मई 2024 में दुनिया भर में हुए विस्थापन को लेकर यूएनओ की एक रिपोर्ट आई, जिसमें जबरन विस्थापित होने वाले लोगों के आंकडें 12 करोड़ तक पहुँच गई है। यह लगातार 12वाँ साल है जब इस आँकड़े में वार्षिक वृद्धि दर्ज की गई है।
फ़लस्तीनी शरणार्थियों के लिए यूएन एजेंसी (UNRWA) के अनुमानों का हवाला दिया गया है, जिसके अनुसार, ग़ाज़ा पट्टी की क़रीब 75 प्रतिशत आबादी, 17 लाख लोग, जबरन विस्थापन का शिकार हुए हैं।
सबसे अधिक विस्थापितों की स्थिति सीरिया में ख़राब हैं, जहाँ देश की सीमाओं के भीतर और अन्य देशों में 1.38 करोड़ लोग विस्थापित हुए हैं।
रूस और यूक्रेन के बीच लगभग दो वर्ष और इजरायल व फिलिस्तीन के बीच एक वर्ष से ज्यादा समय से भीषण युद्ध चल रहा है, जिसमें लगभग 14 मिलियन लोग विस्थापित हो चुके हैं और लगातार पलायन जारी है। अभी दो माह पहले बंगलादेश में 15 वर्षों तक प्रधानमन्त्री रहीं शेख हसीना का तख्रता पलटने के बाद उत्पन्न राजनैतिक संकट ने हजारों लोगों को विस्थापित किया।
डेढ़ वर्ष पहले श्रीलंका में भारी आर्थिक संकट के बाद गृहयुद्ध जैसे हालात पैदा हो गए थे। तमिल-सिंघली विवाद में बडी संख्या में तमिलों को पलायन कर भारत में शरण लेनी पड़ी थी।
बीस साल से ज्यादा समय तक लड़ाई लड़ने के बाद अफगानिस्तान की सत्ता पर तालिबान का पुनः कब्जा हो चुका है। कमजोर एथनिक समुदायों के लोग पड़ोसी देशों जैसे पाकिस्तान, ईरान और भारत में शरण लेने को बाध्य हुए हैं।
म्यांमार मे लक्षित हिंसा का शिकार होकर रोहिंग्या मुसलिमों को बांग्लादेश, भारत और अन्य पड़ोसी देशों में अवैध प्रवासियों के रूप में जीवन गुजारना पड़ रहा है।
मेक्सिको और अमेरिका के बॉर्डर पर अवैध प्रवासियों के कारण रोज घमासान मचा रहता है। जिसके चलते युद्ध, देशों के बंटवारे, अकाल, महामारी और रोजगार की तलाश में लोग एक देश से दूसरे देश को प्रवास करते रहे हैं। सूचना प्रौद्योगिकी एवं संचार तकनीकी एवं ट्रांसपोर्ट के साधनों की उपलब्धता ने मानवीय गतिशीलता को बहुत तीव्र कर दिया है। इस तेजी के कारण समुदायों के बीच वैमनस्य और टकराव भी बढ़ गए हैं।
धार्मिक और एथनिक विविधता के कारण एक देश के भीतर भी साधनों और अवसरों के विभाजन में भेदभाव और घृणा भाव के कारण गृहयुद्ध जैसी परिस्थियाँ उत्पन्न होने के कारण कमजोर समुदायों को जबरदस्ती अनैच्छिक पलायन कर शरणार्थी बनने को बाध्य होना पड़ता है।
सिनेमा के माध्यम से पलायन और उससे उत्पन्न समस्याओं को चित्रित करने का काम कई फ़िल्मकारों ने किया है। मध्य एशिया और पश्चिम एशिया के देशों में संघर्ष, हिंसा और पलायन एक गंभीर मुद्दा रहा है। इस लेख के माध्यम से हम पलायन के सिनेमा पर एक लेखों की शृंखला का आरंभ कर रहे हैं जिसमें सिनेमा के माध्यम से प्रवास और उसके प्रभावों पर विचार किया जाएगा।
बाध्यकारी पलायन को स्नेजान स्टैंकोविक (Snezana Stankovic 2021) ने परिभाषित करते हुए लिखा है, Forced migration refers to the forcibly induced movement of people, for example, when migrants are forced to flee to escape conflict or persecution or become trafficked. The definition also encompasses situations of enforced immobility, for example, when displaced people are confined to refugee camps and detention centers. Forced displacement may occur within or across the borders of the nation-state. According to this definition, the effect of the force causing the migratory movement is crucial, and distinguishes forced migrants—who may be termed “refugee,” “trafficked person,” “stateless person,” “asylum seeker,” or “internally displaced persons” (IDPs)—from other migrants such as economic migrants. However, as anthropologists of forced migration illustrate, such distinctions by legal, state, or international organizations are not always relevant outside of institutional logics; when backed up by the force of the state, they can undermine the livelihoods and safety of migrants.
