बॉलीवुड की ज्यादातर फिल्मों की विषयवस्तु युवाओं पर ही केंद्रित रही है क्योंकि वे प्रायः प्यार मुहब्बत, नाच-गाने और शादी ब्याह के मुद्दों के इर्द-गिर्द घूमती है। देश के विभाजन और आजादी के समय परेशान युवाओं के लिए देवानंद की बाज़ी(1951) फिल्म का गाना ‘…अपने पे भरोसा है तो एक दांव लगा ले’ एक सुखद भविष्य का सपना लेकर आया था। बाद मे राजकपूर, दिलीप कुमार और गुरुदत्त युवाओं के विभिन्न मुद्दों को लेकर परदे पर आते रहे और उनकी कहानियाँ दिखाते रहे।
सन साठ और सत्तर के दशक मे राजेश खन्ना और अमिताभ ने अपनी फिल्मों से क्रमशः रोमांस और गुस्से का इजहार किया। बॉलीवुड फिल्मों मे युवाओं के साथ उनके नए विचारों-व्यवहारों की विरोध करती हुई, उनके माता-पिता की पीढ़ी भी मौजूद रहती है। राजकपूर ने तो अपनी फिल्म ‘कल आज और कल’ (1971) के माध्यम से तीन पीढ़ियों पृथ्वीराज कपूर, राज कपूर और रणधीर कपूर के बीच दिन-प्रतिदिन के उठापटक को दिखाया है, जिसे समाजशास्त्र की भाषा मे पीढ़ी-अंतराल या जनरेशन गैप कहते हैं। समय में आए बदलावों के अनुसार सोच, प्रथा, परंपराओं, जनरीतियों और व्यवहारों में परिवर्तन होते हैं। पुरानी पीढ़ी अतीतजीवी होती है जबकि युवा पीढ़ी नएपन की समर्थक होती है। इसी कारण दोनों मे मतभेद और तनाव पैदा होते हैं।
आजादी के बाद की तनाव भरी फिजा ‘गरम हवा’ का युवा पलायन करने की जगह यहीं अपने पुरखों की जमीन और आबोहवा से सामंजस्य बिठाने की कोशिश करता है, आजादी के दो दशकों के बाद का बेरोजगार युवा अपने असंतोष को आंदोलनों और विद्रोही स्वर को आवाज देते हुए दिखता है।
अस्सी के दशक में मारकाट, हिंसा और ‘दूर कहीं जाएंगे नई दुनिया बसाएंगे’ वाला युवा इज्जत, जातीय द्वेष, रीति-रिवाज, परंपरा की घुटन से भागने और नई दुनिया बसाने की उम्मीद लिए घर छोड़ता है लेकिन जब वह रोज-रोज की जरूरतें पूरी करने के लिए जूझता है तो इश्क का भूत उतरने लगता है और वहीं फिर से जालिम दुनिया के पंजे में फँसकर कराहने लगता है।
नब्बे के दशक मे आदित्य चोपड़ा अपनी पहली फिल्म ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’(1995) में इस विचार के साथ आते हैं कि हमको प्यार से पालने-पोसने वाले माँ-बाप खलनायक नहीं होते, उन्हें समझाकर, मनाकर उनका आशीर्वाद लेकर शादी-विवाह किया जा सकता है।
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डीडीएलजे फिल्म की समीक्षा करने वाली समाजशास्त्री पैट्रिसिया ओबेराय अपनी किताब ‘फेमिली किन्शिप एंड मैरिज’ में आंकड़ों का विश्लेषण करते हुए आपसी सहमति से होने वाले अन्तर्जातीय विवाहों के माध्यम से समाज में आ रहे सकारात्मक परिवर्तनों की तरफ संकेत करती हैं।
आज तीस साल बाद अन्तर्जातीय विवाहों की बढ़ती स्वीकारोक्ति हर घर तक पहुँच चुकी है जो जाति आधारित भारतीय समाज की बंद संरचना को खोलकर रख रही है। सिनेमा ने समाज मे आ रहे इन बदलावों को परदे पर प्रस्तुत तो किया है लेकिन इसी के साथ जातीय श्रेष्ठता बोध से भरी फिल्में जिनमें जाति वाले टाइटल पर खूब जोर दिया जा रहा है, बनाई जा रही हैं।
बॉलीवुड में समय-समय पर विभिन्न विषयों पर फिल्में बनी हैं। युवाओं के मुद्दों और समस्याओं पर केंद्रित फिल्में भी हिन्दी सिनेमा में बनी और दर्शकों द्वारा पसंद की गईं
