सन 2011 में प्रकाशित (Foundation Scalles) की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में सेक्स वर्कर्स की कुल संख्या 42 मिलियन है जो मुख्य रूप से सेंट्रल एशिया, मध्य पूर्व और अफ्रीका में पायी जाती है। इंटरनेशनल यूनियन ऑफ़ सेक्स वर्कर्स की वेबसाइट के अनुसार ‘विश्व में सेक्स वर्कर्स सर्वाधिक संख्या अमेरिका, चीन, आस्ट्रेलिया, इंग्लैंड, तुर्की, रूस, नाइजीरिया, जर्मनी और भारत में पायी जाती है। वर्तमान में पूरी दुनिया में 52 मिलियन सेक्स वर्कर्स हैं जिनमें 41.6 मिलियन महिलायें और 10.4 मिलियन पुरुष हैं। ‘दुनिया के कई देश हैं जहाँ वेश्यावृत्ति को क़ानूनी वैधता मिली हुई है और वे सेक्स टूरिज्म के बड़े केंद्र माने जाते हैं। उन देशों की अर्थव्यवस्था में वेश्यावृत्ति का बहुत बड़ा योगदान है। इनमें न्यूजीलैंड, आस्ट्रिया, बांग्लादेश, बेल्जियम, ब्राज़ील, कनाडा, कोलम्बिया, डेनमार्क, जर्मनी, ग्रीस, नीदरलैंड, स्विटज़रलैंड, मेक्सिको, वेनेजुएला, सियरा लिओन, बोलीविया, पेरू और अन्य कई देश प्रमुख हैं’ (भट्टाचार्या, रोहित 2024)। जिन स्थानों पर वेश्यावृत्ति का धंधा होता है उन्हें कोठा, चकला, वेश्यालय, रेड लाइट एरिया, ब्रॉथेल्स आदि नामों से जाना जाता है। आज के इनफार्मेशन और कम्युनिकेशन टेक्नोलॉजी के युग में तमाम वेबसाइट/पोर्टल उपलब्ध हैं जो सेक्स वर्कर्स के बारे में सूचनाएं उपलब्ध कराते हैं। पोर्नोग्राफी वेबसाइट्स, कॉलगर्ल, पॉर्न स्टार्स, जिगोलो जैसे नाम और व्यवसाय आज की वैश्वीकृत दुनिया में जाने जाते हैं। अंतर-धार्मिक घृणा के तहत किए गए हमले और औरतों को बंधक बनाकर जबरदस्ती यौन हिंसा का शिकार बनाने की घटनाएँ दुनिया के कई क्षेत्रों में बढती जा रही हैं। सीरिया, लेबनान, जॉर्डन, अफगानिस्तान और इराक ऐसी हिंसा से सर्वाधिक प्रभावित हैं जहाँ महिलाओं को वेश्यावृत्ति करने को मजबूर किया जाता है। पढ़िये जाने-माने कवि-कथाकार राकेश कबीर का विचारोत्तेजक आलेख।
हिन्दी सिनेमा में जाति का सवाल बहुत पुराना है लेकिन उसे हल करने के लिए जिस शिद्दत और संवेदना की जरूरत थी वह नहीं थी लिहाजा या तो एकांगी चित्रण होता रहा अथवा फ़िल्मकार इससे मुंह चुराते रहे। हालिया वर्षों में दलित परिवारों से निकले फ़िल्मकारों ने अपनी फिल्मों से दलित चित्रण का व्याकरण बदल दिया है। अब वे नए ढंग के मूल्यांकन की मांग कर रहे हैं क्योंकि उन्होंने दलित जीवन की घिसी-पिटी परिपाटी को तोड़कर अधिकारबोध और स्वाभिमान से भरे हुये नायकों को पर्दे पर उतारा है। जाने-माने कवि और सिनेमा के अध्येता राकेश कबीर ने पा रंजीत और नागराज मंजुले की फिल्मों के आधार पर इसकी गहरी छानबीन की है। साथ में नायकत्व की अवधारणा और सामान्य जीवन के अंतर्विरोधों को भी समझने का प्रयास किया है।
