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मिशन-2024 के लिए विपक्ष की 26 पार्टियां एक साथ, अब नहीं होगी एनडीए की राह आसान

कांग्रेस के अतिरिक्त विपक्ष के सभी बड़े दलों के प्रदेश स्तरीय होने से उनके हितों में कोई आपसी टकराव नहीं होगा किन्तु कांग्रेस राष्ट्रीय पार्टी है और देश के लगभग सभी राज्यों में कम-ज्यादा उसकी राजनीतिक हिस्सेदारी है। इस वजह से वह राज्य में कांग्रेस को स्थानीय पार्टियों के साथ समझौता करना पड़ेगा। इसके अलावा कुछ पार्टियां उन राज्यों में भी चुनाव लड़ने की बात कर सकती हैं जहां वह जिताऊ स्थिति में नहीं है लेकिन 2 से 6 प्रतिशत तक की वोट की हिस्सेदारी कुछ सीटों पर उनके पास है।

मिले सुर मेरा तुम्हारा तो सुर बने हमारा, पहले दूरदर्शन पर अक्सर यह गीत गूँजता था, जो भारत की विविधता के साझे सरोकार को दिखाता था। इस गीत में भारत की कई भाषाएँ सुनाई देती थीं और कई भाषाओं के गायक, अभिनेता और संगीतज्ञ भी दिखते थे। इस पूरे सृजन का भाव यह था कि भारत को उसकी बहुरंगी विविधता के साथ साझे धागे में पिरो कर रखा जाये। फिलहाल अब कुछ इसी तरह से संघ की एकलवादी राजनीति का मुक़ाबला करने के लिए विपक्ष की लगभग 26 पार्टियां सुर में सुर मिलाने की कोशिश कर रही हैं। यह सुर बहुभाषी और बहुरंगी है। विविधता के यह 26 रंग सही समावेश के साथ एक मंच पर आ गए तो निःसन्देह एनडीए की पेशानी पर बल पड़ना तय है।

आज बैंगलोर में विपक्ष के 26 दल साझी बैठक कर रहे हैं। दो दिन तक चलने वाली इस बैठक में वह तमाम फार्मूले तलाशे जा सकते हैं, जिसके सहारे एनडीए को सत्ता से बाहर करने का साझा प्रयास किया जा सकता है। इस पूरे साझे में कांग्रेस पार्टी एक ओर जहां सबसे बड़ी सूत्रधार है तो वहीं दूसरी ओर सबसे बड़ी रोड़ा भी है। कांग्रेस के अतिरिक्त विपक्ष के सभी बड़े दलों के प्रदेश स्तरीय होने से उनके हितों में कोई आपसी टकराव नहीं होगा किन्तु कांग्रेस राष्ट्रीय पार्टी है और देश के लगभग सभी राज्यों में कम-ज्यादा उसकी राजनीतिक हिस्सेदारी है। इस वजह से वह राज्य में कांग्रेस को स्थानीय पार्टियों के साथ समझौता करना पड़ेगा। इसके अलावा कुछ पार्टियां उन राज्यों में भी चुनाव लड़ने की बात कर सकती हैं जहां वह जिताऊ स्थिति में नहीं है लेकिन 2 से 6 प्रतिशत तक की वोट की हिस्सेदारी कुछ सीटों पर उनके पास है।

इस बार बैठक में सोनिया गांधी के शामिल होने से यह तो तय है कि कांग्रेस गठबंधन की लगाम अपने हाथ में रखने की कोशिश जरूर करेगी। सोनिया के नाम पर अगुआई सहज ही कांग्रेस के हाथ में आ सकती है जबकि विपक्ष राहुल के नेतृत्व को स्वीकार करने में नि:संदेह आना कानी करेगा।

कांग्रेस इस अगुवाई की आड़ में एक तीर से दो शिकार करने की कोशिश भी कर सकती है। सोनिया किसी भी कीमत पर यह नहीं चाहेंगी कि ममता बनर्जी मजबूत हों इसलिए बहुत हद तक संभव है कि वह विपक्ष के चेहरे के रूप में बिहार के मुख्यमन्त्री नीतीश कुमार का नाम आगे बढ़ा दें। सोनिया गांधी अगर दो दिन चलने वाली बैठक में विपक्ष के चेहरे के रूप में नीतीश कुमार के नाम पर मुहर लगवा लेती हैं तो विपक्ष के इस साझे में वह निर्णायक बढ़त हासिल कर लेंगी।

