लोकसभा चुनावों में बीजेपी के 370 सीटें लाने के दावे और इंडिया गठबंधन के भारतीय जनता पार्टी को केंद्र की सत्ता से हटाने के दावों की व्यापक पड़ताल करें तो कुल मिलाकर 70 सीटों का खेल लगता है। यही 70 सीटें किसी का भी खेल बना और बिगाड़ सकती हैं।
लोकसभा चुनाव 2019 में भाजपा को 303 सीटें मिली थीं, जो कि बहुमत के आंकड़े से 30 सीटें ज्यादा थीं। ये भी है कि भाजपा नीत गठबंधन एनडीए के अन्य घटकों को भी 50 सीटें मिली थीं और इस तरह से एनडीए का कुल टोटल 353 पहुंचा था, जो कि अच्छा-खासा बहुमत होता है।
अब वर्तमान लोकसभा चुनाव में जो जंग है वह 70 सीटों की इसलिए है क्योंकि भाजपा अपने पिछले स्कोर 303 को 370 पार ले जाना चाहती है यानी तकरीबन 70 सीटें इसमें और जोड़ना चाहती है। इसके लिए पूरी पार्टी लगातार प्रयास कर रही है और एक-एक राज्य तथा एक-एक सीट के लिए मंथन कर रही है।
वहीं विपक्षी गठबंधन इंडिया भाजपा की सीटों में से करीब 70 सीटों की कमी करना चाहता है और उसे लगता है कि भाजपा के कुल योग यानी कि 303 में से करीब 70 सीटें कम हो जाएं तो वह 220-250 के आसपास रह जाएगी और बहुमत से इतने दूर हो जाएगी कि फिर अन्य दलों के सहयोग से भी वह सरकार नहीं बना पाएगी।
इंडिया गठबंधन भी अब ईडी और सीबीआई के विपक्षी नेताओं पर लगातार छापों को मुद्दा बनाकर और गठबंधन को ज्यादा से ज्यादा बड़ा बनाकर भाजपा की सीटों में 70 की कमी करने का भरपूर प्रयास कर रहा है। हालांकि उसकी राह में ज्यादा मुश्किलें हैं, जबकि भाजपा का काम काफी आसान लग रहा है।
मीडिया कवरेज और टीवी चैनलों के शोरगुल से हटकर अगर संभावित परिणामों की बात करें तो वास्तव में दोनों ही प्रमुख प्रतिद्वंद्वी मोर्चों के लिए उनके लक्ष्य बहुत कठिन नहीं हैं। ये तो अलग बात है कि दोनों में से किसी एक की ही इच्छा पूरी होगी लेकिन आज की स्थिति ये है कि कोई भी गठबंधन अपना लक्ष्य पाने की स्थिति में आ सकता है। यानी भाजपा सही चालें चले तो वह 370 पार कर सकती है और इंडिया गठबंधन सही टक्कर दे सका तो भाजपा से 70 सीटें झटकने में कामयाब हो सकता है।
तीसरी स्थिति कुछ बीच की हो सकती है, मसलन भाजपा 70 सीटें न सही पर 20-25 सीटें ही बढ़ाने में सफल हो जाए। ऐसी स्थिति भी भाजपा के लिए कमोबेश उतनी ही अच्छी रहेगी जितनी कि 370 पाने पर उसके लिए हो सकती है।
चौथी स्थिति ये हो सकती है कि इंडिया गठबंधन की सीटें कुछ तो बढ़ें लेकिन भाजपा की सीटें ज्यादा कम न हों। तब भी भाजपा के लिए अपने सहयोगियों को जोड़े रखना और नए सहयोगियों को जोड़ पाना आसान होगा और बहुमत से अगर वह 20-25 सीटें कम भी रहती है तो भी वह बहुमत जुटा लेगी।
फर्क ये पड़ेगा कि फिर भाजपा का वर्चस्व इतना ज्यादा नहीं रहेगा और उसे घटक दलों को भी पर्याप्त अहमियत और पर्याप्त भागीदारी देनी होगी। खुद भाजपा के अंदर भी कई स्वर मुखर होने लगेंगे जो अभी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह की सशक्त जोड़ी के आगे चुप रहते हैं।
