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मुक्त मानसिक विकास, विचार एवं यथार्थ

हर वो जीव जिसे जीवन जीने के लिए किसी या कुछ ख़ास कौशलों की ज़रुरत होती है, उन्हें वो अपने वातावरण से सीखता है। मनुष्य जीव जगत में विशिष्ट है, उसने सभ्यता और संस्कृति पैदा की है, इससे मानव मनुष्य के मानसिक या चैतसिक विकास के लिए प्रायः दो अवधारणायें हैं, एक तो वास्तविकता है […]

हर वो जीव जिसे जीवन जीने के लिए किसी या कुछ ख़ास कौशलों की ज़रुरत होती है, उन्हें वो अपने वातावरण से सीखता है। मनुष्य जीव जगत में विशिष्ट है, उसने सभ्यता और संस्कृति पैदा की है, इससे मानव मनुष्य के मानसिक या चैतसिक विकास के लिए प्रायः दो अवधारणायें हैं, एक तो वास्तविकता है जबकि दूसरी सिर्फ़ आकांक्षा है, जिसके वास्तिविकता में बदलने का कोई उपाय नहीं है। मनुष्य के मानसिक विकास को लेकर देश और दुनिया के कई विद्वानों की धारणा है कि उसे स्वतंत्र रूप से विकसित होने दिया जाए, इस विकास को किसी भी प्रकार निर्देशित न किया जाये। इस तरह का प्रयोग रवीन्द्रनाथ टैगोर ने शान्ति निकेतन में किया था। दरअसल, देखना ये है कि जिसे ‘स्वतंत्र वातावरण’ कहा जाता है, क्या सच में वह स्वतंत्र होता है!

इसे समझने के लिए मानसिक विकास की दूसरी अवधारणा को भी समझना होगा। एक बच्चा अपने साथ कुछ जैविक गुण लेकर पैदा होता है, ये जैविक भी सिर्फ़ उसके लिए ही पूरी तरह से जैविक होते हैं, जबकि उसके पुरखों ने इसमें अपने वातावरण से सीखे गये कौशलों को भी मिश्रित किया होता है। इस तरह जिसे हम जैविक कहते हैं वो भी मनुष्य और वातावरण की अंतर्क्रिया से ही उत्पन्न हुआ होता है।

अंतिम निष्कर्ष पर पहुँचने से पहले, एक आदर्श समाज की कल्पना करें, एक ऐसा समाज जिसमें सभी एक-दूसरे से प्रेम करते हैं, कोई सामाजिक एवं आर्थिक असमानता नहीं है, किसी तरह की जेंडर असमानता भी नहीं है, सभी का जीवन आर्थिक, सामाजिक एवं स्वास्थ्य आदि के दृष्टिकोण से सुरक्षित है।

मनुष्य और कुछ दूसरे प्राणियों के बच्चे अपने वातावरण से अंतर्क्रिया करते हुए सीखते हैं। अगर इस वातावरण को सजगतापूर्वक नियोजित नहीं किया गया है तो इसे अमूमन ‘बच्चे का स्वतंत्र मानसिक विकास’ कह दिया जाता है। इसके अलावा ये भी हो सकता है कि एक बच्चे के इर्द-गिर्द विविधतापूर्ण वातावरण निर्मित किया जाए और बच्चा उनमें से अपनी रुचि के अनुसार स्थितियों, परिस्थितियों और चुनौतियों का चुनाव करे और उन्हीं के आधार पर उसका विकास हो। पश्चिम में ऐसे स्कूल बनाने की कई कोशिशें हुईं, जापान में भी हुईं और शान्ति निकेतन को भी इसी तरह का प्रयास माना जाना चाहिए। आज ये तमाम प्रयोग अपनी मौलिकता खो चुके हैं, कुछ का अस्तित्व भी ख़त्म हो चुका है।

इन प्रयोगों पर दो तरह की टिप्पणी की जानी चाहिए। प्रथम, ये प्रयोग व्यावहारिक साबित नहीं हुए और दूसरा, ये “स्वतंत्र विकास” भी स्वतंत्र न होकर नियोजित ही हैं। फर्क बस इतना है कि एक बच्चे के सामने वैविध्यपूर्ण परिस्थितियाँ सृजित कर दी गईं हैं। क्या इस तरह के नियोजित वातावरण में हुए विकास को सच में ‘स्वतंत्र’ कहा जा सकता है! प्रायः ऐसा करने वालों का उद्देश्य होता है कि एक बच्चे के मन पर किसी विशेष तरह का वैचारिक ढांचा न थोपा जाये। ये बात चाहे जितनी आदर्श लगे, लेकिन एक बात तो साफ़ है कि ‘वैविध्यपूर्ण वातावरण’ भी एक तरह का ढांचा ही है और अगर ये नियोजित ही है तो नियोजन को क्यों न सामाजिक, भावनात्मक और वैज्ञानिक रूप से ज़्यादा व्यवस्थित बनाया जाए!

