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ग्राउंड रिपोर्ट

क्या मायने हो सकते हैं मायावती की असंभव शर्त के

भतीजे आनंद का रुतबा उत्तर प्रदेश की राजनीति में तभी बढ़ सकता है जब विपक्ष के सबसे मजबूत नेता का तमगा अखिलेश यादव से छिन जाये और चंद्रशेखर रावण जैसे युवा दलित स्वर कमजोर हो जाएँ। कहावत है कि कबूतर की कलाबाजी उसी आसमान में होती है जिसमें बाज के झपट्टा मारने का डर नहीं होता है।

लोक सभा चुनाव-2024 को लेकर विपक्षी खेमें की राजनीति अब INDIA केन्द्रित होती जा रही है। INDIA का बड़ा एजेंडा है कि वह भाजपा के नेतृत्व में चल रहे एनडीए के हिन्दुत्ववादी एजेंडे के खिलाफ दलित, पिछड़ा और अल्पसंख्यक समाज को एकत्रित करे और भाजपा के विजय रथ को रोक दे। राहुल गांधी ने लगातार भाजापा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कटघरे में खड़ा करने का प्रयास किया है और वास्तविक मुद्दों पर सरकार की खामियों को उजागर भी किया है। राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री की जिन तमाम नीतियों पर हमला बोला था या जिन मुद्दों पर सरकार को आगाह किया था वे बाद में बहुत हद उसी रूप में सामने आईं, उनके जिस रूप में परिणत होने की बात राहुल गांधी ने कही थी। नोट बंदी, कोरोना, पीएम केयर फंड से लेकर प्रधानमंत्री की सांप्रदायिक छवि पर राहुल गांधी ने लगातार सरकार को घेरने का प्रयास किया। चीन के मामले पर प्रधानमंत्री की चुप्पी पर भी उन्होंने बार-बार सरकार और राष्ट्र को आगाह करने का प्रयास किया। सरकार की चीन मुद्दे पर विफलता दिखाने के लिए राहुल गांधी ने सीमांत क्षेत्र तक की यात्राएं भी की। इसके पहले राहुल गांधी ने कन्याकुमारी से लेकर कश्मीर तक की पदयात्रा करके भाजपा को विभाजनकारी और नफरती राजनीति की वाहक के रूप में स्थापित करने की कोशिश की।

अगर यात्रा के बाद हुये कर्नाटक चुनाव को राहुल की यात्रा का लिटमस टेस्ट माना जाय तो निश्चित रूप से यह यात्रा सिर्फ राहुल की राजनीति के लिए ही नहीं, बल्कि विपक्ष की पूरी राजनीति के लिए नए प्रवेशद्वार बनाती दिखती है। राहुल और कांग्रेस ने जिस तरह से कर्नाटक से, भाजपा को सत्ता से खारिज किया उसने सम्पूर्ण विपक्ष को एक नया राजनीतिक मॉडल दे दिया।

इसी के सहारे बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की पहल पर विपक्ष के 26 से ज्यादा दल भाजपा के खिलाफ एकजुट हुये। फिलहाल इंडिया की दो बड़ी बैठकें हो चुकी हैं। जैसे-जैसे बैठकें बढ़ती जा रही हैं वैसे-वैसे गठबंधन की तस्वीर भी साफ होती जा रही है। मुंबई में इंडिया की तीसरी बैठक 31 अगस्त और 1 सितंबर को होने जा रही है। बैठक से पूर्व एक बड़ी चर्चा बसपा सुप्रीमो मायावती के नाम की भी सामने आई है। विपक्ष के गठबंधन ने विपक्षी एकता को ताकतवर बनाने के लिए मायावती को भी इस गठबंधन में आमंत्रित करने का प्रयास किया है। इस प्रस्ताव को मायावती ने सिरे से भले ही खारिज न किया हो पर उन्होंने जिस तरह की प्रतिक्रिया व्यक्त की है उससे यह तो स्पष्ट हो गया है कि मायावती एजेंडे के साथ नहीं आगे बढ़ रही हैं, बल्कि वह सीधे ही लाभ-हानि का जोड़-तोड़ कर रही हैं। गठबंधन की ओर से वार्ता के लिए अधिकृत कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारुख अब्दुल्ला के सामने उन्होंने शर्त रखी है कि यदि उत्तर प्रदेश में उनकी पार्टी को 45 सीटें दी जाती है तब ही वह गठबंधन में शामिल होने पर विचार कर सकती हैं।

