भाजपा भारत ही नहीं, वर्तमान में दुनियां की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी है। इसे लेकर बेशुमार अध्ययन हुये हैं, खासतौर से इसकी हैरतंगेज सफलता को लेकर। जिस पार्टी के 1984 में महज दो सांसद थे, वह कैसे देखते ही देखते अप्रतिरोध्य बन गई, इसे लेकर अध्ययन होना ही था, जो हुआ भी। बहरहाल देश-विदेश में इसे लेकर जो बेहिसाब अध्ययन हुये हैं, उनमें जो सबसे बड़ी साम्यता उभर कर आई है, वह यह है कि इसने धर्मोन्माद के जरिये ही विस्मयकर सफलता का इतिहास रचा है। बहरहाल इसकी सफलता के पृष्ठ में जिस धर्मोन्माद को चिन्हित किया गया है उसकी गहराई में जाने पर पता चलेगा कि इसने जिस धर्मोन्माद के जोर से सफलता का इतिहास रचा है, वह गुलामी के प्रतीकों की मुक्ति का अभियान चला कर ही पैदा किया गया है और इस अभियान की अग्रिम पंक्ति में रहे हैं, वे साधु-संत जिनके कदमों मे लोटकर सीएम से लेकर पीएम और राज्यपाल से लेकर राष्ट्रपति खुद को धन्य मह्सूस करते रहे हैं। भाजपा के पितृ संगठन संघ को साधु-संतों की स्वीकार्यता का इल्म रहा, लिहाजा उसने गुलामी के सबसे बड़े प्रतीक बाबरी मस्जिद की जगह राम मंदिर खड़ा करने के लिए ‘रामजन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति’ और ‘धर्म स्थान मुक्ति यज्ञ समिति’ जैसी कई समितियाँ साधु- संतों के नेतृत्व में खड़ी की। राम जन्मभूमि मुक्ति अभियान में उनकी भूमिका युद्ध के मोर्चे पर अग्रिम पंक्ति में तैनात फौजियों जैसी रही। साधु-संतों के नेतृत्व में गुलामी के सबसे बड़े प्रतीक के खिलाफ लम्बे समय तक चले आंदोलन के फलस्वरुप धर्मोन्माद चरम पर पहुंचा, जिसके जरिए भाजपा एकाधिक बार सत्ता में आई और देखते ही देखते अप्रतिरोध्य बन गई।
साधु-संतों के नेतृत्व में ढ़ाई दशक से अधिक समय तक चले रामजन्मभूमि मुक्ति आंदोलन ने संघ और उसके राजनीतिक संगठन भाजपा को गुलामी के प्रतीकों की मुक्ति आंदोलन की ताकत का अहसास करा दिया। उसके बाद वे समय-समय पर काशी की ज्ञानवापी, मथुरा के शाही इदगाह, जौनपुर की अटाला मस्जिद, अहमदाबाद की जामा मस्जिद, बंगाल के पांडुआ की अदीना मस्जिद, खजुराहो की आलम-गिरि मस्जिद में हिंदू मंदिर होने का दावा कर गुलामी के प्रतीकों के मुक्ति आंदोलन का पूर्वाभ्यास करते रहे।
लेकिन आज जब मोदी-राज में गुलामों की स्थिति में पहुंचाये गये दलित बहुजन संविधान निर्माता बाबा साहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर के परिनिर्वाण दिवस की तैयारियों में जुटे हुए हैं, हिंदुत्ववादियों ने दरगाह अजमेर शरीफ और संभल के शाही जामा मस्जिद में हिंदू मंदिर होने का दावा ठोकवा कर गुलामी के प्रतीकों की मुक्ति के बड़े आंदोलन का आगाज़ कर दिया है और उसे हवा देने में संघ-भाजपा से जुड़े लोग सर्व शक्ति से मुस्तैद हो गये हैं। अब ऐसा लगता है साधु-संत और हिंदुत्ववादी नेता हर मस्जिद के नीचे मंदिर की खोज में जुट गए हैं। बात यहीं तक सीमित नहीं है, जिन साधु-संतों के जरिये धर्मोन्माद फैलाया जाता है, वे देश को युद्ध क्षेत्र में तब्दील करने के लिए एक खास एलान कर दिए हैं, जिससे दलित-बहुजनो की चिंता सातवें आसमान पर पहुंच गयी है। बहरहाल कैसे साधु- संत देश को युद्ध क्षेत्र में तब्दील करने जा रहे हैं,यह जानने के पहले जरा उनके विषय मे कुछ बुनियादी बातें जान लेना जरुरी है।
