाने तक पीटा जाता और जबरन यह उगलवाने की कोशिश की जाती कि वे वीरप्पन के बारे में जानते हैं। यह एक ऐसी शंका थी जिसकी आड़ में सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों का अत्याचार आसानी से छिप जाता था। दूसरी ओर गरीब आदिवासियों के बचाव की कोई स्थिति नहीं थी।

20 जून 1992 को भी गांव पर इसी अभियान के तहत छापा मारा गया। पुलिस और वन विभाग के अधिकारी गांव में घुसकर लोगों से चंदन तस्करी के बारे में पूछताछ करने लगे। गाँव वाले जितना इन्कार करते उनके ऊपर बर्बरता उतनी ही बढ़ती जाती। जबकि इस मामले में गांववाले खुद को बेक़सूर बता रहे थे।

बताया जाता है कि झगड़ा इतना बढ़ा कि स्थिति गंभीर होने लगी। जल्दी ही वहां सैकड़ों पुलिसकर्मी, वन विभाग के अफ़सर और रेवेन्यू अफ़सर पहुंच गए। गांववालों के घरों को तोड़-फोड़ दिया गया और 18 महिलाओं के साथ (जिसमें बच्चियां भी शामिल थीं) बलात्कार किया गया।

बलात्कार की शिकार बच्चियों ने इस घटना की वजह से स्कूल छोड़ दिया। अनेक प्रकाशित रिपोर्टों में उस दिन की लोमहर्षक घटना को प्रकाशित किया गया। एक लड़की ने बताया कि उसे तालाब के नज़दीक ले जाया गया। वहां से उसे रात को अफ़सर पुलिस थाने ले गए। उसे रात भर सोने नहीं दिया गया।  जब उसने उनसे दया की भीख मांगी और कहा कि मैं स्कूल में पढ़ती हूं, कम से कम मेरी उम्र पर रहम करिए तो उनमें से एक रेंजर ने उसे गाली दी और कहा कि स्कूल में पढ़ कर क्या करोगी।’

इसी तरह गर्भवती महिलाओं को भी नहीं बख्शा गया। उन्हें पीटा गया और सामूहिक बलात्कार किया गया। महिलाओं से बलात्कार और बूढ़ों और बच्चों से मारपीट के बाद घरों में आग लगा दी गई जिसमें बंधे मवेशी जलकर मर गए। मरे हुये मवेशियों को कुओं में डाल दिया गया।

90 से ज्यादा महिलाओं और 20 बच्चों को एक महीने से ज्यादा वक़्त तक जेल में बंद रखा गया। कुछ महिलाएं तीन महीने बाद जेल से लौटीं। 20 जून 1992 की रात के बाद गांववाले अपने घरों से भाग गए थे।  वे कई महीनों बाद वापस लौटे लेकिन तब तक सब कुछ ख़त्म हो गया था।

हालात इतने खराब हो गए थे कि गाँव के लोग कुएं से पानी नहीं ले सकते थे क्योंकि वह पीने लायक नहीं था। मरे हुये जानवरों को कुंओं में डाल देने से वे सड़ गए थे। दोबारा ज़िंदगी शुरू करने के लिए उन लोगों के पास कुछ नहीं था। उन्होंने अनाज में कांच के टुकड़े मिला दिए थे। बर्तन तोड़ दिए गए थे और कपड़े भी जला दिए गए थे। लेकिन जीना तो था ही, अपने ऊपर हुये जुल्म के खिलाफ लड़ना भी था। गाँववालों ने प्रतिरोध और संघर्ष जारी रखा। लेकिन यह लड़ाई एकदम आसान नहीं थी।

राज्य ने अपने अधिकारियों के खिलाफ मामला दर्ज करने से इनकार कर दिया। सीबीआई जांच की मांग के लिए गांववालों को मद्रास हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाना पड़ा। सीबीआई ने 1996 में आरोपपत्र दायर किया। इसके बाद और 15 सालों तक यह मामला धर्मपुरी के सत्र न्यायालय में चला। ग्रामवासियों ने  2011 में निचली अदालत में अभूतपूर्व जीत हासिल की।

निचली अदालत ने बलात्कार से लेकर अनुसूचित जाति/ अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के तहत अत्याचार तक के आरोपों में सभी आरोपियों को दोषी करार दिया।  लेकिन नौकरशाहों की अपील पर मद्रास हाईकोर्ट ने इस फैसले पर रोक लगा दी। लगातार सत्तारूढ़ डीएमके और एआईएडीएमके की राज्य सरकारों ने अपने नौकरशाहों को बचाने के लिए पूरी ताकत झोंक दी।

एक ऐसे वक्त में जब शासन के तीनों अंगों की स्वायत्तता  बनाये रखने की कोशिश में न्यायपालिका का सरकार के साथ टकराव रहा है, हाईकोर्ट द्वारा निचली अदालत के दोषसिद्धि के फैसले को बरकरार रखा जाना एक निर्वाचित सरकार को यह चेतावनी देता है कि वह सजा से बेफिक्र होकर शासन नहीं कर सकती। और जब अप्रभावी होने के मद्देनजर एससी/एसटी कानून की अक्सर आलोचना की जाती है, तो वाचाती एक ऐसा दुर्लभ उदाहरण है जहां इस कानून ने अपने मकसद को हासिल किया है।

यह फैसला आदिवासी अधिकारों की लंबी लड़ाई में बेहद अहम क्षण है। इसे एक ऐसे मामले के रूप में याद रखा जायेगा जो यह  दिखाता है कि भारत में भयावह असमानता के बावजूद, सतर्क सिविल सोसाइटी, प्रतिबद्ध वकीलों, स्वतंत्र न्यायपालिका और न्याय तलाश रहे पीड़ितों के संकल्प के मेल से लोकतांत्रिक संविधान और न्यायिक प्रणाली अब भी उनके हित में काम कर सकते हैं।

20 जून 1992 को हुई वाचाती की इस घटना में पीड़ितों की संख्या 217 थी जिनमें 94 महिलाएं और 28 बच्चे थे। 18 महिलाएं बलात्कार की शिकार हुईं।

1995 में एफ़आईआर दर्ज हुई थी और इसी साल ट्रायल कोर्ट का गठन हुआ। 215 अफ़सर दोषी करार दिए गए। इनमें 17 अफसर बलात्कार के दोषी करार दिये गए। दोषियों में वन विभाग, पुलिस और रेवेन्यू विभाग के अफ़सर शामिल थे। 2011 तक सुनवाई के दौरान 54 अफ़सरों की मौत हो गई। 2011 को ट्रायल कोर्ट का फ़ैसला आया।

29 सितंबर 2023 को मद्रास हाईकोर्ट का फैसला आया। यह फैसला आदिवासियों के साथ देश भर में हो रहे जुल्म और अन्याय के खिलाफ चलनेवाले संघर्ष के लिए एक बड़ी नज़ीर है।

गाँव के लोग
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