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राजनीतिक शून्यता के दौर में रामस्वरूप वर्मा की अहमियत  (99वीं जयन्ती पर विशेष)

आज जब पूरे देश में राजनीतिक शून्यता की स्थिति व्याप्त है, राजनेता सत्ता प्राप्ति के लिए जाति, धर्म और साम्प्रदायिकता की भावना उभार कर अपना राजनैतिक कद बढ़ाने में लगे है। ऐसे में महान राजनीतिक चिंतक रामस्वरूप वर्मा बरबस याद आते हैं। रामस्वरूप वर्मा ने आजीवन इससे हटकर सर्वहारा वर्ग के उत्थान की राजनीति की। […]

आज जब पूरे देश में राजनीतिक शून्यता की स्थिति व्याप्त है, राजनेता सत्ता प्राप्ति के लिए जाति, धर्म और साम्प्रदायिकता की भावना उभार कर अपना राजनैतिक कद बढ़ाने में लगे है। ऐसे में महान राजनीतिक चिंतक रामस्वरूप वर्मा बरबस याद आते हैं। रामस्वरूप वर्मा ने आजीवन इससे हटकर सर्वहारा वर्ग के उत्थान की राजनीति की। आज उनकी 99वीं जयन्ती पर हम उन्हें अपनी भावपूर्ण श्रद्धांजलि अर्पित करते है।

22 अगस्त 1923 को कानपुर (वर्तमान कानपुर देहात) के ग्राम गौरीकरन में के एक किसान परिवार में जन्मे रामस्वरूप ने राजनीति को अपने कर्मक्षेत्र के रूप में छात्र जीवन में ही चुन लिया था बावजूद इसके कि छात्र राजनीति में उन्होंने कभी हिस्सा नहीं लिया। इनके पिता का नाम वंशगोपाल था। वर्मा जी अपने चार भाइयों में सबसे छोटे थे। अन्य तीन भाई गांव में खेती किसानी करते थे ।

वर्मा जी की प्रारम्भिक शिक्षा कालपी और पुखराया में हुई जहां से आपने हाईस्कूल व इंटर की परीक्षा उत्तीर्ण की। वर्ष 1949 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एमए हिन्दी, तत्पश्चात कानून की डिग्री प्राप्त की। वर्मा जी छात्र जीवन से ही मेधावी रहे। अपनी सौम्यता व विनम्रता के कारण उन्होंने अपनी एक अलग पहचान बनायी। स्वसम्मान व स्वाभिमान उनके व्यक्तित्व में कूट कूट क र भरा था। भारतीय प्रशासनिक सेवा की परीक्षा सर्वोच्च अंकों से उत्तीर्ण करने के बावजूद साक्षात्कार में शामिल नहीं हुए। 1957 में भोगनीपुर विधानसभा से पहली बार मात्र 37 वर्ष की उम्र में चुनाव जीते। उन्होंने कांग्रेस के दिग्गज नेता रामस्वरूप गुप्ता को पराजित किया। 1967 में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी,1969 में निर्दलीय,1980,1989 व1991 में शोषित समाज दल से विधायक चुने गये। जनान्दोलनों में भाग लेते हुए वे कई बार जेल गये। वर्मा जी डा. राममनोहर लोहिया के विचारों से काफी प्रभावित रहे। यहीं कारण रहा कि वे राजनीति को समाजसेवा मानते रहे। अपने जुझारू तेवर के चलते राजनीति को उन्होंने नयी दिशा दी। वर्ष 1967-68में उत्तरप्रदेश में सभी गैर कांग्रेसी दलों ने मिलकर सरकार बनायी, जिसे संविद सरकार के नाम से जाना जाता रहा। वर्मा जी वित्तमंत्री बनाये गये। प्रदेश के वित्तमंत्री के रूप में उन्होंने 20 करोड़ के लाभ का बजट सदन में पेश कर सभी को अचम्भित कर दिया। कहा जाता है कि एक बार घाटे में जाने के बाद फायदे में नहीं लाया जा सकता। अधिक से अधिक राजकोषीय घाटा कम किया जा सकता है। दुनिया के आर्थिक इतिहास में यह एक अजूबी घटना थी। विश्व मीडिया ने साक्षात्कार कर उनसे इसका रहस्य जानना चाहा। उनका जवाब था कि किसान से अच्छा अर्थशास्त्री और कुशल प्रशासक और कोई नहीं हो सकता, क्योंकि लाभ-हानि के नाम पर लोग व्यवसाय बदलते है पर किसान सूखा-बाढ़ झेलते हुए किसानी नहीं छोड़ता। वर्मा जी भले डिग्रीधारी अर्थशास्त्री नहीं थे पर किसान के बेटे का गौरव उन्हें प्राप्त था। बावजूद उन्होंने कृषि, सिंचाई, शिक्षा, चिकित्सा, सार्वजनिक निर्माण जैसे तमाम महत्वपूर्ण विभागों को गत वर्षों से डेढ़ गुना अधिक बजट आवंटित किया। कर्मचारियों की महंगाई भत्ते में वृद्धि करते हुए लाभ का बजट पेश किया।

