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ग्राउंड रिपोर्ट

प्रेम कुमार नट की कहानी : संविधान ने अधिकार दिया लेकिन समाज में अभी कई पहाड़ तोड़ने हैं

नट समुदाय का नाम आते ही जेहन में रस्सी पर चलने वाले छोटे बच्चों की याद आ जाती है क्योंकि बचपन से हमने नटों का वही तमाशा देखा था। लेकिन बड़े होते-होते अब तमाशा दिखाने वाले वे लोग फिर कभी गली-चौराहे-मोहल्ले में दिखाई नहीं दिए। आज इनकी बात इसलिए याद आ गई क्योंकि हमें बेलवाँ की नट बस्ती में इस समुदाय के बारे में जानने के लिए जाना था, लेकिन वहाँ पहुँचने पर ऐसा कुछ दिखाई नहीं दिया। आम लोगों जैसे ही वे अपनी  बस्ती में मगन थे। उनको लेकर प्रचलित मिथक अब अतीत की बात हो चली है।

यह देखना चकित करता है कि प्रेमकुमार नट आज आत्मविश्वास से भरे कम्यूनिटी लीडर की तरह बात करते हैं। उनके गाँव बेलवा सहित 22 मौजों में रहनेवाले नट आज मुख्यधारा में अपनी जगह बनाने की जद्दोजहद में प्रेम के साथ कदम से कदम मिलाकर चल रहे हैं। प्रेम का संघर्ष एक विकट संघर्ष है जिसकी शुरुआत दो जून रोटी और शिक्षा पाने की गहरी रस्साकशी से हुई और अनेक अपमानों और उत्पीड़नों का सामना करते हुये यहाँ तक पहुंची है। समुदाय के संवैधानिक अधिकारों को लेकर जो संघर्ष उन्होंने शुरू किया आज वह एक मुकाम हासिल करता दिख रहा है और किसी और की तरफदारी का मुहताज समुदाय आज स्वयं अपनी लड़ाई लड़ने के लिए तैयार हो रहा है। आज हमारी यात्रा बेलवा नट बस्ती की है।

 बेलवाँ गाँव बनारस से लगभग 22-25 किलोमीटर बाबतपुर से आगे जौनपुर जाने वाले हाइवे के किनारे बसा हुआ है। बेलवाँ गाँव में हम नट बस्ती पहुंचे प्रेम कुमार उर्फ प्रेम नट से मिलने। उनके घर के आँगन में हैंडपंप के साथ सबमर्सिबल पंप की मोटी धार से पानी निकल रहा था। सुबह के 11 बज रहे थे और उनके समुदाय के 7-8 महिलाएं अपने बच्चों को नहलाने और कपड़े धोने का काम कर रही थीं। बहता हुआ पानी खेत में लगे बैंगन की सिंचाई कर रहा था। गुड-पानी पीने के बाद बात करने के लिए हम घर के सामने लगे नीम पेड़ के नीचे कुर्सी डालकर बैठ गए। वे बात करने के लिए एकदम तैयार थे।

 बात शुरू करते ही सामाजिक कार्यकर्ता प्रेम कुमार उर्फ प्रेम नट ने बाबा साहब को धन्यवाद दिया जिनकी वजह से वे पढ़ पाए, क्योंकि उन्होंने हर वंचित, दलित, पिछड़े समुदाय को पढ़ाई करने पर जोर दिया था। लेकिन इससे भी ज्यादा प्रेम अपने माता-पिता को याद कर भावुक हो गए, जो खुद अनपढ़ थे और मजदूरी करते हुए भी अपने बच्चों को पढ़ाया। यह बात आज से 32-35 वर्ष पहले की है।