जाति व्यवस्था के बारे में इतिहास में कई व्याख्याएँ मौजूद हैं। प्रकार्यात्मक समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से जाति भारतीय समाज की एक अनूठी संस्था है और दुनिया में इसका संगठन सबसे अलग है। जाति ने ऊंच और नीच के आधार पर सम्पूर्ण समाज का एक सीढ़ीगत वर्गीकरण स्थापित कर रखा है। दूसरी अवधारणाओं में व्यवसाय के आधार पर जाति के विभाजन को देखा जाता है। जीवन के लगभग सभी क्षेत्रों में जाति निर्णायक भूमिका निभाती है। चाहे कितना भी आधुनिक संदर्भ बनाया जाय लेकिन उसकी पृष्ठभूमि की गहरी छानबीन करने पर उसकी बुनियाद जाति व्यवस्था में ही मिलती है। इसलिए जाति व्यवस्था को हमेशा दो पहलुओं से देखने पर अधिक मुकम्मल तस्वीर सामने आती है कि कैसे एक ही व्यवस्था एक ही देश और समाज में दो भिन्न स्तरों पर काम करती रही है। एक पहलू तो यह कि जो वर्ग जाति व्यवस्था के सभी लाभ (आय के स्रोत, संपत्ति और सामाजिक सम्मान) ले रहा है, उसके मुक़ाबले एक दूसरा बड़ा वर्ग है जो जाति व्यवस्था के कारण हर प्रकार की हानियों (श्रम का अवमूल्यन, निर्धनता और अपमान) को सदियों से झेल रहा है। यहाँ तक कि भाषा और संस्कृति के स्तर पर भी वह हमेशा कमजोर रहा है और अपने नायकों की जगह अपने उत्पीड़कों को सम्मान देने को अभिशप्त रहा है। कहना चाहिए कि जाति व्यवस्था ने सामाजिक अन्याय पैदा किया। जाति व्यवस्था में भरोसा रखनेवाला हर व्यक्ति किसी न किसी रूप में सामाजिक अन्याय का पोषक है। लेकिन इस अन्याय को वह धर्म-अध्यात्म और मिथकों की चासनी में लपेटकर बड़े पैमाने पर परोसता रहा है। इसलिए भारत के बड़े जनसमूह का प्रायः एकतरफा व्याख्याओं की जाल में फंसना स्वाभाविक है। साहित्य, कला, रंगकर्म और सिनेमा ने भी इसे एक मोहक भुलावे में ही रचा और प्रसारित किया। यह सब सामाजिक न्याय के विरुद्ध सामाजिक अन्यायवादियों का एक बड़ा एजेंडा रहा है। भारतीय सिनेमा में जाति के सवाल को लेकर जाने-माने कवि और सिनेमा के गंभीर अध्येता राकेश कबीर का विचारोत्तेजक विश्लेषण।
राजकपूर और गुरुदत्त हिन्दी सिनेमा के ऐसे फिल्मकार हैं जिन्होंने भारतीय सिनेमा के किशोर काल में ही कसे हुए सम्पादन के साथ विविध विषयों पर मनोरंजक एवं संदेशपरक फिल्में बनाई जिनकी कद्र आज भी दुनिया भर के फिल्मकार करते हैं। आज भी नयी पीढ़ी के फिल्मकार गुरुदत्त जैसे लिजेंड की क्लासिक फिल्मों से सीखते हैं अपनी फिल्में बनाते हैं।
पृथ्वी पर जीवन के अस्तित्व लिए जल एक अपरिहार्य तत्व है। भारतवर्ष में हजारों नदियां हैं, झील, ताल, तालाब और झरने अपनी खूबसूरती के साथ यत्र-तत्र विद्यमान हैं लेकिन भारतीय सिनेमा में पानी और उससे जुड़े मुद्दों को बहुत कम स्पेस मिला है। हालांकि पानी और सिनेमा का हमेशा से करीबी रिश्ता रहा है लेकिन वह पानी के रोमांटिक पक्ष पर ही ज्यादा केंद्रित रहा है। भारतीय सिनेमा में जब हम हिन्दी भाषा से अलग अन्य भाषाओं के सिनेमा को देखते हैं तो पता चलता है कि सामाजिक और पर्यावरणीय विषयों पर कुछ गंभीर निर्देशकों ने सार्थक फिल्में बनाई हैं। पढ़िए डॉ राकेश कबीर का विश्लेषणपरक लेख
