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दुर्धर्ष समय में भी रामस्वरूप वर्मा के विचारों की मशाल मद्धिम नहीं हुई

अक्सर हम राजनीति के मैदान में सांस्कृतिक आंदोलन की अगुवाई करनेवाले और समकालीन राजनीतिक संस्कृति को व्यापक जन-समुदायों के हितों की कसौटी पर कड़ाई से कसने वाले लोगों का मूल्यांकन पश्चाताप भाव से करते हैं। हमको लगता है कि वे पीछे रह गए वरना उनका योगदान समाज को कहाँ से कहाँ ले जाता लेकिन शायद […]

अक्सर हम राजनीति के मैदान में सांस्कृतिक आंदोलन की अगुवाई करनेवाले और समकालीन राजनीतिक संस्कृति को व्यापक जन-समुदायों के हितों की कसौटी पर कड़ाई से कसने वाले लोगों का मूल्यांकन पश्चाताप भाव से करते हैं। हमको लगता है कि वे पीछे रह गए वरना उनका योगदान समाज को कहाँ से कहाँ ले जाता लेकिन शायद ही हम इस बात पर विचार करते हों कि दरअसल हम ही उनके रस्तों को छोड़ दूसरों के बनाए रास्तों पर बहुत दूर चले आए हैं। हम उनके करीब जाने की इच्छा तो रखते हैं लेकिन इच्छाशक्ति नहीं रखते। दूसरे शब्दों में कहा जाना चाहिए कि हम जिस राजनीतिक-सांस्कृतिक व्यवस्था के साथ अपना भविष्य जोड़े हुये हैं उसकी विरासत हमारी नहीं है। वह हमें कुछ भी ऐसा देने में सक्षम नहीं है जो हमें उन उद्देश्यों तक ले जा सके। लेकिन आर्थिक व्यवस्था ने इतने मजबूत पगहे से बांधा है कि सहानुभूति तो निकलती है समर्थन और सहयोग नहीं निकलता। आज रामस्वरूप वर्मा को याद करते हुये मैं यह सोच रहा हूँ कि वे कौन लोग बचे रह गए हैं जो उनको याद कर रहे हैं। यह बहुत दुखद बात है कि अभी हमारी सांस्कृतिक समझ इतनी दयनीय है कि हमारे महापुरुष सिर्फ उन जातियों द्वारा याद किए जाने लगे हैं जिनमें उनका जन्म हुआ। दूसरे लोग बस इसलिए याद कर लेते हैं जिससे वे ओबीसी की विभिन्न जातियों के बीच अपना एक उदारवादी चेहरा दिखा सकें वरना प्रच्छन अवसरवाद हर जगह कुंडली मारे बैठा हुआ है।

“सवाल उठता है कि पिछड़ेवर्ग के लोग अर्जक संघ के संस्थापक महामना रामस्वरूप वर्मा के महान विचारों और अवधारणाओं  को अपनाकर क्यों नहीं समाज को बदलने के लिए आंदोलन करते हैं । वर्मा जी ने वृहत्तर भारतीय समाजों में मानववादी संवेदना और चेतना के सूत्र देखे और उन्हें इकट्ठा करने के लिए अर्जक जैसा सम्मानजनक नाम और अर्जक संघ जैसा क्रांतिधर्मी मंच दिया लेकिन पिछड़ी जातियाँ उसे अपनाने से कतरा रही हैं।”