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पश्चिमी एशिया की बात करें तो इस क्षेत्र में विभिन्न देशों आंतरिक और अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर लगातार गृहयुद्ध, युद्ध, नृजातीय हिंसा और अशान्ति के कारण लोग बड़ी संख्या में पलायन को बाध्य हुए हैं। सोमालिया, सीरिया, यमन और इराक में आईएसआईएस (ISIS) के आतंकवादी आतताइयों के कारण निर्दोष नागरिकों को अपने घर व्यवसाय और देश को छोड़कर दूसरे देशों मे शरण लेनी पड़ी है। जब 2 सितंबर, 2015 को सीरिया के कुर्द समुदाय के दो वर्षीय लड़के ऐलान कुर्दी की भूमध्य सागर में डूबने से मौत हो गई तो उसकी फ़ोटो सोशल मीडिया पर वायरल हो गई और दुनिया भर के लोगों के जेहन में बाध्यकारी पलायन को लेकर एक चिंता उभरी। उस छोटे बच्चे के साथ उसकी माँ और भाई की भी मौत हो गई थी। ऐलान का परिवार तुर्की होते हुए यूरोप जाना चाहता था और आगे अपने सुरक्षित भविष्य के लिए कनाडा पहुंचना चाहता था। मेक्सिको कनाडा बॉर्डर पार करने के चक्कर में कई परिवार आए दिन जान गँवाते रहते हैं।
संयुक्त राष्ट्र संघ की एक अन्तराष्ट्रीय संस्था के अनुसार मेक्सिको-अमेरिका सीमा पर सन 2021 से अब तक लगभग 650 लोग प्रवास के चक्कर में अपनी जान गंवा चुके हैं। मेक्सिको हरित क्रांति का जनक रहा है लेकिन आज रोजगार के बुरे हालात के कारण लोग अमेरिका में घुसना चाहते हैं लेकिन अमेरिका उन्हें रोकने में लगा है क्योंकि प्रवासी लोगों के कारण वहाँ कई तरह की समस्याए उत्पन्न हो रही हैं। दुनिया भर के फ़िल्मकारों ने इन मुद्दों को अपनी फिल्मों के माध्यम से चित्रित करने का काम किया है। सियासतदानों की अनियंत्रित इच्छाओ के कारण लादे गए युद्धों के प्रभाव में निर्दोष जनता को अपना घर, काम छोड़कर दूसरे क्षेत्रों या देशों को पलायन करना पड़ता है, इस पीड़ा को वही समझ सकते हैं जो इसके भुक्तभोगी हैं।
जहां पर एक ही धार्मिक मान्यता के लोग रहते हैं वहाँ भी अल्पसंख्यक और आर्थिक रूप से कमजोर एथनिक समुदायों को हिंसा और भेदभाव का शिकार बनाया जाता है और यहाँ के वातावरण में उन्हें अपने मूल स्थानों से पलायित होना पड़ता है। यह सारी लड़ाई धार्मिक उन्माद, सत्ता पर कब्जे एवं प्रभुत्व की है।
रूस आज सोवियत संघ के विघटन के बाद अलग हुए राष्ट्र-राज्यों पर पुनः आधिपत्य स्थापित करने की नीयत से युद्ध में है और लेनिन की मूर्तियाँ भी स्थापित करने लगा है। लेफ्ट हो या राइट सभी विचारधाराओं के तानाशाह साम्राज्यवादी सोच के वशीभूत हो मानवाधिकारों का उल्लंघन कर निर्दोष समुदायों को युद्ध में धकेल रहे हैं और दूसरों की दया पर जीने को मजबूर कर रहे हैं।