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जिन साधु-संतों के नेतृत्व में चले गुलामी के प्रतीकों के मुक्ति आंदोलन ने भाजपा को अप्रतिरोध्य बना दिया, उनके विषय में बहुतों को ठीक से जानकारी नहीं कि वे जाति से ब्राह्मण हैं। जी हाँ, साधु- संतों में 90% से ज्यादा उपस्थिति ब्राह्मणों की ही है क्योंकि शस्त्रों द्वारा संतई के लिये अधिकृत ब्राह्मण ही होते हैं। कुछ संख्या क्षत्रियों की भी हो सकती है। पर, गुलामी के प्रतीकों की मुक्ति आँदोलन के दौर में उमा भारती, सध्वी ऋतंभरा , गिरिराज किशोर, आचार्य धर्मेन्द्र जैसे शूद्र साधु-साध्वियों का भी उदय हुआ, जिन्हें देखकर बहुतों को भ्रम हो सकता है कि मंदिर आंदोलन में लगे साधु-संतों में सभी जाति के लोग रहे। नहीं, उसमें अपवाद रुप से कुछ शूद्र और थोड़े क्षत्रिय रहे : 90 % से अधिक संख्या ब्राहमणों की ही रही। तो सचाई यह है कि साधु-संतों के भेष में गुलामी के प्रतीकों की मुक्ति की लड़ाई ब्राह्मणों द्वारा लड़ी गयी। बहरहाल जगत मिथ्या, ब्रह्म सत्य का उच्च उद्घोष करने वाले जिन साधु-संतों ने सड़कों पर उतर कर मंदिर आंदोलन के जरिये, अटल बिहारी वाजपेयी के शब्दों में स्वाधीन भारत का सबसे बड़ा आंदोलन खड़ा कर दिया, वे किंतु मुसलमान और अंग्रेज भारत में कभी भी हरि-भजन से अपना ध्यान नहीं भटकाए। जबकि उस दौर में ब्राह्मण समाज से शंकराचार्य, रामानुज, तुलसीदास, सूरदास, रामदास काठियाबाबा, गंभीरनाथ, भोलानाथ गिरि, तैलंग स्वामी, वामाक्षेपा जैसे सुपर साधक भारत भूमि को धन्य किये थे लेकिन, वे मुसलमानों और ईसाइयों की गुलामी से आंखें मूंदे हरि भजन में निमग्न रहे। पर, तीन दशाक पूर्व देश पर कौन सी आफत आई कि साधु का वेश धारण किए लाखों की तादाद में ब्राह्मण हरि भजन छोड़कर गुलामी के प्रतीकों के मुक्ति आंदोलन में न सिर्फ संघ-भाजपा के साथ हो लिये, बल्कि उस आंदोलन का सामने रहकर नेतृत्व दिए?
जिस आफत ने साधु-संतों के वेश में छिपे ब्राह्मणों को हरि-भजन से ध्यान हटाने के लिये विवश किया, वह थी मंडल की रिपोर्ट, जिसने आरक्षण का विस्तार करने के साथ बहुजन राज की संभावना उजागर कर दी थी। इससे जिन हिंदू धर्म शास्त्रों द्वारा दलित-पिछड़ों का शक्ति के स्रोतों का भोग अधर्म घोषित किया गया है, उनका शक्ति के स्रोतों में वाजिब हिस्सेदारी का मार्ग प्रशस्त होने के साथ शासक बनने की संभावना उजागर हो गई. इस तरह मंडल की रिपोर्ट हजारों साल के इतिहास में हिंदूधर्म पर सबसे बड़ा हमला बोल दी थी। ऐसे ही हमलों से हिंदू धर्म को बचाने के लिए हिंदुओं के भगवान तरह-तरह का रुप धारण कर धरती पर अवतरित होते रहे हैं। किंतु मंडल की रिपोर्ट के बाद किसी भगवान को अवतरित न होते देख साधु-संत के वेश में छिपे ब्राह्मण खुद गुलामी के कथित सबसे बड़े प्रतीक की मुक्ति की आड़ में मंडल के खिलाफ मोर्चा सम्भाल लिए। उसके बाद जब-जब हिंदू धर्म की रक्षक भाजपा पर संकट आया, साधु बने ब्राह्मण हरि भजन से ध्यान भंग कर दलित-बहुजनो के अधिकारों के खिलाफ मोर्चा सम्भालते रहे। बहरहाल साधु वेश में छिपे जो ब्राह्मण अब तक चिमटा और कमंडल के सहारे हिंदू धर्म की ठेकेदार भाजपा के पक्ष में मोर्चा सम्भालते रहे, उन्होंने कुछ दिन पहले विशाल धर्म-सेना गठित करने का ऐलान का राष्ट्र को चौका दिया हैं।
