पा रंजीत एक दलित परिवार से हैं और उन्होंने अपनी फिल्मों में अपने निजी अनुभवों का भी प्रयोग किया है। उन्होंने अपनी फिल्मों के माध्यम से दलितों के दैनिक जीवन और उनकी वास्तविक समस्याओं को फिल्मी परदे पर चित्रित करने का काम किया है। उनकी फिल्में मद्रास (2014), कबाली (2016) और काला (2018) हैं। अरुण जनार्दन ने इंडियन एक्सप्रेस में (10 जून 2018) उनकी फिल्म काला के बारे में लिखा है, फिल्म में रजनीकांत के खिलाफ नाना पाटेकर हैं, जो एक राजनेता की भूमिका निभा रहे हैं। सत्ता के भूखे और शुद्ध सफेद कपड़े पहने हुए, वह गंदगी से “देश को साफ करने” का वादा करते हैं। फिल्म में सर्वहारा वर्ग का काला रंग सामंती सफेद रंग से मुकाबला करता है।
यह फिल्म वंचना और जाति के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य तथा उसके प्रति समृद्धि और जात्याभिमान से भरे वर्गों के व्यवहार की स्पष्ट समझ को रेखांकित करती चलती है। बेशक सारी स्थितियाँ समकालीन हैं। एक राज्य से दूसरे राज्य में प्रवास को लेकर अक्सर विवाद की स्थितियाँ बनती रहती हैं। भारत एक विशालकाय देश है और लोगों की आर्थिक प्रस्थिति में भी बहुत भिन्नताएं हैं। गरीब और बीमारू राज्यों से रोजगार की तलाश में कमजोर तबकों के लोग मुंबई जैसे बड़े शहरों की तरफ पलायन करते हैं और वहीं बस भी जाते हैं। लगभग एक दशक पहले राज ठाकरे और उनके संगठन महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना ने ‘सन ऑफ सॉइल’ का मुद्दा उठाकर राज्य से बाहर के आप्रवासियों को भगाना शुरू किया था।
काला फिल्म इसी मुद्दे को उठाती है। नाना पाटेकर ने इस फिल्म मे खलनायक की भूमिका निभाई थी। निजी ज़िंदगी में भी वे राज्य से बाहर के लोगों के महाराष्ट्र में बसने के खिलाफ रहे हैं और काला फिल्म में भी उनका चरित्र इसी सोच का है। दिल्ली की बढ़ती जनसंख्या को लेकर भी कुछ नेता आप्रवासियों के बारे ऐसी नकारात्मक टिप्पणियाँ करते रहते हैं जिससे विभिन्न समुदायों के बीच तनाव और हिंसा बढ़ने की संभावना बढ़ जाती है। काला फिल्म का घटना स्थल मुंबई शहर की धारावी बस्ती है जो एशिया का सबसे बड़ा स्लम है।
मुंबई सपनों का शहर है जहां देश के कोने-कोने से लोग अपने सपनों को पूरा करने आते हैं और यहीं किसी कोने में बसकर जीवन गुजार देते हैं। हरी भाई सत्ता रूढ पार्टी का नेता है और मुंबई में तमिल लोगों के बसने के खिलाफ है। नाना पाटेकर ने सन 1994 में आई अपनी फिल्म क्रांतिवीर में एक ऐसे युवा की भूमिका निभाई थी जो झुग्गी-झोपड़ियों को उजाड़ने वाले बिल्डर और भूमाफिया के खिलाफ लड़ाई लड़ता है लेकिन उस फिल्म में पात्रों की जातीय पहचान को स्पष्ट नहीं किया गया है।
