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सांप्रदायिकता, हिन्दुत्व और बीजेपी का चुनावी तरीका

आपने राम जन्मभूमि आंदोलन के समय और उसके बाद, उत्तर भारत में इस विषय पर अत्यंत विस्तृत अध्ययन किया है, विशेष रुप से दंगाग्रस्त स्थानों में। इन जगहों पर सांप्रदायिक स्थिति के बारे में फिलहाल आप का क्या आकलन है? जिन स्थानों पर सांप्रदायिक हिंसा हुई है, वहां बहुत ध्रुवीकरण हुआ है और धार्मिक समुदायों के बीच […]

आपने राम जन्मभूमि आंदोलन के समय और उसके बादउत्तर भारत में इस विषय पर अत्यंत विस्तृत अध्ययन किया हैविशेष रुप से दंगाग्रस्त स्थानों में। इन जगहों पर सांप्रदायिक स्थिति के बारे में फिलहाल आप का क्या आकलन है?

जिन स्थानों पर सांप्रदायिक हिंसा हुई है, वहां बहुत ध्रुवीकरण हुआ है और धार्मिक समुदायों के बीच भौतिक और भावनात्मक दीवारें खड़ी कर दी गई हैं।  बहुसंख्यक समुदाय अपने मन में अल्पसंख्यक समुदाय के प्रति नफरत की गलत धारणा पाले हुए है और अल्पसंख्यक समुदाय के मन में मुख्य भावना डर और असुरक्षा की है। सामाजिक और धार्मिक स्तर पर खुशियाँ साझा करना, पूरी तरह से खत्म हो गया है। राष्ट्र और भाईचारे के मूलभूत मूल्यों को गहरा झटका लगा है। सांप्रदायिक हिंसा के ज्यादातर जख्म अब भी भरे नहीं हैं।

हिंसा के शिकार लोगों को न्याय और उनके पुनर्वासन में सरकार की असफलता इसमें मुख्य अवरोध रहा है। जिन स्थानों पर हिंसा हुई है, वहां शायद नजदीकी भविष्य में दुबारा हिंसा न हो क्योंकि इन स्थानों पर ध्रुवीकरण लगभग पूरा हो चुका है और हिंसा की जिम्मेदार सांप्रदायिक ताकतों को इन्हीं स्थानों पर दोबारा हिंसा करके आम तौर पर कुछ खास उपलब्ध नहीं होता है। परंतु समग्र रूप से देश में हिंसा को बढ़ाने के लिए आवश्यक उकसावे के कारण बहुत ज्यादा हैं और भड़काना बहुत आसान है। अल्पसंख्यकों के विरुद्ध नफरत, वर्तमान राजनीतिक विमर्श का एक मुख्य तत्व है।

विद्वानों ने यह माना है कि गुजरात दंगे भारतीय सांप्रदायिक हिंसा के लंबे इतिहास में विशिष्ट रूप से एक नए सांस्कृतिक आंदोलन का प्रतिनिधित्व करते हैंजो सन 1984 के सिख दंगों के समान हैजिसमें लोगों को उसी तरह से निशाना बनाया गया था। क्या आप ऐसे वर्गीकरण की सैद्धांतिक और साक्ष्य आधारित उपयुक्तता की चर्चा करेंगे?

सबसे पहले मैं यह ध्यान दिलाना चाहता हूं कि सन 1984 के सिख-विरोधी दंगे और गुजरात दंगे तथा अन्य मुस्लिम-विरोधी दंगों की तुलना नहीं हो सकती है। धार्मिक अल्पसंख्यकों के विरुद्ध हिंसा दो श्रेणियों में बांटी जा सकती है। एक, सिख-विरोधी हिंसा, जो कि एक अकेली घटना थी और अभागे सिख समुदाय के विरोध में राजनीतिक बदला लेने के लिए हुई। दूसरी, नियमित और बारंबार होने वाली हिंसा है, जो मुस्लिमों और ईसाइयों के विरुद्ध होती है और जो हिंदू राष्ट्रवादी एजेंडा का एक हिस्सा है।

इन दोनों श्रेणियों में जो बात समान है, वह है, निरपराध लोगों के खिलाफ हिंसा का तरीका। यह हिंसा स्वत:स्फूर्त दिखाई देती है परंतु उसके पीछे योजना बनाई गई हो, ऐसा लगता है। नेतृत्व करनेवाले लोग आम तौर पर इस हिंसा को ऐसे आयोजित करते हैं कि वह स्वतःस्फूर्त, उर्ध्वगामी दिखाई दे। यह उर्ध्वगामी प्रक्रिया, अल्पसंख्यक समुदायों के खिलाफ फैलाई गई नफ़रत के कारण पहले से ही तैयार की गई ज़मीन द्वारा उकसाई जाती है।