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इस विषय में भाजपा के मुखपत्र के रुप में जाने वाले देश के सबसे बड़े अखबार के लखनऊ संस्करण में 27 नवम्बर को यह खबर छपी, जिसमें बताया गया था – ‘समाज में मर्यादित आचरण को बढ़ावा देने, मंदिरों की सफाई व सुधार, आर्थिक व सामूहिक स्तर पर समाज में मदद बढ़ाने के साथ ही हिंदू त्योहारों-जुलूसों पर आक्रमण को रोकने जैसे मामलों को लेकर देशभर में साल 2025 तक 15 लाख धर्म सैनिक तैयार होंगे। ये समाज के जागरूक लोग होंगे, जिन्हें शारीरिक, धार्मिक व तकनीकी के साथ अन्य प्रशिक्षण दिए जाएंगे।
इसमें अग्निवीरों और युवाओं को प्राथमिकता मिलेगी। धर्म सैनिक बनने के लिए देशभक्त होना पहली शर्त होगी. यह पहल देश के संतों के प्रमुख संगठन ‘अखिल भारतीय संत समिति ‘की है, जिसके लिए विस्तृत रणनीति संतों के मार्गदर्शन में कुंभ में तय होगी। उसी में समिति के धर्म सेना प्रकोष्ठ के तहत धर्म सैनिक के लिये योग्यता व प्रशिक्षण का प्रारूप तय होगा। संत समिति द्वारा प्रायोगिक तौर पर गुजरात में पाँच वर्ष में 1.5 लाख धर्म सैनिक तैयार किए गये हैं। इसमें बिना किसी भेदभाव के हिंदुओं के सभी 127 संप्रदायों तथा सिख, बौद्ध व जैन समुदाय के युवक-युवतियों को सभ्यता, संस्कृति व सनातन मान्यताओं से जोड़ा जाएगा। राष्ट्र व धर्म रक्षा के लिए यह अवैतनिक सैनिक तैयार होंगे। समिति के राष्ट्रीय महामंत्री स्वामी जीतेंद्रानंद सरस्वती के अनुसार देश के विभिन्न क्षेत्रों में हिंदू आस्था व मान पर हमले बढ़े हैं। उन्हें धार्मिक आधार पर निशाना बनाया जा रहा है। इसलिए, इस पहल की जरूरत महसूस हुई। उन्होंने कहा कि यह कोई नई सोच नहीं है। अखिल भारतीय संत समिति के संविधान में ही इसकी अवधारणा है। ‘क्या यह खबर पढ़कर ऐसा नहीं लगता कि धर्म सेना के जरिए संतों का सबसे बड़ा संगठन देश को युद्ध क्षेत्र में तब्दील करने की तैयारियों में जुट चुका है। आखिर जिस देश की सत्ता पर हिंदुत्ववादियों की बहुत ही मज़बूत पकड़ है, उस देश में साधु-संतों को धर्म-सेना की कोई जरूरत हो सकती है। बहरहाल यहाँ सबसे बड़ा सवाल पैदा होता है कि सामने न तो कोई चुनाव है और न ही तानाशाही हिंदुत्ववादी सत्ता को कोई खतरा, फिर संघ परिवार गुलामी के प्रतीकों की मुक्ति का अभूतपूर्व माहौल क्यों पैदा कर रहा है और क्यों संघ के अभियानों के संगी साधु-संत 15 लाख की सेना तैयार करने की कवायद में जुट गए हैं? इसका जवाब है राहुल गांधी द्वारा पैदा किया गया सामाजिक न्याय का तूफान।
यह कबूल करने के बावजूद कि भाजपा दुनियाँ की सबसे बड़ी पार्टी है, एक बच्चे तक को भी पता है कि चुनाव को यदि सामजिक न्याय पर केंद्रित कर दिया जाय तो भाजपा हार वरण करने के सिवाय कुछ कर ही नहीं सकती। भाजपा चुनाव को सामाजिक न्याय पर केंद्रित करने से कभी जीत ही नहीं सकती, मोदीराज में इसका प्रबल दृष्टांत 2015 के बिहार विधानसभा चुनव में हुआ, जिसमें प्रधानमंत्री मोदी की शिखर छूती लोकप्रियता के बावजूद भाजपा बुरी तरह