भारत देश में भारी विभिन्नताएं हैं और उसी तरह क्षेत्रीय विषमताएं भी विद्यमान हैं। पिछड़े और गरीब क्षेत्रों के लोग रोजगार और बेहतर अवसरों की तलाश में विकसित शहरों की ओर प्रवास करते हैं जिसके फलस्वरूप बड़े और औद्योगिक शहरों के संसाधनों पर दबाव पड़ता है और भिन्न समुदायों के बीच आपसी हितों को लेकर टकराव होते हैं। इसी कारण कुछ विद्वान भारत के शहरीकरण को ‘छद्म शहरीकरण’ कहते हैं। सात द्वीपों पर बसे इस विशालकाय शहर को सुकेतु मेहता ने मैक्सिमम सिटी कहा था और अपनी किताब का यही शीर्षक दिया था। सिटी लाइट्स (2009) फिल्म में प्रवास के दुखद पहलू और एक प्रवासी परिवार द्वारा पाने की चाह में सब कुछ खो देने को प्रभावी ढंग से हंसल मेहता ने प्रस्तुत किया था।
पा रंजीत की फिल्म काला भी इन्हीं मुद्दों से आमना-सामना करती है। प्रख्यात फिल्मकार श्याम बेनेगल ने धारावी (1994) नाम से एक फिल्म बनाई थी जिसमें ओमपुरी राजकरन यादव नाम के एक प्रवासी ड्राइवर की भूमिका में जो टीन के छत वाले एक कमरे के तंग मकान में अपनी पत्नी शबाना आजमी के साथ रहता है। वह गरीबी से बाहर निकलने के लिए जितनी योजनाएं बनाता है उतना ही उनमें फँसता जाता है। स्थानीय नेता और गुंडे उसके मंसूबों पर पानी फेरते रहते हैं, फिर भी वह सपनों के शहर में नए सपने देखता रहता है।
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प्रतीकों के बहाने काला को एक नैरेटिव बनाने का प्रयास
काला फिल्म अम्बेडकरवाद, बौद्ध दर्शन और सामुदायिक एकता का संदेश देने वाली महत्वपूर्ण फिल्म है। इस फिल्म का नायक एक दलित है लेकिन वह कमजोर या निरीह नहीं है और न ही किसी अन्य की दया पर निर्भर है। वह सही मायने में नायक है और अपने जाति-वर्ग के वंचित और उसमें कमजोर लोगों के हक और अधिकारों के लिए लड़ने का साहस और कूबत है। यह फिल्म कई तरह के विरोधाभासों स्याह और सफेद, राम और रावण, उच्च जाति और अछूत, भूमिपुत्र और बाहरी लोग, उत्तर-दक्षिण, शक्ति और सत्ता, एवं अच्छा और बुरा के बीच के द्वंद्व को चित्रित करती है।
बॉलीवुड के निर्देशक और उनकी फिल्में दलित वर्ग और उनके मुद्दों को इस तरह आमने-सामने रखकर दिखाने से अब तक बचती आ रही हैं लेकिन पा रंजीत और नए निर्देशकों की पीढ़ी ने इस जिम्मेदारी को अपने कंधों पर उठाया है। काला फिल्म के नायक कलिकरन (रजनीकान्त) को प्यार से उसके लोग काला कहते हैं और वह काले कपड़े भी पहनता है। काला धारावी में बाहर से आकर बसे कमजोर जाति-समुदाय के लोगों का संरक्षक है। फिल्म में अपने पोते-पोतियों को काला शब्द का अर्थ बताते हुए कलिकरन कहता है कि तमिल भाषा में इस शब्द का तात्पर्य है ‘वह व्यक्ति जो लोगों को मुश्किलों से बचाए।’
