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मुख्य न्यायाधीश सर्वोच्च न्यायालय धनंजय चंद्रचूड़ के नाम खुला पत्र! 

कुछ माह पहले राहुल गांधी की लोकसभा सदस्यता रद्द कर दी गई। यह निर्णय किस संविधान के तहत लिया गया। सभी का नाम मोदी क्यों होता है? इस बात में क्या आपत्तिजनक है। कौन से कानून के अनुसार राहुल की लोकसभा की सदस्यता समाप्त हो जाती है? यह हमारी सभी संवैधानिक संस्थाओं का फेल्युअर है।

माननीय मुख्य न्यायाधीश महोदय,

जब मैं राष्ट्रीय सेवा दल का अध्यक्ष था, तब मैंने अपने कुछ साथियों के साथ 8 जनवरी, 2018 को भीमा कोरेगांव की घटना की जांच की थी। और यह रिपोर्ट निखिल चक्रवर्ती द्वारा स्थापित मेनस्ट्रीम नाम की पत्रिका के 23 जनवरी 2018 अंक में प्रकाशित हुई थी। मेनस्ट्रीम पत्रिका में प्रकाशित रिपोर्ट से जब केस सर्वोच्च न्यायालय में पेश हुआ, तब उस बेंच में आप एक न्यायाधीश थे। आपने अकेले ही उस संदर्भ में उचित फैसला दिया। आपने अपने फैसले में हमारी रिपोर्ट को शब्दश: कोट किया था।

खुला पत्र लिखने की जरूरत इसलिए महसूस हुई कि पिछले नौ वर्षों से यानी जब से बीजेपी केंद्र में आई है, तब से संसद से लेकर न्यायालय तक सभी इस सरकार के अधीन रहते हुए दबाव में काम कर रहे हैं। जिस देश में न्यायाधीशों के जान-माल की सुरक्षा की गारंटी न हो, वहाँ सामान्य नागरिकों की क्या स्थिति होगी? न्यायपालिका दबाव में है, इस बात की जानकारी 12 जनवरी, 2018 के दिन जस्टिस जे. चलमेश्वर ने अपने दिल्ली स्थित आवास पर जस्टिस मदन लोकुर, जस्टिस कुरियन जोसेफ और जस्टिस रंजन गोगोई ने पत्रकारों से बातचीत करते हुए जस्टिस लोया की मृत्यु के बारे में कहा। यह भी कहा न्यायपालिका सरकार के दबाव में काम कर रही है। भारत की न्याय व्यवस्था के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ।

हमारे देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को दबाव में रखकर काम करवाना पुरानी आदत है। गुजरात में चौदह साल तक मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने लगातार वहाँ की निचली अदालत से लेकर उच्च न्यायालय तक को स्वयं के दबाव में रखने का काम किया। 2002 में गोधरा में हुए सांप्रदायिक दंगों में प्रशासन और पुलिस की भूमिका के बारे में पूरी दुनिया जानती है। इन्हीं दंगों में मारे गए और पीड़ित लोगों के लिए लगातार बीस सालों से तीस्ता सीतलवाड़ न्याय की गुहार लगा रही हैं लेकिन न्यायपालिका उनके साथ क्या कर रही है, यह साफ दिखाई दे रहा है। सोहराबुद्दीन और इशरत जहां का एनकाउन्टर करने वाले आरोपियों को देश की कानून व्यवस्था बनाए रखने की जिम्मेदारी सौंपी जाती है। संजीव भट्ट जैसे जैसे अफसर को बेल तक नहीं मिलने दिया जाता। हैरानी की बात कि गुजरात दंगों के अपराधियों में से कुछ बलात्कार और हत्या जैसे संगीन अपराध के मामले में एक-एक कर सभी क्लीनचीट देने दे दिया गया। इसी तरह क्लीनचीट देने की तत्परता नरेंद्र मोदी और अमित शाह के साथ भी हुई। गुजरात उच्च न्यायालय की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े होने के बाद 2002 में हुए गुजरात दंगों के केसेस को मुंबई, महाराष्ट्र के कोर्ट में ट्रांसफर कर दिया गया। जस्टिस लोया की मृत्यु उसी का नतीजा है। जस्टिस लोया का परिवार बहुत ही दहशत में जीवन जी रहा है। क्या यही हमारे देश की कानून व्यवस्था है?

कुछ माह पहले राहुल गांधी की लोकसभा सदस्यता रद्द कर दी गई। यह निर्णय किस संविधान के तहत लिया गया। सभी का नाम मोदी क्यों होता है? इस बात में क्या आपत्तिजनक है। कौन से कानून के अनुसार राहुल की लोकसभा की सदस्यता समाप्त हो जाती है? यह हमारी सभी संवैधानिक संस्थाओं का फेल्युअर है। तथाकथित अमृतकाल में मणिपुर की महिलाओं के साथ किया व्यवहार बहुत ही घृणास्पद है। मणिपुर की राज्यपाल और देश की राष्ट्रपति एक आदिवासी महिला है, क्या इन्हीं बातों से चिढ़कर अपराधी अपनी प्रतिक्रिया इस तरह दे रहे हैं।

माननीय आपने वाराणसी के सर्व सेवा संघ की जमीन के मामले में खुद कहा था कि ‘मैं इस मामले को खुद देखने वाला हूँ! और तब तक रेल विभाग उस जगह कोई कार्रवाई नहीं करेगा! और शायद उसी कारण रेल विभाग ने कोई कार्रवाई नहीं की! लेकिन पहले वाराणसी कोर्ट और बाद में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने सर्व सेवा संघ के मामले में सुनवाई से मना कर दिया था! तो वापस उत्तर प्रदेश के किसी भी कोर्ट में भेजने का क्या मतलब है?

