तीसरा और अंतिम भाग
प्रेमचंद की जयंती के मौके पर पूरे देश में लोग उन्हें याद करते हैं। प्रेमचंद के प्रशंसकों और आलोचकों का विस्तृत संसार है। इस बार हमें लगा कि प्रेमचंद आधी दुनिया में क्या जगह रखते हैं यह जानना चाहिए। इसलिए हमने लगभग चालीस महिलाओं को एक व्हाट्सएप संदेश भेजा कि उन्होंने प्रेमचंद को कब पढ़ा ? उनकी कौन सी रचनायें याद हैं ? उनमें क्या खास बात है और आज वे उन्हें कैसे देखती हैं? इनमें सभी आयुवर्ग से जुड़ी महिलाएं शामिल हैं। अध्यापक, लेखक, गृहिणी और विद्यार्थी सभी तरह की महिलाएं सहभागी हुईं । उनकी ही भाषा में प्रस्तुत है प्रेमचंद को लेकर उनके विचार। सामग्री बहुत है इसलिए इसे हम कई हिस्सों में प्रकाशित कर रहे हैं । यह तीसरा और अंतिम भाग :
हर चरित्र को विशेष रूप से गढ़ा है
अनिता भारती, जानी-मानी दलित साहित्यकार, दिल्ली
साहित्यकार प्रेमचन्द दलित गैर दलित स्त्रियों के सबसे बड़े हिमायती हैं । प्रेमचन्द स्त्री जीवन के संघर्ष को अपने उपन्यास और कहानियों में बखूबी दिखाते हैं। प्रेमचन्द स्त्री मन के कुशल चितेरे हैं। ठाकुर का कुआं कहानी में गंगी हो अथवा घासवाली की मुलिया या फिर गोदान उपन्यास की सिलिया , या कफ़न कहानी की बुधिया सभी चरित्र प्रेमचन्द ने अपने कहानी-उपन्यास में विशेष रूप से गढ़े है।
सृजन और मनुष्यता कपड़ों-जूतों को कितना छोटा कर देते हैं
भारती वत्स, प्राध्यापक, हवाबाग कॉलेज, जबलपुर
प्रेमचंद को एक महान लेखक के रूप में तो बहुत बड़े होने के बाद जाना पर उनसे पहला परिचय पंच परमेश्वर,नमक का दरोगा कहानी और फिर ईदगाह के माध्यम से हुआ। ये कहानियां पढ़ते हुए बचपन में तो बस एक कहानी ही लगी। थोड़ी समझ आने के बाद लगा की ये सिर्फ कहानियां नहीं हैं। इनमें तो पूरी दुनिया का हर वो आदमी शामिल है जो दुखी है, पहले तो दुखी शब्द ही सही लगा पर और बाद में दुखी शब्द की जगह उत्पीड़ित ने ले ली।
स्कूल में प्रेमचंद की फोटो लगी थी जिसे देख अपने दादा की याद आती थी यानि एक इतना बड़ा लेखक बिना किसी टीमटाम के, बिना किसी सजावट के हमारे सामने था जैसे गांव का कोई किसान। जब परसाई जी का निबंध प्रेमचंद के फटे जूते पढ़ा तो उस फोटो को फिर देखा और तब लगा महानता कपड़ों और जूतों में नहीं बसती। ये सब कुछ किस कदर अर्थ हीन हैं, ये बात प्रेमचंद ने कह कर नहीं समझाई बल्कि वैसे जी कर समझाई। सृजन और मनुष्यता सब कुछ को कितना छोटा कर देते हैं यह समझ आया और इस बात का मेरे जीवन पर भी प्रभाव पड़ा।
प्रेमचंद ने मुझे दुनिया को समझने की अंतर्दृष्टि दी। पूस की रात हो या सदगति हो या कफन ,समाज के सच को सादगी और पीड़ादाई तरीके से प्रेमचंद समझा देते हैं। कोई बड़ी सैद्धांतिकी नहीं बघारते। होरी और माधव, जिनकी ओर कभी दृष्टि नहीं गई थी अब वो अगल-बगल अपनी उपस्थिति महसूस करा रहे थे।
प्रेमचंद की ईदगाह और बूढ़ी काकी पढ़ते हुए ऐसा लगा जैसे इसके किरदार मेरे बगल में आ बैठे हों। हामिद और दादी के रिश्ते को तो गहरे प्रेम के साथ व्यक्त किया ही समाज के ढांचे से भी परिचय करवाया। किस तरह बाकी बच्चे ईद मना रहे थे और हामिद की ईद दादी के इर्द-गिर्द घूम रही थी। बच्चों की इतनी भावनात्मक कहानी मैंने नहीं पढ़ी। बूढ़ी काकी का बुढ़ापा यदि वो बताते हैं तो घरों के अंदर मौजूद परायापन भी बताते हैं। किस तरह संबंध आर्थिक धुरी पर घूमते हैं यह भी बताते हैं। ये आज का भी सच है कुछ भी नहीं बदला।
प्रेमचंद महान उपन्यासकार ,कहानीकार हैं इसमें कोई शक नहीं, परंतु वो मानव मन के गहरे अध्येता पहले हैं। याद कीजिए गोदान उपन्यास का आखिरी दृश्य। होरी की वो गहरी निश्चेतना जिसमें उसे अपने जीवन की सुखद यादों की सुध आती है जब धनिया गोदान के लिए सिक्का देती हैं। क्या सामान्यजन की यंत्रणाओं को इससे पहले कभी किसी ने इस तरह चित्रित किया है?