काला अपने समुदाय के लोगों की हर मुश्किल से सुरक्षा करता है। काला जब भी कोई महत्वपूर्ण निर्णय लेता है या एक्शन में होता है तो उसके इर्द-गिर्द युवा संगीतकारों और गायकों का एक समूह अमेरिकन जैज म्यूजिक स्टाइल में नृत्य और संगीत प्रस्तुत करता है जो भारतीय दलितों का अमेरिका-अफ्रीकन स्टाइल का नृत्य-संगीत है जो जुझारूपन को प्रस्तुत करता है। यह फिल्म धोबी घाट पर भूमाफिया और धोबियों के बीच संघर्ष से आरंभ होती है। भूमाफिया धोबी घाट की जमीन को कब्जा करके हाउसिंग सोसाइटी का निर्माण करना चाहता है। भूमाफिया रूलिंग पार्टी के नेता हरी भाई का आदमी है। हरी भाई स्व घोषित राष्ट्रभक्त नेता है जो कमजोर, गरीब, तथा कथित छोटी जाति के लोगों, प्रवासियों, झुग्गी- झोपड़ियों और गंदी बस्तियों को उजाड़कर देश की साफ-सफाई करके स्वच्छ बनाना चाहता है।
गंदी बस्तियों में रहने वाले लोग भी अपने बच्चों के लिए स्कूल, अस्पताल, पार्क, खेल के मैदान, शौचालय एवं साफ हवा पानी चाहते हैं लेकिन वे अपने लीडर काला के बिना आगे बढ़कर अपनी बात नहीं कह पाते। काला और उसके समुदाय के लोग अपनी बस्ती को अपनी मातृभूमि समझते हैं और उसे किसी कीमत पर छोड़ना नहीं चाहते। वे भूमाफिया और लालची नेताओं के झूठे वादों में फँसकर धोखा नहीं पाना चाहते। चुने हुए लोगों के हाथ में कानूनी सत्ता होती है लेकिन समाज में अच्छे कार्य करने वाले लोगों का प्रभाव भी शक्ति का काम करता है। काला अपने समुदाय का नेता है भले ही वह चुना हुआ प्रतिनिधि नहीं है।
प्रख्यात समाजशास्त्री मैक्स वेबर ने अपने सत्ता के सिद्धांत में शक्ति, सत्ता और प्रभाव को अलग-अलग परिभाषित किया है। काला धारावी में रहने वाले कमजोर, अछूत और गरीब लोगों के हक की लड़ाई लड़ता है। वह बहुत साफ शब्दों में कहता है, ‘मेरे लोगों का स्वार्थ ही मेरा अधिकार है।’ गुंडों के खिलाफ अपनी लड़ाई में काला भारतीय संविधान और कानूनों में अपना भरोसा रखते हुए कहता है, ‘कुछ कानून हम लोगों के लिए भी बने हैं नहीं तो हमको तुम लोग कबके बाहर फेंक चुका होता’।
निर्देशक पा रंजीत ने अपना राजनीतिक विचार काला (दलित) और जरीना (मुस्लिम) के बचपन की प्रेम कहानी के माध्यम से व्यक्त किया है जो एक हिन्दू-मुस्लिम दंगे में अपने परिवारों से बिछड़ गए थे। मुस्लिम गायक उन दोनों की विवाह की सालगिरह पर गीत प्रस्तुत करते हैं। इस प्रसंग के माध्यम से रंजीत दलित-मुस्लिम एकता के विचार को आगे बढ़ाते हैं जो प्रायः मेरठ जैसे शहरों के दंगों में एक-दूसरे के आमने-सामने होकर हिंसा के शिकार होते रहते हैं। हम इस फिल्म में बुद्ध विहार, डॉ अंबेडकर के फ़ोटो और मूर्तियाँ कई बार देखते हैं जो इस बात की तरफ संकेत करते हैं कि दलित लोगों ने अपने धर्म और आदर्श बहुत हद तक बदल लिए हैं और अब वे रूढ़िवादी हिन्दू मात्र नहीं हैं।
गांवों से कमजोर और अछूत जातियों के लोग जब बड़े औद्योगिक शहरों की तरफ पलायन करते हैं तो उनके सामने सबसे बड़ी समस्या आवास की आती है। धारावी एशिया का सबसे बड़ा स्लम है और फिल्म में झगड़े की जड़ में वहाँ की कीमती जमीन है। प्रवासियों से भरी यह गंदी बस्ती अवैध बसावट के रूप में जानी जाती है। परस्पर विरोधी और संघर्षरत पात्रों के आपसी संवादों से पता चलता है कि वे विभिन्न प्रतीकों और मिथकीय चरित्रों का प्रयोग वर्तमान परिस्थितियों के संदर्भ में करते हैं जिससे उनका मन्तव्य स्पष्ट होता है। उदाहरण के तौर पर काला रंग गंदा रंग है जो रावण जैसे दुष्ट चरित्र के लिए प्रयुक्त होता है। हरीभाई के द्वारा इस संबंध में किये गए कथन को देखने से यह बात स्पष्ट होती है।