 अपने परिवार के बारे में बताते हुए प्रेम ने कहा कि उनके पिताजी के दादा मतलब उनके परदादा खानाबदोश थे। स्थायी निवास कहीं नहीं था। पूरा कबीला एक जगह कुछ दिन रहने के बाद आगे बढ़ जाता था। उनके पूर्वज राजस्थान के रहने वाले थे। खानाबदोश होने के कारण उनके परदादा के चार भाई जब यहाँ पहुंचे तो वापस राजस्थान नहीं गए। उनके चारों भाइयों में से एक बिहार, एक लखनऊ, एक इलाहाबाद में बस गए। प्रेम के पिता महंगूराम बनारस में बाबतपुर में आकर कबीले के साथ ठहर गए।

प्रेम नट के माता-पिता जिन्होंने पढ़ने के लिए प्रेरित किया

वे पहले जो पारंपरिक काम किया करते थे, धीरे-धीरे बंद हो गया। पिताजी ब्राह्मण और ठाकुरों की बस्ती में साफ-सफाई के साथ उनके जानवरों की देख-रेख किया करते थे। इसी काम के बदले उन्हें एक-दो किलो अनाज मिल जाता, जिससे बहुत ही मुश्किल से परिवार के पाँच लोगों का पेट पलता।

जहां भोजन ही सबसे बड़ी चुनौती था वहाँ शिक्षा के बारे में क्या सोचते

प्रेम कुमार उर्फ प्रेम नट का जन्म जिस नट समुदाय में हुआ, वहाँ आज भी शिक्षा का अभाव है। लोगों का जीवन मजदूरी पर आश्रित है। प्रेम नट तीन भाई और एक बहन हैं। उनके पिता महंगूराम और माँ शांति देवी खुद अनपढ़ थे, लेकिन अपने तीनों लड़कों को पढ़ाया। पिता का कहना था कि शिक्षा बहुत जरूरी है। उनकी बहन का बाल विवाह हुआ था और जब प्रेम नट पाँच वर्ष के थे, तभी उनका देहांत हो गया था।

प्रेम कहते हैं कि उन लोगों से पहले नट बस्ती का कोई भी बच्चा स्कूल नहीं गया था। पिताजी ने हम तीनों भाइयों को स्कूल भेजा। बड़े भाई ने दसवीं तक और तीसरे नंबर वाले भाई ने नौंवीं तक पढ़ाई की और मजदूरी करने मुंबई चले गए। घर की माली स्थिति बहुत खराब होने के कारण काम करना जरूरी था। वहाँ मजदूरी करते हुए दोनों भाइयों ने मुझे अपनी पढ़ाई जारी रखने के लिए प्रेरित किया। इस वजह से मैं अपनी पढ़ाई जारी रख पाया। पिताजी का कहना था कि शिक्षा के बिना बदलाव संभव नहीं है इसलिए पढ़ाई बहुत जरूरी है। आज इस बात को सोचता हूँ तो मुझे अपने माता-पिता पर गर्व होता है कि मजदूरी करने वाले अनपढ़ माँ-बाप ने अपना पेट काटकर हम लोगों को पढ़ाया।

पिता अपनी आर्थिक दिक्कतों को देखते हुए कमाने कोलकाता चले गए और वहाँ मजदूरी करने लगे। गाँव में माँ ने भी सर पर टोकरी रख मनिहारी का सामान बेचना शुरू किया। आसपास के गाँव जाती और सामान बेचती। इससे इतनी कमाई हो जाती कि घर की स्थिति में थोड़ा सुधार हुआ। थोड़ा साहस बढ़ा कि पढ़ सकते हैं।

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प्रेम नट पत्नी माना नट और दोनों बच्चों के साथ

स्कूल चले हम

स्कूल जाते हुए मन बहुत खुश रहता था, बालमन में स्कूल में होने वाले भेदभाव का जरा भी आभास नहीं होता था क्योंकि समझ ही नहीं थी। लगता था स्कूल ऐसा ही होता है।

समाज में नट समुदाय को नीची जाति का माना जाता है और उनसे इतना भेदभाव किया जाता था कि ऊंची जाति के लोगों के सामने बैठ भी नहीं सकते। खाना-पीना तो बहुत दूर की बात है। भेदभाव के प्रति बुरा लगने की समझ कॉलेज के बाद जब एक सामाजिक संस्था के साथ काम किया तब आई।