हिन्दी साहित्य और बॉलीवुड सिनेमा में महत्वपूर्ण योगदान करने वाले साहित्यकार कमलेश्वर ने अपने उपन्यास कितने पाकिस्तान (2000) में दुनिया भर के मिथकों और इतिहास में विद्यमान विभाजनकारी तत्वों की पड़ताल कर उनके दूषित मन्तव्य को उद्घाटित करने का काम किया है। जातिवाद, सांप्रदायिकता, सामुदायिक घृणा, बहुसंख्यकवाद, उग्र राष्ट्रवाद, के कारण श्रीलंका, यूक्रेन, म्यांमार आदि देशों में गृहयुद्ध या युद्ध जैसी स्थितियाँ बनी हुई हैं। अगर हम विश्वभर के देशों पर निगाह डाले तो पाएंगे कि लगातार युद्ध और एथनिक संघर्ष जैसी घटनाए कहीं न कहीं होती रहती हैं। लोग अपनी मातृभूमि से विस्थापित होकर स्वास्थ्य, शिक्षा, आवास और रोजगार के लिए दूसरों की दया पर निर्भर हो जाते हैं और प्रवास की पीड़ा और वंचना को झेलते हैं।
पश्चिमी एशिया और विस्थापन का सिनेमा
पश्चिमी एशिया में बहरीन, इराक, जोर्डन, कुवैत, लेबनान, ओमान, फिलिस्तीन, कतर, सऊदी अरब, सीरिया, संयुक्त अरब अमीरात और यमन जैसे देश स्थित हैं। इन देशों में युद्ध और विस्थापन का लंबा इतिहास है जिसके कारण बड़े पैमाने पर दबाव में विस्थापन हुआ है। हिंसा और विस्थापन से एक बड़ी आबादी के प्रभावित होने के कारण सिनेमा और साहित्य में इन्हें अभिव्यक्ति भी मिली है।
सिनेमा संदेशों को चित्रित करने और एक बड़ी दर्शक संख्या तक पहुंचाने का एक सशक्त माध्यम है। सिनेमा बीसवीं सदी की एक महत्वपूर्ण खोज है जिसमें चित्रित विषयों को हम मनोरंजन के साथ-साथ शोध एवं अध्ययन के लिए बार-बार प्रयोग में ला सकते हैं। यहाँ हम पश्चिमी एशिया के देशों मे युद्ध और हिंसा के कारण दबाववश हुए प्रवास को प्रस्तुत करने वाली फिल्मों के विषयवस्तु का विवरण प्रस्तुत करेंगे।
बारान (2001) ईरान के प्रख्यात निर्देशक माजिद मजीदी ने ईरान में बसे अफगानिस्तानी शरणार्थियों की समस्या पर इस फिल्म का निर्माण किया है। ईरान की राजधानी तेहरान की एक निर्माणधीन बिल्डिंग में काम करने वाले किशोर लड़के लतीफ़ के मजदूरों में चाय और भोजन बांटने के दृश्य से फिल्म की शुरुआत होती है। उस साइट का सुपरवाइज़र मेमार है। लतीफ़ और अन्य मजदूरों के बीच आए दिन झगड़े होते रहते हैं। काम करने वाले मजदूरों में से ज्यादातर ईरान के अलग-अलग हिस्सों से हैं और खासकर अजरबेजान से हैं। अफगानिस्तान से पलायित होकर आए शरणार्थी भी उस निर्माणाधीन भवन पर काम करते हैं लेकिन पासपोर्ट और पहचान पत्र न होने के कारण उन्हें अवैध माना जाता है। श्रम विभाग के इंस्पेक्टर जब भी छापा मारते हैं इन अवैध मजदूरों को छुपना पड़ता है अन्यथा उनके मालिक और सुपरवाइज़र को दंडित होना पड़ सकता है। काम करते हुए एक दिन एक अफगानी मजदूर नजफ का पैर टूट जाता है। उसका दोस्त सुल्तान के 14 वर्षीय बेटे रहमत को काम पर लाता है। ठेकेदार रहमत को काम पर रख तो लेता है लेकिन उसके कम उम्र के कारण काम से हटा भी देता है। लतीफ़ के झगड़ालू स्वभाव के कारण मेमार उसे भी काम से हटा देता है और