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ग्राउंड रिपोर्ट

विकास के नाम पर आदिवासी अपने मूल स्थान से लगातार विस्थापित किए जा रहे हैं

विस्थापन का एक बड़ा कारण विकास परियोजना के अंतर्गत बड़े-बड़े बांधों का निर्माण है। सरकार द्वारा भले ही बहूद्देशीय बांध बनाए जा रहे हैं लेकिन आदिवासियों का विस्थापन उन्हें  विकास की श्रेणी से अनेक साल पीछे धकेल दे रहा है। केवल बांधों से विस्थापित होने वाले आदिवासियों की जनसंख्या 2 से 5 करोड़ तक है

धर्म व सत्ता द्वारा आदिवासी समाज का शोषण सदियों से होता चला आ रहा है। ये समाज मुख्यधारा के समाज से दूर जंगलों में निवास करता है। इनकी रहन-सहन व संस्कृति अपने ढंग की है। बदलती सभ्यता के दौर में नयी योजनाओं के माध्यम से इनका विकास नहीं हुआ। इसलिए ये लोग कमजोर पड़ते गये। इनके कमजोर होने का का लाभ उठाकर मुख्यधारा के लोगों द्वारा इन पर तरह-तरह के अत्याचार और ज़ुल्म लगातार किए जाते रहे हैं।

कहा जाता है कि 21वीं सदी का युग परिवर्तन का युग है। अब हर वर्ग व समाज अपने अधिकारों को जानने व समझने लगा है तथा विभिन्न पटल पर एवं गोष्ठियों सेमिनारों में थोड़ी बहुत चर्चा, परिचर्चा व विमर्श भी करने लगा है, अपने अधिकारों के लिए लड़ना भी जान गया है। फिर भी शक्ति व अधिकार के अभाव में आदिवासी समाज अभी हाशिए पर ही हैं। वास्तव में यह देश मूल रूप से आदिवासियों का देश रहा है किंतु आर्य समाज द्वारा इन्हें लगातार सत्ता और अधिकारों से बेदखल किया है। इनके बारे में तमाम प्रकार की गलत अवधारणाएं फैलाकर इनके जल, जंगल व जमीन को छीन कर अपने अधीन कर लिया। जिसके कारण आदिवासियों का पलायन होना शुरू हुआ और अब तक हो रहा है। इनका पलायन होना राष्ट्र के लिए गम्भीर समस्या है।

आदिवासियों के बारे में पहले यह जान लेना आवश्यक है कि आदिवासी कौन है? आदिवासी दो शब्द आदि और वासी से मिलकर बना है। जिसका अर्थ है- मूलनिवासी। पुरातन साहित्य में आदिवासियों को अंबिका और बनवासी भी कहा जाता है था। आदिवासियों को भारत में जनजाति रूप में भी जाना जाता है। आदिम समाज में इन्हें अज्ञानी या रूढ़िवादी माना जाता है। गांधी ने आदिवासियों को गिरिजन कहा था। संविधान के अनुच्छेद 342 के अंतर्गत इन्हें अनुसूचित जनजाति के रूप में निर्दिष्ट किया गया है। इन्हें भौगोलिक व सांस्कृतिक रूप से आम जन-समुदायों से अलग माना गया है, जिनसे घुलने-मिलने में मुख्यधारा के लोग प्रायः संकोच करते हैं। भारतीय वेदों में असुर शब्द का जिक्र है सुरेन अशासित असुरा कह कर उनकी व्याख्या की गई है।

आदिवासियों के विस्थापन के बाद कोयला खनन (फोटो – राजेश त्रिपाठी)

हमारे देश के अधिकांश हिस्सों में आदिवासी ही रहते हैं। ये उड़ीसा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, बिहार उत्तराखंड व पश्चिम बंगाल में अल्पसंख्यक रूप में तथा मिजोरम, नगालैंड जैसे पूर्वोत्तर राज्यों में बहुसंख्यक हैं। भारत में उनकी भी अनेक जनजातियां हैं- संथाल, गौड़, भील, मुंडा, टोडा, थारू, नागा, उराव, बुक्सा, बिरहोर, गद्दी, लद्दाख, खासी, खरिया, भाटिया, मीणा आदि। आदिवासियों में मीणा जनजाति सबसे सम्पन्न जनजाति मानी जाती है। मुंडा आदिवासी झारखंड में सबसे प्राचीन जनजाति है।

आदिवासियों का विस्थापन चिंताजनक 

देश में 8.6% आबादी आदिवासियों की है। इसके साथ यदि विस्थापित आदिवासियों की बात करें तो यह कुल जनसंख्या के 40 फीसदी है। आदिवासीबहुल इलाके जंगलों और प्रकृतिक रूप से सम्पन्न होते हैं। इस वजह से भूमि अधिग्रहण, विस्थापन, जबर्दस्ती पलायन के सर्वाधिक शिकार और मामले आदिवासियों के ही देखने मिलते हैं।