रामस्वरूप वर्मा कुर्मी थे और सर्वे करने पर पता चलता है कि फिलहाल अर्जक संघ के शत-प्रतिशत लोग कुर्मी हैं। वे अखबार निकालते हैं। सभाएं करते हैं। शादियाँ कराते हैं। और यह बहुत क्रांतिकारी बात है कि वे ब्राह्मणवादी वारों-तिथियों को नकारकर अपनी एक सांस्कृतिक पद्धति बना रहे हैं। वे शप्तपदी और अहोरा-बहोरा जैसी कुत्सित प्रथाओं को ध्वस्त कर रहे हैं। उनका प्रभाव बढ़ सकता है और बढ़ना चाहिए। ओबीसी समाज में उनकी स्वीकार्यता बढ़नी चाहिए। निर्ब्याज भाव से ऐसे लोगों का सहयोग होना चाहिए लेकिन यह दुखद है कि अर्जक संघ के सदस्यों की संख्या बहुत सीमित रह गई है। वे सांस्कृतिक आंदोलन को तो आगे बढ़ा रहे हैं लेकिन राजनीतिक रूप से वे शून्य हो रहे हैं। क्योंकि रामस्वरूप वर्मा का राजनीतिक विज़न बाकी  कुर्मियों के लिए अपच हो गया और अपने राजनीतिक अवसरवाद में वे यहाँ तक जा पहुंचे कि स्वतंत्रदेव सिंह जैसे लोग ब्राह्मणों का पाँव धोकर चरणामृत ले रहे हैं। दो बातें ध्यान में रखनी चाहिए । एक तो यह कि यह कृत्य रामस्वरूप वर्मा के राजनीतिक और सांस्कृतिक विचारों के ठीक उलट है। दूसरे यह कि एक स्वतंत्र देव सिंह दिख गया लेकिन कई करोड़ स्वतंत्र देव ऐसे हैं जो दिख नहीं रहे हैं लेकिन वे हैं वास्तव में स्वतंत्र देव ही। अब यह रामस्वरूप वर्मा की त्रासदी होगी कि वे ऐसे समाज के भरोसे छोड़ दिये जाएँ जिसमें कई करोड़ स्वतंत्र देव सिंह हों।

लेकिन सवाल उठता है कि पिछड़ेवर्ग के लोग अर्जक संघ के संस्थापक महामना रामस्वरूप वर्मा के महान विचारों और अवधारणाओं  को अपनाकर क्यों नहीं समाज को बदलने के लिए आंदोलन करते हैं । वर्मा जी ने वृहत्तर भारतीय समाजों में मानववादी संवेदना और चेतना के सूत्र देखे और उन्हें इकट्ठा करने के लिए अर्जक जैसा सम्मानजनक नाम और अर्जक संघ जैसा क्रांतिधर्मी मंच दिया लेकिन पिछड़ी जातियाँ उसे अपनाने से कतरा रही हैं। मैं अक्सर देखता हूँ कि विभिन्न मौकों पर लोग रामस्वरूप वर्मा की तस्वीर पर माला-फूल चढ़ाते हैं और उनपर ज्ञान बघारते हैं लेकिन उनके निहितार्थों और वास्तविक संघर्षों को समझने में अधिक दिलचस्पी नहीं लेते । मुझे लगता है कि यादवों को शूद्रवाद बनाम क्षत्रियवाद के अंधकूप में गिरने से बचाने के लिए उत्तर प्रदेश में इतने महान विचारक और अध्येता बहुत अधिक नहीं हैं। उन्होंने ब्राह्मणवाद के मूल पर प्रहार करने का साहस किया और अगर जनता ने उनका साथ दिया होता तो इस देश में सामाजिक चेतना और सामाजिक न्याय की तस्वीर कुछ दूसरी होती ।

“वे लिखते हैं –‘ क्रान्ति अमर रहे या इंकलाब ज़िंदाबाद के नारे आए दिन सुनने को मिलते हैं। लेकिन नारा लगाने वाले और नारा लगवानेवाले शायद ही इसका अर्थ समझते हों। एक बार मैं एक जुलूस को पार कर रहा था तो उस जुलूस के लोगों को इंकलाब ज़िंदाबाद के नारे लगते सुना। मैं आश्चर्यचकित रह गया कि जो राजनीतिक दल भारतीय परंपरा का हिमायती ही न हो बल्कि ब्राह्मणवादी संस्कृति का प्रबल पोषक और वर्ण व्यवस्था को आधारभूत मानकर चलता हो वह भी अगर इंकलाब ज़िंदाबाद और क्रान्ति अमर रहे के नारे लगाए तो फिर यह नासमझी के अलावा और क्या हो सकता है?’”