उसकी जगह रहमत को काम दे देता है। लतीफ़ अपना काम खोने और रहमत को दिए जाने के कारण उससे ईर्ष्या रखने लगता है और उसे नुकसान पहुंचाने की कोशिश करता है। लतीफ़, रहमत पर उसके काम पर आने-जाने पर खुफिया नजर रखने लगता है। इसी दौरान एक दिन उसे पता चल जाता है कि रहमत लड़का नहीं लड़की है जब वह चुपके से उसे बाल संवारते हुए देख लेता है। यह ज्ञात होने के बाद लतीफ़, रहमत के प्रति सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करने लगता है और धीरे-धीरे प्यार कर बैठता है। रहमत अपने रोजगार जाने, बीमार पिता और परिवार की चुनौतियों के कारण आरंभ मे कुछ भी रीएक्ट नहीं करता लेकिन बाद मे इशारों में और अपने कार्यों से प्रत्युत्तर देना शुरू करता है।
लेबर इंस्पेक्टर के छापे के बाद रहमत काम पर आना छोड़ देता है और उसकी अनुपस्थिति लतीफ़ को बेचैन करती है। वह रहमत का पता लगाने के लिए रिफ्यूजी कैंप की तरफ जाता है। वहाँ एक कब्रितान के पास लतीफ़ एक महिला की वेशभूषा में रहमत को देखता है। दोनों एक-दूसरे को देखते हैं और रहमत वह जगह छोड़कर चली जाती है। अगले दिन लतीफ़ खोजते हुए यह पाता है कि रहमत नदी के किनारे दूसरे कार्यस्थल बेमन से अन्य महिलाओं के समूह के साथ काम कर रही है जो भारी पत्थर ढोने का काम है। लतीफ़ और रहमत के बीच महत्वपूर्ण कड़ी सोलतान है जो रहमत के पिता नजफ का दोस्त है। लतीफ़ किसी भी तरह रहमत और उसके बीमार पिता की मदद करना चाहता है। सोलतान के माध्यम से वह अपने मजदूरी के रुपये रहमत के पास भेजता रहता है। प्यार ईर्ष्या को मोहब्बत में बदल सकता है, द्वेष रखने वाले आदमी को एक रहमदिल इंसान में बदल सकता है।
एक उत्कृष्ट साहित्यिक और सिनेमाई कृति का यही योगदान होता है कि वह इंसान और समाज को संवेदनशील व बेहतर बनाए। एक दिन सुल्तान और लतीफ़ मस्जिद पर मिलने का वादा कर लौटते हैं लेकिन वहाँ अगले दिन केवल नजफ मिलता है जो लतीफ़ को सुल्तान के अफगानिस्तान लौट जाने की बात बताता है। लतीफ़ के दिए हुए पैसे सुल्तान जब नजफ को देना चाहता है तो वह लेने से मन कर देता है और अपने साथ अफगानिस्तान ले जाने की सलाह देता है ताकि उसे जरूरत पर काम आए। रहमत की एक झलक पाने के लिए किसी ने किसी बहाने लतीफ़ अफगानियों के टेंट की तरफ जाता रहता है। वहीं उसे पता चलता है कि रहमत का असली नाम बारान है और उसके पिता भी वापस अफगानिस्तान जाना चाहते हैं क्योंकि उनके परिवार मे कुछ गंभीर समस्याएं आ रही हैं। जबरन पलायन के शिकार होकर रोजगार की तलाश में ईरान आए अफगानियों की अनगिनत मुश्किलें हैं उनके छोटे बच्चों (14 साल की रहमत उर्फ बारान) तक को भारी पत्थर उठाने जैसे काम करने पड़ते हैं।
