जनार्दन
नासपिटा टॉवर जो करावे सो कम। बेटा नौ बजे से ही टॉवर ट्री पर जमा हुआ है। इंजीनियरिंग की पढ़ाई न हुई, तपस्या हो गई। शुद्ध कपास की पैदावर वाली जमीन निकाल कर बेटे का एडमिशन पास के ‘विकास अभियांत्रिकी संस्थान’ में कराया। उम्मीद थी कि बेटा इंजीनियरी करके घर को आबाद कर देगा। बिकी जमीम फिर हाथ आ जाएगी। अपनी बहनों का सही घरों में ब्याह सकेगा। खेती-बारी और आत्महत्या से मुक्ति मिलेगी। मगर कोरोना ने सारा गणित ही फेर दिया। कुर्सी – मेज, ब्लैकबोर्ड और प्रयोगशाला की जगह भविष्य बनाने के फेर में बेटा टॉवर ट्री की डाल पर गिद्ध की तरह बैठे–बैठे प्रोफेसरों का लेक्चर सुनता रहता है। प्रैक्टिकल वाले विषय को सुनकर कितना समझेगा, कैसा इंजीनियर बनेगा, यह तो भगवान ही बताएंगे। नौकरी का इम्तिहान कैसे पास करेगा। हमारा तो हाथ और हथौटी दोनों गया।
[bs-quote quote=”डिजिटल युग की ऐसी परेशानी को सुनकर पत्रकार और उसके साथी भी हलकान हो गए। उनका चेहरा खिल गया। आंखों की चमक बढ़ गई। मौके का जायजा लेने के लिए सबके सब अमला-फैला के साथ छोटकी पहाड़ी की ओर चल दिए।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
पत्रकार और कैमरामैन को देखते ही उन्मेद गजभिए (काल्पनिक नाम) फट पड़े। उन्हें भरोसा था कि टी.वी. पर बोलने से उनकी बात दूर तलक जाएगी और उसका असर होगा। पति की आंखों में भरोसे के बादलों को उमड़ते देख गायत्री गजभिए भी बोलने लगीं – हमारा एक ही बेटा है। सोचा पढ़-लिखकर बड़ा आदमी बनेगा। बचपन से सुनते आए थे कि पढ़ाई–लिखाई से सात पुश्त सँवर जाता है। यहाँ एकदम उल्टा हुआ। सात पुश्त का बना–बनाया गया सो गया, पढ़ाई भी थूक कर आटा गूँथने वाली हो रही है। एडमिशन फीस, हॉस्टल चार्ज, कॉपी-किताब और ड्रेस वगैरह में हम पहले से ही बर्बाद हो चुके थे। जो रुपया गया, वह लौटा नहीं। तीन महीने बाद एक नोटिस आई – कक्षाएं आनलाइन चलेंगी।
गायत्री थोड़ा सुस्ताकर फिर बोलीं – हँसुली और करधनी बेचकर नेट वाला मोबाइल आया तो टॉवर ही नदारद। बेटा घर का पूरा हाल जानता है, इसलिए टॉवर की खोज करने लगा, तो पता चला कि गाँव के बाहर छोटकी पहाड़ी पर बबूल के पेड़ पर टॉवर पकड़ता है। तब से भरी दोपहरी में उसी पेड़ पर बैठकर सुबह नौ बजे से चार बजे तक क्लास करता है। बावन रुपए का नेट रोज लग जाता है।
डिजिटल युग की ऐसी परेशानी को सुनकर पत्रकार और उसके साथी भी हलकान हो गए। उनका चेहरा खिल गया। आंखों की चमक बढ़ गई। मौके का जायजा लेने के लिए सबके सब अमला-फैला के साथ छोटकी पहाड़ी की ओर चल दिए। छोटकी पहाड़ी पर एक बड़ा-सा बबूल का पेड़ था। कॉटेदार डालियों को यथासंभव साफ करके भविष्य का इंजीनियर गेदूरा की तरह बैठ कर मोबाइल स्क्रीन पर नजरें गड़ाए और कान में लीड लगाए वह हुए लेक्चर सुन रहा था। वह सचेत होता, उसके पहले ही पत्रकार के साथ आई टीम फटा–फटा तस्वीरें खींचने लगी। कई सारी तस्वीरें खींच लेने और वीडियो क्लिप बना लेने के बाद, जब पत्रकार ने लाइव करना शुरू किया, तब संजय गजभिए की निगाह पेड़ के नीचे चल रही सरगर्मियों पर पड़ी।
लेक्चर बीच में छोड़कर वह नीचे उतर गया। पूरा माजरा समझ आता उसके पहले वह कैमरे के जद में लिया जा चुका था। और पत्रकार का सवाल-जवाब शुरू हो गया था –
आपका नाम क्या है – उन्मेद गजभिए। पसीने पोछते और सूरज की तिरछी रौशनी से बचते हुए गजभिए ने जवाब दिया।
कौन सी पढ़ाई कर रहे हैं संजय? पत्रकार ने सवाल किया।
इंजीनियरी। संजय ने सपाट उत्तर दिया।
अब तक आधा गॉव छोटकी पहाड़ी पर पलट चुका था। सबकासिर सवालीकीड़ों से फटा जा रहा था। लोग गरीबी, बेरोजगारी, दवाई-पढ़ाई-सिंचाई-गुड़ाई और बच्चों की पढ़ाई के लिए रोज – रोज के नेट पैक भरवाने की समस्या पर बात रखना चाहते थे। पत्रकार समझदार था। वह जान गया कि मसाला मिल चुका है। उसके मन में हेड लाइन भी चमक उठी –‘गॉव – गॉव तक टॉवर लगने से होगा शिक्षा का विस्तार’। बेहद नाकारात्मक परिस्थिति में सकारात्मक स्प्रिट वाली खबर पाकर उसका मन गुलेल होता जा रहा था।
उसने इशारा किया। सारे साथी वैन में बैठ गए। वैन तेजी से दौड़ने लगी। गॉव वाले ठगे से धूल उड़ाती वैन देखते रह गए। टॉवर की तलाश में संजय फिर कंटिले पेड़ पर बच-बचाकर चढ़ने लगा।
जनार्दन इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी एवं आधुनिक भारतीय भाषा विभाग में सहायक प्राध्यापक हैं