सेंटर फॉर साइन्स एंड एनवायरमेंट स्टडी के एक अदध्ययन से निष्कर्ष सामने आया है कि रिच लैंड पुअर पीपल्स (2008) के अनुसार जिन 50 जिलों में सबसे अधिक खनिज उत्पादन का उत्पादन करने वाले जिले आदिवासीबहुल इलाका है। इन्हीं इलाकों में घने जंगल 28 फीसद हैं। जिंका क्षेत्रफल राष्ट्रीय औसत से (20.9 फीसदी) है।

जंगलों और प्रकृति के नजदीक रहने वाले यह आदिवासी विकास होने पर अपनी जगह से खदेड़ दिये जाते हैं, जो किसी भी गाँव या शहरों के जनजीवन से सामंजस्य मिला पाने में पूरी तरह विफल रहते हैं। क्योंकि इनकी अपनी जीवनशैली है, खान-पान और रहने का एक अलग सलीका है।

आदिवासियों का विस्थापन के बाद जल, जंगल,जमीन का विनाश  (फोटो – राजेश त्रिपाठी)

सरकार, शासन-प्रशासन व ठेकेदा रोजगार देने के नाम पर उनके जंगलों को काटा जा रहा है। उनकी  जमीन पर जबरदस्ती अधिकार कर लिया जाता है, उनकी बहन-बेटियों की इज्जत लूट ली जाती है। विरोध करने पर उन्हें नक्सल घोषित करके मार दिया जाता है। यही कारण है कि वे अपना जल, जंगल, जमीन छोड़ने को मजबूर हैं।

रिपोर्ट ऑफ द हाई लेवल कमिटी ऑन सोशयो इकनॉमिक, हैल्थ एंड एजुकेशनल स्टेटस् ऑफ ट्राइब्ल कम्युनिटीज ऑफ इंडिया नाम की रिपोर्ट में यह बात सामने आई है कि देश के 25 फीसदी आदिवासी अपने पूरे जीवनकाल में कम से कम एक बार विकास परियोजनाओं के चलते विस्थापन झेलना पड़ा है। जबकि आदिवासियों के पुनर्वास से संबन्धित सरकार द्वारा नियुक्त विशेषज्ञ समिति ने बताया विकास परियोजनाओं के कारण विस्थापित आदिवासियों 47 फीसदी हैं।

रिजर्व वन क्षेत्र में नए कानून के तहत आदिवासियों को वन एवं लकड़ी काटना अपराध घोषित किया गया है। जिनसे उनके रोजगार नष्ट हो गए। पूंजीवादी ताकतों द्वारा आदिवासियों का सदियों से नियमित शोषण किया जाता रहा है। उनके अधिकार व रोजगार छिनने की कवायद लगातार बढ़ती जा रही है। स्वतंत्रता के पहले व बाद में उनके खिलाफ सशक्त कानून बनाकर उनके उपर तरह-तरह के शोषण व अत्याचार हुए हैं। आदिवासी क्षेत्र में विकास की परियोजनाएं तो आती हैं लेकिन इससे आदिवासियों का विकास नहीं होता बल्कि उनका विस्थापन निश्चित है।  गरीबी बहुत ज्यादा है, स्वास्थ्य और शिक्षा सुविधाओं का अभाव है।  इलाके के निवासी व्यापारियों, सूदखोरों के हाथो शोषित हैं और प्रशासन अनदेखी करता है।  ऐसा नहीं है संविधान में इनकी सुरक्षा का प्रावधान नहीं है बल्कि सारी बातें जनजातीय के हक की सुरक्षा के सांवैधानिक प्रावधानों और कानून के रहते हुई हैं।

विस्थापन का एक बड़ा कारण विकास परियोजना के अंतर्गत बड़े-बड़े बांधों का निर्माण है। सरकार द्वारा भले ही बहूद्देशीय बांध बनाए जा रहे हैं लेकिन आदिवासियों का विस्थापन उन्हें  विकास की श्रेणी से अनेक साल पीछे धकेल दे रहा है। केवल बांधों से विस्थापित होने वाले आदिवासियों की जनसंख्या 2 से 5 करोड़ तक है।

आदिवासियों को उनकी ज़मीनों से विस्थापित कर अधिग्रहण सामाजिक न्याय पर सवाल खड़ा करता है 

वर्ष 2007-08 की ग्रामीण विकास मंत्रालय के अंतर्गत भू-संसाधन विभाग की रिपोर्ट के अनुसार यह बात सामने आई है कि आदिवासियों की 9.02 हेक्टेयर अधिग्रहित हुई ज़मीनों के लिए हैं अदालत में  5.06 लाख मामले सुनवाई के लिए आए हैं। जिनमें से 5 लाख एकड़ ज़मीनों के लिए सवा दो लाख मामलों में अदालत ने आदिवासियों के पक्ष में फैसला सुनाया, वहीं अदालत ने विभिन्न आधारों पर 4.11 लाख एकड़ ज़मीनों के कुल 1.99 लाख मामलों को खारिज कर दिया।