वाराणसी के राजघाट स्थित सर्व सेवा संघ की जमीन को सरकार द्वारा कब्जे में लेना किस कानून के अंतर्गत आता है? जहां स्थानीय प्रशासन और पुलिस संघ के लोगों के लिए विशेष रूप से काम कर रही है। उत्तर प्रदेश की कोर्ट तो बात सुनने को तैयार नहीं है। इसलिए यह मामला सर्वोच्च न्यायालय में भेजा गया था। यदि वहाँ इसकी सुनवाई नहीं तो फिर कहाँ जाएं?

गुजरात के बाद उत्तर प्रदेश की न्यायिक व्यवस्था से लेकर प्रशासनिक व्यवस्था पूरी तरह से सत्ताधारी दल की मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के इशारे पर काम कर रहे हैं।

अभी कल ही सोशल मीडिया के द्वारा मुझे एक घटना की जानकारी प्राप्त हुई। वर्धा के अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर, जो मूलत: बनारस के रहने वाले हैं, उन्होंने अपनी पीएचडी की थीसिस की नकल 1991 में किसी पांडे नाम की महिला की थीसिस से की है। पिछले तीस वर्षों से यह महिला अपने थीसिस की नकल करने की लड़ाई बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से लेकर इलाहाबाद हाई कोर्ट तक लड़ चुकी है, लेकिन उसे आज तक न्याय नहीं मिला। इसी विवादास्पद पीएचडी होल्डर को भारत के केन्द्रीय विश्वविद्यालय का वाइस चांसलर नियुक्त किया गया है। उत्तर प्रदेश की अकादमिक, अनुसंधान से लेकर प्रशासन और आपके मातहत काम करने वाली न्यायिक प्रणालियाँ कैसे काम कर रही हैं? यह पीएचडी का केस केवल एक उदाहरण के तौर पर दे रहा हूँ।

अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों के साथ गौमान्स को लेकर की गई मॉब लिंचिंग, महिलाओं के साथ किए गए अपराध, बाहुबली के नाम पर चुन-चुनकर अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों का एनकाउन्टर और दूसरी तरफ टेनी मिश्र उर्फ अजय मिश्र से लेकर कुलदीप सेंगर, संजीव बालियान जैसे संगीन अपराधियों को बचाने के किए उत्तर प्रदेश पुलिस की भूमिका बहुत बड़ी रही है। ऐसे में उनके खिलाफ क्या कार्यवाही हो रही है? इन मामलों को उसी उत्तर प्रदेश के कोर्ट में भेजने का कोई औचित्य नहीं है।

हमारे देश में एक और जहां स्त्रियों को देवी का दर्जा दिया जाता है, वहीं दूसरी तरफ मणिपुर में आदिवासी समुदाय की दो महिलाओं के साथ जिस तरह दरिंदगीपूर्ण व्यवहार किया गया, यह सम्पूर्ण देश के लिए शर्म की बात है। जबकि वर्तमान में देश की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू आदिवासी महिला हैं। इन्हें राष्ट्रपति बनाने के समय सत्ताधारी दल ने ढोल बजकर बताया था कि भारत के इतिहास में पहली बार किसी आदिवासी समुदाय की महिला को राष्ट्रपति बनाया गया है। लेकिन मणिपुर में लगभग तीन महीने जो आग लगी हुई है और महिलाओं के साथ जो हुआ उससे पूरे देश का सिर शर्म से झुक गया।

इसलिए आपसे प्रार्थना है कि भीमा कोरेगांव, वाराणसी सर्व सेवा संघ और मणिपुर की घटना पर स्वयं संज्ञान लें। हालांकि मणिपुर की राज्यपाल आदिवासी समुदाय की हैं, लेकिन राज्य के मुख्यमंत्री और राज्यपाल की कार्यतत्परता कितनी है, यह कल की घटना और पिछले तीन महीने से जल रहे मणिपुर को देखते हुए समझा जा सकता है।

आपके मुख्य न्यायाधीश बनने के बाद लगा कि आप इस तरह के किसी भी प्रकार के दबाव में आकर काम करने वाले न्यायाधीश नहीं है। इस आशा से मैं आज आपको यह खुला पत्र लिख रहा हूँ।

डॉ. सुरेश खैरनार (20 जुलाई, 2023, नागपुर)

 

डॉ. सुरेश खैरनार
डॉ. सुरेश खैरनार
लेखक चिंतक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं।
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