बनारस जिले के अनेक मुसहर परिवार अभी भी वनोपजीवी हैं हालाँकि अब उनके ऊपर वन विभाग की बन्दिशें लगातार बढ़ रही हैं। समुचित रोजगार के अभाव में अभी भी मुसहर समुदाय पुर्वांचल के सर्वाधिक पिछड़े और हाशियाई समुदायों में से एक है। अभी बहुत से परिवार दोने-पत्तल बनाकर और लकड़ी काटकर अपनी आजीविका चला रहे हैं। लेकिन अब ये काम भी आसान नहीं रह गए हैं। इस माध्यम से आजीविका कमाने के लिए इनको सैकड़ों किलोमीटर चलकर जंगलों की खाक छाननी पड़ती है। पढ़िये बनारस के पानदारीबा में पत्ते बेचने वाले कुछ परिवारों पर अपर्णा की पूर्व प्रकाशित ग्राउंड रिपोर्ट।
देवी अहिल्याबाई होल्कर आज से तीन सौ वर्ष पहले समाज के पिछड़े, व वंचित समुदाय के साथ-साथ स्त्रियों के लिए भी बहुत से ऐसे काम किए, जो उन दिनों साहस का कदम था। आदिवासियों और दलित जो समाज से पूरी तरह कटे हुए थे के लिए ऐसी व्यवस्था की ताकि वे मेहनत कर अपनी आर्थिक स्थिति सुदृढ़ कर सकें। धर्म-अन्धविश्वास, भय-त्रास में और रूढ़ियों में फंसा हुआ था तबअहिल्याबाई ने अपनी प्रजा को इससे निकाला। वे धार्मिक थीं लेकिन अंधविश्वासी नहीं थीं।
विस्थापन का एक बड़ा कारण विकास परियोजना के अंतर्गत बड़े-बड़े बांधों का निर्माण है। सरकार द्वारा भले ही बहूद्देशीय बांध बनाए जा रहे हैं लेकिन आदिवासियों का विस्थापन उन्हें विकास की श्रेणी से अनेक साल पीछे धकेल दे रहा है। केवल बांधों से विस्थापित होने वाले आदिवासियों की जनसंख्या 2 से 5 करोड़ तक है
झारखंड में खूंटी संसदीय क्षेत्र के जंगलों-पहाड़ों से घिरे इलाके में दूर-दूर तक आदिवासी परिवार पानी संकट से जूझ रहे हैं। रोजगार का सवाल उन्हें अलग सताता है। कई गांवों से युवा पलायन कर रहे हैं। गर्मी की वजह से पहाड़ी नदियां सूख रही हैं। लोकतत्र के इस महापर्व में इन इलाकों में चुनावी शोर कम है और जिंदगी की जद्दोजहद ज्यादा। पड़ताल करती एक ग्राउंड रिपोर्ट..
झारखण्ड में आजकल पीएम आवास से ज्यादा चर्चा अबुआ आवास योजना की हो रही है। हेमंत सोरेन की गिरफ़्तारी और इस्तीफे के बाद 31 जनवरी से नये मुख्यमंत्री चंपाई सोरेन अबुआ आवास योजना को तेजी से आगे बढ़ाने में जुटे हैं। राज्य सरकार की अबुआ आवास योजना क्या है और यह योजना गरीबों को क्यों प्रभावित कर रही है, पढ़िए नीरज सिन्हा की ग्राउंड रिपोर्ट
जहां भी कोई नई परियोजना शुरू होती है वहाँ इनकी निगाह सबसे पहले जाती है और परियोजना का काम शुरू होने से पहले ही वे मुआवज़े और मुनाफे में अपनी हिस्सेदारी तय कर चुके होते हैं। इस बार सामुदायिक वन अधिकार पर रिपोर्टिंग के लिए जब मैं तमनार गई तो कई गाँव के खेतों में बने शेड, बाउंड्री और तालाब देख कर जिज्ञासा हुई कि अचानक ये चीजें इतनी बड़ी संख्या में कैसे बन गईं?
फॉदर स्टेन से सरकार की नाराजगी का एक और कारण भी था। और वह था झारखंड की जेलों में आदिवासी विचारधीन कैदियों को न्याय दिलवाने का उनका अभियान। वे झारखंड में जांच एजेन्सियों द्वारा हजारों आदिवासी नौजवानों को नक्सल बताकर उनकी अंधाधुंध गिरफ्तारियों के खिलाफ अभियान चला रहे थे। उन्होंने झारखंड उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर कर यह मांग की थी कि सभी विचाराधीन बंदियों को निजी मुचलके पर रिहा किया जाए और उनके खिलाफ मुकदमों में जल्द से जल्द निर्णय हों।
बोक्सा जनजाति अधिकतर तराई और भावर के इलाके में रहती है और यहाँ पर यह अब अपनी ही जमीन से बेदखल और बंधुआ हो गई है। तराई भावर में वे देहरादून के डोईवाला क्षेत्र से लेकर पौड़ी जनपद के दुगड्डा ब्लाक तक इनकी काफी संख्या थी। कोटद्वार के तराई भावर के इलाकों जैसे लाल ढंग में भी इनकी संख्या बहुत है। कोटवार-उधम सिंह नगर के मध्य रामनगर में भी इनकी आबादी निवास करती है।
आज भारत में करीब 12 करोड़ से अधिक आदिवासी हैं जो गरीबी और तबाही के दल-दल में धकेल दिये गये हैं। सबकी नजर इनके परम्परागत रिहायश में पाये जाने वाले प्रचुर संसाधनों पर है। कॉरपोरेट से लेकर सरकार तक हर किसी की गिद्ध नजर इसी खजाने पर है।