सिख विरोधी नरसंहार, जो एक अकेली घटना थी, इंदिरा गांधी की हत्या का बदला लेने के लिए किया गया था, जो खालिस्तानी तत्वों द्वारा स्वर्ण मंदिर में बसने के बाद  ऑपरेशन ब्लूस्टार की कार्रवाई का बदला लेने के लिए  (इंदिरा गांधी की हत्या)की गई थी। गुजरात दंगे गोधरा ट्रेन की आग के बहाने आयोजित किए गए थे। मुसलमानों के घरों और दुकानों की सूची तैयार थी और उस शहर की तत्कालीन स्थानीय कलेक्टर जयंती रवि की सलाह के बावजूद, गोधरा में जले हुए मृतदेहों का जुलूस निकालकर लोगों को भड़काया गया। अल्पसंख्यक समुदाय पर ‘उन्होंने आग लगाई’ का आरोप लगाकर हिंसा की शुरुआत की गई ;  स्थानीय लोग, विशेष रूप से निम्न लोग  ‘बदला’ लेने के लिए बहकाये गए।

मुस्लिम-विरोधी हिंसा नियमित और बार-बार होती है; यह हिंदू राष्ट्रवादी एजेंडा का एक हिस्सा है, जिसका उद्देश्य समुदायों का ध्रुवीकरण कर चुनावी लाभ उठाना है। मेरा मानना है कि हिंसा को ‘नीचे से’ भड़का कर और उसमें भाग लेनेवालों को यह जता कर कि उन्हें  दंडमुक्ति प्राप्त है, उसे आयोजित किया जाता है। हिंसा की उत्पत्ति का तरीका  समान है, फिर भी उसके पीछे की राजनीति दोनों ही मामलों में बहुत अलग है।

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इसका क्या कारण है कि निम्न वर्ग की आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा हिंदू राष्ट्रवाद की योजना और भारतीय जनता पार्टी से जुडा हुआ है?

भारतीय जनता पार्टी हिंदू राष्ट्रवादी राजनीति का चुनावी पक्ष है। इसके मूल संगठन ने दलितों और आदिवासियों के बीच कई अन्य संगठन बनाये हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपनी शाखाओं के विस्तृत नेटवर्क द्वारा स्वयंसेवकों की एक बड़ी फौज को प्रशिक्षित किया है, जो जमीनी स्तर पर और सामुदायिक स्तर पर समाज के इन तबकों के बीच काम करती है।
सबसे पहले वे धार्मिक दांव पेंच शुरू करते हुए, इन तबकों में हिंदू धार्मिक त्योहारों को बढावा देते हैं । 70 और 80 के दशकों के बीच उनके स्वयंसेवकों ने भगवान गणेश के त्योहारों को दलित बस्तियों में बढ़ावा दिया।  वे इस प्रकिया की शुरुआत करते, आर्थिक सहायता देते और दलित समुदायों को शामिल कर उनमें ब्राह्मणवादी मानदंड  लागू करते।

आदिवासी क्षेत्रों में वे “शबरी संगम” आयोजित करते थे। शबरी रामायण में एक पात्र है, जो भगवान राम को बेर समर्पित करती है। वह गरीबी और अभाव का प्रतीक है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने उसके नाम पर मंदिर बनाया है और उसे आदिवासियों की देवी के रूप में प्रस्तुत किया है। यह एक सांस्कृतिक संदेश भी है कि आदिवासियों का आदर्श कौन है।

इसके अलावा उन्होंने भगवान हनुमान को आदिवासियों के देवता के रूप में ढालना शुरू किया और आदिवासी बस्तियों में उन्हें लोकप्रिय बनाने के लिए कई अभियान शुरू किये। यह भी एक तरह से संदेश देने की बात है – राम के प्रति निष्ठावान, जिसे हिंदू राष्ट्रवादी ताकतों ने आदर्श के रूप में प्रस्तुत किया है। इससे धार्मिक स्तर पर इन तबकों को हिंदुवाद के आरएसएस संस्करण से जोड़ने में मदद मिली।

सामाजिक स्तर पर वे नियमित रूप से इन समुदायों के साथ नियमित रूप से मिलते-जुलते रहे, जिससे उन्हें सम्मान की भावना का एहसास हुआ। नियमित रूप से मिलते-जुलते रहने से इन समुदायों को सम्मानित होने का अहसास हुआ, जिसके परिणामस्वरूप चुनावी स्तर पर भारतीय जनता पार्टी जीत गई, जबकि भाजपा आरक्षण का विरोध करती है, आर्थिक आधार पर कोटा आरक्षण और जातिगत जनगणना का विरोध करती है। यह पूरी तरह से जमीनी स्तर पर इन समुदायों से मिलते-जुलते रहने के कारण हुआ,जो विस्तृत स्तर पर किया गया और जिसने चुनावी स्तर पर समाज के इन तबकों के बीच भाजपा के फायदे के लिए जमीन तैयार की।

एक परिपेक्ष्य के अनुसार 1980 के दशक के बाद भारत में ‘लोकतंत्र मजबूत’ हुआ है। इसी दौर में एक प्रमुख ताकत के रूप में भाजपा भी उभर कर आई। भारत में लोकतंत्र का मजबूत होना और उसी समय भारत में भाजपा का उद्भवइन दोनों को आप किस तरह से देखते हैं?