हिंदी फिल्म जगत की आठवें और नवें दशक की अत्यंत प्रतिभाशाली अभिनेत्री स्मिता पाटील के अभिनय कला की विलक्षणताओं, आम भारतीय स्त्री की वास्तविक स्थिति और मनोदशा को रुपायित करती अविस्मरणीय भूमिकाओं, समाज के वंचित तबके, विशेष रूप से महिलाओं के प्रति उनकी गहरी संवेदना आदि को रेखांकित करता/समेटता शोधपरक आलेख पढ़ा। यह हिंदी सिनेमा का दुर्भाग्य रहा कि वे बहुत कम उम्र में इस दुनिया से विदा हो गईं अन्यथा वे और सैकड़ों फिल्मों में अपने सशक्त अभिनय से अविस्मरणीय भूमिकाओं को परदे पर साकार करतीं।
बॉलीवुड ही नहीं हॉलीवुड फिल्मों में भी सांपों का प्रस्तुतिकरण पसंदीदा विषय रहा है। गाँव से लेकर शहर तक सांप हर जगह मौजूद भी हैं और उनसे जुड़ी तमाम कहानियां और मान्यताएं लोक में व्याप्त हैं। सिनेमा में इन साँपों को इतना चमत्कारिक दिखाया जाता है कि आम जनता इसे सच मानटी है। नागमणि, इच्छाधारी नाग ये ऐसे विषय है जिन पर हमारे देश में सैकड़ों फिल्मे और टीवी सीरियल बने। कहा जा सकता है कि साँपों से सामना करती जिंदगी डर रोमांच, मनोरंजन, किस्से कहानियों को रोज ही कहती-सुनती और बुनती रहती है।
सिनेमा बनाने वाले सिनेमा के विषय समाज से उठाते हैं भले ही उसका ट्रीटमेंट वे कैसे भी करें। बॉलीवुड हो या हॉलीवुड इधर युद्ध आधारित सिनेमा का चलन बढ़ा है। यह जरूर है कि विदेशी फिल्मों में भारत जैसे देशभक्ति का बखान नहीं दिखाया जाता। इधर महिला सैनिकों के जुनून पर भी अनेक फिल्में बनी। पढ़िये डॉ राकेश कबीर का यह आलेख
अमेरिका में रहने वाले कुल आप्रवासियों में 24 प्रतिशत के लगभग मेक्सिकन लोग रहते हैं जो कि सबसे बड़ा अप्रवासी समूह है। सन 2019 में लगभग 11 मिलियन मेक्सिको में पैदा हुए व्यक्ति अमेरिका में रहते थे। मेक्सिको के अप्रवासियों की संख्या लगातार घटने के बावजूद अभी भी इनकी संख्या बहुत बड़ी है। अप्रवासी होने के कारण अमरीका में रहने वाले मेक्सिकन हॉलिवुड में उपेक्षित होकर अपने जीवन, संस्कृति और सच्चाइयों पर फिल्में बनाईं और खुद को स्थापित किया।
पूरी दुनिया में भारत ही ऐसा देश है जहां जातिवाद का घोर बोलबाला है। इसका प्रभाव समाज की हर संस्कृति और कला में देखने को मिलता है। भारतीय सिनेमा चाहे जिस भाषा में बनी हो वहाँ के चरित्रों में जाति और धर्म को केंद्र में रखा जाता है। आज का सिनेमाई यथार्थ यही है कि नायक या नायिका जो भी कुछ बेहतर परिवर्तन लाने की कोशिश करते दिखेंगे, देशहित में विदेशों से अच्छा कैरियर छोडकर वापस आयंगे या समाज में कुछ भी सकारात्मक घटित हो रहा होगा तो फिल्मों में उन चरित्रों को निभाने वाले नायक-नायिका के टाइटल साफ़ तौर पर उनकी जातीय पृष्ठभूमि को बताते हैं।
जब तक इन निर्जन-दूरस्थ स्थानों पर बसे कमजोर समुदाय के लोगों के साथ अन्याय और अत्याचार होता रहेगा बीहड़ों और जंगलों में बाग़ी पैदा होते रहेंगे। सरकार की उपस्थिति, अन्याय अपमान और अत्याचार से संरक्षण, सरकारी योजनाओं का लाभ, नौकरी और रोजगार में हिस्सेदारी जैसे महत्वपूर्ण कार्यों को सुनिश्चित कराकर ही लोगों के मन में कानून के प्रति सम्मान पैदा किया जा सकता है। लोकतंत्र की सभी संस्थाए जैसे कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका अपनी पहुंच के साथ-साथ भरोसा पैदा करके इन क्षेत्रों में बसे लोगों को मुख्यधारा में जोड़ने और बागी होने से रोक सकती हैं।