उन्होंने मेहनतकश समाजों के लिए एक नाम दिया अर्जक। बहुत से लोग अर्जक का अभिप्राय उस समूह से लगाते हैं जो अपने परिश्रम से आजीविका कमाता है लेकिन वर्मा जी अर्जक का अर्थ मानववादी लिखते हैं और इस अवधारणा के पीछे उनका भारतीय समाज, राजनीति, संस्कृति और अर्थव्यवस्था का अत्यंत विशद अध्ययन और चिंतन है। वे लिखते हैं –‘पुनर्जन्म और भाग्यवाद पर टिकी विषमतामूलक ब्राह्मणवादी संस्कृति का विनाश अब अवश्यंभावी हो गया है । इसका सबसे बड़ा कारण पदार्थ और उसकी स्वाभाविक गतिशीलता से निर्मित सृष्टि सिद्धान्त पर आधारित समतामूलक अर्जक (मानववादी) संस्कृति का उदय होना है । वैसे क्रांतिदर्शी विद्वानों ने इसकी झलक अपने काल में कुछ वर्ष पूर्व देखी थी जिनमें विवेकानंद जी का नाम लिया जा सकता है , जिन्होंने यह मत व्यक्त किया था कि उच्च वर्णीय लोगों को निम्न वर्णीय लोगों पर अत्याचार बंद करके उनसे बराबरी का व्यवहार करना चाहिए और अस्पृश्यता ऐसे गंदे विचारों को समाप्त करना चाहिए अन्यथा बराबरी आकर रहेगी और उच्च वर्णीय लोगों को उसकी कीमत चुकानी पड़ेगी।’(रामस्वरूप वर्मा समग्र , भाग -1, संपादक : भगवान स्वरूप कटियार, सम्यक , 2014)

रामस्वरूप वर्मा को पढ़ते हुये मैं फट से उनके समय तक जा पहुंचता हूँ और अपने बचपन को याद करता हूँ जब हमारे सामने अपनी कोई राह नहीं थी। सांस्कृतिक रूप से हमारा सारा समाज ब्राह्मणवाद के हवाले था और आर्थिक रूप से उसको पोषित कर रहा था। जन्म, विवाह और मृत्यु जैसी महान घटनाओं को मनाने का तरीका ब्राह्मण तय करता था। और फिर वर्णव्यवस्था के नियम हमारे गले में क्यों न लटकते? उस दौर से भी कुछ पहले रामस्वरूप वर्मा का बेचैनी और विचारों से खदबदाता दिमाग कैसा रहा होगा इसकी कल्पना बहुत कठिन नहीं है। उनके लेखों को पढ़कर जाना जा सकता है कि उनकी निगाह कितनी पैनी थी। उनका एक लेख है क्रान्ति। इस लेख में वे क्रान्ति शब्द की समझ और व्यवहार का विश्लेषण करते हैं। वे लिखते हैं –‘ क्रान्ति अमर रहे या इंकलाब ज़िंदाबाद के नारे आए दिन सुनने को मिलते हैं। लेकिन नारा लगाने वाले और नारा लगवानेवाले शायद ही इसका अर्थ समझते हों। एक बार मैं एक जुलूस को पार कर रहा था तो उस जुलूस के लोगों को इंकलाब ज़िंदाबाद के नारे लगते सुना। मैं आश्चर्यचकित रह गया कि जो राजनीतिक दल भारतीय परंपरा का हिमायती ही न हो बल्कि ब्राह्मणवादी संस्कृति का प्रबल पोषक और वर्ण व्यवस्था को आधारभूत मानकर चलता हो वह भी अगर इंकलाब ज़िंदाबाद और क्रान्ति अमर रहे के नारे लगाए तो फिर यह नासमझी के अलावा और क्या हो सकता है?’

इससे पहले की आगे चलें हमें यह जान लेना चाहिए कि वर्मा जी जिस भारतीय परंपरा की बात कर रहे हैं वह अब बहुजन विमर्श, ओबीसी के सवालों, मूलनिवासी संस्कृति और इतिहास के केंद्र में स्थापित हो चुकी है। साथ ही यह भी कि वे वर्ण-व्यवस्था और ब्राह्मणवाद के जिन प्रबल हिमायतियों की बात कर रहे हैं उन्होंने अहद भले ही क्रान्ति का लिया हो लेकिन सामाजिक विभाजन और वितरण के तीखे सवालों पर हमेशा चुप रहे। आरक्षण और जाति जनगणना पर तो एकदम से खामोश हैं। वर्मा जी आगे लिखते हैं –‘जीवन के पूर्व निर्धारित मूल्यों के मानव हित पुनर्निर्धारण का नाम क्रान्ति है। जब पहले से चले आते जीवन मूल्य बहुजन के हित में न होकर अल्पसंख्यक के हित में हो जाते हैं, तब ‘बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय’ की पृष्ठभूमि में उनका फिर से मूल्यांकन करना पड़ता है। यही मानव हित में फिर किया गया मूल्यांकन जीवन के उस क्षेत्र में क्रान्ति की संज्ञा पाता है।’