लतीफ़, नजफ और उसकी बेटी बारान की मदद करना चाहता है। रहमत अपने ठेकेदार मेमार से अपने बकाया मजदूरी के पैसे मांगता है जो बड़ी मुश्किल से मिलते हैं। बारान की मदद के लिए वह अपना आइडेंटिटी कार्ड भी बेच देता है। मेमार के नाम के बहाने से लतीफ़ अपने पैसे नजफ को देता है ताकि वे वापस अफगानिस्तान जा सकें। नजफ अपने वतन जाने के लिए जीप पर अपना सामान लोड कर रहा होता है उस समय लतीफ़ और बारान आमने-सामने होते हैं और एक-दूसरे के लिए प्रेम की भावनाएं इशारों-इशारों में प्रकट करते हैं। उस समय बारिश हो रही थी, बारान शब्द का मतलब बारिश होती है। बारिश से गीली हुई जमीन में बारान के जूते फंस जाते हैं। लतीफ उन जूतों को मिट्टी से निकाल कर बारान के पैरों में पहनाता है। जीप बारान को लेकर चली जाती है। लतीफ़ बारिश के बूंदों से जूतों के बने निशान को धुलते हुए देखता है और मुसकराता है। यह फिल्म का अंतिम दृश्य है जुदाई का समय है लेकिन दो प्रेमी दिलों की सहमति के कारण संतुष्टि का भाव है। मुश्किलों के बीच प्यार के पल किस तरह मनोरम दृश्य रचते हैं उसका बेहतरीन उदाहरण है यह फिल्म। माजिद मजीदी ने प्रवास, गरीबी, बेरोजगारी, पहचान की समस्या जैसे मुद्दों को समेटते हुए एक प्रेम कहानी को जिस उदात्तता से परदे पर उतारा है वह महाकाव्यात्मक बना देता है।
अंडर द बॉम्बस (Under the Bombs 2007) युद्ध से प्रभावित लेबनान देश की कहानी है। इस फिल्म को हमने जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के आर्ट एण्ड एस्टेथेटिक विभाग के सभागार में सन 2007 में ही देखा था। फिल्म की नायिका जेइना नसरुएडडी (Zeina Nasrueddi- Nada Abu Farhat) एक समृद्ध लेबनानी मुस्लिम परिवार से ताल्लुक रखती है और दुबई में अपने आर्किटेक्ट पति और बेटे करीम के साथ रहती है। वैवाहिक जीवन मे कुछ समस्याएं आने पर वह अपने बेटे को अपनी बहन माहा के पास लेबनान में भेज देती है। सन 2006 मे जब लेबनान युद्ध शुरू हुआ था और जेइना टर्की से होते हुए बेरूत की यात्रा करती है ताकि वह अपने बेटे तक पहुँच सके। वह एक लेबनानी क्रिश्चियन टैक्सी ड्राइवर टोनी (जार्ज खब्बाज) को किराये पर लेती है ताकि वह दक्षिणी लेबनान पहुँच सके। अपने बेटे करीम और बहन माहा की खोज के क्रम में जेइना और जार्ज दोनों युद्ध से तहस-नहस हुए देश को देखते हैं और एक-दूसरे की निजी ज़िंदगी के बारे में भी जानते हैं। टैक्सी ड्राइवर टोनी जार्ज यह बताता है कि उसका भाई दक्षिणी लेबनान में रहता था लेकिन अभी वह निर्वासन (exile) पर इजराइल में रहता है। इस फिल्म को ध्यान से देखिए उसके एक-एक दृश्य को पढ़िए जिससे बहुत स्पष्ट हो जाता है कि युद्ध एक देश के नागरिकों के जीवन में किस कदर तबाही लाता है। युद्ध के कारण देश के नागरिकों को पड़ोसी देशों मे पनाह लेनी पड़ती है जहां उनके कोई अधिकार नहीं होते बस उपकार और दया मिलती है।