हरीभाई के कथन के जवाब में काला जवाब देता है, ‘काला रंग मेहनत का रंग है, यमराज का रंग है। अगर हमारे लोगों की जमीन लेने की कोशिश तेरा भगवान करेगा तो मैं तेरे भगवान को भी नहीं छोड़ूँगा।’ इस तरह के बोल्ड संवाद हिन्दी बॉलीवुड के फिल्म निर्देशक या निर्माता अपनी फिल्मों में प्रयोग करने से प्रायः बचते हैं। हम पहली बार बॉलीवुड की किसी फिल्म में तथाकथित छोटी जाति के नायक द्वारा उच्च जाति के किसी व्यक्ति के खिलाफ इस स्तर के आत्मविश्वास के साथ जवाब देना एक नई परंतु जरूरी प्रघटना है। हरी भाई सत्तारूढ पार्टी का नेता है और खुद को राम के बराबर मानता है जो काला का वध करके धारावी की गंदी बस्ती को मुक्त करेगा।
एक दृश्य में शहर की एक गली में हरीभाई के पोस्टर पर जो कुछ लिखा है उसको कैमरा इतने करीब से दिखाता है कि सब कुछ स्पष्ट हो जाता है, ‘मैं देशभक्त हूँ और मैं इस देश को साफ करके रहूँगा।’ एक लड़का गुस्से में पत्थर फेंककर उस पोस्टर को फाड़ देता है। काला फिल्म के निर्देशक ने जातीय भेदभाव और छुआछूत का पर्दाफाश करने के लिए कई दृश्य रचे हैं। कई पार्टियों के नेता दलितों के घर जाकर भोजन करके यह संदेश देना चाहते हैं कि समाज में अब बराबरी आ गई है और छुआछूत समाप्त हो गई है लेकिन उनके जाने के बाद कई कहानियां सामने आती हैं। काला फिल्म के एक दृश्य में हरीभाई एक बार काला के घर जाते हैं लेकिन उनके घर का पानी नहीं पीते जो उसके जातीय अहम और घृणा भाव को प्रदर्शित करता है।
जब काला की पत्नी जरीना अपने एनजीओ के माध्यम से धारावी में हाउसिंग प्रोजेक्ट बनाने का प्रस्ताव लेकर हरीभाई के घर जाती है तो हरिभाई यह अपेक्षा करता है कि एक मुस्लिम महिला उसके पैर छुएगी और उनके घर में रखी देवता की मूर्ती की पूजा करेगी। परंतु जरीना ऐसा कुछ भी नहीं करती है और निराश होकर वहाँ से वापस आ जाती है।
एक और दृश्य की चर्चा यहाँ जरूरी है। काला की पत्नी और बेटे पर हमले के बाद मृत्यु होने पर वह हरीभाई को चेतावनी देने जाता है कि वह इसका बदला लेकर रहेगा। बातचीत के दौरान हरीभाई अपने सामने पड़ी टेबल पर पैर रखकर काला से उसे छूने को कहता है ताकि हरीभाई काला को उसकी गलतियों के बदले माफी दे देगा। जवाब में काला अपने पैर भी उसी टेबल पर रखता है और वही शब्द दुहराता है जो हरी भाई ने कहे थे। यह सारा घटनाक्रम चुने हुए विधायक हरी भाई के ड्राइंग रूम में घटित होता है। गरमागरम बहस और एक दूसरे को देख लेने की धमकियों के साथ यह मीटिंग खत्म होती है। भारतीय सिनेमा के इतिहास में ऐसा दृश्य पहली बार रचा गया जहां दलित हीरो बराबरी से सामने वाले खलनायक सवर्ण पात्र को गंभीर परिणाम भुगतने की चेतावनी उसके घर में घुसकर देता है। अब देखना यह है कि बॉलीवुड में दशकों से जमे-जमाए बड़े फिल्म निर्माता कब इस तरह की फिल्म बनाने की हिम्मत कर पाते हैं जो काम रंजीत ने इस फिल्म के माध्यम से किया है।