प्रेमचंद के दलित और पिछड़े पात्र इतने लुंज-पुंज क्यों हैं
डॉ. सीमा माथुर,
कवियत्री, असिस्टेंट प्रोफेसर, राजनीति विज्ञान, कालिंदी कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय
प्रेमचंद के बारे में मैंने उन्हें स्कूल के दिनों में पाठ्यक्रम का हिस्सा होने की वजह से पढ़ने को मिला था लेकिन साहित्य की कोई खास रूचि नही होने के कारण ज्यादा ध्यान नही दिया। और मैं स्कूल से निकलकर राजनीति विज्ञान की पढ़ाई करने के लिये दिल्ली आ गई। लेकिन मेरे मस्तिष्क में कहीं न कहीं पूस की रात, नमक का दरोगा, कफन, घासवाली कहानियां और उनके चरित्र हल्कू, झबरा, आदि अपनी जगह बना चुके थे। कॉलेज के दिनों में मैं आर्ट्स फैकल्टी की लाइब्रेरी जाया करती थी अपनी किताबें खोजने लेकिन अनायास जी हिंदीवाले सेक्शन पर नजर ठहर जाती थी जिसकी खास वजह मेरे कई मित्र थे जो हिंदी साहित्य की पढ़ाई कर रहे थे। मैंहरबार प्रेमचंद की कहानियां पढ़ जाया करती थी। लेकिन अब मैं कहानियों कुछ खोजने का प्रयास किया करती थी –दलित सन्दर्भ, स्त्री विमर्श आदि। क्योंकि अब तक मैं कुछ सामाजिक संस्थाओं, स्टूडेंट्स ग्रुप, साहित्यक संगठन के सम्पर्क में आ चुकी थी और लगातार प्रेमचंद के लेखन में स्त्री विमर्श को पढ़ने का प्रयास करती। परन्तु अभी भी मैं सिर्फ पढ़ रही थी उनको। इसके बाद अपनी राजनीतिशास्त्र की पढ़ाई करने के बाद पीएच.डी. के दौरान दलित विमर्श और दलित स्त्री विमर्श को साहित्य और राजनीतिक संदर्भ में गहराई से अध्ययन का मौका मिला। मैनें अब प्रेमचंद की कहानियों के चरित्रों को फिर से दलित और स्त्री विमर्श के संदर्भ में जानने का प्रयास किया।
इसमें कोई संदेह नही है कि प्रेमचंद ने अपनी विभिन्न रचनाओं, चाहे वह सेवासदन, प्रेमाश्रम, रंगभूमि, निर्मला, गबन, कर्मभूमि, गोदान जैसे उपन्यास हों या कफन, पूस की रात, पंच परमेश्वर, बड़े घर की बेटी, बूढ़ी काकी, दो बैलों की कथा जैसी अनेकों कहानियाँ हों, के माध्यम से बीसवीं सदी की सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि के संदर्भ में किसान-साहूकार, स्त्री-पुरुष सम्बन्धों के साथ-साथ दहेज, अनमेल विवाह, पराधीनता, लगान, छूआछूत, जातिभेद, गरीबी, भुखमरी जैसी समस्याओं को बखूबी उजागर किया है। उनका साहित्य लेखन सामाजिक सांस्कृतिक दस्तावेज माना जाता है जिसमें उस दौर के समाज सुधार आन्दोलनों, स्वाधीनता संग्राम तथा प्रगतिवादी आन्दोलनों के सामाजिक प्रभावों का स्पष्ट चित्रण दिखाई देता है।
