गोपालपुर तरौरा गांव के 45 वर्षीय शिवनंदन पंडित के परिवार में चार से छह लोग रहते हैं। एस्बेस्टस के एक छोटे से मकान में पूरा परिवार किसी तरह गुजर-बसर करता है। जमीन बस मकान भर है। खेती योग्य जमीन तो बिल्कुल भी नहीं है। मजदूरी करके हर महीने बमुश्किल 6-7 हजार रुपये कमा लेते हैं। चार बेटे-बेटियां सरकारी स्कूल में पढ़ते हैं। इतने कम पैसे में एक परिवार का गुजारा किस तरह होता होगा, इसकी कल्पना आप कर सकते हैं। घर के अलावा एक टुकड़ा जमीन भी नहीं है, ताकि बेटी की शादी या फिर गंभीर बीमारी की स्थिति में जमीन के उस टुकड़े को बंधक रखकर या बेचकर काम चलाया जा सके। कमोबेश यही स्थिति इस गांव में रहनेवाले सामाजिक व आर्थिक रूप से पिछड़े अधिकतर परिवारों की है।
राजधानी पटना के बाद बिहार के दूसरे सबसे बड़े शहर कहे जाने वाले मुजफ्फरपुर के मुशहरी प्रखंड स्थित इस गांव के वार्ड नंबर 6 में करीब चार दर्जन परिवार ऐसे हैं, जिनके पास सिर्फ घर भर जमीन है। कृषि योग्य भूमि का अभाव इन परिवारों को बार-बार कचोटता है। शिवनंदन पंडित की तरह ही देवेंद्र दास के पास भी खेती करने के लिए जमीन नहीं है। देवेंद्र दास का कहना है कि वह आसपास के किसानों की जमीन पर मजदूरी करके पांच-छह हजार किसी तरह कमा लेते हैं, लेकिन इतनी कमाई में क्या होगा? और फिर यह ज़रूरी नहीं कि प्रतिदिन काम भी मिल जाए। इतने कम पैसे में खाना-कपड़ा, दवा का इंतज़ाम करें या बच्चों की अच्छी शिक्षा की चिंता करें? उन्होंने भी अपने बच्चों का नाम गांव के सरकारी स्कूल में लिखवा दिया है।
गांव के ही अशोक पंडित का कहना है कि हम लोगों के पास बाप-दादा के समय से ही जमीन नहीं है। चाक चलाकर और मिट्टी का बर्तन, मूर्ति आदि बनाकर एक कुम्हार आखिर कितना कमा लेगा कि वह जमीन खरीद सके? हमारी बिरादरी के लोग परंपरागत काम करके बस इतनी ही प्रगति कर सके हैं कि उनकी दाल-रोटी चलती रही। इतनी कमाई थी नहीं कि वह ज़मीन खरीद कर पक्के मकान बना सकें। अब तो आधुनिक तकनीक के ज़माने में मिट्टी के दीये, मूर्ति, कुल्हड़ और बर्तन आदि का जमाना चला गया। अब तो बाजार में सब कुछ मशीन से तैयार प्लास्टिक के सामान बिक रहे हैं। विकास के नाम पर मशीन ने कुम्हार के हाथों का काम भी छीन लिया है। दूसरी ओर कमाई का कोई दूसरा स्थायी साधन भी नहीं है।
आर्थिक रूप से कमज़ोर और रोज़ी रोटी के संकट से जूझ रहे गोपालपुर तरौरा गांव के परिवारों की कहानी तो एक उदाहरण मात्र है। पूरे बिहार में ऐसे बहुत सारे गांव-टोले हैं, जहां के हजारों लोग भूमिहीन हैं और रोज़ी रोटी के संकट से जूझ रहे हैं। अगर कुछ परिवार के पास सर छुपाने के लिए घर भर जमीन है, तो खेती करने के लिए एक छोटा-सा टुकड़ा भी नहीं है। जबकि दूसरी ओर सवर्णों की एक छोटी-सी आबादी के पास जमीन का बहुत बड़ा रकबा आज भी मौजूद है, वहीं इसकी अपेक्षा दलित, आदिवासी, पिछड़े एवं अल्पसंख्यकों की तादाद अधिक होने के बावजूद उनके पास ज़मीन का बहुत कम रकबा है। हजारों अनुसूचित जाति-जनजाति लोगों के पास चटाई बिछाकर सोने लायक भी भूमि नहीं हैं। ऐसे भूमिहीन लोग बिहार में ही नहीं, बल्कि देशभर के विभिन्न राज्यों में भी सड़क के किनारे तंबू लगाकर या फिर खुले आसमान के नीचे परिवार के साथ रात गुजारने को विवश होते हैं।
हालांकि बिहार में भूमिहीनों की हक की लड़ाई को धार देने में और उनकी आवाज़ को बुलंद करने के लिए सूबे के कई जनसंगठन लगातार संघर्षरत रहे हैं। जमींदारों के खिलाफ लड़ाई हो या फिर वास भूमि का पट्टा देने के लिए राज्य सरकार पर दबाव बनाने की रणनीति, ये संगठन हमेशा इन भूमिहीनों की आवाज बनते रहे हैं। इस संबंध में ग्राम वार्ड निर्माण समिति, बिहार के अध्यक्ष आनंद पटेल कहते हैं कि मुजफ्फरपुर जिला में करीब 80 हजार परिवार आज भी भूमिहीन हैं, जो सड़क, रेलवे प्लेटफॉर्म, रेल की पटरियों के किनारे, तटबंध और ग्रामीण हाट की जमीन के किनारे अपने छोटे छोटे बच्चों के साथ रात बिताने को मजबूर हैं। भूमिहीनों के लगातार संघर्ष के बाद राज्य सरकार ने मिशन बसेरा शुरू की, लेकिन दबंगों के सरकारी भूमि और भूदान की जमीन पर कब्जा करने के कारण बार बार इसमें अड़चन आ जाती है।
साल 2016 में राज्य सरकार की ओर से जिले के 5972 भूमिहीनों की पहचान कर उन्हें जमीन दी गयी। बहुत सारे लोगों को वास भूमि के लिए पर्चा तो दिया गया, लेकिन जमीन पर अब तक कब्जा नहीं हो पाया है। पूर्व में बिहार सरकार में भूमि एवं राजस्व मंत्री के पद पर रहते हुए रमई राम ने बिहार भूमि सुधार कोर कमिटी का गठन भी किया था। इस काम में तेजी भी आयी थी और ऐसा लग रहा था कि अब बिहार में कोई भी भूमिहीन नहीं रहेगा। लेकिन वोट की राजनीति के कारण भूमिहीनों को मिशन मोड में जमीन देने का सरकारी प्रयास फिलहाल पूरा होता हुआ दिखाई नहीं दे रहा है। हालांकि, राज्य सरकार ने इस साल भी बिहार बसेरा अभियान 2023 के तहत भूमिहीन परिवारों को आवास देने का संकल्प दोहराया है। ऐसे में यह देखना होगा कि सरकार का यह संकल्प धरातल पर कितना साकार होता है और भूमिहीनों को कब अपनी ज़मीन नसीब होती है? फिलहाल तो उनके लिए पूरा आसमान अपना है, मगर दो गज़ ज़मीन नहीं। (साभार चरखा फीचर)
रिंकु कुमारी, मुजफ्फरपुर, बिहार की सामाजिक कार्यकर्त्ता हैं।
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