पहले यही समझ आता था कि हम नट हैं तो छुआछूत होता है। लेकिन अपमानजनक तरीके से छुआछूत होने पर मन दुखी और परेशान रहने लगा। पढ़ने के दौरान कक्षा में कई बार ऐसा हुआ।

प्रेम बताते हैं कि ‘उन दिनों मैं कक्षा 3 या 4 में था। मुझे पेशाब लगी। कक्षा में पढ़ने वाले सचिन तिवारी और मैं, दोनों पेशाब करने गए। वहाँ सहपाठी सचिन तिवारी ने मेरे ऊपर पेशाब की धार बहा दी। मुझे बहुत बुरा लगा। इसकी  शिकायत अध्यापक से करने पर उन्होंने उसे डांटने का कह बात वहीं दबा दी। उस समय तो बुरा लगा लेकिन इतना नहीं कि किसी पर पेशाब करना या मल-मूत्र फेंकना जघन्य अपराध होता है। इसका एहसास सामाजिक काम करने के दौरान हुआ। यह पहली घटना थी।

पाँचवीं के बाद कक्षा छ: से कक्षा बारह तक पढ़ने के लिए बसनी इन्टर कॉलेज में दाखिला ले पढ़ाई की। मैं गणित में  बहुत होशियार था। उन दिनों नट समुदाय के किसी बच्चे का स्कूल जाना ही बड़ी बात थी और फिर वह बच्चा गणित जैसे कठिन माने जाने वाले विषय में पूरे 45 में 45 अंक प्राप्त कर ले, यह और भी बड़ी बात। मेरे साथ एक दूसरे बच्चे को भी पूरे अंक मिले। प्राचार्य तक बात पहुंची कि दो बच्चों ने गणित मे पूरे अंक हासिल किए हैं। कॉपी लेकर अध्यापक को बुलवाया गया और अध्यापक से पूछा गया तो जवाब में अध्यापक ने कहा कि ‘इ नट बस्ती का बच्चा है’। तब क्या था प्राचार्य ने कहा कि ‘उसके लिए 42-43 अंक बहुत है।’ मैंने भी सोचा कि अध्यापक कह रहे हैं तो सही होगा।’

उन दिनों के दंश को याद कर अब प्रेम की आँखें तकलीफ से भर जाती हैं। यह और बात है कि वे बहुत मजबूत मन के हो गए हैं। उन्होंने बताया –‘ऐसे ही भूगोल पढ़ाने वाले एक अध्यापक थे चंद्रिका पाठक, जिनके कक्षा में आते ही मैं पीछे वाली बेंच पर जाकर बैठ जाता था क्योंकि वे मुझे प्रेम के नाम से नहीं पुकारते थे बल्कि ‘नटवा’ कहते थे। ‘नटवा किधर बैठा  है?’ पूरी कक्षा के सामने इस तरह का संबोधन मुझे आत्मग्लानि से भर देता था।  इस वजह से मैं उनके सामने आने से बचता था।’

वह कहते हैं ‘पढ़ने में होशियार होने के कारण सब अध्यापकों की कक्षा में सामने की बेंच पर बैठता था। माता-पिता मजदूरी करते। गरीब थे और जाति के नट थे इसलिए मैंने न कभी विरोध किया न ही शिकायत। मुझे लगता कि शिकायत करने पर कहीं स्कूल से नाम न काट दिया जाए।’

लेकिन केवल अध्यापक ही नहीं बल्कि स्कूल के अनेक बच्चे भी खाने की छुट्टी में खेलते हुए चिढ़ाते। इनमें एक यादव लड़का था, जो बोली बोलता ‘नटवा नटाने वाला, भैंसा कटाने वाला।’ उसकी बात सुन बहुत से बच्चे मुझे चिढ़ाते लेकिन मैं चुपचाप सुनता क्योंकि हम या हमारे परिवार के लोग विरोध करने की स्थिति में नहीं थे। वे लोग आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक और मानसिक रूप से बहुत पीछे थे।