पा. रंजीत ने अपनी फिल्म काला के रिलीज के समय कारवाँ पत्रिका में छपे अपने एक इंटरव्यू में कहा था, मेरी फिल्मों में प्रतीकवाद गौण है; यह दावा है जो महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। अतीत में ऐसी फिल्में बनी हैं जो दलित चरित्रों और जीवन को दर्शाती हैं। वे गैर-दलितों द्वारा बनाई गई थीं, जो हमें दया की दृष्टि से देखते हैं। हमारी दुनिया को रंगहीन और गरीबी से ग्रस्त दिखाया गया है। हाँ, हम आर्थिक रूप से गरीब हैं लेकिन सांस्कृतिक रूप से नहीं। हमारी जीवंत संस्कृति, संगीत और भोजन का चित्रण कहाँ है? हमारी दुनिया को इन सबसे वंचित क्यों दिखाया जाता है? (2018 कारवां)।
रंजीत ने अपनी फिल्मों में प्रतीकात्मकता से ज्यादा अपनी पहचान और मुद्दों पर जोर दिया है। अब तक दलितों पर जो फिल्में बनाई गईं वे अन्य लोगों द्वारा बनाई गईं थी जो हमें दया की नजरों से देखते थे। हमारी दुनिया को रंगहीन और गरीबी से पीड़ित चित्रित किया गया। यह सही है कि भारतीय समाज में दलित लोग आर्थिक रूप से गरीब रहे लेकिन सांस्कृतिक रूप से नहीं। हमारा नृत्य, गीत-संगीत, भोजन और कुल मिलाकर जीवंत संस्कृति का चित्रण भारतीय सिनेमा में क्यों नहीं हुआ? हमें इन चीजों से विरक्त और विहीन क्यों दिखाया गया? और इन्हीं सवालों के जवाब में रंजीत का सिनेमा ना केवल पैदा होता है बल्कि बहुत बड़े गैप को भरने का काम भी करता है। यह सच है कि भारतीय फिल्मों में दलितों को असहाय दिखाया गया जिन्हें उच्च जातियों के मदद और सहानुभूति की जरूरत होती है।
इक्कीसवीं सदी की फिल्मों में दलितों का सामाजिक जीवन दिखाने की कोशिशें
आमिर खान की फिल्म लगान (2001) इसी तरह का समावेशी एजेंडा लेकर चलती है। लगान में एक दलित व्यक्ति का चरित्र है जिसका नाम है ‘कचरा’ और हीरो का नाम है ‘भुवन’। भुवन अपनी क्रिकेट टीम में कचरा को शामिल करता है जबकि गाँव के अन्य सवर्ण इसके विरोध में हैं। इसके पूर्व भी कई फिल्मों में ऐसे दृश्य देखे जा सकते हैं जैसे कि अछूत कन्या और सुजाता लेकिन ऐसी फिल्मों से वंचित-शोषित समाज का कोई भला नहीं हुआ।
राजकुमार राव अभिनीत फिल्म न्यूटन का नायक भी दलित है जो अपनी ड्यूटी सत्यनिष्ठा और ईमानदारी से निभाता है। नक्सल प्रभावित छत्तीसग़ढ़ के जंगल के एक गाँव में पोलिंग पार्टी का पीठासीन अधिकारी बनाए जाने पर वह अपने अधिकार और दायित्व का निर्वहन करके जिस तरह लोकतंत्र को बचाने का संदेश देता है वह अनुकरणीय है। हम न्यूटन के घर में डॉ अंबेडकर का फ़ोटो देखते हैं और आदिवासियों के भोजन की पसंद के बारे में चर्चा करते हुए भी देखते हैं। विकी