अब बात करें, उन संभावित 70 सीटों की जो भाजपा की सीटों में जुड़ सकती हैं या उसकी सीटों से घट सकती हैं।
प्रकट तौर पर तो लगता है कि कांग्रेस से सीधे मुकाबले वाले प्रांतों में भाजपा ने पकड़ मजबूत कर ली है और यहां तक कि नए प्रयोग करने का साहस भी जुटा लिया है जो कि दिसंबर में हुए 4-5 राज्यों के विधानसभा चुनावों के बाद मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्रियों की नियुक्ति में उसने दिखाया है।
शिवराज सिंह, रमन सिंह और वसुंधरा राजे को हटाने का विकल्प वह चुनाव बाद भी चुन सकती थी लेकिन यह भाजपा का आत्मविश्वास ही था जो उसने लोकसभा चुनावों से करीब 4 महीने पहले ही तीनों राज्यों में नए मुख्यमंत्रियों को कमान सौंप दी।
वास्तव में कांग्रेस इन्हीं तीन राज्यों यानी मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान के साथ हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, दिल्ली और उत्तराखंड में बेहतर प्रदर्शन करके भाजपा की सीटों में 70 की कमी कर सकती थी लेकिन जिस तरह से इन राज्यों के जीते हुए और हारे हुए नेता लगातार भाजपा ज्वाइन कर रहे हैं, उससे लगता नहीं कि कांग्रेस की कोई रणनीति भाजपा के सामने टिक पा रही है।
कांग्रेस दक्षिण के कर्नाटक और तेलंगाना में ही कुछ बेहतर की उम्मीद कर सकती है। इनमें भी तेलंगाना में कांग्रेस अपना सुधार तो कर सकती है लेकिन वह बीआरएस की सीटें कम करके होगा, भाजपा को सीधे कोई नुकसान होने वाला नहीं है। कर्नाटक की 28 सीटों में से जरूर कांग्रेस जितनी ज्यादा सीटें जीत लेगी वह भाजपा को सीधा नुकसान होगा।
कर्नाटक के लिए भाजपा ने सक्रियता भी दिखाई है और जेडीएस को साथ लेकर क्षतिपूर्ति करने की कोशिश की है। भाजपा की कोशिश यही है कि नुकसान कम से कम हो। पिछली बार कर्नाटक में भाजपा ने 28 में से 25 सीटें जीती थीं, जबकि एक निर्दलीय भी उसके ही समर्थन से जीता था। यानी जेडीएस और कांग्रेस को एक-एक सीट ही मिली थी। कांग्रेस अब चाहे तो इस राज्य में बड़ी सफलता की उम्मीद कर सकती है क्योंकि पिछले साल ही हुए विधानसभा चुनावों में उसने भाजपा को कड़ी शिकस्त देकर सरकार बनाई है। कड़ी टक्कर की स्थिति में भी कांग्रेस 10-15 तक सीटें पा सकती है, हालांकि भाजपा उसे रोकने की पुरजोर कोशिश कर रही है।
ऐसे में इंडिया गठबंधन के 70 अतिरिक्त सीटों के लक्ष्य को हासिल करने की मूल जिम्मेदारी अन्य घटकों यानी क्षेत्रीय दलों पर आ रही है।
कर्नाटक के अलावा दूसरी बड़ी जंग हो रही है पश्चिम बंगाल में, जहां 42 सीटें हैं। 2014 में तो तृणमूल कांग्रेस ने राज्य की 42 में से 34 सीटें जीतकर बड़ी सफलता पाई थी जबकि बीजेपी को केवल 2 सीटें मिली थीं। हालांकि 2019 में बीजेपी ने पूरा जोर लगाया जिसका असर भी दिखा और बीजेपी 42 में से 18 सीटें जीतकर बड़ी ताकत बनकर उभरी थी। तृणमूल कांग्रेस घटकर 22 पर आ गई थी।
इस हिसाब से पश्चिम बंगाल में भाजपा सबसे तेजी से बढ़ती पार्टी मानी जा सकती है लेकिन दिक्कत यही है कि जब 2021 के विधानसभा चुनावों में तृणमूल ने फिर से अपनी स्थिति सुधार ली थी और 294 में से 215 सीटें जीतकर फिर से अपने को स्थापित कर लिया था। स्थिति तो भाजपा की भी सुधरी लेकिन वो वाममोर्चा और कांग्रेस की कीमत पर सुधरी।