गठबंधन के नाम पर भी है फंस सकता है पेंच

विपक्ष की भूमिका बन ही रही थी तब समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने कहा था कि एनडीए का मुक़ाबला करने के लिए हम लोग पीडीए बनाएंगे। यह पीडीए शब्द उन्होने कर्नाटक चुनाव के बाद दिया था। दरअसल कर्नाटक चुनाव ही वह बिंदु है जिसने विपक्ष को यह बताने का काम किया कि अब विपक्ष को नरेंद्र मोदी से नहीं बल्कि संघ के उस विचार से लड़ना चाहिए जिसके सहारे भाजपा देश में हिंदुत्ववादी एजेंडे को थोप कर जनता का ध्रुवीकरण अपने पक्ष में कर रही है। कर्नाटक चुनाव में कांग्रेस ने मोदी पर उस तरह से हमला नहीं किया, जिस तरह से इसके पहले वह करती रही है।  नरेंद्र मोदी ने खुद को सामने लाने के लिए बहुत प्रयास किया, उन्होने यहाँ तक कहा कि मुझे गालियां दी जा रही हैं। इस सबके बावजूद कांग्रेस ने उनको अपना टारगेट ही नहीं बनाया और चुनाव को मुद्दों पर इस तरह केन्द्रित रखा कि भाजपा की सारी कोशिशें बेकार चली गई। भाजपा ने यह चुनाव पूरी तरह से नरेंद्र मोदी के चेहरे पर लड़ा था। भाजपा की इस अपमानजनक हार ने पूरे विपक्ष को इस उम्मीद से भरने का काम किया कि मोदी को हराया जा सकता है। मोदी को हराने में जिस फैक्टर ने सबसे बड़ी भूमिका निभाई थी वह थी दलित, पिछड़ा और अल्पसंख्यक समाज की साझेदारी। इस साझेदारी ने संघ की हर चाल को काट कर फेंकने का काम कर दिया।  इस फैक्टर का राजनीतिक लाभ लगभग हर पार्टी देख रही थी पर सबसे पहले इसे बड़ी राजनीतिक जमीन का शब्द बनाने का काम अखिलेश यादव ने किया और उन्होंने अपनी राजनीति या फिर समाजवाद की राजनीति को पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक की राजनीति में बदलने का ऐलान कर दिया।

अखिलेश ने कहा कि वह पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक का मोर्चा बनाकर भाजपा को परास्त करेंगे। पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक समुदाय के साझे को उन्होंने पीडीए कहा। जब गठबंधन की भूमिका व्यापक होने लगी तो विपक्ष की राजनीति के एक मंच पर लाने के लिए दो बड़े सूत्रधार ममता बनर्जी और नीतीश कुमार ने भी इस शब्द पर कोई आपत्ति नहीं जताई और इस तरह से सहज ही एनडीए के खिलाफ पीडीए खड़ा होता दिखने लगा। तब इस मोर्चे में प्रत्यक्षतः कांग्रेस शामिल नहीं थी, पर अब जब कांग्रेस भी इस मोर्चे का हिस्सा बन रही है, तब नाम को लेकर पेंच फंस सकता है। कांग्रेस पहले से ही विपक्ष का अपना एक मोर्चा यूपीए बनाकर खड़ी है। जिसमें भले ही देश के ताकतवर दल नहीं है पर उस मोर्चे की कमान पूरी तरह से कांग्रेस के पास है। कांग्रेस सहज तरीके से यूपीए को खत्म नहीं करना चाहेगी। लेफ्ट पार्टियां भी पीडीए नाम के पक्ष में खड़ी दिख रही है जिसका सीधा सा तात्पर्य है कि विपक्ष कांग्रेस का साथ तो चाहता है पर अपनी लगाम कांग्रेस को नहीं देना चाहता है।

यदि विपक्ष की सहमति, गठबंधन का नाम पीडीए रखने पर बनती है तो यह तय है कि भाजपा को चुनाव से पहले बड़ा तनाव देने में विपक्ष कामयाब हो जाये। यूपीए को पराजित करने का भाजपा का बड़ा रिकार्ड है पर पीडीए नया मोर्चा है। जिसमें पुरानी यूपीए की अपेक्षा ज्यादा ताकतवर पार्टियां शामिल हैं। कभी-कभी कुछ शब्द अपने वास्तविक सरोकार से पहले ही अपने होने की हुंकार भर देते हैं। पीडीए शब्द भी बहुत कुछ वैसा ही है। इस मोर्चे से लड़ने में भाजपा को अपने शाब्दिक हमलों में बहुत सतर्कता बरतनी होगी। भाजपा का एक भी गलत शब्द अथवा गलत बयान पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक समुदाय को इस मंच के पक्ष में ध्रुवीकृत कर सकता है।