कौशल, रिचा चड्ढा और संजय मिश्र अभिनीत फिल्म मसान (2015) का नायक अछूत डोम जाति का है जो बनारस के श्मशान में लाश जलाने वाले परिवार से संबंध रखता है। उसकी गर्लफ्रेंड सवर्ण जाति की है। अपनी महिला मित्र द्वारा पूछे जाने पर लड़का अपनी जाति छुपाता नहीं है बल्कि साफ-साफ बता देता है। संबंध टूटे या बचे, लोग स्वीकार करें या बहिष्कार हमें अपनी पहचान नहीं छुपाना चाहिए। अपनी पहचान की ठसक के साथ जीना ही प्रामाणिक जीवन होता है।
हालांकि आज भी बहुत से सफल लोग अपनी जातीय पहचान छुपाकर जीते हैं ताकि उन्हें सार्वजनिक जीवन में अपमानित न होना पड़े लेकिन मेरा मत है कि यह सही नहीं है। मराठी सिनेमा के सफल फिल्मकार नागराज मंजुले की फिल्मों फ़ंद्री का चरित्र ‘जाबया’ और सैराट का ‘परशया’ भी अपनी जातीय पहचान को लेकर बहुत सजग हैं और उन्हे अपनी जाति पर गर्व है।
जो फिल्मकार दलित पृष्ठभूमि से आए हैं और इस विधा में नए हैं। उन्होंने अपनी पहचान को जिस आत्मविश्वास के साथ परदे पर प्रस्तुत किया है वह सर्वथा नया और दर्ज किये जाने लायक है। असंतुलित विकास अपने देश की बहुत बड़ी समस्या है। आज भी देश के कई हिस्सों मे लोग रोड, सड़क, नाली, स्कूल और अस्पताल जैसी मूलभूत सुविधाओं के लिए रोज-रोज जूझने को मजबूर हैं। जनजातीय समाज के दशरथ मांझी ने बिहार राज्य में अपने गाँव में दो दशक से भी ज्यादा समय लगाकर एक पहाड़ को काटकर रास्ता बनाने का काम किया लेकिन वहाँ के शासकों का ध्यान उधर नहीं गया। फिल्म मांझी: द माउंटेन मैन में अपनी पत्नी की असामयिक मृत्यु से दुखी और संकल्पित दशरथ ने जिस समर्पण के साथ पहाड़ तोड़कर अपने गाँव के लोगों के लिए रास्ता बनाने का काम किया और अपना पूरा जीवन लगा दिया उसका अविस्मरणीय दास्तान है।

अनुभव की वास्तविकता के बावजूद एक कठिन रास्ता है
मराठी फिल्म निर्माता-निर्देशक नागराज मंजुले की फिल्म फंड्री (2013) और सैराट (2016) ने फिल्म निर्माण के इतिहास में नई जमीन की तलाश कर अपने तरह का नया सिनेमा बनाना शुरू किया जिसमें जातीय संरचना और जातियों के बीच अन्तः क्रिया पर उनकी अपनी सोच की छाप थी, मंजुले टाइम्स ऑफ़ इंडिया को दिए एक इंटरव्यू में कहते हैं, मैं समझता हूँ कि जब्बार पटेल की मुक्ता (1994 में बनी एक उच्च जाति की महिला जो एक दलित कार्यकर्ता से प्यार करती है) जैसी फ़िल्में नेक इरादे वाली हैं। लेकिन इन फ़िल्मों को संरक्षणवादी लहज़ा क्यों अपनाना पड़ता है? अनादि काल से ये लोग पृष्ठभूमि में रहे हैं। मैं उनकी कहानियाँ बताना चाहता हूँ, उन्हें ऐसी कहानियों का नायक होना चाहिए, अगर मैं ऐसा नहीं करता, तो मौका मिलने के बावजूद, यह बहुत अन्याय होगा।
इस प्रकार नागराज मंजुले फिल्मकार के तौर पर अपनी पहली ज़िम्मेदारी सदियों से शोषित और हाशिये पर रखे गए वंचित समाज की कहानियों को फिल्माते हुए सिनेमा के परदे पर उसी जाति वर्ग के हीरो और हीरोइन को प्रस्तुत करना चाहते हैं।