समाज व राजनीति में ब्राह्मणवादी व्यवस्था का उन्होंने पुरजोर विरोध किया। उनका मानना था कि दबी पिछड़ी और दलित जातियों के पराभव का कारण ब्राह्मणवाद है। अपने इसी चिंतन के चलते वे बुद्ध व अम्बेडकर के करीब आये। वे डा. लोहिया के राजनीतिक सहयोगी भी रहे। उन्होंने साम्यवाद से कुछ ग्रहण किया तो कुछ का त्याग भी किया। उनका मानना था कि ब्राह्मणवाद की मुक्ति के बिना पिछड़ा वर्ग अपना कल्याण नहीं कर सकता। उन्होंने ब्राह्मणवाद के असली चेहरे को कई ग्रंथों की रचनाकर बेनकाब भी किया।

वर्मा जी को राजनीति में स्वार्थगत समझौते, ओहदों से सख्त नफरत थी। उनकी सोच एक ऐसे समाज के निर्माण  की थी जिसमें हर कोई पूरी मानवीय गरिमा के साथ जीवन जी सके। वे सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक व सांस्कृतिक बराबरी के प्रबल समर्थक थे और इसके लिए वे चतुर्दिक क्रान्ति की लड़ाई एक साथ लड़े जाने पर जोर देते थे।

वर्मा जी ने वर्ष 1969 में अर्जक संघ का गठन किया था। अर्जक संघ अपने समय का सामाजिक क्रान्ति का ऐसा मंच था जिसने अंध विश्वास पर न सिर्फ हमला किया बल्कि उत्तर भारत में महाराष्ट्र और दक्षिण भारत की तरह सामाजिक न्याय का बिगुल फूंका। उन्हें उत्तर भारत का अम्बेडकर भी कहा गया। मंगलदेव विशारद और महाराज सिंह भारती जैसे तमाम समाजवादी वर्मा जी के साथ इस सामाजिक न्याय आंदोलन में जुड़े। अर्जक संघ ने पत्रिका का प्रकाशन भी किया। इस पत्रिका में प्रकाशित लेखों ने सामाजिक न्याय आंदोलन को गति प्रदान की।

वर्मा जी ने क्रान्ति और कैसे, ब्राह्मणवाद की शव-परीक्षा, अछूत समस्या और समाधान, ब्राह्मण महिमा क्यों और कैसे, मनुस्मृति राष्ट्र का कलंक, निरादर कैसे मिटे, अम्बेडकर साहित्य की जब्ती और कहानी, भण्डाफोड़, मानववादी प्रश्नोत्तरी जैसी महत्वपूर्ण पुस्तकें लिखी जो अर्जक प्रकाशन से प्रकाशित हुई। महाराज सिंह भारती व रामस्वरूप वर्मा की जोड़ी ‘मार्क्स और एंगेल्स’ जैसे वैचारिक मित्रों की जोड़ी थी और  दोनों का अंदाज बेबाक  और फकीराना था। दोनों किसान परिवार के थे और दोनों के दिलों में गरीबी, अपमान,अन्याय और शोषण की गहरी पीड़ा थी। महाराज सिंह भारती ने सांसद के रूप में पूरे विश्व का भ्रमण कर दुनिया के किसानों और उनके जीवन पद्धति का गहन अध्ययन किया और कई महत्वपूर्ण पुस्तकें लिखी।

बिहार के ‘लेनिन’ कहे जाने वाले जगदेव प्रसाद ने वर्मा जी के विचारों और उनके संघर्षशील व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उनके साथ मिलकर शोषित समाज दल का गठन किया। जगदेव बाबू के राजनेतिक संघर्ष से आंतकित होकर उनके राजनैतिक प्रतिद्वन्दियों ने उनकी हत्या करा दी। बाद में वर्मा जी ने जगदेव प्रसाद के संघर्षों को आगे बढ़ाने का काम किया ।