दुनिया ने नादिया मुराद और यजिदी धार्मिक समुदाय के बारे मे तब जाना जब उन्हें सन 2018 में नोबेल पुरस्कार मिला। उनके संघर्षमय जीवन पर आलेक्जेंडरिया बंबाक ने ऑन हर शोल्डर्स (2018) नाम से एक डाक्यूमेंट्री बनाई। सन 2014 में आईएसआईएस के आतंकवादियों ने नादिया (19 वर्ष) के गाँव के सभी लोगों का अपहरण करके आदमियों और बूढ़ी औरतों का सामूहिक कत्ल कर दिया, क्योंकि वे इस्लाम कबूलने को तैयार नहीं थे। बच्चियों और नौजवान लड़कियों को सेक्स स्लेव बनाने के लिए अपने साथ सीरिया तक ले गए। यह फिल्म नादिया के सेक्स स्लेव बनाने वाले लोगों के चंगुल से भागने और उत्पीड़न के शिकार अपने याजीदी समुदाय के लोगों को न्याय और कनाडा जैसे देशों में शरण दिलाने के लिए किए गए प्रयासों और आंदोलनों पर केंद्रित है। इस क्रम में नादिया ने बर्लिन, न्यूयॉर्क और कनाडा की यात्राएं की। वे राजनीतिज्ञों, नौकरशाहों और पत्रकारों से मिलीं और अपने व अपने समुदाय के साथ हुए भयानक हिंसा तथा शोषण को हर मंच पर उठाया। इस वृतचित्र में बराक ओबामा, बान की-मून, मुराद इसमाइल, साइमन मोनसेबीयन, मिशेल रेमपेल बोरीस वरजेसनेवसकई, अहमद खुदीदा बुरजूस, अमल कलूनी और लुईस मोरेनो, ऑकम्पो को भी शामिल किया गया है।
एक 19 साल की लड़की का अपहरण करके उसे सेक्स स्लेव बना दिया जाता है जिससे आईएसआईएस के आतंकवादी बार-बार रेप करते हैं, जबरन धर्म परिवर्तन कराते हैं। वह किसी तरह एक भले आदमी के परिवार की मदद से अपने लोगों के बीच पहुँचती है। अपने शोषण की कहानी को विश्वस्तर के मंचों तक ले जाती है। वह अपने आत्मकथा द लास्ट गर्ल के अंतिम पंक्तियों में कामना करती हैं कि जैसी यातना भरा दर्दनाक जीवन उन्हें जीना पड़ा किसी और लड़की को न जीना पड़े।
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every Yazidi wants ISIS prosecuted for genocide, …I wanted to look the men who raped me in the eye and see them brought to justice. More than anything else, I said, I want to be the last girl in the world with a story like mine- Murad (2017:306)
जबरन पलायन और उसके परिणाम
जबरन प्रवास एक कटु सच्चाई है। दुनिया भर के अल्पसंख्यक और कमजोर समुदायों को नृजातीय भिन्नताओं के कारण हुए संघर्ष और हिंसा के कारण अपनी मातृभूमि से पलायन करना पड़ता है। भारत में वर्ष 2022 में बनी हिन्दी फिल्म द कश्मीर फाइल्स ने कश्मीरी पंडितों के जबरन पलायन के मुद्दे को उठाया। धर्म के आधार पर द्विराष्ट्रवाद सिद्धांत के तहत बने भारत और पाकिस्तान के बंटवारे के कारण दो समुदायों में अक्सर टकराव की स्थितियाँ बनती हैं।
