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शब्द, सत्ता, सरोकार और राजेंद्र यादव डायरी (30 अगस्त, 2021)

शब्द और सत्ता के बीच प्रत्यक्ष संबंध होता है। यह मेरी अवधारणा है। शब्द होते भी दो तरह के हैं। एक वे शब्द जो सत्ता को पसंद आते हैं और दूसरे वे शब्द जो सत्ता को पसंद नहीं आते हैं। कुछ शब्द अपवाद होते हैं। वे शब्द अलग होते हैं। उनके मायने भी अलग। पहली […]

शब्द और सत्ता के बीच प्रत्यक्ष संबंध होता है। यह मेरी अवधारणा है। शब्द होते भी दो तरह के हैं। एक वे शब्द जो सत्ता को पसंद आते हैं और दूसरे वे शब्द जो सत्ता को पसंद नहीं आते हैं। कुछ शब्द अपवाद होते हैं। वे शब्द अलग होते हैं। उनके मायने भी अलग। पहली बार यह विचार कब आया, जब यह विचार कर रहा हूं तो मुझे वे दिन याद आ रहे हैं जब मैं केवल नाम के वास्ते किशोर नहीं था, बल्कि सचमुच किशोर था। मेरे घर में एक ब्लैक एंड व्हाइट टीवी थी। वह भी दहेजुआ टीवी। भैया को दहेज में मिली थी और उस पर अधिकार मेरा था। उन दिनों टीवी मुझे ज्ञान प्राप्त करने का सबसे बेहतर माध्यम लगता था। हर तरह का ज्ञान मिलता था। सुबह-सुबह शैक्षणिक कार्यक्रम का प्रसारण किया जाता था। फिर फिल्में भी होती थीं। रंगोली और चित्रहार तो फेवरिट थे ही। उन दिनों फिल्मों, धारावाहिकों और क्रिकेट मैच आदि के प्रसारणों से अधिक मुझे संसद की कार्यवाहियों का सीधा प्रसारण देखना अच्छा लगता था। संसद में उठने वाले विषयों पर बोलते प्रतिनिधियों को देख मैं उन शब्दों पर विचार करता था जो सत्ता पक्ष और विपक्ष के लोग बोलते थे।।

[bs-quote quote=”मरनेवाला किसान था और वह सत्ता के विरोध में प्रदर्शन में शामिल था, तो उसके लिए शहीद और उसकी मौत को शहादत कैसे कहा जा सकता है? ये शब्द सत्ता को पसंद नहीं आएंगे। इसलिए मैंने कहा कि शब्द और सत्ता के बीच प्रत्यक्ष संबंध होता है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

अनेक शब्द मिले थे उन दिनों। एक शब्द था श्वेत पत्र। इनके अलावा भी शब्द थे यह शब्द बेहद खास था। श्वेत पत्र एक ऐसा शब्द था जो बाजदफा सत्ता पक्ष को नागवार गुजरता है तो कई बार उसके लिए रूचिकर भी होता है। मतलब यह कि जैसे आज कोई यह मांग करे कि पीएम केयर्स फंड के उपयोग को लेकर भारत सरकार श्वेत पत्र जारी करे तो नरेंद्र मोदी सरकार को यह नागवार गुजरेगा। वहीं 2005 के दिसंबर में सत्ता पाने के बाद नीतीश कुमार ने बिहार में सबसे पहला काम यही किया। उन्होंने श्वेत पत्र जारी किया था। यह एक तरह से आरोप पत्र था जो उन्होंने अपने पूर्ववर्ती लालू प्रसाद और राबड़ी देवी की सरकारों के ऊपर लगाया था। लंबे समय तक यह श्वेत पत्र बिहार सरकार के वित्त विभाग के वेबसाइट पर उपलब्ध था। इसे 2015 में तब हटाया गया जब नीतीश कुमार लालू प्रसाद की शरण में गए।
खैर, मैं शब्दों के बारे में बात कर रहा था। मेरे सामने दिल्ली से प्रकाशित जनसत्ता है। इसके पहले ही पृष्ठ पर एक खबर है – लाठीचार्ज से घायल किसान की दिल के दौरे से मौत।
मैं इस शीर्षक के बारे में सोच रहा हूं। वजह यह कि खबर में सुशील काजल नामक किसान, जिनकी मौत हुई, उनके शव के अंत्यपरीक्षण के बारे में कोई जानकारी नहीं दी गयी है। मुझे यकीन है कि उनके शव का अंत्यपरीक्षण किया भी नहीं गया होगा। फिर यह बात कहां से आयी- लाठीचार्ज से घायल किसान की दिल के दौरे से मौत? खबर की शुरुआत के दो वाक्य हैं – हरियाणा के करनाल में शनिवार को पुलिस लाठीचार्ज में घायल हुए किसान की दिल के दौरे से मौत हो गई। यह किसान प्रदर्शन में शामिल था और पुलिस ने उसे उसकी जमकर पिटायी की थी।