मेरे अपने(1971), मंजिल(1979), बुलंदी(1981), सत्ते पे सत्ता(1982), शक्ति(1982) मशाल(1984), नाम(1986), जो जीता वही सिकंदर(1992), माचिस(1996), रहना है तेरे दिल में(2001), दिल चाहता है(2001), साथिया(2002), हजारों ख्वाहिशें ऐसी(2003), हासिल (2003), युवा(2004), सलाम नमस्ते(2005), रंग दे बसंती(2006), थ्री इडियट्स(2009), गुलाल(2009), आलवेज कभी कभी(2011), चक्रव्यूह(2012), फुकरे(2013), तमाशा(2015), डियर ज़िंदगी(2016), गली बॉय(2019), छिछोरे(2019), प्यार का पंचनामा(2011), तांडव(2021)।
सिनेमा में बेरोजगार और भटकते युवा
गुलजार निर्देशित पहली फिल्म मेरे अपने (1971) में युवाओं की बेरोजगारी, भटकाव, निराशा और सिस्टम के प्रति एक विद्रोह का भाव दिखाई पड़ता है। यह फिल्म राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता बंगाली फिल्म अपनजन(1968) की रीमेक थी। अमित उपाध्याय(2019) सन 1973 और सन 2019 के एनएसएसओ के बेरोजगारी सर्वे के डाटा के हवाले से लिखते हैं, ‘जब यह फिल्म बनी तब भी बेरोजगारी थी और अब भी बेरोजगारी गंभीर मुद्दा है।’ फिल्म के शहर (इलाहाबाद) में युवाओं के दो परस्पर विरोधी गैंग हैं, जो अपने-अपने इलाके की रहनुमाई करते हैं। एक तरफ हैं कीडगंज के श्याम(विनोद खन्ना) और दूसरी तरफ हैं चेनू(शत्रुधन सिन्हा)। नए हंगामे खड़ा करना इनके गैंग के सदस्यों का काम है। गैंग के युवाओं में निराशा के साथ एक विद्रोह का भाव है जो उनके गाए एक व्यंग्यात्मक गीत मे दिखता है:
बी.ए. किया है, एम.ए. किया/लगता है वो भी एवें किया। काम नहीं है वरना यहाँ/आपकी दुआ से सब ठीक है।
फिल्म के एक सीन मे जब गैंग के ये विचलित नौजवान अपने कालेज मे तोड़फोड़ करते हैं तो साथ मे ‘सारे जहां से अच्छा हिंदुस्तान हमारा’ गाना भी हारमोनियम पर बज रहा होता है। गुलजार इस दृश्य के माध्यम से आर्थिक असमानता और बेरोजगारी के शिकार हताश निराश नौजवानों के सिस्टम के प्रति गुस्से को अपनी स्टाइल मे दिखाते हैं।
उच्च शिक्षित बेरोजगार युवाओं को हर दौर की राजनीति ने अपने हित में लाभ उठाया जो फिल्मों मे मेरे अपने से लेकर तांडव (2021) तक दिखती है। परदे के पीछे से राजनीतिक दलों के समर्थन से छात्र गुटों के बीच की प्रतिद्वंदिता हिंसक रूप भी ले लिया करती है। गोरखपुर, लखनऊ, इलाहाबाद, और बनारस जैसे उत्तर प्रदेश के शहरों मे ऐसी हिंसा बहुत आम रही है। आनंदी देवी बनी मीना कुमारी आपस मे संघर्षरत युवाओं को देश की गरीबी और खराब हालात की तरफ ध्यान दिलाकर उन्हें सही रास्ते पर लाना चाहती है। सन 1970 के दशक मे पूरे भारत वर्ष के युवाओं में गरीबी और बेरोजगारी को लेकर जबरदस्त असंतोष और आक्रोश था। इन्हीं परिस्थितियों में सत्तर के दशक में एंग्री यंगमैन का उदय हुआ। मेरे अपने फिल्म के विनोद खन्ना, जंजीर और दीवार वाले अमिताभ की ही बराबरी करते दिखते हैं।