“रामस्वरूप वर्मा के बारे में प्रायः समग्रता में बात नहीं की जाती और यह बात तो हमेशा छूट जाती है कि वे केवल राजनीति में ही नहीं बल्कि संस्कृति, समाज और अर्थव्यवस्था में घुन की तरह लगे ब्राह्मणवाद के खिलाफ आजन्म एक योद्धा की भाँति लड़ते रहे और अपने विचारों को कभी हतप्रभ नहीं होने दिया। कभी भी अवसरवादी नहीं बने बेशक वे और उनकी आवाज नक्कारखाने में तूती की तरह कम सुनाई पड़ रही हो । असल में उनका जीवन एक विरल और बेमिसाल दृढ़ता का प्रतीक है ।”

इससे पता लग जाता है कि वर्मा जी किनसे संबोधित थे और क्या कह रहे थे। वे समाज को जगाने के लिए उसके जीवन में होनेवाली घटनाओं और चलनेवाले व्यवहारों को दिखा रहे थे। वे बहुत मामूली लगनेवाली बातों के निहितार्थ को समाजशास्त्रीय निगाह से देख रहे थे जो केवल तथ्यात्मकता का विश्लेषण भर नहीं था बल्कि उसमें एक रेडिकल एप्रोच था। मैं पाँच दशकों से देख रहा हूँ कि तमाम क्रांतिकारी लफ़्फ़ाजियों और लच्छेदार भाव-भंगिमाओं के बावजूद हमारा समाज ओबीसी एक जड़ समाज है। वह उस कुत्ते की  तरह है जो बार-बार डंडे खाकर भी मारनेवाले की पहरेदारी कर रहा है। स्वयं वर्मा जी ऐसे समाजों की दिमागी गुलामी पर लगातार प्रहार करते रहे। उनका गठित किया हुआ अर्जक संघ दरअसल इस दिमागी गुलामी के खिलाफ सबसे आधुनिक मुहिम है।

रामस्वरूप वर्मा के बारे में प्रायः समग्रता में बात नहीं की जाती और यह बात तो हमेशा छूट जाती है कि वे केवल राजनीति में ही नहीं बल्कि संस्कृति, समाज और अर्थव्यवस्था में घुन की तरह लगे ब्राह्मणवाद के खिलाफ आजन्म एक योद्धा की भाँति लड़ते रहे और अपने विचारों को कभी हतप्रभ नहीं होने दिया। कभी भी अवसरवादी नहीं बने बेशक वे और उनकी आवाज नक्कारखाने में तूती की तरह कम सुनाई पड़ रही हो । असल में उनका जीवन एक विरल और बेमिसाल दृढ़ता का प्रतीक है । वे एक सीमांत किसान के परिवार में जन्मे (22 अगस्त 1923 , कानपुर देहात ) और पारिवारिक विवरणों से पता लगता है कि उनके सभी बड़े भाई अधिक पढ़-लिख नहीं पाये और जल्दी ही खेती-किसानी में लग गए । लेकिन उन्होंने अपने छोटे भाई को आगे पढ़ने के लिए प्रेरित किया और हरसंभव सहयोग किया। मेधावी वर्मा जी ने बड़ी लगन से अपनी शिक्षा पूरी की लेकिन उनका ध्येय पढ़-लिखकर पैसा कमाना और समृद्ध होना बिलकुल नहीं था बल्कि अपने मूक और गरीब वर्ग की आवाज बनना था । इसलिए उन्होंने राजनीति का रास्ता चुना और पहली (1952 ) ही बार में फर्स्ट रनर साबित हुये। एक अंजान और साधनहीन युवा को राजनीतिक पटल पर अपना निकटतम प्रतिद्वंद्वी पाकर उस समय के विजयी उम्मीदवार रामस्वरूप गुप्ता को भविष्य में खतरा महसूस हुआ और उन्होंने वर्मा जी को अनेक मीठी सलाहें और प्रलोभन दिये । वर्मा जी हिन्दी साहित्य में एम ए कर चुके थे । गुप्ता जी ने अध्यापकी दिलाने का आश्वासन दिया लेकिन वर्मा जी ने राजनीति का इरादा नहीं छोड़ा। अगले चुनाव में अंततः उन्होंने विजय हासिल की।