यहाँ यह जिक्र करना समीचीन होगा कि म्यांमार से रोहिंग्या मुसलमान पलायित होकर बांग्लादेश और भारत के कई प्रदेशो में बस चुके हैं। श्रीलंका से श्रीलंकन तमिल लोग पलायित कर तमिलनाडु में बसे हैं। तमिलनाडु में बसे रोहिंग्या और श्रीलंकन तमिल समुदायों के जीवन पर राधाकृष्णन, एमिली डे विट और बन्डर्स ने पाक्षिक पत्रिका फ्रन्टलाइन में 8 अप्रैल, 2022 को एक रिपोर्ट लिखी है। वे लिखते हैं कि इन दोनों समुदायों ने बहुत हद तक स्थानीय स्तर पर अपने को एकीकृत कर लिया है और जीवन की मूलभूत जरूरतों तक उनकी पहुँच है। स्वास्थ्य, शिक्षा और आवास उनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। इतना अवश्य है कि वे राज्य सरकार से आपनी जरूरतों के लिए आवेदन या शिकायत नहीं कर सकते तथा राजनीतिक जीवन में भाग नहीं ले सकते। अपने देश से मजबूरी में जबरन प्रवासित होकर किसी अन्य देश में बसने का यही दुखद पक्ष है कि वहाँ आपको अधिकार नहीं मिलते बल्कि दया व उपकार के भाव से कुछ सुविधायें मिलती हैं। प्रवासियों की समस्याओं का समाधान निकालना नीति निर्माताओं के लिए भी आसान नहीं होता।
बोर्न इन सीरिया (2016) सात रिफ्यूजी बच्चों की दर्दनाक दास्तान है जो नए जीवन और अवसरों की तलाश में पूरे यूरोप की यात्रा करते हैं। वे अपने पीछे बिखरे हुए परिवार, उजड़ा हुआ वतन छोड़ आए हैं। वे सभी रात के समय एक ग्रीक द्वीप पर पहुंचते हैं। वे लोग दर्द से चीख रहे होते हैं। एक छोटी लड़की रो रही है, एक वृद्ध आदमी दम तोड़ देता है तो एक घायल छोटा बच्चा अपने पिता को पुकार रहा है। यह फिल्म का पहला दृश्य है जिसके बाद सात बच्चों की यूरोप यात्रा को दिखाया गया है। हर एक बच्चे की अलग कहानी है लेकिन पलायन का दुख एक समान है। इसमें आठ साल का लड़का हामुद है जिसके माँ-बाप की हत्या हो चुकी है और उसने देखा है कि पलायित लोग हंगरी के एक चिड़ियाघर में शरण लेने को मजबूर हैं। इंसान और जानवर के बीच का भेद मिट चुका है। एक दस साल का बच्चा कैसे है जो बुरी तरह जला हुआ है और उसके चाचा से यह सच उसे नहीं बताया रहा कि उसके पिता की मौत हो चुकी है। बारह साल के असरौली के परिवार ने सीरिया से बाहर सुरक्षित निकलकर कैंप तक पहुँचने के लिए कई हजार डालर का घूस दिया है लेकिन उनके लिए शरणार्थी कैंप का गेट बंद है। तेरह साल का मारवान सोचता है कि ‘मेरी समझ में अपना घर छोड़कर भागना और समुद्र पार करना ही सबसे बुरी बात थी, लेकिन कहीं न जा पाने की स्थिति ज्यादा बुरी है।’
अपना घर छोड़ कर लोग कहाँ जाएँ, ये विकल्पहीनता की स्थिति कितनी भयावह है? युद्ध/ गृहयुद्ध बच्चों के लिए कितने आमनवीय और अन्यायपूर्ण हैं इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है। वे बिना किसी गलती के युद्ध के दुष्परिणाम झेलते हैं। उन्हे नहीं पता होता कि वे कहाँ जाएँ? वे भोजन और आवास के अभाव में असमय और बेमौत मारे जाते हैं।