[bs-quote quote=”हम पत्रकारगण लालू प्रसाद के साथ उनके बैठकखाने में थे। लालू बता रहे थे कि संगठित और असंगठित हिंसा क्या होती है। उनका कहना था कि पुलिस और फौज दोनों के द्वारा की गयी हिंसा संगठित हिंसा है। जबकि आम जनता असंगठित होती है। यदि वह किसी तरह की हिंसा करती है तो उसे असंगठित हिंसा कहते हैं। असंगठित हिंसा की तुलना में संगठित हिंसा में निर्ममता अधिक होती है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

अब शब्दों के बारे में विचार करते हैं। खबर में शामिल किए गए शब्द वे हैं, जिनसे सत्ता को कोई खास परेशानी नहीं है। पहला तो यह कि मरने वाला किसान था। यदि जनसरोकरी पत्रकार होता और अखबार उसे इसकी इजाजत देता तो वह किसान की मौत के लिए शहादत शब्द का उपयोग करता। अब जरा यह सोचिए कि किसान हमलावर होते और किसानों की पिटाई से किसी पुलिसकर्मी या उस आईएएस अधिकारी की मौत हो जाती, जिसने किसानों पर निर्ममतापूर्वक लाठीचार्ज का आदेश दिया होता तो यह मुमकिन था कि जनसत्ता के पहले पन्ने पर खबर होती – किसानों के हमले में आईएएस अधिकारी हुआ शहीद।
परंतु, मरनेवाला किसान था और वह सत्ता के विरोध में प्रदर्शन में शामिल था, तो उसके लिए शहीद और उसकी मौत को शहादत कैसे कहा जा सकता है? ये शब्द सत्ता को पसंद नहीं आएंगे। इसलिए मैंने कहा कि शब्द और सत्ता के बीच प्रत्यक्ष संबंध होता है।
मैं तो लालू प्रसाद को याद कर रहा हूं। एक बार पटना में शिक्षकों ने विरोध प्रदर्शन किया था। उस समय भी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ही थे। पुलिस की लाठियों से घायल शिक्षक तब लालू प्रसाद के आवास पर गए हुए थे। मैं भी अपने एक पत्रकार साथी के साथ वहां मौजूद था। शिक्षकों की बात सुनने के बाद लालू प्रसाद ने हम पत्रकारों से बातचीत में सरकार के विरोध में बयान दिया। शिक्षक करीब आधे घंटे तक रुके थे। उनके जाने के बाद हम पत्रकारगण लालू प्रसाद के साथ उनके बैठकखाने में थे। लालू बता रहे थे कि संगठित और असंगठित हिंसा क्या होती है। उनका कहना था कि पुलिस और फौज दोनों के द्वारा की गयी हिंसा संगठित हिंसा है। जबकि आम जनता असंगठित होती है। यदि वह किसी तरह की हिंसा करती है तो उसे असंगठित हिंसा कहते हैं। असंगठित हिंसा की तुलना में संगठित हिंसा में निर्ममता अधिक होती है।

[bs-quote quote=”राजेंद्र यादव एक प्रयोगधर्मी संपादक रहे और वैचारिक स्वतंत्रता के प्रबल समर्थक रहे। कुछ मामले में वे प्रयोगधर्मी नहीं भी रहे। जैसे दलित साहित्य को लेकर उनकी दृष्टि एकदम साफ थी। वे इसके महत्व को रेखांकित भी करते थे। लेकिन ओबीसी साहित्य की अवधारणा को वे खारिज करते थे। इसके पीछे उनके अपने तर्क थे और वे तर्क आधारहीन नहीं थे। उन्हें हिंदी साहित्य में स्त्री विमर्श को केंद्रीय विषय बनाने का श्रेय जाता है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