वे निरे विधायक नहीं थे और न ही उन्होंने कभी विधायकी का दरबार लगाया । वे जनप्रतिनिधि को कतई विशिष्ट नहीं मानते थे । इसका सबसे बड़ा सबूत यह है कि उन्होंने विधायकों का वेतन और सुविधाएं बढ़ाए जाने का सदैव विरोध किया। स्वयं कभी बढ़ा हुआ वेतन और कोई अतिरिक्त सुविधा नहीं ली । जब वे संविद सरकार में वित्तमंत्री थे तो अपने दफ्तर से अंग्रेजी टाइपराइटर हटवा दिया और सारा शासकीय काम-धाम हिन्दी में करवाने लगे । वे मानते थे कि जनता को जो भाषा समझने में कठिनाई हो उसमें शासकीय काम नहीं होना चाहिए । वर्मा जी डॉ राम मनोहर लोहिया के अभिन्न साथियों में थे । दोनों की पटरी इसलिए भी बैठती थी कि दोनों के पास अपने मौलिक विचार थे । दोनों राजनीतिज्ञ ही नहीं सिद्धहस्त लेखक भी थे। लेकिन यह साफ-साफ समझ लेना चाहिए कि वर्मा जी डॉ लोहिया की तरह लिजलिजे हिन्दू नहीं थे कि क्रांति और समाजवाद के बीच रामायण मेलों के आयोजन की कल्पना करते ।

“‘हर साल स्वतन्त्रता दिवस मनाया जाता है और उसमें कुछ निश्चय किए जाते हैं । राजनीतिक नेतागण स्वतन्त्रता को प्राणपण से कायम रखने की बात कहते हैं और खुशियाँ मनाते हैं । फिर भी यह सत्य है कि भारत के करोड़ों अर्जक और शायद देश का विशाल बहुमत इस स्वतन्त्रता दिवस में सही मानी में स्वतन्त्रता का अनुभव नहीं करता।”

वे रामचरित मानस जैसे प्रतिगामी काव्य को देश की सांस्कृतिक परिवेश के लिए घातक मानते थे । इस संदर्भ में 6 अगस्त 1970 को उन्होंने भारत के तत्कालीन महामहिम राष्ट्रपति श्री वी वी गिरि को एक लंबा पत्र लिखा जिसमें तुलसीदास के घोर सांप्रदायिक और मनुवादी चरित्र और जातिवादी तथा ब्राह्मणवादी दृष्टि की बेबाक आलोचना की है । वे लिखते हैं –‘ महानुभाव, मैंने 18 जून , 1970 को आपके पास एक पत्र भेजा और देश के करोड़ों अर्जकों के मन पर चोट करने वाले तुलसीदास कृत रामचरित मानस चतुश्शताब्दी समारोह को संरक्षण न देने की आपसे विनम्र प्रार्थना की थी । मैंने आपसे उस पत्र में यह भी आग्रह किया था कि उक्त समारोह की अध्यक्षता करने से अपने प्रधानमंत्री को भी रोकें और एक भी पैसा सरकारी धन का उक्त रामचरित मानस के चतुश्शताब्दी समारोह में न लगने दें। इसका कारण रामचरित मानस का संविधान विरोधी होना बताया था । तुलसीदास कृत रामचरित मानस के दिये गए पुष्ट प्रमाणों के आधार पर ही मैंने उक्त निवेदन किया था। किन्तु खेद है कि आपने अब तक उक्त पत्र का उत्तर नहीं दिया। पत्र प्राप्ति की स्वीकृति अवश्य आई किन्तु उससे तो कोई तात्पर्य निकलता नहीं है । अतः यह दूसरा पत्र लिखना पड़ रहा है। रामचरित मानस का चतुश्शताब्दी समारोह केवल ब्राह्मणवाद का प्रचार है। और ब्राह्मणवाद का स्वरूप पूर्णतया सांप्रदायिकता को उभारनेवाला रामचरित मानस में दिया गया है । इतना तो पिछले पत्र से ही स्पष्ट है पंडित तुलसीदास न तो राष्ट्रीय कवि थे और न उनकी पुस्तक रामचरित मानस राष्ट्रियता का ग्रंथ । इसके विपरीत रामचरित मानस ‘भारत का संविधान’ विरोधी ग्रंथ अवश्य है। ऐसी स्थिति में आपका या आपके प्रधानमंत्री या अन्य किसी मंत्री का इस समारोह में भाग लेना ‘भारत का संविधान’ का उल्लंघन होगा। ‘भारत का संविधान’ के प्रति निष्ठावान रहने की कसम आपने और मंत्रियों ने खाई है । अतः आपके लिए किसी प्रकार भी ऐसे ग्रंथ की प्रतिष्ठा में किए गए आयोजन में सम्मिलित होना अनुचित होगा जो राष्ट्रीयता और ‘भारत का संविधान के विपरीत विचार का प्रचार होगा। आपने उस पत्र को पढ़ा अवश्य होगा । शायद आपके मन में परंपरा से व्याप्त विचारों के कारण निर्णय लेने में कुछ हिचक हो। इसलिए मैं रामचरित मानस के संबंध में और अधिक जानकारी करा देना उचित समझता हूँ ताकि आपको तुरंत निर्णय लेने में सुविधा रहे।’