तीन साल के बच्चे ऐलान कुर्दी की भूमध्यसागर मे डूबकर हुई मौत को पूरी दुनिया ने देखा था। बार्न इन सीरिया के निर्देशक ने कम उम्र के बच्चों पर फोकस करते हुए इस फिल्म को बनाया था क्योंकि बच्चे अपने आसपास हो रही घटनाओं से अनजान होते हैं लेकिन जो भी घट रहा होता है वह गंभीर रूप से गलत और मुश्किल भरा होता है। परिवारों के बिखरने, बच्चों के अनाथ होने और अपने घरों के छूट जाने का दर्द इस फिल्म के माध्यम से सामने आता है। युद्ध और गृहयुद्ध की स्थितियों में दुनिया के अन्य देश भी अपने अपने लाभ और हानि के दृष्टिगत अपनी नीतियाँ और गतिविधियां संचालित करते रहते हैं। सीरिया के मामले में जर्मनी और हंगरी का नाम आता है। यह फिल्म इस बात को रेखांकित करना नहीं भूलती कि प्रत्येक समाज और देश में ऐसे लोग भी होते हैं जो युद्ध से प्रभावित असहाय लोगों की खूब मदद भी करते हैं।
वेन आई सा यू (When I saw you 2012) सन 1960 में जोर्डन देश की प्रवासी समस्या को दर्ज करती फिल्म है। अपनी जमीन से उजड़ जाने, बेघर होने और अपने पिता को खो देने की दिल को दहलाने वाली दास्तान है इस फिल्म में, जिसे फिलिस्तीनी महिला निर्देशक अन्नेमारी जाकिर ने बनाया है। तारेक एक ग्यारह साल का लड़का है और उसकी माँ घायदा है जो एक रिफ्यूजी कैंप मे रहते हैं। वे दोनों अपने पिता/पति से बिछड़े हुए हैं और उम्मीद के साथ उसके लौट आने का इंतजार करते हैं। उनका यह इंतजार और दर्द अकथनीय और असहनीय है। तारेक पढ़ाई में अच्छा है लेकिन उसका मन नहीं लगता। वह स्कूल से भाग जाता है और गुरिल्ला ट्रेनिंग कैंप मे पहुँच जाता है जहां वह एक सैनिक बनना चाहता है। यहाँ इस कैंप में वह मन लगाकर ट्रेनिंग लेता है। यहाँ भी उसकी माँ उसे जॉइन करती है। वे दोनों तारेक के पिता की अनुपस्थिति की पीड़ा को महसूस करते हैं और उसके लौट आने की उम्मीद के साथ उनकी ज़िंदगी आगे बढ़ती है।
एजर और स्ट्रांग (2008) ने प्रवासी समुदायों के एकीकरण का एक चार सूत्रीय फार्मूला प्रस्तुत किया था जो इस प्रकार है: 1. रोजगार, आवास, शिक्षा और स्वास्थ्य तक पहुँच 2. नागरिकता और अधिकार 3. समुदाय के भीतर स्थित समूहों के बीच आपसे जुड़ाव 4. भाषा, संस्कृति और स्थानीय पर्यावरण जैसे संरचनात्मक बाधाओं से मुक्ति। अपने जड़ों से दूर रहने वाले प्रवासी समुदायों को स्थानीय समुदाय के साथ जोड़ने और एकीकृत करने के लिए इस मॉडल द्वारा सुझाए गए उपाय महत्वपूर्ण हैं।
युद्ध हो या गृहयुद्ध कुछ लोगों की शासक बनने की इच्छा और दूसरों को दबाकर अपने अधीन करने की इच्छा का परिणाम होते हैं जिसके कारण तमाम निर्दोष लोगों विशेषकर महिलाओं और बच्चों की ज़िंदगी तबाह हो जाती है। उन्हें बेवजह अपने घर-देश को छोड़कर दूसरे स्थानों पर पनाह लेनी पड़ती है। दबाव के कारण पलायन करने को मजबूर समुदायों के दुख-दर्द को सामने लाने के लिए ऐसी फिल्मों को बार-बार देखने और उन पर चर्चा करने एवं लिखे जाने की आवश्यकता है।
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