अभी हाल फिलहाल मुझे प्रेमचंद की बहुजन कहानियां पढ़ने को मिली। अधिकतर कहानियोँ में निम्न व मध्यम वर्ग का विस्तृत चित्रण मिलता है। लेकिन अधिकतर पत्र उस व्यवस्था को ढोते नजर आते हैं लेकिन उसकी खिलाफत करने का साहस करते कोई नज़र नही आता या यों कहें कि प्रेमचंद ने समकालीन समस्याओं का बखूबी चित्रण तो किया है लेकिन उन समस्याओं के खिलाफ बोलने और समाधान का साहस नहीं जुटा पाएं। कफ़न कहानी के माध्यम से एक दलित परिवार की गरीबी और पात्रों के चरित्र का बखूबी बयान तो किया है लेकिन सवाल ये है कि क्या दलित परिवारों में सभी पियक्कड़ होते हैं या उनमें बिल्कुल भी इंसानियत नहीं होती जो अपने परिवार के सदस्य की मौत पर जश्न मनाते है या आस-पास के पड़ोसी जो जिंदा रहते छुआछूत के चलते कभी मदद नही करते और मरने उनके लाश को दफना भी देते है। ऐसे ही सद्गति कहानी में जो पंडिताइन चूल्हे की आग भी फेंककर देती है, दुखी की मौत के बाद उसे घसीटकर गाँव के बाहर चील-कौओं के नोंचने के लिए फेंक देते हैं। यहाँ क्यों नही उसका दाह-संस्कार करते पंडित लोग। ऐसे ही बाबाजी का भोग कहानी में रामधन अहीर और उसका परिवार बाबा जी के भोग के लिए उधार मांगकर लाते हैं, घी लाते है जिसका भोग गरीबी के चलते उसने कभी नहीं कर पाया लेकिन बाबा के लिए जरूर इंतजाम करता है डर के मारे की कही बाबा गुस्से में श्राप न दे दे। क्यों नही प्रेमचंद का पात्र बाबा बाबाजी के भोग के लिए मना कर पाया जबकि उनके पास देने के लिए कुछ भी नही था। तो ऐसी ही अनेकों कहानियां जो प्रेमचंद की समकालीन समस्याओं का बखूबी सजीव चित्रण तो करतीं हैं लेकिन उनका समाधान खोजने में असफल रहती हैं।
मैं एक बार फिर से प्रेमचंद की कहानियों को पढ़ने और उन्हें समझने का प्रयास कर रही हूं। हर बार कुछ नया मिलता है उनकी कहानियों में। इसलिए प्रेमचंद आज भी प्रासंगिक हैं।
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उनकी कहानियों में एक अलग तरीक़े का कैनवस दिखता है
डॉ. नूर फातिमा, अध्यापिका, मुगलसराय
1986-87 की बात है मैंने मुंशी प्रेमचन्द को पढ़ा छठी-सातवीं कक्षा में लेकिन हम अपने वालिद साहब की ज़बानी ख़ूब सुनते थे। मेरे वालिद मैकनिकल इंजीनियर होने के साथ साथ लिट्रेचर पर ज़बरदस्त पकड़ रखते और जब भी उनके दोस्त-अहबाब आया करते तो शायरी के साथ अदीबों और कहानियों के भी दौर चलते। तो ऐसे में मुंशी प्रेमचन्द के नाम लिए बिना कैसे बातें पूरी होतीं।
बताने वाली बात यह है कि मुझे अपने बचपन से ही प्रेमचन्द नाम से वाकफियत होना शुरू हो गई थी । यही कोई 7 या 8 साल की रही हूंगी मैं। मेरी अम्मी भी नावेल पढा करती थीं, तो उनसे भी मैं बहुत मज़े लेकर सुनती थी। मुझे याद है मैं गोदान, नमक का दरोगा, निर्मला और बहुत सारी कहानियां और नावेल अपने बचपन में ही सुन चुकी थी। जब मैंने पढाई शुरू की तो ईदगाह से शुरुआत हुई।
मुझे प्रेमचन्द की सभी कहानियों में एक अलग तरीक़े का कैनवस दिखता है,जैसे उन्होने ईदगाह कहानी में एक चिमटे की बात की है किस ख़ूबसूरती के साथ। हामिद दादी के लिए कैसे चिमटा लेकर आता है। इसी तरह से नमक का दरोगा में कैसे पूरी नमक भरी गाड़ी पार कराई जाती है। फिर गोदान में कैसे सरपंच ज़ुल्म ज्यादती करता है। इसी तरह से निर्मला में एक औरत को मजबूर करना, एक किरदार उनका होरी और धनिया कैसे मशक्कत करते ज़िन्दगी को आगे ले जाते हैं, पूस की रात में भी एक अलग नज़ारा दिखता है ग़रीबी का, और भी बहुत सारी कहानियां और नावेल हैं, जिन्हेंहम फ़रामोश नहीं कर सकते।
