(केरल की महिला किसानों द्वारा की जा रही साझा खेती का अध्ययन)
पिछले दिनों एक पुस्तक का विमोचन दिल्ली के कंस्टीटूशन क्लब में हुआ जिसका शीर्षक है फ्रॉम दि रील्म ऑफ नेसेसिटी टु दि रील्म ऑफ फ्रीडम। पुस्तक का विमोचन किया केरल के कुडुम्बश्री कार्यक्रम के पहले कार्यकारी निदेशक टीके जोस, भारतीय महिला फेडरेशन की राष्ट्रीय अध्यक्ष और मजदूर किसान शक्ति संगठन की संस्थापिका अरुणा रॉय, भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) के महासचिव और राज्यसभा के पूर्व सांसद कॉमरेड डी. राजा, एक्शन एड. एसोसिएशन (इंडिया) के सह-निदेशक तनवीर काजी और जोशी-अधिकारी इंस्टिट्यूट के निदेशक डॉ. अजय पटनायक ने। इस मौके पर पुस्तक के लेखक डॉ. जया मेहता और विनीत तिवारी, पुस्तक के प्रकाशक एक्शन एडके जोसेफ मथाई और आकार बुक्स के केके सक्सेना भी उपस्थित थे।
यह किताब केरल में कुडुम्बश्री मिशन के अंतर्गत महिलाओं द्वारा की जा रही साझा खेती के. राज्यव्यापी प्रयोग पर किए गए सुदीर्घ अध्ययन का परिणाम है। कुडुम्बश्री मिशन को लोगों के लिए आसान और दक्ष बनाने के लिए अनेक शासकीय विभागों आपस में मिलाकर ऐसे नये तरीके सोचे गए, जिससे यह कार्यक्रम लोगों का अपना कार्यक्रम बन सके और वे ही इसकी कामयाबी सुनिश्चित करें। सामूहिक खेती का कार्यक्रम कुडुम्बश्री के तहत किये जाने वाले बहुत सारे कार्यक्रमों में से एक है लेकिन इसका महत्त्व बहुत ज्यादा है क्योंकि इसने महिलाओं को आत्मविश्वास देने के साथ ही खाद्य सुरक्षा और पर्यावरणीय चेतना के प्रति सचेत किया। यह किताब इस पहलू को अनेक उदाहरणों और केस स्टडीज से बिल्कुल सही तौर पर सामने लाती है कि कैसे सामूहिकता में विश्वास पैदा होने से इन संसाधनहीन महिलाओं को अपने भीतर बदलाव की ताकत का यकीन हुआ। पिछले करीब दो दशकों के समय में सामूहिक खेती के इस कार्यक्रम में केरल की दो लाख से अधिक ग्रामीण महिलाओं ने छोटे-छोटे समूह बनाकर छोटी-छोटी जोतों पर खेती की है जो पूरे राज्य में अब कुल 47,000 हेक्टेयर से ज्यादा हो चुकी है। इसमें काफी सारी जमीन परती की और बंजर जमीन है, जिसे महिलाओं ने सामूहिक रूप से मेहनत करके खेती योग्य बनाया। वक्ताओं ने कहा कि इस किताब का उपयोग देश के अन्य हिस्सों में प्रयोग करने के लिए किया जाना चाहिए।
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वक्ताओं ने इस किताब को एक बेहतरीन सन्दर्भ ग्रन्थ, पठनीय रोचक पुस्तक, जीवन्त उदाहरणों से भरी और जानकारियों से भरपूर पुस्तक बताया। उन्होंने कहा कि इस पुस्तक का उपयोग बहुत सारे लोग कर सकते हैं अगर चाहें तो। इसका इस्तेमाल शासन में बैठे लोग अन्य राज्यों में इस प्रकार के कार्यक्रम शुरू करने में कर सकते हैं। इसका उपयोग ग्रामीण सामाजिक कार्यकर्ता भी ऐसे लोगों को संगठित करने के लिए कर सकते हैं जो गरीब, भूमिहीन या छोटी जोतों के किसान हैं। भारत में अधिकांश जगहों पर स्वयं सहायता समूहों का कार्यक्रम नाकाम साबित हुआ है। उसकी कमियों को दूर करने के लिए भी इस पुस्तक की सहायता ली जा सकती है। कुडुम्बश्री का आख्यान यह बताता है कि कैसे वही सहकारिता आंदोलन जो शेष भारत में नाकाम हुआ, केरल में कैसे कामयाबी से बढ़ा है। यह इसलिए वहाँ सम्भव हुआ, क्योंकि वहाँ लोकतंत्र और प्रशासन जनभागीदारी के साथ चलाया गया और जो संरचनात्मक सुधार किए गए, वो जनता के नजरिए से किये गए। कुडुम्बश्री इस बात का भी उदाहरण है कि कैसे प्रशासन ने लकीर का फकीर न बनते हुए जनता के हित में कानूनों को अवरोध बनने से रोकते हुए व्यवहारिक तौर पर इस्तेमाल किया। ये किताब केवल किसी वैकल्पिक, आर्थिक गतिविधि का ब्यौरा नहीं है, बल्कि ऐसी तमाम औरतों की कहानियां हैं जो स्वाभिमान, करुणा और दयालुता से भरीं हुई हैं। इस नज़रिए से भी इस किताब को पढ़ना बहुत दिलचस्प है कि धर्म, जाति और लिंग के भेद जहाँ आपस में सम्बन्ध कायम होने से रोकते हैं, वहीं कुडुम्बश्री ने इन्हें आपस में जोड़ने के मजबूत सूत्र में बदल दिया।