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सत्तर के दशक में अमिताभ एंग्री यंगमैन के अवतार में फिल्मी परदे पर आए थे लेकिन इसी दशक में सन 1979 में एक फिल्म आई थी मंजिल जो एक ऐसे नौजवान अजयचंद्र की कहानी थी जो गरीबी मे पला बढ़ा था लेकिन वह नौकरी नहीं करना चाहता है। वह अच्छा गायक है लेकिन गायकी को अपना कैरियर नहीं बनाना चाहता शायद वह जीवनयापन के लिए पर्याप्त नहीं होता। वह एक साइन्टिफिक कंपनी बनाकर गैलवनों मीटर का अपना व्यापार करना चाहता है जिसे स्कूल कालेजों की प्रयोगशालाओं मे सप्लाई किया जा सके। लेकिन उसका बूढ़ा मैकेनिक अनोखे लाल (ए. के. हंगल) पैसों के लालच में धोखा देता है। शहर का बड़ा व्यापारी छगन मल एक नौजवान को अपने व्यापार क्षेत्र मे घुसने नहीं देना चाहता और उसके हर प्रयास को असफल कर देता है। बड़ा व्यापारी और उद्योगपति अपने से कमतर पूंजीपति के व्यापार को अधिग्रहण और मर्जर के नाम पर समाप्त कर देना चाहता है। दिल्ली में एक प्रतिस्पर्धा आयोग (2003 में स्थापित) है जो बाजार में प्रतियोगिता को बनाए रखने के लिए जिम्मेदार संस्था है लेकिन वह कितना काम कर पाता है शायद काम लोगों को ही मालूम है।
मंजिल फिल्म में अमिताभ यहाँ कोई क्रांति नहीं करते बल्कि एक आम इंसान की तरह परिस्थितियों का सामना करते हैं और उम्मीद का दामन कभी नहीं छोड़ते। अपनी विधवा माँ की सीख से आगे बढ़ते हैं कि जो काम मिस्त्री अनोखेलाल कर सकता वह ग्रैजुएट अजयचंद्र क्यों नहीं कर सकता। मंजिल फिल्म को देश के हर नौजवान को एक बार देखना और सीख लेनी चाहिए।
तिग्मांशु धूलिया बॉलीवुड के समर्थ निर्देशक हैं। सन 2003 मे आई फिल्म हासिल में उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र गुटों और उनके राजनीतिक कनेक्शन और हिंसा परस्त राजनीति का यथार्थ चित्रण किया है। गुलजार की फिल्म ‘मेरे अपने’ का लोकेशन भी इलाहाबाद में था। इरफान खान, आशुतोष राणा, जिम्मी शेरगिल और ऋषिता भट्ट जैसे कलाकारों को लेकर इस फिल्म का निर्माण किया था।
धर्मवीर भारती ने अपने उपन्यास गुनाहों का देवता की पृष्ठभूमि मे इलाहाबाद विश्वविद्यालय और उसके छात्रों, प्रेमियों, नेताओं सभी का चित्रण किया था। कुछ ऐसे विद्यार्थियों का जिक्र किया था जो एक बार यूनिवर्सिटी में प्रवेश कर गए तो फिर निकलने का नाम नहीं लेते। वे एक कोर्स से दूसरे मे एडमिशन लेकर कैंपस और हॉस्टल मे बने रहते हैं, जेएनयू में ऐसे वरिष्ठ नागरिकों को बाबा कहने का रिवाज है।
हासिल फिल्म में ऐसे ही दो बाबा टाइप अपराधी छात्र नेता/गैंग लीडर हैं गौरी शंकर पांडे (आशुतोष राणा) और रणविजय सिंह (इरफान खान)। इसी विश्वविद्यालयी वातवरण मे दो पढ़ाकू और प्रेमी जीव भी हैं अनिरुद्ध (जिम्मी शेरगिल) और निहारिका (ऋषिता भट्ट)। एक मुठभेड़ मे गौरीशंकर पांडे को मारने के बाद रणविजय अकेले कैंपस पर प्रभावी हो जाता है। परिस्थितियों का लाभ उठाकर वह अनिरुद्ध की प्रेमिका से जबरदस्ती शादी करना चाहता है। यह टिपिकल गोरखपुरिया और इलाहाबादी ऐटिटूड है कि जब खुद को प्रेमिका ना मिले तो जिसकी एक लड़की दोस्त या प्रेमिका हो उसको पब्लिकली कूट दिया जाए और खुद के लिए स्पेस बनाया जाए।
यहाँ यह बताना भी जरूरी हो जाता है कि हीरो लोग केवल फिल्मों मे ही गुंडों को मारपीट देते हैं असल ज़िंदगी मे तो वे नाजुक और पिटाई खाने वाले ही होते हैं, विश्वास न हो तो बनारस, गोरखपुर और इलाहाबाद वालों से पूछा जा सकता है। राजनीति और समय करवट लेती है और तमाम उठा पटक के बाद कुम्भ के मेले की भीड़ के बीच अनिरुद्ध के हाथों रणविजय मारा जाता है। इसमे गौरीशंकर पांडे का भाई बद्रीशंकर अनिरुद्ध की मदद करता है। फिल्म सुखांत है लेकिन यह अगड़ों, पिछड़ों की राजनीति, छात्र राजनीति के हिंसक और घटिया राजनीतिक गठजोड़ को खोलकर रख देती है।