प्रेम कहते हैं ‘मेरी डॉक्टर बनने की इच्छा थी लेकिन बिना तैयारी के मेडिकल का एण्ट्रेंस दिया इसलिए न होना था न हुआ। इसके बाद बीएससी में दाखिला लिया। किसी तरह दो वर्ष निकल गए लेकिन जब आखिरी वर्ष की पढ़ाई बाकी थी तब माँ इतनी बीमार पड़ गई कि बिस्तर में चली गई। माँ की कमाई बंद हो गई। खाने की परेशानी हो गई। तब कॉलेज की पढ़ाई करना मुश्किल हो गया और बीच में ही पढ़ाई छोड़ दी।

बेरमा गाँव में अंबेडकर जयंती मनाते हुए

आगे सवाल था कि क्या किया जाए

बेलवाँ गाँव पटेल बहुल गाँव है। यहाँ ब्राह्मणों के साथ दूसरी पिछड़ी जातियों के लोग भी रहते हैं। लेकिन नट बस्ती गाँव से बाहर एक कोने में है, जहां केवल नट समुदाय के लोग रहते हैं। एक समय यह बस्ती बहुत गंदी थी। न साफ-सफाई थी न ही किसी को इसका ज्ञान था। लोग बहुत बुरी स्थिति में यहाँ रहते थे।

नट अपना पारंपरिक काम तमाशा दिखाना, सांप का खेल दिखाना, भिक्षावृत्ति करना, शादी व शुभ अवसर पर दूसरे समुदाय में जाकर महिलाओं का नाचना और आल्हा गायन करना आदि था। इन कामों से पहले तो परिवार चल जाया करता था लेकिन धीरे-धीरे इनसे आमदनी कम होने लगी तो लोग मजदूरी करने के लिए दिल्ली-मुंबई जाने लगे।

भीख मांगना और दूसरे के खेतों में काम जाति से छुटकारा कहीं नहीं था

प्रेम ने भी बचपन में भीख मांगी। कोई भी बड़ा त्योहार आता तो सुबह से ही पास के गाँव में जाकर होली, दीवाली, ईद, बकरीद में खाना मांगते। कुछ लोगों के यहाँ से खाने को मिलता। कुछ खाते कुछ घर लेकर आते और कुछ लोग दुरदुराकर भगा देते। लेकिन पूरे वर्ष इन त्योहारों का इंतजार करते। प्रेम ने याद करते हुए कहा कि ‘जब कहीं से कुछ खाना मिलता तो उसे खाने में बहुत आनंद आता क्योंकि ऐसा खाना तो हमारे यहाँ बनना संभव ही नहीं था। उस दिन बहुत मजा आता।’

गाँव में ही गेहूं की लवाई(कटाई) का काम भी किया क्योंकि और कोई दूसरा काम नहीं था। जिनके यहाँ लवाई का काम करने जाता, सभी ऊंची जाति के लोग थे। दिनभर खेतों में काम करते। काम के बीच में सभी मजदूरों के लिए नाश्ता आता, तब वहाँ भेदभाव होता। सभी को थाली या प्लेट में नाश्ता दिया जाता लेकिन मुझे या छोटी जाति के मजदूरों को पत्तल में नाश्ता दिया जाता और अंजुली से पानी पिलाया जाता। कुछ लोग एक कदम आगे थे। वे लोग हमारा प्लास्टिक बर्तन और गिलास अलग रखते थे।

आज भी गाँव में अपने को प्रगतिशील मानने वाले कुछ लोगों से पानी मांगने पर सबसे पहले सवाल करते हैं,’कौन बिरादर हो?’

मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने बदल दी जीवन की राह

प्रेम कहते हैं कि ‘मैं लगातार काम की तलाश में था कि कहीं कोई नौकरी मिल जाए। इसी बीच हमारी नट बस्ती में मानवाधिकार कार्यकर्ता आये और नटों से जानकारी इकट्ठी करने लगे कि यहाँ किसके पास कौन सी सुविधा है और कौन-सी नहीं। कौन से कागजात हैं? मैं उनके पीछे-पीछे घूमता रहा। मैं भी वही काम करना चाह रहा था। अपनी पढ़ाई बताई तो उन्हें आश्चर्य हुआ कि नट समुदाय का एक लड़का बारहवीं किया हुआ है। उन लोगों ने पास की बस्ती में मुझे 400 बच्चों को पढ़ाने की जिम्मेदारी सौंपी और 400 रुपए वेतन तय हुआ। उन दिनों 400 रुपए मेरे लिए बहुत थे। मैं इतना खुश था कि मुझे काम मिल गया, इसके बाद मुझे रास्ते मिलते गए। लोगों का सहयोग मिलता गया और मैं काम करता आगे बढ़ता गया।

‘ऐसे शुरू हुआ मेरे काम का सफर। एक साल पढ़ने के बाद, उसी सामाजिक संस्था के साथ अपने समुदाय के लिए आसपास के गांवों में काम करना शुरू किया, जो आज तक जारी है। लोगों की शिकायत सुन उनके लिए आवेदन तैयार करना और डीएम के पास पहुंचाना, उनका हल निकालना, यही रोज का काम था। रोज 20-25 आवेदन लेकर 30 किलोमीटर तक साइकिल चलाते हुए डीएम कार्यालय तक जाता था। सामाजिक कार्यकर्ता के सभी काम सीखे।’

प्रेम बताते हैं कि अभी वे बनारस में नट समुदाय के 28 मौजा में काम करते हैं। वे अपने समुदाय के युवा लड़कों को इस काम के लिए तैयार कर रहे हैं। ताकि आने वाली पीढ़ी जरूरत पड़ने पर आवाज उठा सके। किसी समुदाय का जीवन उसका लीडर ही बदल सकता है। वह मुस्कराकर कहते हैं ‘मुझे यह बात समझ आ गई।’

यह रास्ता आसान नहीं था

 नट समुदाय में जन्म लेने को लेकर बहुत अपमान झेलना पड़ा। वे कहते हैं इस बात को कभी भूल नहीं सकता कि ऊंची जाति के लोग जीवन में भाषा और व्यवहार के माध्यम से जितना छोटा दिखा सकते थे, दिखाए। वे सभी घटनाएं मुझे आज भी पीड़ा से भर देती हैं लेकिन उन्हीं घटनाओं से मुझे ताकत भी मिली।

मैंने यह महसूस किया कि हमारे समुदाय में एक बदलाव आया है, वह यह कि पहले खानाबदोश थे और अब उनकी अपनी बस्तियां हो गई हैं, उनमें स्थायित्व आ गया है। लेकिन बाकी जीवन पहले से भी ज्यादा मुश्किल भरा हो गया है क्योंकि उनके लिए कोई ऐसा काम नहीं है जिसे वे करके अपने शहर में दो रोटी कमा सकें। उन्हें कमाने के लिए बाहर जाना पड़ता है।

 प्रेम कहते हैं कि ‘वैचारिक परिपक्वता आने के बाद एक बात समझ आई कि जिस समाज का कोई नेता नहीं होता उसके समाज का कोई भी विकास नही हो सकता। दिमाग में इस बात के आते ही मैंने तय किया कि कुछ भी हो, मुझे अपने समाज के लिए काम करना होगा।’

इस वजह से शुरुआती दिनों में मनावधाधिकार कार्यकर्ताओं के साथ काम करने का फायदा यह हुआ कि प्रेम नट ने अपने समुदाय के लोगों के लिए काम करना शुरू किया। वह बताते हैं कि ‘वर्ष 2005 से लेकर आज तक मैंने नट और मुसहर समुदाय की समस्याओं को लेकर ही काम किया। यह जरूर है कि इसके लिए मुझे बीच-बीच में स्थानीय संस्थाओं से छोटी-छोटी अनियमित फेलोशिप मिली जो पर्याप्त नहीं थी लेकिन मैंने जो ठाना, उसी में लगा रहा।’