यह पत्र दस पृष्ठों का है । इसमें रामचरित मानस के हर उस दोहे-चौपाई को उद्धृत किया गया है जिनमें  तुलसीदास ने भारत की श्रमजीवी जातियों और समाजों को लज्जित किया है। ऐसे ही पत्र उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी को दो बार लिखे। आज के दौर में जब भारतीय राजनीति में सामाजिक न्याय से जुड़े चेहरे घुटनों के बल झुके जा रहे हैं और देश के अमीर पिछड़ों के घरों में रामचरित मानस के पाठ का चलन बढ़ता जा रहा है वैसे में आज से ठीक पचास साल पहले एक मुहिम के रूप में रामचरित मानस को संविधान विरोधी करार देना कितने बड़े कलेजे की बात है इसे समझने के लिए थोड़ी मेहनत की जरूरत पड़ेगी। आज जब पिछड़े भगवा और त्रिशूल की राजनीति में धँसे जा रहे हैं तब रामस्वरूप वर्मा की कितनी आवश्यकता है इसे सहज ही समझा जा सकता है। यह सवाल तो स्वाभाविक रूप से उठता है कि वर्तमान समय की तमाम संविधान विरोधी गतिविधियों के विरुद्ध राष्ट्रीय और क्षेत्रीय किस पार्टी ने राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को पत्र लिख कर अपना विरोध जताया ?

रामस्वरूप वर्मा अपने दौर के असाधारण और तेजस्वी सामाजिक चिंतक थे। बेहद आत्मीयता और अभिन्नता के बावजूद डॉ राममनोहर लोहिया से वे न केवल भिड़े बल्कि उनको वैचारिक रूप से बौना भी साबित कर दिया । वे अपनी ब्राह्मणवाद विरोधी वैचारिकता से जौ भर भी पीछे नहीं हटे । एक जगह वे ‘अर्जक दिमागी गुलामी से छुटकारा पाएँ’ शीर्षक लेख में लिखते –‘हर साल स्वतन्त्रता दिवस मनाया जाता है और उसमें कुछ निश्चय किए जाते हैं । राजनीतिक नेतागण स्वतन्त्रता को प्राणपण से कायम रखने की बात कहते हैं और खुशियाँ मनाते हैं । फिर भी यह सत्य है कि भारत के करोड़ों अर्जक और शायद देश का विशाल बहुमत इस स्वतन्त्रता दिवस में सही मानी में स्वतन्त्रता का अनुभव नहीं करता। राजनीतिक नेतागण इसे आर्थिक अभाव की संज्ञा देकर यह सिद्ध करने की कोशिश करते हैं कि जब सब लोगों की आर्थिक बराबरी आएगी तब सारा देश सच्ची स्वतन्त्रता का अनुभव करेगा । आज भुखमरी और बेकारी के कारण देश में इतनी दरिद्रता व्याप्त है कि स्वतन्त्रता का अहसास करना असंभव हो जाता है। क्या आज कोई इन राजनीतिक नेताओं से पूछता है कि आखिर बेरोजगारी और भुखमरी क्यों?’