यह सच है कि देश में लोकतांत्रिक प्रक्रिया गहरी होती जा रही है। यह प्रक्रिया समाज के निम्नतम वर्गों  को अभिव्यक्त करती है। लोकतंत्र की मजबूती और सामाजिक परिदृश्य में दलितों और स्त्रियों के आगे बढ़ने से समाज के एक वर्ग को डर का एहसास हुआ और उसने सांप्रदायिक राजनीति का सहारा लिया।

1980 के दशक में यह अभिव्यक्ति पहले गुजरात में आरक्षण विरोधी दंगों के रूप में सामने आई, बाद में 1985 में अन्य पिछड़े वर्गों की पदोन्नति नीति विरोधी के रूप में और फिर बाद में मंडल कमीशन को लागू करने के विरोध के रूप में सामने आई।

इसकी प्रतिक्रिया में (सामाजिक न्याय के उपाय) समाज के विशेषाधिकार  प्राप्त वर्ग ने भाजपा और संप्रदायवाद की राजनीति के साथ एकजुटता दिखाई, जिससे उसकी चुनावी शक्ति को मजबूती मिली।

भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पूर्व-आधुनिक, पूर्व-औद्योगिक जाति और लिंग के अनुक्रम के मूल्यों के पक्षधर हैं और 1980 के दशक के आते-आते समानता की ओर सामाजिक बदलाव अपने मौलिक  स्वरूप में दिखाई देने लगा था। इसी की वजह से, पहले से विद्यमान भारतीय जनता पार्टी के तंत्र को प्रोत्साहन मिला। भारतीय जनता पार्टी भारत में लोकतंत्र की मजबूती के पीछे मूल ताकत नहीं है। बल्कि सच्चाई तो यह है कि उसने लोकतंत्र की मजबूती की प्रक्रिया का फायदा उठाया है ताकि उस एजन्डा को पूरा करने के लिए घुसपैठ करे,जो लोकतंत्र की मूल जड़ों को ही काट दे।

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कुछ विद्वानों का यह अभिप्राय है कि भारतीय राजनीति में मोदी युग लंबे समय तक नहीं चलेगा और भारतीय जनता पार्टी के अलावा हिंदुत्व के आधार पर एक नए राजनीतिक वातावरण के बनने की ओर इशारा करते हैं। आप की राय में ऐसे अनुमान कितने वास्तविक हैं?

भारतीय राजनीति में मोदी युग ने समाज के आम लोगों की हालत पर कहर बरपा दिया है। बेरोजगारी, महंगाई, गरीबी का बढ़ना, अमीर-गरीब के बीच खाई का बढ़ना और सामाजिक ध्रुवीकरण के कारण भारतीय जनता पार्टी के शासन के नकारात्मक प्रभाव के बारे में बड़ी संख्या में लोग समझ रहे हैं। प्रेस की स्वतंत्रता में लगातार कमी,  लोकतंत्र के गिरते हुए सूचकांक और धार्मिक स्वतंत्रता ने समाज के ज्यादातर वर्गों में गंभीर चेतावनी पैदा कर दी है।

भारतीय जनता पार्टी की सरकार लोगों की हालत के प्रति असंवेदनशील है, जैसा कि किसानों के आंदोलन के समय (जिसमें लगभग 650 लोगों ने अपनी जान गवाई) दिखाई दिया। फिर राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर से मुस्लिमों का अधिकार छीनने का प्रयास, जिससे शाहीन बाग आंदोलन शुरू हुआ और फिर दिल्ली हिंसा का आयोजन और आखिर में महिला पहलवानों के यौन उत्पीड़न के खिलाफ शिकायत की अवहेलना।

विपक्षी नेताओं के खिलाफ एनफोर्समेंट डायरेक्टरेट, सीबीआई, इन्कम टैक्स विभाग के उपयोग से वे मोदी के खतरे को भांप गए हैं। इसके अलावा, राहुल गांधी की “भारत जोड़ो” यात्रा और कर्नाटक विधानसभा चुनाव के परिणाम से राजनीतिक क्षितिज पर बड़ा बदलाव आया है। अब विपक्षी राजनीतिक पार्टियां एकजुट होने और लोकतंत्र एवं धर्मनिरपेक्षता के लिए राजनीतिक मोर्चा बनाने की जरूरत पहले से कहीं अधिक महसूस कर रही है।