वैसे अखिलेश यादव के पीडीए और विपक्ष के साझा मोर्चे वाले इस पीडीए में नाम का शार्टकट ही एक है बाकी सब अलग है। अखिलेश का पीडीए जहां पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक है वहीं विपक्ष का यह गठबंधन Patriotic Democratic Alliance है। फिलहाल राजनीति में इस तरह के कन्फ़्यूजन भी कभी-कभी फायदा पहुंचाते हैं।

पीडीए में 26 तो एनडीए में 30

पीडीए की आज बैठक में 26 दल शामिल हो रहे हैं जबकि एनडीए की कल होने वाली बैठक में 30 पार्टियों के शामिल होने की उम्मीद है। भाजपा के लोग यह अभी से कहने लगे हैं कि एक मोदी को हराने के लिए सभी विपक्षी एक हो रहे हैं पर सच्चाई यह है कि सत्ता में बने रहने के लिए भाजपा ने ज्यादा पार्टियों को अपने साथ जोड़ रखा है।

कांग्रेस समेत तमाम विपक्ष जहां अभी अपना कुनबा सजाने में लगा हुआ है, वहीं भाजपा ने अपना चुनावी अभियान बिना बिगुल बजाए शुरू कर दिया है। रायपुर, गोरखपुर, वाराणसी और तेलंगाना में नरेंद्र मोदी ने जिस तरह से यात्राएं की और बड़ी-बड़ी योजनाओं का बड़ा-बड़ा तम्बू तानने का काम किया, उसके नेपथ्य में 2024 का चुनाव ही है। यदि उत्तर प्रदेश में देखें तो भाजपा अखिलेश के पीडीए से थोड़ा सकते में दिख रही है। जिसकी वजह से दलित और पिछड़ी जाति  के नेताओं वाली पार्टियो को वह जल्दी से जल्दी अपने साथ जोड़ लेना चाहती है। ओम प्रकाश राजभर की पार्टी सुभासपा कल तक जिस भाजपा के खिलाफ खड़ी थी, अब वह उसी भाजपा के साथ है। फिलहाल यदि पीडीए सही तरीके से आगे बढ़ पाता है एनडीए की राह कठिन हो जाएगी।

बैठक में शामिल हो रहे हैं इन राजनीतिक दलों के नेता

कांग्रेस: सोनिया गांधी, मल्लिकार्जुन खड़गे, राहुल गांधी, केसी वेणुगोपाल, 2.टीएमसी: ममता बनर्जी, सीपीआई: डी राजा, सीपीआईएम: सीताराम येचुरी, एनसीपी: शरद पवार, जितेंद्र आह्वाड़, सुप्रिया सुले, .जदयू: नीतीश कुमार, ललन सिंह, संजय झा, डीएमके एमके स्टालिन, टी.आर बालू, आम आदमी पार्टी: अरविंद केजरीवाल, .झारखंड मुक्ति मोर्चा: हेमंत सोरेन, शिवसेना (UBT): उद्धव ठाकरे, आदित्य ठाकरे, संजय राउत, आरजेडी: लालू प्रसाद यादव, तेजस्वी यादव, मनोज झा, संजय यादव, समाजवादी पार्टी: अखिलेश यादव, राम गोपाल यादव, जावेद अली खान, लाल जी वर्मा, राम अचल राजभर, आशीष यादव, जम्मू और कश्मीर नेशनल कॉन्फ्रेंस: उमर अब्दुल्ला, पीडीपी: महबूबा मुफ्ती, सीपीआई (ML): दीपांकर भट्टाचार्य, आरएलडी: जयंत सिंह चौधरी, इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग: केएम कादर मोहिदीन और पीके कुणाली कुट्टी, केरल कांग्रेस (M): जोश के मणि, एमडीएमके: थिरु वाइको, जी रेणुगादेवी, वीसीके: थिरु थिरुमावालवन, रवि कुमार, आरएसपी: एनके प्रेमचंद्रन, केरला कांग्रेस: पीजे जोसेफ, फ्रांसेस जॉर्ज के, केएमडीके: थिरु ई.आर ईस्वरम, एकेपी चिनराज, एआईएफबी: जी देवराजन

भाजपा भी कल करेगी दिल्ली में बैठक

विपक्ष जहां बैंगलोर में महाजुटान कर रहा है वहीं कल यानि मंगलवार को एनडीए में शामिल नए पुराने दल  कल सत्ता बचाने और 2024 का चुनाव जीतने का मंथन करेंगे। फिलहाल महंगाई और बेरोजगारी के मुद्दे पर भाजपा लगातार बैकफुट पर है। इस मुद्दे पर यदि वह घिर गई तो चुनाव की नदी में फंस भी सकती है।

 

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