युवा फिल्म की कहानी कोलकाता शहर के अलग-अलग पृष्ठभूमि के तीन युवाओं के बारे मे है। लल्लन (अभिषेक बच्चन), बिहार बॉर्डर पर स्थित उत्तर प्रदेश के चंदौली जिले का का रहने वाला है और कोलकाता शहर में प्रवासी है। वह मंत्री प्रसेनजीत भट्टाचार्ज (ओम पुरी) के लिए गुंडे का काम करता है। ललन के लिए पैसे के अलावा कुछ भी जरूरी नहीं है उसके व्यक्तित्व मे नैतिकता नाम की कोई चीज दिखाई नहीं पड़ती। वह अपने काम और पैसे के लिए पत्नी (रानी मुकर्जी), दोस्त (विजय), भाई (सोनू सूद) सबको छोड़ देता है या जान से मार देता है। दूसरा युवक माइकल है जो अच्छा विद्यार्थी और स्टूडेंट लीडर है। वह अमेरिकी विश्वविद्यालय की स्कालरशिप को छोड़कर सक्रिय राजनीति मे आना चाहता है। राजनीति गंदी चीज और उसमें अच्छे लोग नहीं आने चाहिए ऐसी धारणा को वह तोड़ना चाहता है। मंत्री के मना करने और रोकने की हर कोशिश के बावजूद माइकल और उसके चार दोस्त विधानसभा चुनाव लड़ते और जीतते हैं। उनके सामने यह चुनौती है कि वे अपने जुनून से राजनीति को बदल सकेंगे या खुद सिस्टम के अनुसार बदल जाएंगे। तीसरा युवक अर्जुन (विवेक ओबेराय) एक आईएएस अफसर का दिलफेंक, गैर जिम्मेदार टाइप बेटा है। उसे अमेरिका आगे की पढ़ाई के लिए जाना है लेकिन उससे ज्यादा जरूरी है किसी खूबसूरत लड़की के इश्क मे पड़ जाना जिसके लिए मीरा (करीना कपूर) मिल भी जाती हैं। ना चाहते हुए भी परिस्थितियाँ उसे माइकल की टीम का हिस्सा बनाती हैं और वह एक अच्छे युवा के रूप मे राजनीति के स्वरूप को बदलने के लिए जुट जाता है। ।
बंगाल लंबे समय तक लेफ्ट की राजनीति का गढ़ रहा है। वहाँ के विश्वविद्यालयों के कैम्पसों मे छात्र संघ की राजनीति भी बहुत प्रभावी रही है। नक्सलबाड़ी आंदोलन भी पश्चिम बंगाल के युवाओं ने ही आरंभ किया। बंगाल की पृष्ठभूमि के बहाने मणि रत्नम जैसे समर्थ निर्देशक ने देश भर के छात्र संघों पर गुंडा तत्वों के कब्जे और अपराधी किस्म के राजनीतिज्ञों द्वारा अपने संगठन की तरह उन्हे चलाने को एक्सपोज किया है। जमे जमाए राजनीतिज्ञ कभी नहीं चाहते कि कोई युवा लोकप्रिय हो और उन्हे चुनौती दे। वे खुद ही राजनीति को एक कठिन और गंदा पेशा बताकर अच्छे लोगों को उधर ना आने की सलाह देते हैं और अगर कोई ना माने तो गुंडा तत्वों का प्रयोग करके हिंसा करने से भी नहीं चूकते हैं।
अपराध, राजनीति और छात्र संघों के घटिया गठजोड़ ने ही लिंगदोह कमेटी की सिफारिशों को लागू करने पर सरकारों को मजबूर किया, जिससे देश के लिए अच्छे नेताओं को तैयार करने की नर्सरी माने जाने वाले छात्रसंघ बेकार और कमजोर हो गए। परंतु निर्देशक ने यहाँ सकारात्मक भाव दिखाया है और अच्छी राजनीति और युवा नेताओं के सपनों एवं उम्मीदों को टूटने से बचा लिया है।