मुंशी प्रेमचन्द के हर किरदार का नया रंग होता है। उन्होंने खेत, खलियान, बुनकर, जोलहा, ग़रीबी, अमीरी, ऊँच-नीच के भेद-भाव, ज़ुल्म, जागीरदाराना समाज में फ़ैल रही हर बुराई को अपनी कहानी में उजागर किया है। उसे कहानी का हिस्सा बनाया है। हर वो चीज़ जिससे समाज में क्लेश और उथल-पुथल मचे उसे रोकने की कोशिश की है। बाल-विवाह, विधवा-विवाह, इन सभी बातों को अपनी कहानी में बयान किया है। क्या नहीं लिखा है।
मुझे बहुत सारे लेखकों को पढ़ने का मौक़ा मिला, लेकिन प्रेमचन्द के अंदाजे़-बयाँ सभी से जुदा है। प्रेमचन्द की हर कहानी में नया रंग नज़र आता है। उन्होने एक ऐसे भारत बनाने का ख़्वाब देखा था जहाँ मिल्लत, इंसानियत क़ायम रहे। गंगा-जमुनी तहज़ीब बरक़रार हो। वे एक उदात्त भारत का सपना देखने वाले कहानीकार थे.
प्रेमचंद संवेदना और मनुष्यता के बड़े लेखक हैं
प्रियंका श्रीवास्तव,आकाशवाणी कम्पीयर, रायगढ़
मुंशी प्रेमचंद को मैंने सबसे पहले स्कूल के पाठ्यक्रम में पढ़ा, जिसमें बूढ़ी काकी, पूस की रात और ईदगाह कहानी। इनकी कहानियों को पढ़ते हुए जीवन्तता का अहसास होता है। विशेषकर बूढ़ी काकी की बात करें तब।
इस कहानी में प्रेमचंद ने वृद्धावस्था की ऐसी स्थिति का वर्णन किया है जब वृद्ध एकदम बच्चा हो जाता है। जब बुढापे में केवल स्वादिष्ट खाने पर ही मन ललचाता है। लेकिन इस कहानी में बूढ़ी काकी के साथ जिस तरह का व्यवहार रूपा और उसके परिवार वालों ने किया पढ़कर सच में आँखें गीली हो गईं । बूढ़ी काकी के विधवा होने पर सामाजिक रूप से किसी भी अच्छे काम में उपस्थिति से मना करना, उपेक्षित और अपमानित करना, मन में क्रोध उत्पन्न करता है। सगाई के दिन बच्चों जैसे मिठाई खाने की चाहत, पकते हुए पकवान की सुगंध से उसे खाने की बेचैनी और परिवार वालों द्वारा उनकी उपस्थिति से अपशगुन होने के भय के बीच अंतर्द्वंद्व का मार्मिक चित्रण है।
प्रेमचंद जी की कहनियों को पढ़कर ऐसा लगता है कि उनके पात्रों से हम स्वयं जुड़ गए हैं क्योंकि उनके पात्र हमारे बीच के ही होते हैं,घटनाएं भी हमारी ही लगती हैं। उन्होंने अपनी रचनाओं में समाज की कुरीतियों, अंधविश्वासों,भ्रष्टाचार को केंद्र में रखकर कहानी लिखी है।
उन्होंने भाषा को साहित्यिक न रखकर आमजन की भाषा बनाई इसीलिए उनके पाठक अन्य लेखकों से ज्यादा है। मुझे लगता है कि प्रेमचंद ऐसे साहित्यक हैं जिनके साहित्य को पढ़कर कोई भी मनुष्य समाज में चल रही गतिविधियों की जानकारी आसानी जान सकते हैं। प्रेमचंद संवेदना और मनुष्यता के बड़े लेखक हैं।