तीसरी दुनिया के गरीब देशों से महिलाओं का विकसित देशों के लिए प्रवास करना मानवीय इतिहास की बड़ी घटना है। प्रवासी महिलाएं होम और होस्ट दोनों देशों में पितृसत्ता से आज़ादी चाहती हैं क्योंकि वे कहीं भी जाएं अपनी कमजोर आर्थिक पृष्ठभूमि के कारण उनके साथ शोषण, अपमान और भेदभाव जारी रहता है।
फिल्म आत्मपॅम्फ्लेट,ब्लैक कॉमेडी के माध्यम से समाज में चल रही जाति, धर्म और अन्य गंभीर सामाजिक मसलों को बहुत ही संतुलित तरीके से पेश करती है। निर्माता-निर्देशक के लिए आज के समय में ऐसी प्रस्तुति वाकई साहस का काम है। फिल्म की सबसे बड़ी खासियत यह है कि यह दो अलग विषयों प्रेम और सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों को बहुत ही खूबसूरती से एक साथ लेकर चलती है।
बहुमुखी प्रतिभा के धनी कलाकार हैं। न केवल अच्छा अभिनय करते हैं बल्कि गाते भी बहुत अच्छा हैं और दर्शक उन्हें पसंद करते हैं। फिल्म समीक्षकों से भी उन्हें अच्छी प्रतिक्रियाएं मिली हैं। आयुष्मान ने अपनी फिल्मों में स्पर्म डोनर, नपुंसकता, शीघ्र पतन, समलैंगिक और ट्रांसजेंडर, बॉडी शेम जैसे विषयों पर बुने गए चरित्रों को निभाया। नए क्षेत्रों में सफलता पाने के लिए रिस्क लेना पड़ता है, आयुष्मान और उनके फिल्म निर्माताओं और निर्देशकों ने ऐसे विषयों पर फिल्म बनाकर रिस्क लिए और बड़ी संख्या में दर्शकों के सोचने समझने के स्तर को उच्चीकृत और विस्तृत करने का महत्वपूर्ण काम किया।
मीनाक्षी सुन्दरेश्वर फिल्म अपनी पहचान को स्थापित करने के लिए रिश्तों यानी परिवार और दाम्पत्य जीवन को भेंट चढ़ाने और फिर से रिश्तों में संवेदना तलाशने की कहानी है। यह फिल्म अपनी प्रस्तुति के अंदाज़ में बहुत सहज और दिलचस्प है वहीं विषय के निर्वाह और निहितार्थ में एक जटिल अभिव्यक्ति है जो बताती है कि पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था में अपनी पहचान को बेचैन पीढ़ियाँ पुरानी सामाजिक संरचनाओं, धारणाओं, पितृसत्तात्मक मूल्यों को पीछे छोडकर आगे निकल रही हैं।
एक ज़माना था जब सिनेमा एक तरफ डॉक्टर को भगवान दिखाता था और दूसरी ओर मरीजों भगवान के भरोसे दिखाता था। घर वाले बेचारगी में मंदिर-मंदिर सिर पटकते थे। घंटे से सिर फोड़ते थे। एक जमाना आज है। जब चिकित्सा व्यवस्था भगवान भरोसे है और मरीज भी भगवान के भरोसे। सिनेमा कॉर्पोरेट भरोसे। आखिर वह कैसे दिखा सकता है कि देश के पूँजीपतियों ने सारी गरिमा और संवेदना निगल ली है। उन्हें सिर्फ मुनाफा चाहिए।
फिल्म भीम स्टार वैल्यू के कारण चर्चा में आई। तमिल फिल्मों के चर्चित अभिनेता सूर्या शिवकुमार फिल्म के केंद्र में हैं जिन्होंने वकील चंद्रू की भूमिका निभाई है। गौरतलब है कि चंद्रू मद्रास हाईकोर्ट में न्यायाधीश थे। यह उनके जीवन के उन प्रारम्भिक दिनों की एक सच्ची घटना पर आधारित है, जब वे वकालत करते थे।