इस प्रश्न का उत्तर खोजते हुये वर्मा जी अनेक नए प्रश्नों से टकराते हैं । वे वर्ण व्यवस्था, जाति-व्यवस्था और ब्राह्मणवाद के घटाटोप को भेदते हैं और उसके सर्वग्रासी प्रभावों की पड़ताल करते हैं । जनता के बीच पसरी वैचारिक जड़ता के उत्स को तलाशते हुये वे इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि बिना हिन्दुत्व से मुक्ति के भारत में वास्तविक स्वतन्त्रता आना असंभव है। जिस जमाने में उत्तर प्रदेश में ललई सिंह पेरियार को घर-घर तक पहुँचने की कोशिश कर रहे थे उस दौर में इस संघर्ष के दूसरे मोर्चे पर रामस्वरूप वर्मा पूरी सक्रियता से डेट हुये थे। ललई सिंह की ही तरह वर्मा जी सामंती तौर तरीकों के सख्त खिलाफ थे । वर्मा जी ने अर्जक आंदोलन को देश के बड़े हिस्से में पहुंचाने का प्रयास किया लेकिन वे झोला टांग अर्जकों के सख्त खिलाफ भी थे। उन्होंने शोषित समाज दल की स्थापना की और एक नयी राजनीतिक इबारत गढ़ने की कोशिश की । वे एक पत्रकार और संपादक थे । वर्षों अर्जक नामक अखबार निकालते रहे । नयी पीढ़ी को उनके उपलब्ध साहित्य का गहन अध्ययन करना चाहिए ताकि वह जान सके कि उसके एक पुरोधा पूर्वज ने किस प्रकार अपने देश की मानवता के भविष्य को आज़ाद बनाने का सपना देखा। वर्मा जी के साक्षात्कारों में उनकी वैचारिक दृढ़ता का पता चलता है । उनकी किताबें आज बहुजन वैचारिकी की सबसे ताकतवर रचनात्मक उपलब्धियों में में हैं ।

रामस्वरूप वर्मा और ललई सिंह समकालीन थे और अपने-अपने मोर्चे पर अंत तक डटे रहे ..

आज नई पीढ़ी उनके व्यक्तित्व और कृतित्व के बारे में अधिक नहीं जानती लेकिन जब भी वह अपनी आज़ादी की वैचारिकी बनाने का प्रयास करेगी तब उसके लिए वर्मा जी का व्यक्तित्व और कृतित्व प्रकाश स्तम्भ साबित होगा। वर्मा जी एक किसान के घर से निकले थे और उनके भीतर चातुर्वण , जाति व्यवस्था , शूद्र और क्षत्रिय जैसी बरगलानेवाली अवधारणाओं से पूरी तरह नफरत करते थे। वे सच्चे मानववादी थे और यह सब उनकी रक्त-मज्जा में था । लोकप्रियता और अवसरवाद को उन्होंने कभी अपना माध्यम नहीं बनाया। गालिब कहते हैं कि –

कोहकन नक्काश यक तिमसाल शीरीं था असद

संग से सर मारकर पैदा न होए आशना ।

अर्थात फरहाद एक चित्रकार था और शीरीं का चित्र बनाता था इसलिए दीवाना हो गया और जब कुटनी ने उससे झूठमूठ कहा कि वह किसी और की हो गई तो पत्थर से सिर मारकर मर गया । कहने का मतलब यह कि असली लड़ाई के लिए असली मुद्दा होना चाहिए। कोई पत्थर से टकराकर बलिदानी नहीं हो सकता। वर्मा जी का व्यक्तित्व भारत की ऐसी मिट्टी से बना था जो सर्वाधिक उर्वरा थी और अपने कृतित्व से उन्होंने उसे चेतना की विराट ऊंचाई दी। दिमागी गुलामी से मुक्ति की कोई भी परियोजना उनके विचारों की धार के बिना अधूरी होगी।

गाँव के लोग
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