वर्मा जी राजनीति को समाजसेवा मानते थे। उनकी सोंच थी कि राजनीति को अर्थोपार्जन का माध्यम नहीं बनाना चाहिए। उन्होंने विधानसभामें विधायकों के वेतन भत्ते में बढ़ोत्तरी के प्रस्ताव का जबरदस्त विरोध ही नहीं किया वरन प्रस्ताव के पास होने पर बढ़े भत्ते को स्वीकार भी नहीं किया और इसे लेने से इंकार कर दिया।

वर्मा जी राजनीति में किसी जाति विशेष के उत्थान के लिए नहीं वरन देश का विकास करने के उद्देश्य  से आये। समाज व राजनीति में ब्राह्मणवादी व्यवस्था का उन्होंने पुरजोर विरोध किया। उनका मानना था कि दबी पिछड़ी और दलित जातियों के पराभव का कारण ब्राह्मणवाद है। अपने इसी चिंतन के चलते वे बुद्ध व अम्बेडकर के करीब आये। वे डा. लोहिया के राजनीतिक सहयोगी भी रहे। उन्होंने साम्यवाद से कुछ ग्रहण किया तो कुछ का त्याग भी किया। उनका मानना था कि ब्राह्मणवाद की मुक्ति के बिना पिछड़ा वर्ग अपना कल्याण नहीं कर सकता। उन्होंने ब्राह्मणवाद के असली चेहरे को कई ग्रंथों की रचनाकर बेनकाब भी किया।

वर्मा जी राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रबल समर्थक रहे। उनकी सोंच थी कि सभी सरकारी कार्यालयों में सभी कामकाज हिन्दी में होने चाहिए। वर्मा जी जब प्रदेश सरकार में वित्तमंत्री बने तो उन्होंने मंत्रालय में सभी अंग्रेजी टाइपराइटर्स हटवा दिये। उन्होंने अधिकारियों व कर्मचारियों को हिन्दी में ही कार्य करने का निर्देश दिया और स्वयं सभी कार्य हिन्दी में ही करते रहे।

बिहार के ‘लेनिन’ कहे जाने वाले जगदेव प्रसाद ने वर्मा जी के विचारों और उनके संघर्षशील व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उनके साथ मिलकर शोषित समाज दल का गठन किया। जगदेव बाबू के राजनेतिक संघर्ष से आंतकित होकर उनके राजनैतिक प्रतिद्वन्दियों ने उनकी हत्या करा दी। बाद में वर्मा जी ने जगदेव प्रसाद के संघर्षों को आगे बढ़ाने का काम किया । वर्मा जी का संपूर्ण जीवन देश और समाज को समर्पित था। उन्होंने “जिसमें समता की चाह नहीं/वह बढि़या इंसान नहीं, समता बिना समाज नहीं / बिन समाज जनराज नहीं’ जैसे कालजयी नारे गढ़े। उनका मानना था कि जनता अपने नेता को अपना आदर्श मानती है इसलिए सादगी, ईमानदारी, सिद्धान्तवादिता के साथ-साथ कर्तब्यनिष्ठा निहायत जरूरी है। उन्होंने विधायकों के वेतन बढ़ाये जाने का विधानसभा में हमेशा विरोध किया और स्वयं उसे कभी स्वीकार नहीं किया।

आज भारतवर्ष में राजनीतिक शून्यता का दौर चल रहा है। सत्ता प्राप्ति के लिए साम्प्रदायिक भावनाएं उभार कर वोट बैंक मजबूत करने की राजनीति की जा रही है। जमीनी कार्यकर्ताओं की उपेक्षा कर परिवारवाद को बढ़ावा दिया जा रहा है। राजनीति में अपराधी तत्वों के वर्चस्व से राजनीतिक सोच के ईमानदार लोग निष्क्रिय हो रहे है। अगर इस ओर ध्यान नहीं दिया गया और राजनीतिक दलों ने काम नहीं किया तो स्थिति भयावह हो जायेगी। आज के दौर में इस राजनीतिक संकट को दूर करने के लिए रामस्वरूप वर्मा के आदर्शों को अपनाना होगा। आज के दौर में अम्बेडकर, लोहिया  की तरह रामस्वरूप वर्मा भी प्रासंगिक हैं। इनके आदर्शो को आत्मसात करने से ही इस राजनीतिक संकट को दूर किया जा सकता है।

गाँव के लोग सोशल एंड एजुकेशनल ट्रस्ट ने उनकी स्मृति में ‘राम स्वरूप वर्मा स्मृति गाँव के लोग सम्मान स्थापना की और पहला सम्मान देश के जाने-माने विचारक, लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता प्रोफेसर राम पुनियानी को दिया गया।

 

गाँव के लोग
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