वैसे तो पूरे बनारस में नटों की जनसंख्या 8000 है लेकिन प्रेम नट 28 मौजा के लिए काम करते हैं। यदि बाकी जगहों से नट बस्ती में किसी भी तरह की समस्या की सूचना मिलती है तो उसे सुलझाने में हर वक्त तैयार रहते हैं। वह कहते हैं कि ‘सभी बस्ती में लोगों के पास मेरा फोन नंबर है, रात-बेरात कोई भी दिक्कत होने पर मुझे फोन आते हैं।’

बदलाव करने की ताकत मिली 

बेलवाँ गाँव में 35 वर्ष से राजेंद्र प्रसाद तिवारी प्रधान रहे, जिन्होंने बस्ती के लिए कुछ नहीं किया। जब भी नट समुदाय के लोग अपनी समस्या लेकर जाते तो उन्हें हड़का देते। डर से वे लोग उनके पास जाना बंद कर दिए। प्रेम बताते हैं ‘अगली बार ढेबुआं गाँव में प्रधानी चुनाव की मीटिंग कर रहे थे। ऊंची जाति वाले मुझे धमकाने और मारने के लिए वहाँ आ पहुंचे लेकिन और लोगों के होने से मार नहीं पाए फिर भी धमकाते हुए कहा, ‘नेता  बनत हउव, ठीक नाहीं बा’। इस बात को लेकर हम लोगों ने सत्यनारायण गिरी को प्रधानी के लिए खड़ा करवाया। उन्हें 600 वोट मिले लेकिन वे चुनाव हार गए। लेकिन उसके बाद राजेंद्र तिवारी को हटाने के लिए जोर-शोर से लग  गए और गाँव के पटेल प्रधान चुन लिए गए। यह समाज गाँव-समाज के लिए पहली बड़ी लड़ाई थी। उसके बाद थोड़ा आत्मविश्वास आया और काम करने का जोश भी।’

नट समुदाय में बालविवाह का खूब प्रचलन था। लेकिन इसके समय-समय पर मैंने जागरूकता अभियान चलाया जिस की वजह से आज बाल विवाह की संख्या में काफी कमी आई है।

मैंने नट समुदाय के साथ मुसहर समाज के लिए लगातार काम किया, जिसकी वजह से उन्हें यह तो समझ आ चुका है कि कौन उनके हितैषी हैं और कौन शोषक। इस वजह से गाँव के सवर्ण समाज के लोगों को नागवार गुजरती थी कि उनके चंगुल से ये लोग पूरी तरह निकल जाएंगे।

इस दौरान वर्ष 2007 में अपना काम कर रात में बाइक से वापस आते वक्त बेलवाँ गाँव के कोपरेटिव के पास संजय सिंह और उसके एक साथी ने रोका और जेब से पिस्टल निकाल कर माथे पर तान दी। दूसरे साथी ने कालर पकड़ धमकी देते हुए कहा, ’बहुत नेता बनते हो, यदि हमारे गाँव आकर गाँव वालों को पढ़ाओगे तो जिंदा नहीं बचोगे।’ मैं बहुत घबरा गया। उनसे कहा कि अब ऐसा नहीं होगा। रात घर आया। लेकिन कई दिनों तक मन में उथल-पुथल चलती रही।’