इस किताब की विशेषता जटिल प्रक्रियाओं को सरलता से बताया जाना है। अनेक केस स्टडीज के माध्यम से यह किताब बताती है कि अगर हाशिये के लोग भी एकजुट हो जाएँ तो सहकारिता का आंदोलन कामयाब हो सकता है। यह किताब गहराई से समाज के सबसे अंतिम पायदान पर मौजूद लोगों की एकजुटता की ताकत बयान करती है। इस किताब को एक देशव्यापी सहकारिता आंदोलन के मॉड्यूल के रूप में भी बदला जा सकता है। इसके लिए शुरुआत में ऐसे समुदायों और समूहों की पहचान कर उन्हें चिह्नित करना होगा जो साथ में आने और विकल्पों को आजमाने के लिए तैयार हों।
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इस किताब का दायरा भारतीय खेती के संकट से पीड़ित लोगों को अलग-अलग समाधान सुझाने और महिला सशक्तीकरण करने से कहीं आगे जाता है। यह किताब कुडुम्बश्री के उदाहरण और अध्ययन के मार्फत पूँजीवादी दुनिया का ही एक विकल्प ढूँढने की कोशिश करती है। पूँजीवादी दुनिया की पहचान एकाधिकारवादी और शोषणकारी बाजार व्यवस्था से होती है, जिसमें कुछ लोगों के हाथों में ही पूँजी और ताकत इकट्ठी होती जाती है और ज्यादातर लोग गरीबी और अभावों में पिसते रहते हैं। भारत में खेती का क्षेत्र किसानों की बड़ी आबादी और अधिकांश ग्रामीण जनता के लिए पर्याप्त आजीविका उपलब्ध कराने में सक्षम नहीं हैं। यह किताब सहयोग, सहकार और कामगार लोगों के साझा आर्थिक आधार की ताकत की बात करती है, विशेषकर खेतिहर मजदूरों और छोटे किसानों की जिनके भीतर इस पूरी व्यवस्था को बदल डालने की क्रांतिकारी क्षमता मौजूद है। खेती के क्षेत्र में इनपुट-आउटपुट के तमाम सूत्रों पर फिलहाल कॉरपोरेट और खेती का व्यवसाय करने वाली कम्पनियों का कब्जा है, जिसे आंदोलन के जरिए कोआपरेटिव और श्रमिकों के समूहों के लिए आरक्षित किया जा सकता है। इस तरह से भूमिहीन मजदूर और छोटे किसान शोषणकारी और दमनकारी व्यवस्था से मुक्त हो सकते हैं। यह किताब केरल की उन महिलाओं की क्रांतिकारी क्षमता को सलाम करती है जो अभावों और गरीबी में रह रही थीं और जिन्होंने सामूहिकता के जरिए अपने जीवनदर्शन और सामर्थ्य का विस्तार किया। समाज के अभावग्रस्त तबके किस तरह एक राजनीतिक प्रक्रिया के भीतर भी प्रभावशाली हस्तक्षेप कर सकते हैं, कुडुम्बश्री की साझा खेती में जुटी महिलाएँ इसका एक जीवन्त उदाहरण प्रस्तुत करती हैं।
भारत में खेती में हो रहे लोगों के हाशियाकरण की समस्या को जनभागीदारी वाले कोआपरेटिव मॉडल से सुलझाया जा सकता है। साझा उत्पादन करने वाले समूहों को अगर एक व्यापक मंच पर मिलाया जा सके तो वे खेती के कॉरपोरेटीकरण के खिलाफ बड़ी राजनीतिक चुनौती पेश कर सकते हैं।
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पुस्तक जोशी-अधिकारी इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल स्टडीज, एक्शनएड एसोसिएशन (इंडिया) और आकार बुक्स द्वारा प्रकाशित है तथा अमेजॉन (https://www.amazon.in/dp/
विनीत तिवारी वरिष्ठ रंगकर्मी और प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय सचिव हैं।
[…] ज़रूरत के बंधन से मुक्ति के आकाश तक (gaonkelog.com) […]
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