हारने के लिए विवश रही। यह बात और है 2017 के यूपी विधानसभा, 2019 के लोकसभा, 2020 के बिहार विधानसभा और पुन: 2022 के यूपी विधानसभा चुनाव में अज्ञात कारणों से देश की राजनीति की दिशा तय करने वाले यूपी – बिहार में मायावती – अखिलेश और तेजस्वी यादव ने 2015 के बिहार विधानसभा सभा चुनाव से कोईं प्रेरणा ही नहीं लिया, इसलिए मोदी को किसी प्रतिरोध का सामना ही नहीं करना पड़ा और वह विजय पर विजय हासिल करते रहे. लेकिन 2015 के बिहार बाद 2023 में उन्हें कर्नाटक विधानसभा चुनाव में फिर एक बार सामाजिक न्याय की राजनीति का सामना करना पड़ा और वे फिर मात खा गए. सामाजिक न्याय की राजनीति के असर को ध्यान में रखते हुए कांग्रेस ने राहुल गांधी के नेतृत्व में लोकसभा चुनाव को अभूतपूर्व रुप से सामाजिक न्याय पर खड़ा किया और मोदी का 400 पार जाने का सपना, सपना बनकर रह गया। अगर अठारहवीं लोकसभा में केंचुआ ने गुल नहीं खिलाया होता, मोदी आज शायद अहमदाबाद में आराम फरमा रहे होते।
अठारहवीं लोकसभा चुनाव में न्याय पत्र के रुप में सामने आया कांग्रेस का घोषणापत्र सामाजिक न्याय का एक ऐसा दस्तावेज था, जिसका असर भारतीय राजनीति पर कम्युनिस्ट पार्टी के घोषणापत्र जैसा होता रहेगा। पांच न्याय और 25 गारंटी से युक्त कांग्रेस के न्याय पत्र में ढेरों ऐसी बातें थीं, जिनको अमल में लाने से हिंदू धर्म के प्रावधानों द्वारा सदियों से जारी सामाजिक अन्याय का प्रतिकार हो जाता। उससे जाति जनगणना कराकर शक्ति के अधिकांश स्रोतों में ‘जितनी आबादी-उतना हक’ का सिद्धांत लागू हो सकता था एवं आरक्षण का 50% दायरा टूटने के साथ धीरे-धीरे आधी आबादी को सरकारी नौकरियों के साथ बाकी क्षेत्रों में भी आधा अर्थात 50% हिस्सेदारी सुनिश्चित हो सकती थी। उसमें अमेरिका की तर्ज पर भारत में डाइवर्सिटी कमीशन गठित करने सहित अन्य कई ऐसी बातें थी, जिससे आने वाले वर्षों में हिंदू धर्म द्वारा शक्ति के स्रोतों से बहिष्कृत 90 % आबादी को प्राइवेट कंपनियों, यूनिवर्सिटीयों, मीडिया इत्यादि में वाजिब हिस्सेदारी मिल जाती। कुल मिलाकर जैसे कभी यूरोप के पूंजीपतियों में कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र आतंक की सृष्टि किया था, कुछ वैसा ही असर कांग्रेस के न्यायपत्र का भाजपा पर पड़ रहा था. न्याय पत्र से संघ व भाजपा में यूँ ही आतंक का संचार नहीं हुआ! लोकसभा चुनाव के परिणाम को प्रभावित के बाद इससे राज्यों की राजनीति भी प्रभावित होने लगी। अगर राहुल गांधी लोकप्रियता में मोदी को म्लान कर दिए तो उसके पीछे बड़ा कारण न्याय पत्र ही रहा। अगर हाल के विधानसभा चुनावों में मोदी की सभाओं मे खाली कुर्सियाँ और राहुल की मीटिंगों में प्रचंड भीड़ दिखती रही तो उसके पीछे न्यायपत्र का ही हाथ रहा। इस न्याय पत्र के चलते ही पिछ्ले सभी विधानसभा चुनावों में इंडिया गठबंधन की संभावना बेहतर दिखी : यह बात और है कि मोदी अपने तंत्र की जोर से परिणाम भाजपा के पक्ष में मोड़ने में सफल रहे। पर, इससे उनकी विश्वसनीयता लगातार प्रभावित हुये जा रही थी. ऐसे में न्याय पत्र की स्थाई काट पैदा करना संघ परिवार के लिए जरूरी हो गया और समाधान दिखा गुलामी के प्रतीकों के मुक्ति में।