अगर हम मुस्लिम समुदाय के निर्माता-निदेशकों, गीतकारों, संवाद लेखकों, गायकों, नायक-नायिकाओं की बात करें तो उनकी एक बड़ी संख्या बॉलीवुड में काम कर रही है परंतु उनमें से ज्यादातर उच्च जातीय मुस्लिम पृष्ठभूमि से आते हैं। आज के बॉलीवुड की बात करें तो उसमें निर्णायक भूमिकाओं में शहरी उच्च-जाति वर्ग का कब्जा है। सिनेमा के प्रारम्भिक काल में उच्च जातियों के लोग अपने बच्चों को खासकर महिलाओं को फिल्मों में भेजना पसंद नहीं करते थे लेकिन आज माडलिंग, सौन्दर्य प्रतियोगिताओं और फिल्मों में उच्च वर्ग के लोग ही भरे पड़े हैं क्योंकि फिल्में अकूत धन कमाने का सबसे बड़ा माध्यम बन चुकी हैं।
अब तक की जानकारी में बॉलीवुड में मात्र दो सफल गीतकार शैलेन्द्र और डॉ सागर दलित पृष्ठभूमि से आते हैं। फिल्म निर्माण से जुड़े अन्य क्षेत्रों में निश्चित रूप से तमाम लोग काम कर रहे होंगे लेकिन उनके बारे में कोई नहीं जानता। कुल मिलाकर इस देश का बहुसंख्यक वर्ग फ़िल्मकारों द्वारा अनदेखा किया जाता है जबकि सबसे बड़ा दर्शक वर्ग भी वही बनाता है। अब पा रंजीत, नागराज मंजुले, नीरज घेवान अपने लिए तथा दलित सिनेमा के लिए नया स्पेस एवं विमर्श रच रहे हैं। यह सिनेमा निश्चित रूप से अब तक उपेक्षित दलित-बहुजन समाज और उसके सिनेमा को नए क्षितिज प्रदान कर भारतीय सिनेमा की अपूर्णता को पूर्णता प्रदान करेगा।
सदियों से वंचित शोषित और बहिष्कृत बहुसंख्यक समाज के जीवन और वास्तविकताओं को फिल्मी परदे पर चित्रित करने का जो काम दलित फ़िल्मकारों ने किया है उसने दलित साहित्य की भांति ही एक नई धारा को स्थापित करने का काम किया है। यह हाशिये के समाज के फ़िल्मकारों द्वारा, हाशिये के लोगों के जीवन पर निर्मित परंतु पूरी दुनिया के दर्शकों के लिए प्रस्तुत सिनेमा है जिसे देखकर वे दलितों के जीवन और इतिहास को समझ सकें और साथ ही बॉलीवुड सिनेमा उद्योग और उसकी सोच को भी समझ सकें।
इस एतिहासिक भेदभाव और इग्नोरेन्स का जवाब दलित और पिछड़े पृष्ठभूमि के निर्माता-निर्देशकों पा. रंजीत, नागराज मंजूले, संजीव जायसवाल ने अपनी फिल्मों के माध्यम से देना आरंभ किया है। बहुजन पृष्ठभूमि के फिल्मकारों द्वारा रचित सिनेमा ने एक नई धारा के रूप में पहचान बनाना आरंभ किया है जो शीघ्र ही एक नए आंदोलन के रूप में स्थापित भी होगा।
संदर्भ :
जनार्दन, अरुण (2018) काला डायरेक्टर पा रंजित: सिंस आई एम वोकल अबाउट दलित पीपल एव्री एक्ट इज इन्टरप्रेटेड थ्रू अ कास्ट लेंस, इन द इंडियन एक्सप्रेस , 10 जून 2018।
कुट्टियाह, प्रणव (2018) द स्टोरी ऑफ़ इंडिया: हाउ पा रंजित’स काला चेंज्स द वे वी इमेजिन द सिटी, इन द कारवां मैगजीन.इन, 24 जून 2018।
गिडेंस, ए. (1993) सोशियोलॉजी, ब्लैकवेल पब्लिशर्स, लन्दन.
मंजुले, नागराज (2022) नीड डायलाग अबाउट कास्ट, सो दैट इट एवेंचुअली एंड्स, इन टाइम्स ऑफ़ इंडिया, 3 मार्च 2022।