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जबसे शिक्षा का औपचारिक या अनौपचारिक रूप सामने आया है, एक बच्चे का मानसिक विकास एक नियंत्रित वातावरण में ही हो रहा है और मनुष्य के इस सम्बन्ध में समझ बढ़ने के साथ ही ये नियोजन ज़्यादा जटिल और उपादेय हुआ है। पूँजीवादी समाज एक बच्चे के विकास को सर्वाधिक नियंत्रित करता है। उसे कितने लोग किस तरह के कौशल से युक्त चाहिए, उसी के हिसाब से वो उनके तालीम को नियोजित करता है। इसी तरह वो एक बच्चे के विकास का ढांचा और उन तक लोगों की पहुँच को भी सुनिश्चित करता है। यही कारण है कि समाज में आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक असमानता है, क्योंकि एक पूँजीवादी समाज की यही ज़रुरत है।

आपने गौर किया होगा कि जब कोई पार्टी बहुमत से हुकूमत बनाती है तो सबसे ज़्यादा बच्चों के तालीम को नियंत्रित करती है, तालीम तक कितने बच्चों की पहुँच सुनिश्चित करनी है, कितने लोगों को कैसी तालीम देनी है आदि-आदि। तालीम को नितंत्रित करने में फासिस्ट हुकूमतें सबसे ज़्यादा मेहनत करती हैं, उनकी पूरी कोशिश होती है कि ज़्यादा से ज़्यादा लोग बस साक्षर हों, जो ठीक से तालीम हासिल कर भी लें, वो भी पुरातनपंथी हों, यही नहीं ऐसे ढांचे में वैज्ञानिक एवं डॉक्टर जो रात दिन विज्ञान एवं तकनीक के संपर्क में रहते हैं वो भी एक अशिक्षित जितने ही पुरातनपंथी होते हैं।

इसलिए एक बात तो बहुत साफ़ है कि ‘स्वतंत्र मानसिक विकास’ सदासयता भले हो लेकिन वास्तविकता नहीं हो सकती, इसी तरह दुनिया भर में तालीम देने के जितने और जैसे भी संस्थान हैं, वो एक खास तरह के इंसान गढ़ने के लिए तालीम को डिजाइन करते हैं। ये बात कहने-सुनने में भले ही अच्छी या बुरी लगे, लेकिन सच तो यही है कि इंसान पैदा होता ज़रूर है लेकिन व्यक्तित्व निर्मित किया जाता है। हाँ, निर्मिती फैक्ट्री में कार जैसी नहीं होती इसलिए लोग व्यक्तित्व के तल पर भी अलग-अलग दिखाई देते हैं।

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अब अगर व्यक्तिव गढ़ा ही जाता है तो इस गढ़ने के उद्देश्य को ज़्यादा व्यापक और ज़्यादा उपादेय क्यूँ न बनाया जाए! दरअसल, सत्ता जिसके हाथ में होती है वो अपने ‘लाभ’ के उद्देश्य से व्यक्तित्व विकास को डिजाइन करता है। इस ‘डिजाइन’ के दायरे में शिक्षण संस्थान, सामाजिक वातावरण, आर्थिक स्थिति, मीडिया के विषय आदि सभी आते हैं। इन सबके भीतर से गुज़रकर एक व्यक्तित्व निर्मित होता है। उदाहरण के लिए आज सामाजिक वातावरण धार्मिक वैमनस्य से बुरी तरह प्रभावित है, तालीम आर्थिक स्थिति से तय होना है, मीडिया साम्प्रदायिक वैमनस्य को बढ़ावा दे रही है, ऐसे में एक बच्चे को धर्म के आधार पर ‘नफ़रत न करने वाला’ बना पाना बेहद मुश्किल है खासतौर पर अगर माता-पिता भी जाति और मज़हब के नाम पर नफ़रत करने वाले हों। हाँ, एक सजग माता-पिता राजसत्ता के तमाम चाहने के बावजूद किसी हद तक अपने बच्चों को ‘नफ़रत करने वाला’ बनने से रोक सकते हैं।

अंतिम निष्कर्ष पर पहुँचने से पहले, एक आदर्श समाज की कल्पना करें, एक ऐसा समाज जिसमें सभी एक-दूसरे से प्रेम करते हैं, कोई सामाजिक एवं आर्थिक असमानता नहीं है, किसी तरह की जेंडर असमानता भी नहीं है, सभी का जीवन आर्थिक, सामाजिक एवं स्वास्थ्य आदि के दृष्टिकोण से सुरक्षित है। अब ये आपको इटोपिया लग सकता है, लेकिन थोड़ी देर के लिए इसे सच मान लें। अब विचार करें, क्या बच्चों की परवरिश को इस तरह नियोजित किया जा सकता है, जिससे वो बड़े होकर ऐसा समाज निर्मित करें और फिर उनके बच्चे इसी तरह के समाज में विकसित हों जिसका आधार मानवीय गरिमा हो?

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मेरा विचार है कि हम ऐसा कर सकते हैं, इसके लिए ज़रूरी है कि राजसत्ता ऐसे लोगों के हाथ में हो जिनके लिए समाज का व्यापक हित ही सर्वोच्च आदर्श हो, ये कैसे होगा, इस पर सोचना चाहिए, लेकिन एक ऐसी राजसत्ता जिसका ये उद्देश्य होगा वहीं एक बच्चे के सर्वांगीण विकास का बुनियादी ढाँचा निर्मित कर सकती है, इससे पहले एक व्यक्ति के व्यक्तित्व का सम्पूर्ण विकास महज़ एक कल्पना होगी।

सार रूप में कहा जा सकता है कि ‘स्वतंत्र विकास’ की अवधारणा एक आदर्श भले हो ये वास्तविकता नहीं हो सकती, व्यक्तित्व विकास के सभी तरह के ढांचे नियोजित ही होते हैं, अगर व्यक्तित्व का विकास एक नियोजित ढांचे में ही हो रहा है तो क्यों न इस नियोजन को सर्वोत्तम बनाने के प्रयास किये जाएँ!

सलमान अरशद स्वतंत्र पत्रकार हैं।

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