निश्चित तौर पर शनिवार को किसानों के ऊपर हरियाणा पुलिस द्वारा बर्बर हमले को संगठित हिंसा की संज्ञा दी जानी चाहिए। लेकिन कमाल की बात यह कि इसके लिए किसी को सजा नहीं दी जा सकती है। इसी मामले में वह एसडीएम के पद वाला आईएएस अधिकारी, जिसका वीडियो वायरल हुआ है, जिसमें वह पुलिसकर्मियों को आदेश दे रहा है कि किसानों का सिर फोड़ डालो, अब भी अपने पद पर बना है। हालांकि हरियाणा के उपमुख्यमंत्री दुष्यंत सिंह चौटाला ने बयान दिया है कि इस अधिकारी को हटाया जाएगा। हटाया जाएगा मतलब उसे स्थानांतरित किया जाएगा।
दरअसल, सरकारी शब्दावली में स्थानांतरण ही सजा है। एक तरह का दिखावा। उस अधिकारी के खिलाफ न तो हत्या का मुकदमा दर्ज किया जा सकता है और न ही कोई अदालत उसे कसूरवार ठहरा सकती है। बहुत होगा तो अदालतों के जज उसकी निंदा कर सकते हैं।
लेकिन मैं यह बिल्कुल नहीं कह रहा कि असंगठित हिसा भी वाजिब है? हिंसा तो हिंसा ही होती है। इसका विरोध जरूरी है।
खैर, शब्दों से एक बात याद आयी। कल से सोशल मीडिया पर हंस के संपादक रहे राजेंद्र यादव को लेकर कुछ शब्दों का उपयोग किया जा रहा है। दिल्ली विश्वविद्यालय के एक युवा शिक्षक ने राजेंद्र यादव की शान में कुछ शब्द कहे। शब्द नया नहीं था। शब्द था – रीढ़वाला। उसके मुताबिक राजेंद्र यादव रीढ़ वाले संपादक थे। उनके इस शब्द पर बिहार के एक बड़े लेखक और प्रोफेसर कर्मेंदु शिशिर ने आपत्ति व्यक्त की। उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय के उस युवा शिक्षक की टिप्पणी को जातिवादी टिप्पणी की संज्ञा दी।
मुझे लगता है कि कर्मेंदु शिशिर एकदम वाजिब बात कर रहे हैं। दिल्ली वाले शिक्षक जाति मोह में अतिश्योक्ति कर बैठे हैं। मेरे हिसाब से रीढ़ वाले संपादक की तुलना में यह कहना सत्य के करीब रहना होगा कि राजेंद्र यादव एक प्रयोगधर्मी संपादक रहे और वैचारिक स्वतंत्रता के प्रबल समर्थक रहे। कुछ मामले में वे प्रयोगधर्मी नहीं भी रहे। जैसे दलित साहित्य को लेकर उनकी दृष्टि एकदम साफ थी। वे इसके महत्व को रेखांकित भी करते थे। लेकिन ओबीसी साहित्य की अवधारणा को वे खारिज करते थे। इसके पीछे उनके अपने तर्क थे और वे तर्क आधारहीन नहीं थे। उन्हें हिंदी साहित्य में स्त्री विमर्श को केंद्रीय विषय बनाने का श्रेय जाता है। कल एक लेख में एक तथाकथित स्त्रीवादी का विचार पढ़ रहा था। नाम लेना उनका अपमान करना होगा। लेकिन मुझे उनका लेखन महज एक स्क्रिप्ट लगा। एकदम बेजान और नाटकीयता से परिपूर्ण। अपने स्क्रिप्ट में वे पुरुषों की आलोचना करते हैं। ऐसा करते समय वे यह भूल जाते हैं कि पुरुषवादी समाज का आधार हिंदू धर्म है और इसकी मान्यताएं हैं। जबतक इसके खात्मे के बारे में आप नहीं सोचेंगे तबतक आप स्त्रीवादी नहीं हो सकते।
बहरहाल, मेरा मानना है कि स्त्रीवाद का मतलब समानता का पक्षधर होना है और समानता के लिए हिंदू धर्म की मान्यताओं का खात्मा जरूरी है। पिछले साल एक कविता जेहन में आयी थी। इसे गुलाब सिंह और डॉ. पूनम तुषामड़ (दोनों प्रेमी युगल मेरे आदरणीय मित्र) ने संपादित किया था –
स्त्रीवाद का दम भरने वाले छद्म स्त्रीवादी नहीं जानते कि –

मर्दवादी समाज में
‘पुरुष’ बनना भी कहाँ होता है आसान
बनना पड़ता है पृथ्वी
उठाना होता है बोझ
और तोड़ने होते हैं पहाड़
बिना स्त्री हुए भी सहनी पड़ती है
प्रसव सी पीड़ा

बाजदफा तो चुकानी होती है
पुरुष होने की भी कीमत
हारकर भी रखना होता है हौसला
जख्मों पर हंसने की आदत
रोज-ब-रोज डालनी होती है
रुलाई को दबाना होता है
कहीं स्त्री सा कहकर उपहास न किया जाए

कई बार तो मुंह चिढ़ाता है
आइंस्टीन का सापेक्षवाद और
योग्यतम की उत्तरजीविता का सूत्र भी।
कम अहम नहीं होता पुरुष होना भी
जोतनी होती है भूमि
खोदने होते हैं कुएं-नहर
फिर बीज के अनाज बनने पर भी
खत्म नहीं होता सिलसिला
स्त्री के समान पीड़ा को
सहना ही होता है।

हां, मर्दवादी समाज में
पुरूष बनना आसान नहीं होता।

नवल किशोर कुमार फारवर्ड प्रेस में संपादक हैं।

 

 

 

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