इस राह में कई अवरोध हैं परंतु जैसे बात आगे बढ़ रही है, बहुत संभव है कि भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवारों के विरुद्ध चुनाव में एक साझा उम्मीदवार खड़ा कर संयुक विपक्षी मोर्चे को सत्ता में आने में सफलता मिलेगी। यह कहना ज्यादा आसान है ,पर करना मुश्किल है क्योंकि भारतीय जनता पार्टी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के हजारों स्वयंसेवकों से सुसज्जित है, लाखों स्वयंसेवक उससे जुड़े हुए हैं और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अधीन कई संगठन हैं, जो चुनाव में भाजपा की सफलता के लिए काम करते हैं। भारतीय जनता पार्टी के पास मीडिया है, उसका आईटी सेल है और सोशल मीडिया नेटवर्क है, जो उसके संदेश का प्रसार करते हैं। आज वह देश की सबसे अधिक धनी राजनीतिक पार्टी है। अब भी वह पहले से जारी, समान नागरिक कानून और राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दों के अलावा समाज के ध्रुवीकरण के लिए और भी कोई तरकीबें अपना सकती है।

यह कहा जाता है कि भारतीय समाज के एक बड़े हिस्से को शिक्षित कर भारतीय जनता पार्टी के चुनावी रुझान को काफी हद तक कम किया जा सकता है। क्या आपको लगता है कि ग्रामीण और शहरी इलाकों में यदि मतदाता शिक्षित हो तो भारतीय जनता पार्टी को वोट देना बंद कर देगा?

इसमें कोई शक नहीं है कि चुनावी जागरूकता के लिए शिक्षा की महत्वपूर्ण भूमिका है। यह मजाक भी किया जाता है कि भारतीय जनता पार्टी केरल में जीत नहीं सकती क्योंकि वहां के लोग बहुत शिक्षित हैं। पर  फिर भी सिर्फ औपचारिक शिक्षा से भारतीय जनता पार्टी की राजनीति का मुकाबला नहीं किया जा सकता।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसकी शाखाओं का विस्तृत नेटवर्क, सरस्वती मंदिर की स्कूलों की शृंखला और एकल विद्यालय, ये सभी इतिहास,संस्कृति और राजनीति के उसके (भाजपा के) संस्करणों को प्रचारित करते हैं, जिससे  भारतीय जनता पार्टी की सफलता को मजबूती मिलती है। मोदी-तरफी मीडिया, भारतीय जनता पार्टी का आईटी सेल और बड़ी संख्या में प्रिंट मीडिया के सहयोग से राजनीति के भारतीय जनता पार्टी के संस्करण का प्रसार किया जाता है। इसी को नोम चोम्स्की ने “विनिर्माण सहमति” कहा है।

भारतीय परिदृश्य में समाज के बड़े हिस्से में सांप्रदायिक आधार पर “सामाजिक सामान्य समझ” बनाई गई है; इतिहास का उपयोग करके धार्मिक अल्पसंख्यकों का पाशवीकरण किया गया है। इतिहास का मध्यकालीन युग मुस्लिम समुदाय को पाशवी बताने के लिए इस्तेमाल किया गया है और यह प्रोपेगेंडा किया गया है कि मुस्लिम राजाओं ने हिंदू मंदिरों को नष्ट किया, जबरदस्ती इस्लाम धर्म का प्रचार-प्रसार किया और हिंदू प्रजा के प्रति मुस्लिम राजा बहुत क्रूर थे। मुस्लिम आबादी में बढ़ोतरी से संबंधित भौगोलिक मुद्दे प्रचलित मान्यता के अनुसार धर्म के मत्थे मढ़ दिये गये और देश में मुसलमानों के बहुसंख्यक बनने के खतरे को हिंदुओं का ध्रुवीकरण करने के लिए इस्तेमाल किया गया।

इसी तरह ईसाइयों को भी जबरदस्ती, लालच और दगा करके धर्मांतरण करने वालों के रूप में प्रस्तुत किया गया है। हालांकि यह सब पूरी तरह से गलत है,परंतु यह सामाजिक सामान्य समझ का हिस्सा बन रहा है। नफरत, हिंसा, ध्रुवीकरण और भारतीय जनता पार्टी को चुनाव में जीत दिलानेवाली इन गलत धारणाओं का प्रतिरोध करने के लिए हमें जनहित की सामग्री प्रकाशित करने की जरूरत है। सिर्फ़ औपचारिक शिक्षा से भारतीय जनता पार्टी की राजनीति का प्रत्युत्तर नहीं दिया जा सकता।

(अनुवाद – नूतन भकाल)

(साभार – द क्विन्ट)

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