प्रेम कहते हैं ‘इस तरह की अनेक धमकियाँ मुझे मिलती थीं। केवल मुझे ही नहीं पत्नी माना को भी मिली। मेरा बड़ा बेटा छोटा था। उसे स्कूल बस तक छोड़ने रोज स्टॉप तक जाना होता था। एक दिन बस स्टॉप पर दूसरे गाँव का एक आदमी आया और माना से कहा, ‘तुम प्रेम की पत्नी हो? हामी भरने के बाद उसने पूछा क्या हुआ भैया? जवाब देते हुए उस व्यक्ति ने कहा कि अपने पति को समझा ले कि गाँव के लोगों को बरगलाए मत। नहीं तो ये जो तुम्हारा बच्चा है, वह बचेगा नहीं।’ इतना सुनते ही वह घबरा गई। उसके बाद उसने यहाँ नहीं रहने का तय किया और वह हमारे भाइयों के पास बच्चे को लेकर मुंबई चली गई और वहीं हमारे दोनों बच्चों की पढ़ाई हो रही है।

तीस्ता सीतलवाड़ के साथ प्रेम नट

इन्हीं धमकियों और दबाव को लेकर अप्रैल 2009 में मैंने भी मुंबई जाना तय किया। वहाँ पहुँचने पर काम के नाम पर कुछ नहीं था। ऐसे समय में मैंने 3 महीने अपने भाइयों के साथ ठेले में आलू-प्याज की फेरी लगा मजदूरी की। इस तरह के काम का अनुभव तो था नहीं और मन भी नहीं लग रहा था। लेकिन परिवार था इसलिए कुछ काम तो करना था। मैंने 3000 का नुकसान करवा दिया।

अंतत: अनेक जगह फोन करने के बाद वर्ष 2010 में मुझे मानवाधिकार और सामाजिक कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ के यहाँ काम मिला। मुझे आरटीआई दाखिल कर जेल के कैदियों के जातिगत आंकड़ों के साथ, विचाराधीन कैदी आदि की विभिन्न जानकारी हासिल करने का काम करना था, जो मुझे नहीं आता था लेकिन उन्होंने मुझे सिखाया। मैंने साढ़े तीन-चार वर्ष काम किया। वहीं मैंने कंप्यूटर चलाना और थोड़ी-बहुत अंग्रेजी बोलना भी सीखा।

वहाँ भी सामाजिक काम ही कर रहा था लेकिन मन यहाँ के नट और मुसहर समुदाय में लगा हुआ था। वहाँ से 2014 में वापस आकर अब 40 गांवों में काम कर रहा हूँ। इतने साल हो गए काम करने से उन्हें समझाते-बताते समुदाय में लोगों को रहने का सलीका आ गया। साफ-सफाई को लेकर लेकिन अभी तक शिक्षा के लिए जागरूक नहीं हो पाए हैं।

यहाँ काम नहीं है। इस वजह परिवार को लेकर 8 महीने कमाने के लिए मुंबई, दिल्ली में रहते और 4 महीने गाँव में। यह बच्चों की पढ़ाई में सबसे बड़ी बाधा है। स्थिरता नहीं रहने की वजह से किस स्कूल में बच्चों का दाखिला करवाएं। अशिक्षा के चलते माहौल भी अच्छा नहीं रहता।

नट समुदाय के बच्चे शिक्षित हो सकें। पढ़-लिखकर आगे बढ़ें इसके लिए मैंने यहाँ की महिलाओं के लिए घर पर ही काम की कोई परियोजना लाना चाहता हूँ ताकि घर के पुरुष यदि कमाने बाहर गए हैं तो महिलायें यही रहते हुए कमाई करें और बच्चों को स्कूल भेज पाएं। बिना पढ़े बच्चों का जीवन भी ऐसे ही चलेगा, कभी कोई बदलाव नहीं आ सकता।

प्रेम नट बात करते हुए अपने सपने को लेकर खो से जाते हैं। कहते हैं परिवर्तन है लेकिन बहुत धीमी गति से हो रहा है पर उम्मीद है कि उनका सपना पूरा होगा – नट समुदाय शिक्षित होगा, सम्मानजनक तरीके से जीवन बिताएगा।

अपर्णा
अपर्णा
अपर्णा गाँव के लोग की संस्थापक और कार्यकारी संपादक हैं।

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