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बहरहाल मंडल रिपोर्ट से उठी सामाजिक न्याय की आंधी का सफलता से मुक़ाबला गुलामी के प्रतीको की मुक्ति की लड़ाई से करने के बाद एक बार फिर संघ परिवार नये सिरे से न्यायपत्र के खिलाफ वही हथियार इस्तेमाल करने जा रहा है। इस बार लड़ाई और तीव्रतर होने की संभावना है। इस लड़ाई को और प्रभावी तरीके से लड़ने के लिए ही साधु-संत 15 लाख की सेना तैयार करने की कवायद में जुट गए हैं। नये सिरे से शुरु होने जा रहीं गुलामी के प्रतीकों की लड़ाई में अम्बेडकरवादी ही सर्वाधिक प्रभावी भूमिका निभा सकते हैं। इसलिए आज बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर के परिनिर्वाण दिवस को एक संकल्प दिवस के रुप में मनाना चाहिए! बहुत पहले संघ के डॉ. मोहन भागवत ने कहा था, हमें हर मस्जिद के नीचे शिवलिंग नहीं तलाशना चाहिए! बावजूद इसके तलाश और तीव्रतर हो गयी है। आजकल इस किस्म की बातें सोशल मीडिया में काफी आ रही हैं कि हर मस्जिद के नीचे प्राचीन मँदिर हो या न हो, लेकिन हर प्राचीन मंदिर ऐतिहसिक रुप से बौद्ध विहार है। ऐसा दावा अम्बेडकरवादी पहले भी करते रहे हैं, पर नये हालात मॆं यह दावा और जोरदार ढंग से ठोकने का संकल्प लेना चाहिए। जिस तरह मंडल के बाद राम जन्मभूमि मुक्ति आंदोलन से वंचित बहुजन अपने अधिकार की बात भूल कर प्रतीकों की लड़ाई कूद पड़े थे. इस बार लोग डायवर्सिटी और जितनी आबादी- उतना हक से ध्यान न भटकायें, इसके लिए वंचित बहुजनो में उस सापेक्षिक वंचना के भाव को उभारने में अम्बेडकरवादियों को सर्वशक्ति लगाने का संकल्प लेना चहिए जो सत्ता विरोधी जनाक्रोश पैदा करने में अहम रोल अदा करते हैं।
पिछ्ले दिनों प्रकाशित वर्ल्ड इनइक्वलिटी लैब की रिपोर्ट में यह बात सामने आई है कि देश की धन-संपदा पर सामान्य वर्ग का 89% कब्जा है। यही नहीं तमाम अंतरराष्ट्रीय रिपोर्टें ही बताती हैं कि शक्ति के प्राय: समस्त स्रोतों(आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक, धार्मिक) पर सामान्य वर्ग का 80-90 % कब्जा है। यह सामान्य वर्ग ही संघ का चहेता वर्ग है। इसी वर्ग के हित में संघ प्रशिक्षित प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश बेचने से लेकर ईडब्ल्यूएस आरक्षण और लैटरल इंट्री जैसा संविधान विरोधी प्रावधान रचा। यदि आँकड़ों के साथ वंचितों को सामान्य वर्ग के वर्चस्व से अवगत कराया जाय तो सापेक्षिक वंचना का भाव ते़जी से पनप सकता है। सापेक्षिक वंचना को उभारने के साथ लगातार यह बात वंचितों के मध्य उठानी पड़ेगी कि अवसरों और संसाधनों के बँटवारे में आखिरी अवसर सामान्य वर्ग को मिले तथा उनकों उनके संख्यानुपात पर रोककर उनके हिस्से का अतिरिक्त(सरप्लस) अवसर वंचितों के मध्य वितरित हो। सापेक्षिक वंचना को उभारने के क्रम में उस आधी आबादी को पहला हक दिलाने की बात उठानी होगी, जिसे मोदी की महिला विरोधी नीतियों के चलते आर्थिक रुप से पुरुषों की बराबरी में पहुँचने के लिए 250 साल से अधिक का सफ़र तय करना पड़ेगा। यही नही साधु-संत निकट भविष्य में जो 15 लाख धर्म सैनिक खड़ा करने जा रहे हैं, उसके कहर से वंचित बहुजन कैसे बचें, इसका भी बाबा साहेब के परिनिर्वाण दिवस पर विचार करना चहिए।