खारिज मामलों की संख्या देखते हुए जमीन अधिग्रहण के क़ानूनों और राजसत्ता द्वारा आदिवासियों की उपेक्षा पर सवाल खड़ा करना जरूरी है।

देश की संस्कृति व कलायें आदिवासियों द्वारा विकसित हुई है। उनके द्वारा आग और पहिए की खोज विकास का मूल आधारभूत ढाँचा है। औजार और वस्त्र बनाने की शुरुआत आदिवासियों के यहाँ से हुई। सिद्धिकारक मंत्रों, उपचारात्मक औषधियों की भी खोज इन्होने ही की। कुल मिलाकर राष्ट्र का स्तंभ आदिवासियों ने तैयार किया। फिर कैसे कह सकते हैं कि वे जाहिल और गंवार हैं।आदिवासियों ने आज तक जो कुछ हासिल किया है, अपने परिश्रम के बल पर हासिल किया है। इन्होंने किसी के बने-बनाये चीजों का नाम बदलकर अपने नाम करने की कोशिश कभी नहीं किया।

भूमि अधिग्रहण के विरोध में तमनार में आदिवासी महापंचायत करते हुए (फोटो – सविता रथ)

इसमें कोई संदेह नहीं कि झारखंड धातु, खनिज और औद्योगिक दृष्टि से भारत का सबसे समृद्ध राज्य है। देश के समस्त औद्योगिक स्त्रोत का 60% झारखंड में है। देश में लोहा स्पात के सबसे बड़े दो कारखाने बोकारो, और टाटा झारखंड में ही हैं। जबकि आदिवासी बहुल उड़ीसा के सुंदरगढ़ जिले में राउरकेला इस्पात के रूप में मशहूर स्टील अथारिटी ऑफ इंडिया का कारख़ाना है। झारखंड में कोयला और बिजली भी सबसे अधिक पैदा होती है, सम्भवतः 90 प्रतिशत कोयला खदान व और तीन हजार से ज्यादा जल-विद्युत बाँध है किंतु उस पर वहाँ के स्थानीय लोगों का अधिकार नहीं होता। देश को चकाचौंध रोशनी में रखने वाले वहाँ के लोग आज भी अंधेरों में रहते हैं। उपनिवेशी सत्ता ने इनके सारे खजानों को अपने अधीन कर लिया। वहाँ आदिवासियों की हिस्से में न रोटी, कपड़ा, मकान है न कोई अन्य सुविधाएं। उनके हिस्से में अगर कुछ है तो वह है -अशिक्षा, गरीबी, भुखमरी और विस्थापन। दुर्भाग्य है कि वे अपने ही जल, जंगल, जमीन का उपयोग नहीं कर सकतें। इसलिए आदिवासियों का समाज व परिवार लगातार विखंडित होता जा रहा है।

गाँव-जवार में डेरा डालकर रहने वाले, शहरों में ओवर ब्रीज के नीचे व रेलपटरियों के आसपास खुले आसमान में रहने वाले लोग पलायन आदिवासी ही हैं। उनका जीवन बद से बदतर हो चुका है। कुछ तो ईट भट्ठों पर काम करते हुए मिल जाते हैं। जिन्हें बहुत कम मेहनताना मिलता है। वे दर-दर भटकने को मजबूर हैं। शासन व सत्ता में बैठे लोगों को अपने ए सी कमरे से निकलकर इन्हें देखना होगा। इन्हें भूखमरी, गरीबी व जहालत से बाहर निकलना होगा। अगर इन्हें आरक्षण का लाभ देते हुए मुख्य धारा के समाज से जोड़ने का प्रयास नहीं किया गया तो देश के गरीबी और अमीरी की खाईं को कम किया जा सकता, निश्चय ही देश एक दिन पूँजीपतियों का गुलाम बन जायेगा, मध्यम वर्ग के लोग भी निम्न स्तर का जीवन जीने के लिए मजबूर हो जायेगे। आदिवासियों की दुर्दशा तो हो ही रही है।

सवाल यह उठता है कि कश्मीरी पंडितों के पलायन पर हो-हल्ला मचाने वाले तथाकथित विद्वान, प्रवक्ता व क्रातिकारी लोग आदिवासियों के पलायन पर चुप क्यों हैं? संसद में इनके हक की आवाज क्यों नहीं गुँजती? इनके पलायन पर टीवी चैनलों पर डिवैट क्यों नहीं होते? इसका जवाब कौन देगा?

दीपक शर्मा
दीपक शर्मा
लेखक युवा कहानीकार हैं और वाराणसी में रहते हैं।

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