मणिरत्नम की फिल्म युवा, समाज में नैतिक मूल्यों के पतन के मुद्दे पर मुख्य रूप से केंद्रित है। नब्बे के दशक के आरंभ मे युवाओं के गांवों और छोटे शहरों से बड़े शहरों की तरफ प्रवास का एक दौर आया जो आगे लगातार जारी रहा। रोजगार की तलाश और कम समय में ज्यादा धन कमा लेने की इच्छा ने नैतिकता के पहलू को पीछे धकेल दिया। प्रवास उच्च शिक्षा और धनार्जन के लिए अपरिहार्य है लेकिन यह तय करना हम सभी की जिम्मेदारी है कि क्या सही है और क्या गलत? क्या हम पैसे कमाने के लिए कई लोगों की, अपने सगे रिश्तेदारों की हत्या कर सकते हैं? इन सभी सवालों को उठाने और उनका जवाब देने की कोशिश इस फिल्म में मणिरत्नम ने की है।
उल्का अंजरिया और जोनाथन शापिरो अंजरिया (2008:136) अपने लेख ‘टेक्स्ट, जेनर, सोसाइटी: हिन्दी यूथ फिल्म्स एण्ड पोस्ट कोलोनियल डिज़ाइअर’ (जर्नल साउथ एशियन पोपुलर कल्चर) में मणिरत्नम की फिल्म युवा के बारे मे लिखते हैं,
‘Yuva reinfuses the question of youth with morality and direction, without detracting from the triumph and the jubilance, which locates it squarely in the contemporary age. By resurrecting the youth from this world in shambles and reinvigorating the social world with an ethical alternative to consumption and irresponsibility, Yuva recenters the youth as the subject of history within a progressive social landscape. The film is neither a celebration nor an explicit critique, but works off the dynamism of the genre of youth films to propose a synthesis that remains provisionally committed to the future, even as it learns from the past.’
चक्रव्यूह(2012) प्रकाश झा निर्देशित एक महत्वपूर्ण फिल्म है। प्रकाश झा सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर संवेदनशील फिल्में बनाते रहे हैं। चक्रव्यूह शब्द का परिचय हम लोग महाभारत के युद्ध में अभिमन्यु के खिलाफ की गई व्यूह रचना से मानते हैं। नक्सलवाद भारत की एक गंभीर समस्या रही है। इसके पक्ष और विपक्ष मे अपने तर्क रहें हैं। इस फिल्म में भी दो दोस्त हैं एक पुलिस अफसर (अर्जुन रामपाल) और दूसरा सोशल ऐक्टिविस्ट(अभय देओल) और दोनों अपने-अपने नजरिए से नक्सलवाद को देखते समझते हैं। यह फिल्म ऋषिकेश मुकर्जी निर्देशित अमिताभ और राजेश खन्ना अभिनीत फिल्म नमक हराम(1973) की याद दिलाती है। नक्सलवादी आंदोलन हिंसा का सहारा लेकर शोषण से मुक्ति का रास्ता ढूँढता है। उसके लिए सत्ता बंदूक की नाल से निकलती है की विचारधारा प्रमुख है। पुलिस और सिस्टम के लोग नक्सलवाद को एक गंभीर समस्या मानते हुए हिंसा और बल प्रयोग से ही समाप्त करना चाहते हैं लेकिन ऐक्टिविस्ट नक्सलवाद के कारणों को समाप्त करने और हथियारबंद विद्रोह से राज्य के शोषण से मुक्ति पाना चाहते हैं। इस आंदोलन मे युवक और युवतियाँ ही नेतृत्व प्रदान करते हैं। साथ ही नक्सलवाद को समाप्त करने के मिशन पर भी एक युवा आईपीएस अफसर को लगाया जाता है।
नक्सलवाद या कोई अन्य आंदोलन क्यों उभरता है और हिंसक रूप लेता है? जब इसके कारणों की पड़ताल की जाती है तो पता चलता है कि समाज मे गैर बराबरी है, संसाधनों के बंटवारे मे घोर विषमता है, गाँव और शहर, अमीर और गरीब में, जातीय समाज और आदिवासियों मे, अंधाधुंध विकास और समावेशी-सतत विकास मे बृहद अंतर है। वे जनसमूह जो सदियों से वंचित, पीड़ित और शोषित हैं, जिनके जल-जंगल-जमीन पर पूंजीवादी सिंडीकेट कब्जा करना और प्रकृति को उजाड़ना चाहते हैं, उनके खिलाफ आंदोलन उभरते हैं व हिंसक भी हो जाते हैं।
