अर्थनीति और राजनीति दो अलग-अलग दिशाओं में बढ़ रहे हैं क्या? आने वाले समय में देश की राजनीति किस दिशा में बढ़ेगी? ऐसे तमाम प्रश्नों पर दिल्ली चुनाव परिणामों व वोटिंग पैटर्न को ध्यान में रखते हुए, बात करने, समझने की आज़ कई गुना जररूत बढ़ गई है।
कल्याणकारी राज्य के बदलते मायने
रोजगार जो पहले से ही खत्म हो रहे हैं, को देने की हैसियत अब ज्यादातर सरकारों के पास नहीं है।
कल्याणकारी योजनाओं को लेकर सोच को बदली जा रही है, जनता इसे अपना अधिकार माने, इस विचार पर चौतरफ़ा चोट की जा रही है।
इसी प्रक्रिया के तहत रेवड़ी जैसे शब्द का ईजाद किया गया है, जिसके जरिए जनता के स्वाभिमान को बार-बार घायल करने की कोशिश राज्य दर राज्य की जा रही है। कल्याणकारी सरकार की यात्रा धीरे-धीरे रेवड़ी या खैरात सरकार तक चली आयी है। मामूली योजनाओं को भी जनता के ऊपर एहसान की तरह लादे जाने की परंपरा सी चल पड़ी है। जिसके चलते आम जनता के जीवन में कोई बड़ा परिवर्तन तो नही होता, हीनता ग्रंथि का विकास जरूर होता रहता है। पर अब इस सोच में बदलाव आ रहा है।
दिल्ली में पोस्ट पोल सर्वे के जरिए सीएसडीएस के आंकड़े बताते हैं कि लगभग हर 10 में से 3 यानि 30 फीसदी मतदाताओं का दावा है कि मुफ्त उपहार देने से परिवारों के जीवन में कोई बड़ा बदलाव नहीं आता। 60 फीसदी लोग तो और भी आगे बढ़ जाते हैं।
उनका तो ये भी तर्क़ है कि लोगों का कल्याण एक नागरिक अधिकार है, इसलिए केंद्र व राज्य सरकार द्वारा दी गई सहायता को राजनीतिक परोपकार के रूप में नही देखना चाहिए। बल्कि कल्याणकारी योजनाएं लाई ही इसलिए जाती हैं ताकि नागरिक सक्षम, कुशल व उत्तरदायी बन सके।
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अर्थव्यवस्था के बढ़ते संकट की अनदेखी अब और संभव नहीं
सर्वे के जरिए यह भी पता चलता है कि गुणवत्तापरक जीवन की तलाश जनता के बड़े हिस्से में लोकप्रिय मांग बनती जा रही है।
सीएसडीएस सर्वे बता रहा है कि रोज़गार की मांग, महंगाई पर कंट्रोल, संस्थागत भ्रष्टाचार पर रोक,जैसे सवाल दिल्ली में बेहद प्रमुखता हासिल करते गए हैं।
साफ़ व सुंदर पर्यावरण वाली दिल्ली की मांग, सड़क व परिवहन ढ़ांचे का खराब होना, यमुना में गंदगी का और बढ़ते जाना आदि सवाल भी नागरिकों के ज़ेहन में बेहद महत्वपूर्ण सवाल बने हुए पाए गये है।
सर्वे से हासिल तथ्य बता रहे हैं कि बेहतर जीवन से जुड़े समग्र सवालों का जवाब जनता समाधान के रूप में चाहती है।
आम आदमी पार्टी ने अतीत में कल्याणकारी नीतियों के माध्यम से जनता का विश्वास जीता था लेकिन अब अकेले इन नीतियों के बल पर मतदाताओं का विश्वास जीतना मुश्किल सा होता जा रहा है।
मूल आर्थिक सवालों ने जैसे चरम बेरोजगारी, खराब बुनियादी ढांचे व आसमान छूती महंगाई ने कल्याणकारी योजनाओं से मिल रहे लाभों को बेअसर कर दिया।
बढ़ते आर्थिक संकट के दौर में कल्याणकारी योजनाओं महत्वपूर्ण ज़रूर हैं पर अब चरम आर्थिक संकट के दौर में कुछ छोटी, सीमित पहलकदमियों के जरिए, जनता का लंबे समय तक समर्थन हासिल नहीं किया जा सकता है। इसलिए हम देखते हैं कि महिलाओं, गरीबों व निम्न मध्यवर्गीय तबकों में आम आदमी पार्टी के प्रति उत्साह में पर्याप्त कमी आयी है।
सीएसडीएस का सर्वे साफ-साफ कहता है कि कि महिलाओं ने आम आदमी पार्टी को वोट देने में इस बार कंजूसी कर दी है, हालांकि अभी भी महिलाओं ने आप को भाजपा से ज्यादा समर्थन दिया है, पर बावजूद इसके आप को 11 फीसदी कम महिलाओं ने वोट किया।
इसी तरह गरीबों ने भी आप को इस बार भाजपा से ज्यादा समर्थन दिया, पर महिलाओं की ही तर्ज़ पर दिल्ली की गरीब जनता ने भी इस बार आप को 11 फीसदी कम वोट किया है।
इसका मतलब है कि अर्थव्यवस्था जिस तरह से संकट में है उसकी अनदेखी अब आने वाले समय में और नहीं की जा सकती है।
1990 के बाद ही से जारी नवउदारवादी नीतियों ने जो रोजगारविहीन विकास का माडल खड़ा किया है, उस पर पुनर्विचार का समय आ गया है। इन नीतियों की समीक्षा किए बगैर और इस प्रक्रिया में कोई वैकल्पिक अर्थनीति का निर्माण किए बग़ैर कोई नयी राजनीति को खड़ा कर पाना मुश्किल होता जाएगा।
नरम हिंदुत्व व मध्यमार्गी राजनीति के लिए कम होती जगह
2014 के बाद से ही राजनीति के मोर्चे पर एक बड़ा परिवर्तन हुआ है, मसलन नरेंद्र मोदी के आगमन के साथ ही राजनीति के केंद्र में जिस विचार की एंट्री हुई, उससे मध्यमार्गी व साफ्ट हिंदुत्व के लिए संकट बढ़ता गया है।
दिल्ली चुनाव के बाद यह बात और स्थापित हुई है कि हिंदुत्व का जबाब, साफ्ट हिंदुत्व की राजनीति के जरिए देने कोशिश की एक सीमा है। लंबे समय तक टिके रहने की क्षमता इस तरह की राजनीति के जरिए संभव नही है।
हालांकि वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव के दौरान जनता के बड़े हिस्से ने एक संदेश देते हुए एक रास्ता दिया कि हिंदुत्व की राजनीति-सामाजिक न्याय, संविधान व भाईचारा के लिए ख़तरा है और इसी सोच पर खड़ा होकर जनता ने खासकर उत्तर प्रदेश की जनता ने हिंदुत्व के गढ़ को ढ़हा दिया था और विपक्ष को एक वैकल्पिक रास्ते पर बढ़ने का संदेश भी दिया था।
बाद में विपक्ष का एक हिस्सा अपने आपको बदलने की कोशिश करता हुआ दिखा भी, हालांकि इस दिशा में मुकम्मल कार्यक्रम व ढ़ांचे में परिवर्तन की गति धीमी बनी रही,जिसको लेकर सामाजिक-राजनीतिक चिंतको में थोड़ी निराशा भी आने लगी।