यह एक तरह से असंभव-सी शर्त है। गठबंधन में पहले से ही अखिलेश यादव अपने पूर्व के सहयोगी दलों के साथ शामिल हैं। कांग्रेस भी उत्तर प्रदेश में चुनाव लड़ेगी ही। और अगर पिछले विधानसभा चुनाव को आधार बनाया जाये तो यकीनन बसपा प्रदेश में एक जातीय वोट बैंक से ज्याद अब कुछ भी नहीं दिखती है। विधानसभा में उनका मात्र एक प्रतिनिधि ही पहुँच सका है। जबकि अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी 111 सीटों के साथ बसपा से बहुत आगे खड़ी दिखती है।

ऐसी स्थिति में मायावती की यह मांग सीधे तौर पर ही खारिज होती दिखती है। कांग्रेस, सपा, रालोद महज आधे में सिमटने को कत्तई तैयार नहीं होंगे। मायावाती की इस मांग को लेकर फिलहाल मुंबई बैठक में चर्चा जरूर होगी पर मायावती ने बैठक से पूर्व यह भी घोषित कर दिया है कि वह चुनाव पूर्व न तो इंडिया के साथ जाएंगी, न ही एनडीए के साथ। यह कहकर मायावाती ने अपना मंसूबा स्पष्ट कर दिया है, पर इससे यह भी साफ दिख रहा है कि  मायावती जहां एक ओर इस लोकसभा चुनाव के बहाने अपनी खोई हुई ताकत हासिल करने का प्रयास कर रही हैं वहीं दूसरी ओर जिस तरह से विपक्षी गठबंधन के सामने शर्त रखी है उससे यह साफ दिख रहा है कि  दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक समाज के राजनीतिक साझे के सपने को मायावती आसानी से फलीभूत नहीं होने देंगी।

मायावती एक अपनी राजनीति को एकला चलो पर केन्द्रित करने का दिखावा करती दिख रही हैं उससे यह साफ है कि वह विपक्ष पर दबाव बनाने की अधिकतम कोशिश करेंगी पर इस बात को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि यदि मायावाती को मनमुताबिक सम्मान विपक्ष के खेमे से नहीं मिला तो उनकी चुनावी लड़ाई भाजापा और एनडीए के अन्य दलों से नहीं बल्कि विपक्ष के गठबंधन से होगी। मायावती की राजनीति का जमीनी विश्लेषण किया जाय तो समझा जा सकता है कि इस समय वह न केवल अपने राजनीतिक दरवाजे स्वयं ही बंद कर रही हैं बल्कि वह बिना शोर-शराबे के पार्टी के हस्तांतरण की तैयारी भी कर रही हैं। वह अपनी राजनीतिक पारी खत्म करके भतीजे आनंद को पार्टी की कमान सौंप देना चाहती हैं।

इस हस्तांतरण से पहले मायावती चाहती हैं कि वह दलित-पिछड़े और अल्पसंख्यक समाज की राजनीति करने वाले अखिलेश यादव को जितना संभव हो कमजोर बना दें, क्योंकि भतीजे आनंद का रुतबा उत्तर प्रदेश की राजनीति में तभी बढ़ सकता है जब विपक्ष के सबसे मजबूत नेता का तमगा अखिलेश यादव से छिन जाये और चंद्रशेखर रावण जैसे युवा दलित स्वर कमजोर हो जाएँ। कहावत है कि कबूतर की कलाबाजी उसी आसमान में होती है जिसमें बाज के झपट्टा मारने का डर नहीं होता है।

मायावाती ने अपने हित-लाभ के लिए सिद्धांत से समझौता करने  से कभी गुरेज नहीं किया है और जिस पार्टी को मनुवादी पार्टी कहकर अपनी राजनीतिक चेतना का बीज अंकुरित करती हैं, सत्ता के लिए उसी मनुवादी पार्टी के साथ समझौता कर लेती हैं।

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