इन समस्याओं का कोई दो टूक समाधान नहीं होता और उसमें वक्त भी लगता है। हिंसा का जवाब हिंसा से देने से जंगल न्याय को बढ़ावा मिलता है। चक्रव्यूह फिल्म इन सभी पहलुओं को दर्शकों के सामने लाकर उन्हे प्रशिक्षित करने का काम करती है। नक्सलवादियों और सेना के जवानों के बीच निरंतर अघोषित युद्ध से संसाधनों की बर्बादी, और हिंसा से जनहानि होती थी जो कमोबेश अभी भी जारी है। प्रकाश झा की चक्रव्यूह नक्सलवाद की समस्या को जिम्मेदारी से प्रस्तुत करने का काम करती है।
और अंत में
समय के साथ नौजवानों के मुद्दे बदलते रहते हैं। आज बेरोजगारी और महंगे कोचिंग संस्थानों में तैयारी करने वाले और गरीब घरों के नौजवान सब पेपर लीक और घटती नौकरियों से परेशान हैं। प्राइवेट स्कूलों की बढ़ती फीस और कर्ज भी एक गंभीर मुद्दा है। आउट्सोर्सिंग के माध्यम से सस्ती नौकरियां देने वाली व्यवस्था ने नई जमींदारी व्यवस्था को जन्म दिया है। दस हजार महीने की नौकरी पर अटके हुए युवा को अपना भविष्य अंधकारमय दिखता है।
सामाजिक गतिशीलता का गला घोंटने के कारण यथास्थितिवाद बढ़ रहा जिसके कारण अमीर और गरीब के बीच की खाई निरंतर बढ़ रही। नीट, सीयूटी, आईआईटी के प्रवेश परीक्षाओं ने केन्द्रीकरण की प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया है और लीक होते पेपर्स ने युवाओं के भरोसे को तोड़कर रख दिया है। सेना मे भर्ती की नई पद्धति अग्निवीर ने नौकरी के समय को कम करके अनिश्चताओं को बढ़ाकर छात्रों और युवाओं को आंदोलित होने को मजबूर किया है। कंप्यूटरीकरण और अन्य कई कारणों से सेना, रेलवे और चतुर्थ श्रेणी की नौकरियों मे भर्ती बंद होने या बेहद कम हो जाने के कारण युवाओं मे निराशा का भाव है। बढ़ती जनसंख्या और लगातार प्रतिकूल होता जाता पर्यावरण भी युवा पीढ़ी के लिए मुश्किलें लेकर आ रहा है।
इस लेख मे हमने भारतीय सिनेमा के अलग-अलग दौर के चार फिल्मों अपने (1971), मंजिल (1979), हासिल (2003), युवा (2004), चक्रव्यूह (2012) के विषयवस्तु के विश्लेषण के माध्यम से युवाओं के मुद्दों और उन मुद्दों पर उनके प्रत्युत्तर को देखने परखने की कोशिश की है। आरंभ से देखें तो दिलीप कुमार, राजकपूर(श्री 420) से लेकर अब तक युवाओं की बेरोजगारी ने प्रवास और संघर्ष के विभिन्न दौर देश और सिनेमा दोनों मे घटित हुए हैं।
मशाल, शक्ति, मजदूर, कानून अपना अपना फिल्मों में दिलीप कुमार क्रमशः अनिल कपूर, अमिताभ, राजबब्बर एवं संजय दत्त को ईमानदार पत्रकार, जिम्मेदार बेटा और नागरिक, मिल मालिक और पुलिस अधिकारी बनाते सिखाते दिखते हैं। अमिताभ बच्चन ने भी नई पीढ़ी के लड़के और लड़कियों का हाथ थामे इक्कीसवीं सदी के तीसरे दशक तक लाने का काम किया है।
आज के सिनेमा में समलैंगिकता, लिव इन रिलेशन्शिप, बेरोजगारी, गाँव और शहर की राजनीति पर अंतरजातीय, अंतर धार्मिक प्रेम संबंध और विवाह पर बहुत कुछ नए दृष्टिकोण प्रस्तुत हुए हैं और दर्शकों ने उनसे बहुत कुछ सीखा समझा भी है। उम्मीद है कि यह लेख भी हमारे सोच समझ के दायरे को बढ़ाने का काम करेगा।