ऐसे में पश्चिम बंगाल में भाजपा अपने पिछले प्रदर्शन यानी 18 सीटों को ही अधिक से अधिक दोहराती लगती है और ज्यादा बढ़ने की संभावना अभी व्यक्त कर पाना जल्दबाजी होगी।
अन्य प्रांतों में देखें तो केरल, उड़ीसा, आंध्रप्रदेश या तेलंगाना में भाजपा बहुत मजबूत स्थति में नहीं है। यहाँ पर भाजपा, बीजेडी या वाईएसआर कांग्रेस जैसे दलों के साथ सद्भाव के चलते हुए भी मजबूती से लड़ती नहीं दिखती।
उधर इंडिया गठबंधन के हिसाब से देखें तो यूपी और बिहार में सपा और आरजेडी पिछले दो चुनावों से बुरी तरह से हार रहे हैं, लेकिन इसका मतलब यह भी है कि भाजपा के लिए इन दोनों राज्यों में बढ़ने की ज्यादा गुंजाइश बची नहीं है। हां, इंडिया गठबंधन अगर दम से लड़े और अपनी बात जनता तक पहुंचा सके तो वह जरूर दोनों राज्यों में भाजपा को काफी नुकसान पहुंचा सकता है और 2024 में भाजपा को सत्ता से हटाने के लिए जरूरी 70 सीटों में बड़ा योगदान कर सकते हैं।
उत्तर भारत में केंद्र शासित प्रदेश दिल्ली की 7 लोकसभा सीटें भीअहम हैं और कांग्रेस-आम आदमी पार्टी के गठबंधन और केजरीवाल के जेल जाने से बने माहौल में संभव है, इंडिया गठबंधन कुछ सीटें जीत सकता है जबकि पिछले दो बार से सारी सातों सीटें भाजपा ही जीतती रही है। यानी भाजपा के बढ़ने के चांस तो दिल्ली में नहीं ही हैं।
समग्र रूप में देखें तो इंडिया गठबंधन को कर्नाटक, यूपी, बिहार, पश्चिम बंगाल और दिल्ली में बढ़ने की संभावना दिख सकती है जबकि भाजपा पश्चिम बंगाल में ही कुछ बढ़ सकती है।
इस तरह से पूरे चुनावी परिदृश्य में जहां भाजपा बहुत ताकतवर दिख रही है और 370 पार के नारे ने उसे मनोवैज्ञानिक बढ़त भी दिला दी है लेकिन राज्यवार सीटों और चुनावी माहौल के हिसाब से देखें तो इंडिया गठबंधन भी अपनी 70 सीटें बढ़ाने और भाजपा की 70 सीटें कम कर सकने के लक्ष्य के करीब ही है।
खास बात ये भी है कि इस बार एनडीए के 400 पार के नारे में भाजपा अपने सहयोगी दलों के लिए करीब 30 सीटों का ही लक्ष्य लेकर चल रही है जबकि करीब 50 सीटें तो सहयोगी दलों की 2019 में ही थीं। इसका मतलब सहयोगी दलों की सीटें कम हो रही हैं, भाजपा यह मानकर ही चल रही है।
इसका कारण शायद यह है कि भाजपा को कुछ आभास है कि उसके साथ जो भी दल हैं, वो बहुत खुश नहीं हैं और मजबूरी में साथ हैं। समय आने पर यानी भाजपा के अपने दम पर बहुमत से पिछड़ने और इंडिया गठबंधन के बहुमत के करीब पहुंचने की संभावना दिखते ही वो पाला बदल सकते हैं। इसलिए भाजपा हर राज्य में यथासंभव सहयोगियों को जोड़ती तो दिख रही है लेकिन किसी को ज्यादा सीटें देती नहीं दिख रही है।
एक तरफ ये फैसला भाजपा के लिए हितकारी हो सकता है, वहीं इंडिया गठबंधन भी भाजपा की 70 सीटों में कमी लाकर भाजपा के इस फैसले को अपने हित में मोड़ सकता है यानी एनडीए के मौजूदा घटकों को अपने पाले में ला सकता है।